लेखक परिचय : रामधारी सिंह ‘दिनकर’
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 में सिमरिया, मुंगेर (बिहार) में एक सामान्य किसान ‘रवि सिंह’ तथा उनकी पत्नी ‘मनरूप देवी’ के पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर जी ने गाँव के ‘प्राथमिक विद्यालय’ से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। रामधारी सिंह दिनकर एक ओजस्वी राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कवि के रूप में जाने जाते थे। उनकी कविताओं में छायावादी युग का प्रभाव दिखाई देता है। वे सदैव युग चेतना के साथ चलते रहे। यही कारण है कि गाँधीवाद से प्रभावित होने पर भी उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र’ की रचना की तथा अन्याय और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाया। दिनकर के प्रथम तीन काव्य-संग्रह- ‘रेणुका’ (1935 ई.) ‘हुंकार’ (1938 ई.) और ‘रसवन्ती’ (1939 ई.) उनके आरंभिक आत्म-मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त कुरुक्षेत्र, रश्मि रथी, उर्वशी आदि काव्य ग्रंथ के अतिरिक्त गद्य साहित्य मिट्टी की ओर रेती के फूल, अर्धनारीश्वर, वेणुवन, संस्कृति के चार अध्याय आदि रचनाओं में दिनकर ने अपना अमिट प्रभाव छोड़ा है। दिनकर अपने युग के प्रमुखतम कवि ही नहीं, एक सफल और प्रभावपूर्ण गद्य लेखक भी थे। सरल भाषा और प्रांजल शैली में उन्होंने विभिन्न साहित्यिक विषयों पर निबंध के अलावा बोधकथा, डायरी, संस्मरण तथा दर्शन व इतिहासगत तथ्यों के विवेचन भी लिखे। 24 अप्रैल, 1974 को दिनकर जी अपने आपको अपनी कविताओं में हमारे बीच जीवित रखकर सदा के लिये अमर हो गये।
अर्धनारीश्वर
अर्धनारीश्वर शंकर और पार्वती का कल्पित रूप है, जिसका आधा अंग पुरुष का और आधा अंग नारी का होता है। एक ही मूर्ति की दो आँखें : एक रसमयी और दूसरी विकरालय एक ही मूर्ति की दो भुजाएँ : एक त्रिशूल उठाए हुए और दूसरी की पहुँची पर चूड़ियाँ और उँगलियाँ अलक्तक से लालय एवं एक ही मूर्ति के दो पाँव : एक जरीदार साड़ी से आवृत और दूसरा बाघम्बर से ढँका हुआ।
एक हाथ में डमरू, एक में वीणा परम उदार।
एक नयन में गरल, एक में संजीवन की धार।
जटाजूट में लहर पुण्य की, शीतलता – सुखकारी।
बालचन्द्र दीपित त्रिपुण्ड पर, बलिहारी, बलिहारी।
स्पष्ट ही, यह कल्पना शिव और शक्ति के बीच पूर्ण समन्वय दिखाने को निकाली गई होगी, किंतु इसकी सारी व्याप्तियाँ वहीं तक नहीं रुकतीं। अर्धनारीश्वर की कल्पना में कुछ इस बात का भी संकेत है कि नर-नारी पूर्ण रूप से समान है एवं उनमें से एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते अर्थात् नरों में नारियों के गुण आएँ तो इससे उनकी मर्यादा हीन नहीं होती, बल्कि उनकी पूर्णता में वृद्धि ही होती है।
किंतु पुरुष और स्त्री में अर्धनारीश्वर का यह रूप आज कहीं भी देखने में नहीं आता। संसार में सर्वत्र पुरुष पुरुष है और स्त्री स्त्री। नारी समझती है कि पुरुष के गुण सीखने से उसके नारीत्व में बट्टा लगेगा। इसी प्रकार, पुरुष भी स्त्रियोचित गुणों को अपनाकर समाज में स्त्रैण कहलाने से घबराता है। स्त्री और पुरुष के गुणों के बीच एक प्रकार का विभाजन हो गया है तथा विभाजन की रेखा को लाँघने में नर और नारी, दोनों को भय लगता है।
