हजारी प्रसाद द्विवेदी
जन्म : सन् 1907, आरत दुबे का छपरा, बलिया (उत्तर प्रदेश)
प्रमुख रचनाएँ : अशोक के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क, कुटज, विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद(निबंध-संग्रह); बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा (उपन्यास); सूर साहित्य, कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की लालित्य-योजना, हिंदी साहित्य का आदिकाल, हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्यः उद्भव और विकास (आलोचना-साहित्येतिहास); संदेश रासक, पृथ्वीराजरासो, नाथ-सिद्धों की बानियाँ (ग्रंथ-संपादन); विश्व भारती (शांतिनिकेतन) पत्रिका का संपादन;
पुरस्कार व सम्मान : साहित्य अकादेमी (‘आलोक पर्व’ पर) भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’, लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट्
मृत्यु : सन् 1979, दिल्ली में
मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य
को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को
तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील
न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य कर्म भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, अपभंश, बांग्ला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के साथ इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की व्यापकता व गहनता में पैठ कर उनका अगाध पाडिंत्य नवीन मानवतावादी सर्जना और आलोचना की क्षमता लेकर प्रकट हुआ है। वे ज्ञान को बोध और पांडित्य की सहृदयता में ढाल कर एक ऐसा रचना-संसार हमारे सामने उपस्थित करते हैं जो विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है। इस प्रकार उनमें एक साथ कबीर, रवींद्रनाथ व तुलसी एकाकार हो उठते हैं। इसके बाद, उससे जो प्राणधारा फूटती है वह लोकधर्मी रोमैंटिक धारा है, जो उनके उच्च कृतित्व को सहजग्राह्य बनाए रखती है। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि जबरदस्त है। उसमें इस बात पर विशेष बल है कि भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग से उसका विकास हुआ है। उसकी मूल चेतना विराट मानवतावाद है, जिसके संस्पर्श से कला और साहित्य ही नहीं, यह संपूर्ण जीवन ही सौंदर्य व आनंद से परिपूर्ण हो उठता है।
द्विवेदी जी के सभी उपन्यास समाज के जात-पाँत और मज़हबों में विभाजन और आधी आबादी (स्त्री)के दलन की पीड़ा को सबसे बड़े सांस्कृतिक संकट के रूप पहचानने, रचने और सामंजस्य में समाधान खोजने का साहित्य है। वे स्त्री को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा शिकार मानते हैं तथा सांस्कृतिक ऐतिहासिक संदर्भ में उसकी पीड़ा का गहरा विश्लेषण करते हुए सरस श्रद्धा के साथ उसकी महिमा प्रतिष्ठित करते हैं – विशेषकर बाणभट्ट की आत्मकथा में। मानवता और लोक से विमुख कोई भी विज्ञान, तंत्र-मंत्र, विश्वास या सिद्धांत उन्हें ग्राह्य नहीं है और मानव की जिजीविषा और विजययात्रा में उनकी अखंड आस्था है। इसी से वे मानवतावादी साहित्यकार व समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
द्विवेदी जी का आलोचक व्यक्तित्व हिंदी-चिंताधारा की सहज लोक-परंपरा को पहचान लेता है और उसी से संबद्ध नाथों-सिद्धों और कबीर से हिंदी की साहित्य-परंपरा को जोड़ कर उसे एक प्रगतिशील मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है। भक्तिकाल को भारतीय चिंताधारा का सहज विकास मानने वाले इतिहासकार के रूप में उनकी भूमिका ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। द्विवेदी जी का निबंध-साहित्य इस अर्थ में बड़े महत्त्व का है कि साहित्य-दर्शन तथा समाज-व्यवस्था संबंधी उनकी कई मौलिक उद्भावनाएँ मूलतः निबंधों में ही मिलती हैं, पर यह विचार-सामग्री पांडित्य के बोझ से आक्रांत होने की जगह उसके बोध से अभिषिक्त हैं। अपने लेखन द्वारा निबंध-विधा को सर्जनात्मक साहित्य की कोटि में ला देने वाले द्विवेदी जी के ये निबंध व्यक्तित्व-व्यंजना और आत्मपरक शैली से युक्त हैं।
‘शिरीष के फूल’ पाठ का सामान्य परिचय
यहाँ प्रस्तुत ललित निबंध शिरीष के फूल लेखक के संग्रह कल्पलता से उद्धृत है। इसमें लेखक आँधी, लू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक, लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है। ऐसी भावधारा में बहते हुए उसे देह-बल के ऊपर आत्मबल का महत्त्व सिद्ध करने वाली इतिहास-विभूति गांधीजी की याद हो आती है तो वह गांधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से भी कसमसा उठता है। निबंध की शुरुआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता के जाल बुनता है, फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके ज़रिये मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता है फिर तत्कालीन जीवन व सामंती वैभव-विलास को सावधानी से उकेरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। लेखक अशोक के फूल के भूल जाने की तरह ही शिरीष को नज़रअंदाज़ किए जाने की साहित्यिक घटना से आहत है और इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्व-दर्शन भी होता है। उसके अनुसार योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि होने की एकमात्र शर्त है। ऐसा कवि ही समस्त प्राकृतिक और मानवीय वैभव में रमकर भी चुकता नहीं और निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