किंतु ऐसा लगता है कि गुणों का बँटवारा करते समय पुरुष ने नारी से उसकी राय नहीं पूछी, अपने मन से उसने जहाँ चाहा, नारी को बिठा दिया। स्वयं तो वह वृक्ष बन बैठा और नारी को उसने लता बना दिया। स्वयं तो वह वृंत बन गया और नारी को उसने कली मान लिया। तब से धूप पुरुष और चाँदनी नारी रही है। ग्रीष्म नर और वर्षा मादा रही है। विचार पति और भावना पत्नी रही है। जहाँ भी कर्म का कोई क्षेत्र है, अधिकार की कोई भूमि है और सत्ता का कोई सीधा उत्स है, उस पर कब्जा नारी का नहीं, नर का माना जाता है। नर है विधाता का मुख्य तन्तुवाय जो वस्त्र बुनकर तैयार करता है, नारी का काम उस वस्त्र पर रंग के छींटे डालना है। नर है कुदाल चलानेवाला बलशाली किसान जो मिट्टी तोड़कर अन्न उपजाता है, नारी का काम दानों को अछोरना-पछोरना है। नर है नदियों का वेगमय प्रवाह, नारी उसमें लहर बनकर उठती-गिरती रहती है। सिंहासन तो वस्तुतः राजा के लिए ही होता है। रानी उसके वामांग की शोभा मात्र है। सत्य है राजा की ग्रीवा और विशाल वक्षोदेश, रानी उन पर मन्दार-हार बनकर झूलने के लिए है। राजा काया और रानी छाया के प्रतीक है। सत्य का साकार रूप तो राजा ही होता है रानी है, कल्पना की रंगीन जाली और सपनों की मीठी मुसकान जो जीवन में उतरी तो वाह-वाह और नहीं उतरी तो वाह वाह ! कहावत चल पड़ी है।
पुरुष एनेछे दिवसेर ज्वाला तप्त रौद्र दाह।
कामिनी एनेछे यामिनी- शान्ति समीरण, वारिवाह।
दिवस की ज्वाला और तप्त धूप-ये पुरुष की लाई हुई चीजें हैं। कामिनी तो अपने साथ यामिनी की शान्ति लाती है।
किंतु कवि की यह कल्पना झूठी है। यदि आदिमानव और आदिमानवी आज मौजूद होते तो ऐसी कल्पना से सबसे अधिक आश्चर्य उन्हें ही होता और वे कदाचित कहते भी कि “आपस में धूप और चाँदनी का बँटवारा हमने नहीं किया था। हम तो साथ-साथ उनमें थे तथा धूप और चाँदनी में, वर्षा और आतप में साथ ही साथ घूमते भी थे। बल्कि आहार-संचय को भी हम साथ ही निकलते थे और अगर कोई जानवर हम पर टूट पड़ता तो हम एक साथ उसका सामना भी करते थे।”
उन दिनों नर बलिष्ठ और नारी इतनी दुर्बल नहीं थी, न आहार के लिए ही एक को दूसरे पर अवलम्बित रहना पड़ता था। नारी की पराधीनता तब आरंभ हुई जब मानव जाति ने कृषि का आविष्कार किया जिसके चलते नारी घर में और पुरुष बाहर रहने लगा। यहाँ से जिन्दगी दो टुकड़ों में बँट गई: घर का जीवन सीमित और बाहर का जीवन निस्सीम होता गया एवं छोटी जिन्दगी बड़ी जिन्दगी के अधिकाधिक अधीन होती चली गई। नारी की पराधीनता का यह संक्षिप्त इतिहास है।
नर और मादा पशुओं में भी थे और पक्षियों में भी। किंतु पशुओं और पक्षियों ने अपनी मादाओं पर आर्थिक परवशता नहीं लादी। लेकिन, मनुष्य की मादा पर यह पराधीनता आप से आप लद गई और इस पराधीनता ने नर-नारी से वह सहज दृष्टि भी छीन ली जिससे नर पक्षी अपनी मादा को या मादा अपने नर को देखती है। कृषि का विकास सभ्यता का पहला सोपान था, किंतु इस पहली ही सीढ़ी पर सभ्यता ने मनुष्य से भारी कीमत वसूल कर ली। आज प्रत्येक पुरुष अपनी पत्नी को फूलों का आनन्दमय भार समझता है और प्रत्येक पत्नी अपने पति को बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से लता अपने वृक्ष को देखती होगी।