शिरीष के पुराने फलों की अधिकार-लिप्सु खड़खड़ाहट और नए पत्ते-फलों द्वारा उन्हें धकियाकर बाहर निकालने में लेखक साहित्य, समाज व राजनीति में पुरानी और नयी पीढ़ी के द्वंद्व को संकेतित करता है तथा स्पष्ट रूप से पुरानी पीढ़ी और हम सब में नयेपन के स्वागत का साहस देखना चाहता है। इस निबंध का शिल्प इसी में चर्चित इक्षुदंड की तरह है – सांस्कृतिक संदर्भों व शब्दावली की भड़कीली खोल के भीतर सहज भावधारा के मधुरस से युक्त। यह हर तरह से आस्वाद्य और प्रयोजनीय है तथा इस प्रकार लेखक के प्रतिनिधि निबंधों में से एक है।
‘शिरीष के फूल’ – प्रतिपादय-
‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध ‘कल्पलता’ से उद्धृत है। इसमें लेखक ने आँधी, लू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक, लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित किया है। ऐसी भावधारा में बहते हुए उसे देहबल के ऊपर आत्मबल का महत्व सिद्ध करने वाली इतिहास – विभूति गांधी जी की याद हो आती है तो वह गांधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से भी कसमसा उठता है।
निबंध की शुरुआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता के जाल बुनता है, फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके जरिये मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता (किसी स्थान विशेषतः किसी गहरे स्थान के अन्दर जाना या घुसना।) है, फिर तत्कालीन जीवन व सामंती वैभव-विलास को सावधानी से उकेरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। वह अशोक के फूल के भूल जाने की तरह ही शिरीष को नजरअंदाज किए जाने की साहित्यिक घटना से आहत है। इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्व- दर्शन भी होता है। उसका मानना है कि योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि होने की एकमात्र शर्त है। ऐसा कवि ही समस्त प्राकृतिक और मानवीय वैभव में रमकर भी चुकता नहीं और निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
पाठ का सारांश
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘शिरीष के फूल’ एक ललित निबंध है, जिसमें लेखक ने शिरीष के फूल की तुलना एक ऐसे अवधूत (अनासक्त योगी) से की है जो ग्रीष्म की भीषण तपन सहकर भी खिला रहता है। लेखक ने इसके माध्यम से मनुष्य को यह संदेश दिया है कि उसे विपरीत स्थितियों में भी घबराना नहीं चाहिए अपितु कठिन से कठिन संकट का भी उसी प्रकार से सामना करना चाहिए अपितु कठिन से कठिन संकट का भी उसी प्रकार से सामना करना चाहिए जैसे जेठ की तपती दोपहरी में शिरीष फूलों से लदकर झूमते हुए अपनी मंद सुगंध चारों ओर बिखेरता रहता है।
शिरीष की प्रशंसा करते हुए लेखक लिखता है कि शिरीष ऐसा वृक्ष है जो छायादार होने के साथ ही अपने फूलों की महक वसंत के आगमन से लेकर भादों तक बिखेरता रहता है। जेठ की प्रचंड गर्मी को भी वह अपने कोमल फूलों के साथ झूम-झूम कर व्यतीत कर लेता है। गर्मी में जब अन्य वनस्पतियाँ तथा फूल आदि सूख जाते हैं। शिरीष कालजयी अवधूत के समान लहलहाता हुआ जीवन की अजेयता का संदेश देता रहता है। शिरीष के फूलों को इतना अधिक कोमल माना गया है कि ये केवल भँवरों के पैरों का बोझ ही सहन कर सकते हैं, पक्षियों का नहीं। फिर भी ये भीषण गर्मी को आसानी से झेल जाते हैं। कबीर और कालिदास को भी लेखक शिरीष के समान मानता है जो मस्ती, फक्कड़पन और मादकता में शिरीष के फूल के समान हैं। वे इन्हें अनासक्त योगी मानता है क्योंकि अनासक्त ही कवि हो सकता है। कबीर का फक्कड़पन और कालिदास का सौंदर्यबोध एवं मनोरम कल्पनाएँ शिरीष के समान ही हैं। सुमित्रानंदन पंत और टैगोर की भी वह शिरीष जैसी अनासक्ति से युक्त मानता है।
शिरीष के फूल जहाँ बहुत कोमल होते हैं, इसके फल बहुत कठोर होते हैं। वे अगली वसंत के आने तक भी गिरते नहीं हैं बल्कि सूख कर खड़खड़ाते रहते हैं। उन्हें नए पत्ते और नये फल ही धकेल कर उसी प्रकार से गिरा देते हैं जैसे बूढ़े नेताओं द्वारा कुर्सी खाली न करने पर उन्हें नए नेता पीछे धकेल देते हैं। अपने इस कथन से लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि मनुष्य को अपनी अवस्था तथा स्थिति के अनुरूप कार्य करना चाहिए। समय की रफ्तार को पहचान कर स्वयं को उसी के अनुसार ढाल लेना चाहिए। अधिकार का लालच सदा नहीं बना रहना चाहिए। जिस प्रकार पुराने पत्ते झड़ जाते हैं तो नये पत्ते उनके स्थान पर आ जाते हैं उसी प्रकार से मनुष्य को भी कुर्सी से चिपके रहने के स्थान पर बुढ़ापा आने पर अपने उत्तराधिकारी की वह स्थान सौंप देना चाहिए। इस से युवा पीढ़ी को अनुभवी पीढ़ी को निर्देश में आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। जिस प्रकार बचपन, जवानी, बुढ़ापा और मृत्यु एक सत्य है उसी प्रकार से मृत्यु के स्वागत के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिए और उसके आकस्मिक रूप से आने से पहले ही सब प्रबंध कर देने चाहिए नहीं तो जैसे शिरीष के पुराने खड़खड़ाते फल को नये पत्ते और फल धकेल कर गिरा देते हैं वैसे ही अधिकार के लालची व्यक्ति को भी लोग धकेल देते हैं वह मनुष्य को गांधी जसै बनने के प्रेरणा देता है जो शिरीष के फूल के समान कोमल और शिरीष के फल के समान कठोर भी थें वे शिरीष के समान वातावरण से ही जीवन-वायु खींच कर संघर्ष करते हुए देश को स्वतंत्र कर सके थे।