इस पराधीनता के कारण नारी अपने अस्तित्व की अधिकारिणी नहीं रही। उसके सुख और दुःख, प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा, यहाँ तक कि जीवन और मरण पुरुष की मर्जी पर टिकने लगे। उसका सारा मूल्य इस बात पर ठहरा कि पुरुषों को उसकी कोई आवश्यकता है या नहीं। इसी से नारी की पद- मर्यादा प्रवृत्तिमार्ग के प्रचार से उठती और निवृत्ति मार्ग के प्रचार से गिरती रही है। जो प्रवृत्तिमार्गी हुए, उन्होंने नारी को गले से लगाया, क्योंकि जीवन से वे आनन्द चाहते थे और नारी आनन्द की खान थी। किंतु जो निवृत्तिमार्गी निकले, उन्होंने जीवन के साथ नारी को भी अलग ढकेल दिया, क्योंकि नारी उसके किसी काम की चीज नहीं थी। प्राचीन विश्व में जब वैयक्तिक मुक्ति की खोज मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी साधना मानी जाने लगी, तब झुंड के झुंड विवाहित लोग संन्यास लेने लगे और उनकी अभागिनी पत्नियों के सिर पर जीवित वैधव्य का पहाड़ टूटने लगा। जरा उन आँसुओं की कल्पना कीजिए जो उन अभागिनियों की आँखों से बहते होंगे, जिनके पति परमार्थ-लाभ के लिए उनका त्याग कर देते थे। जरा उस बेबसी को भी ध्यान में लाइए जो इस अनुभूति से उठती होगी कि आखिर जो संन्यास लेता है, वह निष्ठुर, कायर और कठोर नहीं, बल्कि पुण्यात्मा, साहसी और शायद सबसे बड़ा वीर है। और हाय री नारी! जो इन परिस्थितियों से हारकर, स्वेच्छया, अपने-आपको सचमुच ही, पुण्य की बाधा और पाप की खान मानकर पछाड़ खाकर रह जाती थी।
बुद्ध और महावीर ने कृपा करके नारियों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था, किंतु यह अधिकार भी नारी के हाथ सुरक्षित न रह सका। जैनों के बीच जब दिगम्बर-सम्प्रदाय निकला, तब धर्माचार्य नारियों की भिक्षुणी होने वाली बात से घबरा उठे और धर्म-पुस्तक में उन्होंने एक नये नियम का विधान किया कि नारियों का भिक्षुणी होना व्यर्थ है, क्योंकि मोक्ष नारी जीवन में नहीं मिल सकता। नारियाँ घर में ही रहकर दान-पुण्य करें और उस दिन की प्रतीक्षा करें जब उनका जन्म पुरुष- योनि में होगा। जब वे पुरुष होकर जनमेंगी, संन्यास वे तभी ले सकेंगी और तभी उन्हें मुक्ति भी मिलेगी और बुद्ध ने भी एक दिन आयुष्मान् आनन्द से, ईषत् पश्चात्ताप के साथ कहा कि ‘आनन्द ! मैंने जो धर्म चलाया था, वह पाँच सहस्त्र वर्ष तक चलनेवाला था, किंतु अब वह केवल पाँच सौ वर्ष चलेगा, क्योंकि नारियों को मैंने भिक्षुणी होने का अधिकार दे दिया है।’
धर्मसाधक महात्मा और साधु नारियों से भय खाते थे। विचित्र बात तो यह है कि इनमें से कई महात्माओं ने ब्याह भी किया और फिर नारियों की निन्दा भी की।
कबीर साहब का एक दोहा मिलता है:
नारी तो हम हूँ करी, तब ना किया विचार।
जब जानी तब परिहरी, नारी महा विकार॥
नारियों की यह अवहेलना हमारे अपने काल तक भी पहुँची है। बर्नार्ड शॉ ने नारी को अहेरिन और नर को अहेर माना है। तात्पर्य यह कि अहेर को अहेरिन के पाश से बचकर चलना चाहिए। बहुत नीचे के स्तर पर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उन कवियों की भी है जो नारी को ‘नागिन’ या ‘जादूगरनी’ समझते हैं। लेकिन ये सब झूठी बातें हैं, जिनकी ईजाद पुरुष इसलिए करता है कि उनसे उसे अपनी दुर्बलता अथवा कल्पित श्रेष्ठता के दुलराने में सहायता मिलती है। असल में, विकार नारी में भी है और नर में भी तथा नाग और जादूगर के गुण भी नारी में कम, पुरुष में अधिक होते हैं एवं आखेट तो मुख्यतः पुरुष का ही स्वभाव है।
इन सबसे भिन्न रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचन्द जैसे कवियों और रोमांटिक चिन्तकों में नारी का जो रूप प्रकट हुआ, वह भी उसकी अर्धनारीश्वरी रूप नहीं है। प्रेमचन्द ने कहा है कि ‘पुरूष जब नारी के गुण लेता है तब वह देवता बन जाता है। किंतु नारी जब नर के गुण सीखती है तब वह राक्षसी हो जाती है।’
इसी प्रकार, प्रसाद जी की इड़ा के विषय में यदि यह कहा जाए कि इड़ा वह नारी है जिसने पुरुषों के गुण सीखे हैं तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि प्रसाद जी भी नारी को पुरुषों के क्षेत्र से अलग रखना चाहते थे।
और रवीन्द्रनाथ का मत तो और भी स्पष्ट है। वे कहते हैं:
नारी यदि नारी हय।
शुधू शुधू धरणीर शोभा, शुधू आलो,
शुधू भालोवासा, शुधू सुमधुर छले,
शतरूप भंगिमाय पलके पलके
फुटाय – जड़ाए बन्दो बेंधे हैंसे केंदे
सेवाये सोहागे छेपे चेपे थाके सदा
तबे तार सार्थक जनम। की होइवे
कर्म – कीर्ति, वीर्यबल, शिक्षा-दीक्षा तार?
(अर्थात् नारी की सार्थकता उसकी भंगिमा के मोहक और आकर्षक होने में है, केवल पृथ्वी की शोभा, केवल आलोक, केवल प्रेम की प्रतिमा बनने में है। कर्मकीर्ति, वीर्यबल और शिक्षा-दीक्षा लेकर वह क्या करेगी?)
मेरा अनुमान है कि ऐसी प्रशस्तियों से ललनाएँ अभी भी बुरा नहीं मानतीं। सदियों की आदत और अभ्यास से उनका अन्तर्मन भी यही कहता है कि नारी जीवन की सार्थकता पुरुष को रिझाकर रखने में है। यह सुनना उन्हें बहुत अच्छा लगता है कि नारी स्वप्न है, नारी सुगन्ध है, नारी पुरुष की बाँह पर झूलती हुई जूही की माला है, नारी नर के वक्षस्थल पर मन्दार का हार है। किंतु यही वह पराग है जिसे अधिक-से-अधिक उँडेलकर, हम नवयुग के पुरुष, नारियों के भीतर उठनेवाले स्वातंत्र्य के स्फुलिंगों को मन्द रखना चाहते हैं।
पतियों का अभिशप्त काल समाप्त हो गया। अब नारी विकारों की खान और पुरुषों की बाधा नहीं मानी जाती है। वह प्रेरणा का उद्गम, शक्ति का स्रोत और पुरुषों की क्लान्ति की महौषधि हो उठी है। फिर भी, नारी अपनी सही जगह पर नहीं पहुँची है। पुरुष नारी से अब यह कहने लगा है कि ‘तुम्हें घर से बाहर निकलने की क्या जरूरत है? कमाने को मैं अकेला काफी हूँ। तुम घर बैठे खर्च किया करो।’ किंतु इतना ही यथेष्ट नहीं है। नारियों को सोचना चाहिए कि पुरुष ऐसा कहता क्यों है। स्पष्ट ही, इसलिए कि नारी को वह अपनी क्रीड़ा की वस्तु मानता है, आराम के समय अपने मनोविनोद का साधन समझता है। इसलिए वह नहीं चाहता कि आनन्द की इतनी अच्छी मूर्ति पर थोड़ी भी धूल या थोड़ा भी धुएँ का धब्बा लगे।