इस प्रकार लेखक ने ‘शिरीष के फूल’ निबंध के माध्यम से मनुष्य को प्रेरित करते हुए यह कहा है कि उसे सुख-दुख में समभाव से रहते हुए जीवन संघर्ष से कभी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु शिरीष के समान वायुमंडल से ही जीवन रस प्राप्त कर विपरीत स्थितियों का सामना उसी प्रकार से मुस्कराते हुए करना चाहिए जैसे शिरीष के फलू भीषण गर्मी में भी लहलहाते रहते हैं। कबीर विपरीत स्थितियों में भी अपने फक्कड़पन से समाज को अपना संदेश सुनाते रहे, कालिदास अनासक्त भाव से अपने सौंदर्य निरूपण में लगे रहे, गांधी जी अपने आस-पास के वातावरण से जीवन-रस प्राप्त कर विपरीत स्थितियों का सामना करते हुए विदेशियों से देश-स्वतंत्र कराने में सफल हुए। अतः वही व्यक्ति जीवन में सफल तथा महान बन सकता है जो शिरीष के समान वायुमंडल से रस खींचकर विपरीत स्थितियों में भी लहलहाता रहे और कोमलता तथा कठोरता का सहज मिश्रण हो। क्योंकि ऐसे अवधूत ही महान साहित्यकार, समाज सुधारक अथवा जननायक बन सकते हैं।
शिरीष के फूल
जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस – पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पद्रंह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पद्रंह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़ – ‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास!’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है। यघपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ठूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल ज़रूर पैदा करते हैं।
शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत का रईस जिन मंगल-जनक वृक्षों को अपनी वृक्ष-वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाया करता था, उनमें एक शिरीष भी है। (वृहतसंहिता 55,13) अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष के छायादार और घनमसृण हरीतिमा से परिवेष्टित वृक्ष – वाटिका ज़रूर बड़ी मनोहर दिखती होगी। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में बताया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला(प्रेंखा दोला) लगाया जाना चाहिए। यघपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्या बुरा है! डाल इसकी अपेक्षाकृत कमज़ोर ज़रूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वज़न भी तो बहुत ज़्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें।
शिरीष का फूल संस्कृत-साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू-शुरू में प्रचार की होगी। उनका इस पुष्प पर कुछ पक्षपात था (मेरा भी है)। कह गए हैं, शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिलकुल नहीं – ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः पतत्रिणाम्।’ अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ? सिर्फ विरोध करने की हिम्मत न होती तो भी कुछ कम बुरा नहीं था, यहाँ तो इच्छा भी नहीं है। खैर, मैं दूसरी बात कह रहा था। शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मज़बूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार ज़माने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफ़सोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी – ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन हैं? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। ज़रूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी ज़रूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? कहते हैं कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने गर्वपूर्वक कहा था कि एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास। एक ने वेदों को दिया, दूसरे ने रामायण को और तीसरे ने महाभारत को। इनके अतिरिक्त और कोई यदि कवि होने का दावा करे तो मैं कर्णाट-राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ – ‘तेषां मूर्घ्नि ददामि वामचरणं कर्णाट-राजप्रिया!’ मैं जानता हूँ कि इस उपालंभ से दुनिया का कोई कवि हारा नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं कि कोई लजाया नहीं तो उसे डाँटा भी न जाए। पर मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो। शिरीष की मस्ती की ओर देखो। लेकिन अनुभव ने मुझे बताया है कि कोई किसी की सुनता नहीं। मरने दो!
कालिदास वज़न ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे – तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था – ‘वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्य!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शंकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शंकुंतला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शंकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा ‘राजोघान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’ फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है। शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन – धूप, वर्षा, आँधी, लू – अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून – खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब तब हूक उठती है – हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
शब्दार्थ
1. धरित्री- पृथ्वी
2. निर्धूम- धुआँरहित
3. कर्णिकार- कनेर का फूल
4. आरग्वध- अमलतास
5. पलाश- ढाक
6. खंखड़- रुखा, शुष्क
7. लंडूरे- बिना पूँछ वाला
8. निर्घात- बिना बाधा के
9. उमस- गर्मी
10. कालजयी- समय को पराजित करनेवाला
11. अवधूत- संन्यासी
12. हिल्लोल- लहर
13. अरिष्ट- रीठा
14. पुन्नाग- सदाबहार वन
15. घन मसृण- घना चिकना
16. परिवेष्टित- ढका हुआ
17. बकुल- एकवृक्ष
18. तुंदिल- जिसका पेट बहुत निकल गया हो
19. मर्मरित- सूखे पत्तों की आवाज़
20. जीर्ण- पुराना
21. ऊर्ध्वमुखी- प्रगति की ओर
22. दुरंत- जिसका विनाश मुश्किल हो
23. कालाग्नि- मृत्यु की आग
24. हज़रत- श्रीमान
25. अनासक्त- जो मोह-माया से ऊपर उठ गया हो
26. अनाविल- स्वच्छ
27. उन्मुक्त-संपूर्ण रूप से स्वतंत्र
28. कर्णाट- कर्नाटक
29. उपालंभ- उलाहना
30. दोला- झूला
31. प्रज्ञा- बुद्धि
32. कृपण- कंजूस
33. गंडस्थल- गाल
34. शुभ्र- सफ़ेद
35. मृणाल- कमल की डंडी
36. कृषीवल- किसान
37. ईक्षुदंड- गन्ना
38. गंतव्य- लक्ष्य
39. अभ्रभेदी- गगनचुंबी
40. कार्पण्य — कृपणता
पाठ के साथ
1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत(संन्यासी) की तरह क्यों माना है?
उत्तर – लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है। अवधूत वह संन्यासी होता है जो विषयवासनाओं से ऊपर उठ जाता है, सुख-दुख हर स्थिति में सहज भाव से प्रसन्न रहता है तथा फलता-फूलता है। वह कठिन परिस्थितियों में भी जीवन रस बनाए रखता है। इसी तरह शिरीष का वृक्ष है। वह भयंकर गरमी, उमस, लू आदि के बीच सरस रहता है। वसंत में वह लहक उठता है तथा भादों मास तक फलता-फूलता रहता है। उसका पूरा शरीर फूलों से लदा रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, तब भी शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है, वह काल व समय को जीतकर लहलहाता रहता है।
2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी ज़रूरी हो जाती है – प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर – मनुष्य एक सौंदर्य-प्रिय प्राणी है, अत: वह आंतरिक रूप से अत्यंत कोमल है। लेकिन जीवन के मार्ग में आने वाले संकटों और संघर्षों से जूझ सके इसलिए उसे कठोर रवैया अपनाना पड़ता है जो ज़रूरी भी है। उसी प्रकार शिरीष अपनी कोमलता को बचाने के लिए भीषण गर्मी की लू को सहन करने के लिए बाहर से कठोर स्वभाव अपनाता है, तब कहीं जाकर वह भयंकर गर्मी, धूप, आँधी को सहन कर पाता है। इसी प्रकार यहाँ लेखक ने संत कबीरदास, कालिदास का भी प्रसंग दिया है, जिन्हें अपने मन की कोमलता कायम रखने के लिए समाज की विपरीत और क्रूर परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपने व्यवहार को कठोर बनाना पड़ा था।
3. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
उत्तर – द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। शिरीष का वृक्ष भयंकर गरमी सहता है, फिर भी सरस रहता है। उमस व लू में भी वह फूलों से लदा रहता है। इसी तरह जीवन में चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ आएँ मनुष्य को सदैव संघर्ष करते रहना चाहिए। उसे हार नहीं माननी चाहिए। भ्रष्टाचार, अत्याचार, दंगे, लूटपाट के बावजूद उसे निराश नहीं होना चाहिए तथा प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाते रहना चाहिए।
4. हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?
उत्तर – लेखक कहते हैं कि आज शिरीष जैसे अवधूत नहीं रहे। जब-जब वह शिरीष को देखता है तब-तब उसके मन में ‘हूक-सी’ उठती है। वह कहता है कि प्रेरणादायी और आत्मविश्वास रखने वाले अब नहीं रहे और रहे भी हैं तो इतने कि जिन्हें उँगलियों पर गिना जा सके। अब तो केवल देह को प्राथमिकता देने वाले लोग रह रहे हैं। उनमें आत्मविश्वास बिल्कुल नहीं है। वे शरीर को महत्त्व देते हैं, मन को नहीं। इसीलिए लेखक – ऐसा कहकर आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है।
5. कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय – एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।
उत्तर – लेखक का मानना है कि कवि के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय का होना आवश्यक है। उनका कहना है कि महान कवि वही बन सकता है जो अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञ तथा विदग्ध प्रेमी की तरह सहृदय हो। केवल छंद बना लेने से कोई कवि तो हो सकता है, किंतु महाकवि नहीं हो सकता। संसार की अधिकतर सरस रचनाएँ अवधूतों के मुँह से ही निकलती हैं। लेखक कबीर व कालिदास को महान मानते हैं क्योंकि उनमें अनासक्ति का भाव है। जो व्यक्ति शिरीष के समान मस्त, बेपरवाह, फक्कड़, किंतु सरस व मादक है, वही महान कवि बन सकता है। सौंदर्य की परख एक सच्चा प्रेमी ही कर सकता है। वह केवल आनंद की अनुभूति के लिए सौंदर्य की उपासना करता है। कबीर और कालिदास में यह गुण भी विद्यमान था।