नारी और नर एक ही द्रव्य की ढली दो प्रतिमाएँ हैं। आरम्भ में दोनों बहुत कुछ समान थे। आज भी प्रत्येक नारी में कहीं-न-कहीं कोई नर प्रच्छन्न है और प्रत्येक नर में कहीं-न-कहीं एक क्षीण नारी छिपी हुई है। किंतु सदियों से नारी अपने भीतर के नर को और नर अपने भीतर की नारी को बेतरह दबाता आ रहा है। परिणाम यह है कि आज सारा जमाना ही मरदाना मर्द और औरतानी औरत का जमाना हो उठा है। पुरुष इतना कर्कश और कठोर हो उठा है कि युद्धों में अपना रक्त बहाते समय उसे यह ध्यान भी नहीं रहता कि रक्त के पीछे जिनका सिन्दूर बहनेवाला है, उनका क्या हाल होगा। और न सिन्दूरवालियों को ही इसकी फिक्र है कि और नहीं तो, उन जगहों पर तो उनकी राय खुले जहाँ सिन्दूर पर आफत आने की आशंका है। कौरवों की सभा में यदि सन्धि की वार्ता कृष्ण और दुर्योधन के बीच न होकर कुन्ती और गांधारी के बीच हुई होती, तो बहुत सम्भव था कि महाभारत नहीं मचता। किंतु कुन्तियाँ और गांधारियाँ तब भी निश्चेष्ट थीं और आज भी निश्चेष्ट हैं। बल्कि द्वापर से कलिकाल तक पहुँचते-पहुँचते वे अपने भीतर की नरता का और भी अधिक दलन कर चुकी हैं। जहाँ कहीं फूलों का प्रदर्शन और रेशमी वस्त्रों की हाट है, नारियाँ अपने मन से वहीं जमा होती हैं। जिन कांडों से फूलों के बाग उजड़ते और रेशमी वस्त्रों के बाजार जलकर खाक हो जाते हैं, उनके संचालन और नियंत्रण का सारा भार उन्होंने पुरुषों पर डाल रखा है। आधी दुनिया उछलने-कूदने, आग लगाने और उसे बुझाने में लगी हुई है और आधी दुनिया फूलों की सैर में है।
नर-नारी के प्रचलित संबंधों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव संसार के इतिहास पर पड़ रहा है और जब तक ये संबंध नहीं सुधरते, शान्ति के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर नहीं होगी। नारी कोमलता की आराधना करते- करते इतनी कोमल हो गई है कि अब उसे दुर्बल कहना चाहिए। उसने पौरुष से अपने-आपको इतना विहीन बना लिया है कि कर्म के बड़े क्षेत्रों में पाँव धरते ही उसकी पत्तियाँ कुम्हलाने लगती हैं और पुरुष में कोमलता की जो प्यास है, उसे नारी भली भाँति शान्त कर देती है। फिर पुरुष अपने भीतर कोमलता का विकास क्यों करें।
इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता वह नहीं है जिसे रोमांटिक कवियों और चिन्तकों ने बतलाया है, बल्कि वह जिसकी ओर संकेत गांधी और मार्क्स करते हैं। निवृत्ति मार्गियों की तरह नारी से दूर भागने की बात निरी मूर्खता की बात है और भोगवादियों के समान नारी को निरे भोग की वस्तु मान बैठना और भी गलत है। नारी केवल नर को रिझाने अथवा उसे प्रेरणा देने को नहीं बनी है। जीवन-यज्ञ में उसका भी अपना हिस्सा है और वह हिस्सा घर तक ही सीमित नहीं, बाहर भी है। जिसे भी पुरुष अपना कर्मक्षेत्र मानता है, वह नारी का भी कर्मक्षेत्र है। नर और नारी, दोनों के जीवनोद्देश्य एक है। यह अन्याय है कि पुरुष तो अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनमाने विस्तार का क्षेत्र अधिकृत कर ले और नारियों के लिए घर का छोटा कोना छोड़ दे।