6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर – परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। मनुष्य को समयानुसार परिवर्तन करते रहना चाहिए। एक ही लीक पर चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है। शिरीष के फूल हमें यही सिखाते हैं। वह हर मौसम में अपने को और अपने स्वभाव को बदल लेता है। इसी कारण वह निर्लिप्त भाव से वसंत, आषाढ़ और भादों में खिला रहता है। प्रचंड लू और उमस को सहन करता है। लेकिन फिर भी खिला रहता है। फूलों के माध्यम से कोमल व्यवहार करता है तो फलों के माध्यम से कठोर व्यवहार। इसीलिए वह दीर्घजीवी बन जाता है। मनुष्य को भी ऐसा ही करना चाहिए।
7. आशय स्पष्ट कीजिए –
क) दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
उत्तर – लेखक कहते हैं कि संसार में जीवनी शक्ति और सब जगह समाई कालरूपी अग्नि में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। बुद्धिमान निरंतर संघर्ष करते हुए जीवनयापन करते हैं। संसार में मूर्ख व्यक्ति यह समझते हैं कि वे जहाँ हैं, वहीं देर तक डटे रहेंगे तो कालदेवता की नजर से बच जाएँगे। वे भोले हैं। उन्हें यह नहीं पता कि एक जगह बैठे रहने से मनुष्य का विनाश हो जाता है। लेखक गतिशीलता को ही जीवन मानता है। जो व्यक्ति हिलते डुलते रहते हैं, स्थान बदलते रहते हैं तथा प्रगति की ओर बढ़ते रहते हैं, वे ही मृत्यु से बच सकते हैं। लेखक जड़ता को मृत्यु के समान मानता है तथा गतिशीलता को जीवन।
ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?…मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
उत्तर – इस पंक्तियों का आशय सच्चे कवि बनने से है। लेखक के अनुसार यदि किसी को श्रेष्ठ कवि बनना है तो उसे अनासक्त और फक्कड़ बनना होगा। अनासक्ति से व्यक्ति तटस्थ भाव से निरीक्षण कर पाता है और फक्कड़ होने से वह सांसारिक आकर्षणों से दूर रहता है। जो अपने कार्यों का लेखा-जोखा, हानि-लाभ आदि मिलाने में उलझ जाता है, वह कवि नहीं बन पाता। लेखक आह्वान करते हुए कहता है कि यदि तुम सच्चा कवि बनना चाहते हो तो अपने स्वभाव को फक्कड़ बनाओ तथा उसमें अनासक्ति का भाव पैदा करो।
ग) फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
उत्तर – लेखक कहते हैं कि फल व पेड़ दोनों का अपना अस्तित्व है। वे अपने-आप में समाप्त नहीं होते। जीवन अनंत है। फल व पेड़, वे किसी अन्य वस्तु अर्थात् अन्य विचार को दिखाने के लिए उठी हुई उँगली के समान है। ये संकेत देते हैं कि जीवन में अभी बहुत कुछ है। सुंदरता व सृजन की कोई निश्चित सीमा नहीं है। हर युग में सौंदर्य व रचना का स्वरूप अलग हो जाता है।
पाठ के आस-पास
1. शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?
उत्तर – शिरीष का फूल प्रचंड गरमी में भी खिला रहता है। वह लू और उमस में भी जोर-शोर से खिलता है अर्थात् विषम परिस्थितियों में भी वह समता का भाव रखता है। इसीलिए लेखक ने शिरीष को शीतपुष्प कहा है जिसका अर्थ है ठंडक देने वाला फूल और शिरीष का फूल भयंकर गरमी में भी ठंडक प्रदान करता है।
2. कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधीजी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।
उत्तर – गांधी जी सत्य, अहिंसा, प्रेम आदि कोमल भावों से युक्त थे। वे दूसरे के कष्टों से द्रवित हो जाते थे। वे अंग्रेजों के प्रति भी कठोर न थे। दूसरी तरफ वे अनुशासन व नियमों के मामले में कठोर थे। वे अपने अधिकारों के लिए डटकर संघर्ष करते थे तथा किसी भी दबाव के आगे झुकते नहीं थे। ब्रिटिश साम्राज्य को उन्होंने अपनी दृढ़ता से ढहाया था। इस तरह गांधी के व्यक्तित्व की विशेषता कोमल व कठोर भाव बन गए थे।
3. आजकल अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग-सब्ज़ी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर – वाद – विश्व के सभी प्रमुख देशों में भारतीय फूलों की माँग सबसे ज्यादा है। टनों की मात्रा में भारतीय फूल अन्य देशों में निर्यात हो रहे, जिस कारण भारत सरकार के राजस्व में भी अतिशय वृद्धि हो रही है। भारतीय फूलों का स्तर बहुत ऊँचा है। इस क्वालिटी और इतने प्रकार के फूल अन्य स्थानों पर मिलना संभव-सा प्रतीत नहीं होता। इसकी खेती करके कुछ ही समय में अच्छा लाभ अर्जित किया जा सकता है। इसीलिए किसान लोग फूलों की खेती को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं। विवाद – चूँकि भारतीय फूल विदेश में निर्यात हो रहे हैं इसलिए लोगों को आकर्षण फूलों की खेती में ज्यादा हो गया है। इस कारण वे मूल फ़सलों का उत्पादन नहीं कर रहे जिससे अनिवार्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। अन्न उत्पादन लगातार कम होता जा रहा है। अपने थोड़े से लाभ के लिए किसान लोग करोड़ों देशवासियों को महँगी वस्तुएँ खरीदने पर मज़बूर कर रहे हैं। इसका सीधा असर गरीबों पर पड़ता है।
4. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पाठ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्त्व व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे हैं – कुटज, आम फिर बौरा गए, अशोक के फूल, देवदारु आदि। शिक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढ़िए और पढ़िए।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
5. द्विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है या उपेक्षामय? इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर – द्विवेदी जी का जीवन प्रकृति के उन्मुक्त आँगन में ज्यादा रमा है। प्रकृति उनके लिए शक्ति और प्रेरणा का स्रोत रही है इसीलिए उन्होंने अपने साहित्य में प्रकृति का चित्रण अधिक किया है। कवि का मानना है कि ये वनस्पतियाँ हमारे जीवन का आधार हैं। इनके बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है। कवि क्योंकि कुछ ज्यादा ही भावुक या संवेदनशील होता है, इसीलिए वह प्रकृति के प्रति ज्यादा संजीदा हो जाता है। मैं स्वयं प्रकृति के प्रति रुचिपूर्ण रवैया रखता हूँ। प्रकृति को जीवन शक्ति के रूप में ग्रहण करता हूँ। प्रकृति के महत्त्व को रेखांकित करते हुए पंत जी कहते हैं –
छोड़ द्रुमों की मृदुल छाया
बदले! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा हूँ लोचन?
यदि हम प्रकृति को सहेजकर रखेंगे तो हमारा जीवन सुगम और तनावरहित होगा। प्रकृति संजीवनी है। अतः इसकी उपेक्षा करना अपने अस्तित्व को खतरे में डालने जैसा है।
भाषा की बात
दस दिन फूले और फिर खंखड़-खंखड़ इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें।
ऐसे वाक्यांश निम्नलिखित हैं –
1. ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले।
2. धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।
3. न उधो का लेना, न माधो का देना
4. वयमपि कवय: कवय: कवयस्ते कालिदासाद्य।
इन्हें भी जानें
अशोक वृक्ष – भारतीय साहित्य में बहुचर्चित एक सदाबहार वृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों से मिलतें हैं। वसंत-ऋतु में इसके फूल लाल-लाल गुच्छों के रूप में आते हैं। इसे कामदेव के पाँच पुष्पवाणों में से एक माना गया हैं इसके फल सेम की तरह होते हैं। इसके सांस्कृतिक महत्त्व का अच्छा चित्रण हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने निबंध अशोक के फूल में किया है। भ्रमवश आज एक दूसरे वृक्ष को अशोक कहा जाता रहा है और मूल पेड़ (जिसका वानस्पतिक नाम सराका इंडिका है।) को लोग भूल गए हैं। इसकी एक जाति श्वेत फूलों वाली भी होती है।
अरिष्ठ वृक्ष – रीठा नामक वृक्ष। इसके पत्ते चमकीले हरे होते हैं। फल को सुखाकर उसके छिलके का चूर्ण बनाया जाता है, बाल धोने एवं कपड़े साफ करने के काम में आता है। पेड़ की डालियों व तने पर जगह-जगह काँटे उभरे होते हैं, जो बाल और कपड़े धोने के काम भी आता है।
आरग्वध वृक्ष – लोक में उसे अमलतास कहा जाता है। भीषण गरमी की दशा में जब इसका पेड़ पत्रहीन ठूँठ सा हो जाता है, पर इस पर पीले-पीले पुष्प गुच्छे लटके हुए मनोहर दृश्य उपस्थित करते हैं। इसके फल लगभग एक डेढ़ फुट के बेलनाकार होते हैं जिसमें कठोर बीज होते हैं।
शिरीष वृक्ष – लोक में सिरिस नाम से मशहूर पर एक मैदानी इलाके का वृक्ष है। आकार में विशाल होता है पर पत्ते बहुत छोट-छोटे होते है। इसके फूलों में पंखुड़ियों की जगह रेशे-रेशे होते हैं।
‘शिरीष के फूल’ पाठ से परीक्षोपयोगी बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न- 1 भीषण गर्मी और लू के बीच किस वृक्ष के फूल खिले रहते हैं ?
(क) अशोक
(ख) अमलतास
(ग) शिरीष
(घ) वट
उत्तर – (ग) शिरीष
प्रश्न-2 लेखक ने शिरीष की तुलना किससे की है?
(क) अवधूत से
(ख) गृहस्थ से
(ग) अग्नि से
(घ) सेवक से
उत्तर – (क) अवधूत से
प्रश्न – 3 संस्कृत साहित्य में शिरीष के फूल को क्या माना गया है?
(क) कठोर
(ख) ठंडा
(ग) स्वच्छ
(घ) कोमल
उत्तर – (घ) कोमल
प्रश्न-4 कालिदास ने शिरीष के फूलों के बारे में क्या लिखा है?
(क) शिरीष के फूल कठोर होते हैं।
(ख) केवल भौरों के पैरों का दबाव ही सह सकता है।
(ग) हलके और मजबूत होते हैं।
(घ) केवल चिड़ियों के पैरों का दबाव ही सह सकता है।
उत्तर – (ख) केवल भौरों के पैरों का दबाव ही सह सकता है।
प्रश्न-5 लेखक ने जगत के अति प्रामाणिक सत्य किसे माना है?
(क) जरा और मृत्यु को
(ख) धन और दौलत को
(ग) माया और मोह को
(घ) गृहस्थ और संन्यासी को
उत्तर – (क) जरा और मृत्यु को
प्रश्न – 6 संसार की सबसे सरस रचनाएँ किनके मुँह से निकली हैं?