जीवन की प्रत्येक बड़ी घटना केवल पुरुष प्रवृत्ति से नियंत्रित और संचालित होती है। इसीलिए उसमें कर्कशता अधिक, कोमलता कम दिखाई देती है। यदि इस नियंत्रण और संचालन में नारियों का भी हाथ हो तो मानवीय संबंधों में कोमलता की वृद्धि अवश्य होगी।
यही नहीं, प्रत्युत, प्रत्येक नर को एक हद तक नारी और प्रत्येक नारी को एक हद तक नर बनाना भी आवश्यक है। गाँधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में नारीत्व की भी साधना की थी। उनकी पोती ने उन पर जो पुस्तक लिखी है, उसका नाम ही ‘बापू, मेरी माँ’ है। दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता, ये स्त्रियोचित गुण कहे जाते हैं। किंतु, क्या इन्हें अंगीकार करने से पुरुष के पौरुष में कोई दोष आनेवाला है? दया, माया और सहिष्णुता ही नहीं, भीरुता का भय एक अच्छा पक्ष है जो मनुष्य को अनावश्यक विनाश से बचाता है। उसी प्रकार अध्यवसाय, साहस और शूरता का वरण करने से भी नारीत्व की मर्यादा नहीं घटती।
अर्धनारीश्वर केवल इसी बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी कि पुरुष में नारीत्व की ज्योति जगे, और यह कि प्रत्येक नारी में भी पौरुष का स्पष्ट आभास हो।
मही माँगती प्राण-प्राण में सजी कुसुम की क्यारी,
स्वप्न स्वप्न में गूंज सत्य की, पुरुष पुरुष में नारी (1954 ई.)
(‘वेणुवन’ पुस्तक से)
शब्दार्थ
शब्द (Word) | हिन्दी अर्थ (Hindi Meaning) | बांग्ला अर्थ (Bengali Meaning) | अंग्रेज़ी अर्थ (English Meaning) |
अर्धनारीश्वर | आधा नर और आधा नारी का स्वरूप, शिव और पार्वती का संयुक्त रूप। | অর্ধেক পুরুষ এবং অর্ধেক নারী রূপ, শিব ও পার্বতীর মিলিত রূপ। | Androgynous form, the combined form of Shiva and Parvati. |
कल्पित | कल्पना किया हुआ, मनगढ़ंत। | কল্পিত, মনগড়া। | Imaginary, conceived, fictitious. |
विकराल | भयानक, डरावना, बड़ा और भयंकर। | ভয়ানক, ভয়ঙ্কর, বিশাল ও ভয়ংকর। | Formidable, terrifying, monstrous. |
अलक्तक | महावर, लाली, लाल रंग का द्रव। | আলতা, লাল রঙ। | Lac dye, red dye. |
बाघम्बर | बाघ की खाल, बाघ की चर्म। | বাঘের চামড়া, বাঘের ত্বক। | Tiger skin. |
व्याप्तियाँ | फैलाव, विस्तार, फैले हुए अर्थ। | ব্যাপ্তি, বিস্তার, বিস্তৃত অর্থ। | Pervasions, extensions, implications. |
समन्वय | मेल, सामंजस्य, एकरूपता। | সমন্বয়, সামঞ্জস্য, একতা। | Coordination, harmony, synthesis. |
मर्यादा | सीमा, प्रतिष्ठा, मान। | মর্যাদা, সম্মান, সীমা। | Dignity, decorum, limit. |
हीन | कम, निम्न, तुच्छ। | হীন, নীচ, তুচ্ছ। | Inferior, low, mean. |
स्त्रैण | स्त्री के स्वभाव वाला, स्त्री जैसा। | স্ত্রীর স্বভাবের, স্ত্রীসুলভ। | Effeminate, womanish. |
वृंत | डंठल, पेड़ का तना। | বৃন্ত, গাছের ডাল। | Stalk, stem, pedicel. |