(क) गृहस्थों के मुँह से
(ख) राजाओं के मुँह से
(ग) अवधूतों के मुँह से
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर – (ग) अवधूतों के मुँह से
प्रश्न- 7 कर्णाट राज की रानी विज्जिका ने किन्हें सर्वश्रेष्ठ कवि माना है?
(क) ब्रह्मा जी को
(ख) वेद व्यास जी को
(ग) वाल्मीकि जी को
(घ) इनमें से सभी को
उत्तर – (घ) इनमें से सभी को
प्रश्न-8 राजा दुष्यंत द्वारा शकुंतला के बनाए गए चित्र में क्या कमी रह गई थी ?
(क) शकुंतला की भौहें तिरछी थी।
(ख) कानों में शिरीष का फूल पहनाना भूल गए।
(ग) केश सज्जा ठीक से नहीं कर पाए।
(घ) गले का हार पहनाना भूल गए।
उत्तर – (ख) कानों में शिरीष का फूल पहनाना भूल गए।
प्रश्न- 9 लेखक ने सुमित्रानंदन पंत को क्यों महत्व दिया है?
(क) उन्होंने प्रकृति के सूक्ष्म रूप का चित्रण किया है।
(ख) लेखक से उनकी मित्रता थी।
(ग) दूसरे कवियों की तरह ही उन्होंने रचनाएँ की हैं।
(घ) कालिदास और सुमित्रानंदन पंत एक ही भाषा के कवि हैं।
उत्तर – (क) उन्होंने प्रकृति के सूक्ष्म रूप का चित्रण किया है।
प्रश्न-10 कालिदास शकुंतला का वर्णन करने में क्यों सफल रहे?
(क) क्योंकि उन्हें संस्कृत का ज्ञान था।
(ख) क्योंकि वे जंगल में अकेले रहते थे।
(ग) क्योंकि उन्हें भगवती काली का वरदान प्राप्त था।
(घ) क्योंकि वे विदग्ध, अनासक्त और स्थिर प्रश्नज्ञ प्रेमी थे।
उत्तर -(घ) क्योंकि वे विदग्ध, अनासक्त और स्थिर प्रश्नज्ञ प्रेमी थे।
‘शिरीष के फूल’ पाठ से परीक्षोपयोगी बहुविकल्पीय प्रश्न
1. लेखक ने शिरीष की तुलना किसके साथ की है?
(क). भिखारी के साथ
(ख). अवधूत के साथ
(ग). साधु के साथ
(घ). गृहस्थ के साथ
उत्तर : (ख). अवधूत के साथ
2. ‘शिरीष के फूल’ के रचयिता का क्या नाम है?
(क). डॉ० नगेन्द्र
(ख). रामवृक्ष बेनीपुरी
(ग). उदय शंकरभट्ट
(घ). आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
उत्तर : (घ). आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
3. आरग्वध किस पेड़ का नाम है?
(क). आम का
(ख). नीम का
(ग). अमलतास का
(घ). शिरीष का
उत्तर: (ग). अमलतास का
4. अमलतास कितने दिनों के लिए फूलता है?
(क). 15-20 दिन
(ख). 1-2 महीने
(ग). 2 सप्ताह
(घ). 4 सप्ताह
उत्तर : (क). 15-20 दिन
5. किस ऋतु के आने पर शिरीष लहक उठता है?
(क). शीत ऋतु
(ख). शिरीष ऋतु
(ग). वसंत ऋतु
(घ). वर्षा ऋतु
उत्तर: (ग). वसंत ऋतु
6. किस महीने तक शिरीष के फूल मस्त बने रहते हैं?
(क). चैत्र
(ख). वैसाख
(ग). ज्येष्ठ
(घ). आषाढ़
उत्तर: (घ). आषाढ़
7. शिरीष की डालें कैसी होती हैं?
(क). कमजोर
(ख). मजबूत
(ग). मोटी
(घ). पतली
उत्तर : (क). कमजोर
8. द्विवेदी जी ने ‘शिरीष के फूल’ नामक पाठक में संस्कृत के किस महान कवि का उल्लेख किया है?
(क). बाणभट्ट
(ख). भवभूति
(ग). कालिदास
(घ). भास
उत्तर : (ग). कालिदास
9. “धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना” कथन किस कवि का है?
(क). कबीरदास
(ख). सूरदास
(ग). तुलसीदास
(घ). बिहारी
उत्तर : (ग). तुलसीदास
10. कौन सपासप कोड़े चला रहा है?
(क). रावण
(ख). अत्याचारी राजा
(ग). ब्रह्मा
(घ). महाकाल देवता
उत्तर : (घ). महाकाल देवता
11. शिरीष का वृक्ष कहाँ से अपना रस खींचता है?
(क). पानी से
(ख). मिट्टी से
(ग). वायुमंडल से
(घ). खाद से
उत्तर (ग). वायुमंडल से
12. ‘मेघदूत’ किस कवि की रचना है?
(क). कालिदास
(ख). व्यास
(ग). वाल्मीकि
(घ). भवभूति
उत्तर : (क). कालिदास
13. कर्णाट-राज की कन्या का क्या नाम है?
(क). विजय देवी
(ख). लक्ष्मी देवी
(ग). पार्वती देवी
(घ). विज्जिका देवी
उत्तर : (घ). विज्जिका देवी
14. लेखक ने कबीर के अतिरिक्त और किस कवि को अनासक्त योगी कहा है?