तन्तुवाय | बुनकर, कपड़े बुनने वाला। | তন্তুবায়, কাপড় বোনার কারিগর। | Weaver. |
अछोरना-पछोरना | अनाज साफ करना, फटकना। | শস্য পরিষ্কার করা, ঝাড়াই-বাছাই করা। | To winnow, to clean grains. |
वामांग | बाईं ओर का अंग, पत्नी। | বাম অঙ্গ, স্ত্রী। | Left side (often referring to wife’s position). |
ग्रीवा | गर्दन। | গ্রীবা, ঘাড়। | Neck. |
वक्षोदेश | छाती का ऊपरी भाग, सीना। | বক্ষদেশ, বুক। | Chest, bosom. |
मन्दार-हार | मंदार फूलों की माला। | মন্দার ফুলের মালা। | Garland of Mandar flowers. |
काया | शरीर, देह। | কায়া, শরীর। | Body, physical form. |
छाया | परछाईं, प्रतिरूप। | ছায়া, প্রতিচ্ছবি। | Shadow, reflection. |
आतप | धूप, गरमी। | আতপ, রোদ, উত্তাপ। | Sunshine, heat. |
अवलम्बित | निर्भर, आश्रित। | নির্ভরশীল, আশ্রিত। | Dependent, reliant. |
परवशता | दूसरों के अधीन होना, गुलामी। | পরাধীনতা, দাসত্ব। | Subservience, dependence. |
सोपान | सीढ़ी, पायदान। | সোপান, সিঁড়ি। | Step, rung (of a ladder). |
कीमत वसूल कर ली | भारी मूल्य चुकाना पड़ा। | চড়া মূল্য দিতে হয়েছে। | Had to pay a heavy price. |
प्रवृत्तिमार्ग | गृहस्थ जीवन का मार्ग, सांसारिक मार्ग। | প্রবৃত্তিমার্গ, গার্হস্থ্য জীবনের পথ। | Path of engagement with worldly life. |
निवृत्ति मार्ग | संन्यास का मार्ग, सांसारिकता से विरक्ति। | নিবৃত্তিমার্গ, সন্ন্যাসের পথ। | Path of renunciation, detachment from worldly life. |
अभागिनी | भाग्यहीन, अभागी। | অভাগিনী, হতভাগী। | Unfortunate, ill-fated. |
वैधव्य | विधवापन, पति के मरने की अवस्था। | বৈধব্য, বিধবত্ব। | Widowhood. |
परमार्थ-लाभ | आध्यात्मिक लाभ, मोक्ष प्राप्ति। | পরমার্থ-লাভ, মোক্ষ প্রাপ্তি। | Spiritual gain, attainment of salvation. |
निष्ठुर | कठोर, निर्दयी। | নিষ্ঠুর, নির্দয়। | Cruel, ruthless. |
पुण्यात्मा | पवित्र आत्मा वाला। | পুণ্যবান আত্মা। | Virtuous soul. |
स्वेच्छया | अपनी इच्छा से, स्वयं। | স্বেচ্ছায়, নিজের ইচ্ছায়। | Voluntarily, of one’s own free will. |
दलन | कुचलना, दबाना, नाश करना। | দমন, নিষ্পেষণ, ধ্বংস করা। | Suppression, crushing, destruction. |
निश्चेष्ट | निष्क्रिय, बिना प्रयत्न के। | নিশ্চেষ্ট, নিষ্ক্রিয়। | Inactive, inert. |
हाट | बाजार, मेला। | হাট, বাজার। | Market, fair. |
प्रच्छन्न | छिपा हुआ, गुप्त। | প্রচ্ছন্ন, লুকানো। | Hidden, concealed. |
क्षीण | कमजोर, पतला, दुर्बल। | ক্ষীণ, দুর্বল, পাতলা। | Weak, slender, attenuated. |
मरदाना मर्द | मर्दाना गुणों वाला पुरुष, अत्यधिक पुरुषत्व। | পুরুষালী পুরুষ, অত্যধিক পৌরুষ। | Manly man, overly masculine. |
औरतानी औरत | स्त्री के गुणों वाली स्त्री, अत्यधिक स्त्रैणत्व। | মেয়েলি মেয়ে, অত্যধিক নারীসুলভ। | Feminine woman, overly feminine. |
कर्कश | कठोर, रूखा, अप्रिय। | কর্কশ, রুক্ষ, অপ্রিয়। | Harsh, rough, unpleasant. |
सिन्दूर बहनेवाला | विधवा होना, पति का निधन होना। | সিঁদুর মুছে যাওয়া, বিধবা হওয়া। | To become a widow, loss of husband. |