(क). व्यास
(ख). ब्रह्मा
(ग). कालिदास
(घ). वाल्मीकि
उत्तर : (ग). कालिदास
15. ईक्षुदण्ड किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
(क). नीम के लिए
(ख). गन्ने के लिए
(ग). चावल के लिए
(घ). बाँस के लिए
उत्तर : (ख). गन्ने के लिए
16. अंत में लेखक ने शिरीष की तुलना किसके साथ की है?
(क). महात्मा गांधी
(ख). जवाहर लाल नेहरू
(ग). सरदार पटेल
(घ). लाल बहादुर शास्त्री
उत्तर : (क). महात्मा गांधी
17. शिरीष के फूल को किस भाषा में कोमल माना जाता है?
(क). संस्कृत
(ख). उर्दू
(ग). अंग्रेजी
(घ). हिब्रू
उत्तर : (क). संस्कृत
19: राजा दुष्यंत ने किसका चित्र बनाया था?
(क). मीरा
(ख). रत्ना
(ग). पद्मावती
(घ). शकुंतला
उत्तर : (घ). शकुंतला
20: शिरीष के फूल किन का दवाब सहन कर सकते हैं?
(क). साँप
(ख). भौंरो
(ग). गिद्धों
(घ). चूहों
उत्तर : (ख). भौंरो
21: कौन से महान कवि ने कहा है – बगीचे में घने छायादार वृक्षों में झूला लगाना चाहिए?
(क). वात्स्यायन
(ख). कालिदास
(ग). कबीर
(घ). पाश
उत्तर : (क). वात्स्यायन
22. लेखक का मानना है कि जिसे कवि बनना है, उसे पहले क्या बनने की ज़रूरत है?
(क). उदास
(ख). प्रेमी
(ग). फक्कड़
(घ). आज़ाद
उत्तर : (ग). फक्कड़
‘शिरीष के फूल’ पाठ से अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
प्रश्न 1. निबंधकार ने किस तरह कोमल और कठोर दोनों भावों का सम्मिश्रण शिरीष के माध्यम से किया है?
उत्तर: प्रत्येक वस्तु अथवा व्यक्ति में दो भाव एक साथ विद्यमान रहते हैं। उसमें कोमलता भी रहती है और कठोरता भी। संवेदनशील प्राणी कोमल भावों से युक्त होगा लेकिन समाज में अपने को बनाए रखने के लिए कठोर भावों का होना भी अनिवार्य है। ठीक यही बात शिरीष के फूल पर भी लागू होती है। यद्यपि संस्कृत साहित्य में शिरीष के फूल को अत्यंत कोमल माना गया है तथापि लेखक का कहना है कि इसके फल बहुत कठोर (मजबूत) होते हैं। वे नए फूलों के आ जाने पर भी नहीं निकलते, वहीं डटे रहते हैं।
प्रश्न 2. जीवन शक्ति का संदेश इस पाठ में छिपा हुआ है? कैसे? स्पष्ट करें।
उत्तर: द्विवेदी जी ने इस निबंध में फूलों के द्वारा जीवन शक्ति की ओर संकेत किया है। लेखक बताता है कि शिरीष का फूल हर हाल में स्वयं के अस्तित्व को बनाए रखता है। इस पर गरमी-लू आदि का कोई प्रभाव नहीं होता क्योंकि इसमें जीवन जीने की लालसा है। इसमें आशा का संचार होता रहता है। यह फूल तो समय को जीतने की क्षमता रखता है। विपरीत परिस्थितियों में जो जीना सीख ले उसी का जीवन सार्थक है।
प्रश्न 3. निबंधकार का अधिकार लिप्सा से क्या आशय है?
उत्तर : इस निबंध के एक प्रसंग में निबंधकार ने अधिकार लिप्सा की बात कही है। निबंधकार कहता है कि प्रत्येक में अधिकार लिप्सा होनी चाहिए लेकिन अधिकार लिप्सा का अर्थ यह नहीं है कि जीवनभर आप एक ही जगह जमे रहो, दूसरों को भी मौका देना चाहिए ताकि उनकी योग्यता को सिद्ध किया जा सके। “वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्पपत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह लड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की याद आती है जो किसी प्रकार ज़माने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं। मैं सोचता हूँ पुराने की यह अधिकार लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती?” इस तरह निबंधकार ने अधिकार भावना को नए अर्थों में प्रस्तुत कर इस निबंध की लालित्य योजना को प्रभावी बना दिया है।
प्रश्न 4. शिरीष, अवधूत और गांधी जी एक-दूसरे के समान कैसे हैं? पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक को महात्मा गांधी की याद आती है। शिरीष तरु अवधूत की तरह, बाहय परिवर्तन धूप, वर्षा, आँधी, लू-सब में शांत बना रहता है तथा पुष्पित-पल्लवित होता रहता है। इनकी तरह ही महात्मा गांधी भी मार-काट, अग्निदाह, लूटपाट, खून खच्चर को बवंडर के बीच स्थिर रह सके थे। इस समानता के कारण लेखक गांधी जी को याद करता है। जिस तरह शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल व कठोर हो सकता है, उसी तरह महात्मा गांधी भी कोमल-कठोर व्यक्तित्व वाले थे। यह वृक्ष और मनुष्य दोनों ही अवधूत हैं।