सैर | घूमना, भ्रमण। | ভ্রমণ, ঘোরাঘুরি। | Stroll, outing. |
कोमलता | नरमी, मृदुता। | কোমলতা, নমনীয়তা। | Gentleness, tenderness. |
पौरुष | पुरुषत्व, मर्दानगी, बल। | পৌরুষ, পুরুষত্ব, শক্তি। | Manliness, virility, strength. |
विहीन | रहित, बिना। | বিহীন, ছাড়া। | Devoid of, without. |
पत्तियाँ कुम्हलाने लगती हैं | हिम्मत पस्त होना, हार मान लेना। | সাহস ভেঙে যাওয়া, হাল ছেড়ে দেওয়া। | To lose courage, to wither (metaphorical). |
क्लान्ति | थकान, थकावट। | ক্লান্তি, অবসাদ। | Fatigue, weariness. |
महौषधि | महान औषधि, रामबाण। | মহৌষধ, মহৌষধি। | Great medicine, panacea. |
क्रीड़ा की वस्तु | खेलने की चीज, मनोरंजन का साधन। | খেলার জিনিস, মনোরঞ্জনের উপকরণ। | Plaything, object of amusement. |
मनोविनोद | मन बहलाना, मनोरंजन। | মনোবিনোদন, বিনোদন। | Recreation, entertainment. |
द्रव | पदार्थ, वस्तु। | দ্রব্য, পদার্থ। | Substance, material. |
स्फुलिंगों | चिनगारियों, चिंगारियाँ। | স্ফুলিঙ্গ, অগ্নিকণা। | Sparks. |
अभिशप्त | शापित, दुर्भाग्यपूर्ण। | অভিশপ্ত, দুর্ভাগ্যপূর্ণ। | Cursed, accursed. |
अधीकारिणी | अधिकार रखने वाली, स्वामिनी। | অধিকারিণী, স্বামিনী। | Possessor, rightful owner. |
भीरुता | कायरता, डरपोकपन। | ভীরুতা, কাপুরুষতা। | Cowardice, timidity. |
अध्यवसाय | परिश्रम, लगन। | অধ্যবসায়, প্রচেষ্টা। | Perseverance, diligence. |
शूरता | वीरता, बहादुरी। | শূরতা, বীরত্ব। | Valour, bravery. |
वरण | चुनना, स्वीकार करना। | বরণ, গ্রহণ করা। | To choose, to accept. |
आभास | झलक, प्रतीति, अहसास। | আভাস, প্রতীত। | Glimpse, semblance, indication. |
कुसुम | फूल। | কুসুম, ফুল। | Flower. |
‘अर्धनारीश्वर’ निबंध की व्याख्या
प्रस्तावना
यह निबंध ‘अर्धनारीश्वर’ की अवधारणा पर आधारित है, जो भगवान शंकर और देवी पार्वती का एक कल्पित संयुक्त रूप है। इसमें एक ही मूर्ति का आधा अंग पुरुष का और आधा नारी का है, जिसमें विभिन्न प्रतीकात्मक विशेषताएँ हैं जैसे रसमयी और विकराल आँखें, त्रिशूल और चूड़ियों वाली भुजाएँ, तथा जरीदार साड़ी और बाघम्बर से ढँके पैर। यह रूप शिव और शक्ति के पूर्ण समन्वय को दर्शाता है, लेकिन इसका गहरा अर्थ यह भी है कि नर और नारी समान हैं और उनमें एक-दूसरे के गुणों का समावेश होना चाहिए, जिससे उनकी पूर्णता बढ़ती है।
लिंग असमानता और उसका उद्भव
लेखक कहते हैं कि आज संसार में अर्धनारीश्वर का यह सामंजस्यपूर्ण रूप कहीं नहीं दिखता। समाज में पुरुष और स्त्री के गुण अलग-अलग बाँट दिए गए हैं, और कोई भी अपनी भूमिका से बाहर निकलने से डरता है। पुरुष ने अपने मनमाने ढंग से नारी को अधीनस्थ बना दिया है – उसे लता, कली, चाँदनी, वर्षा और भावना के प्रतीक के रूप में देखा गया है, जबकि स्वयं को वृक्ष, वृंत, धूप, ग्रीष्म और विचार के रूप में स्थापित किया है। कर्म और सत्ता के सभी क्षेत्रों पर पुरुष का एकाधिकार माना गया है। यह विचार कि पुरुष दिन की ज्वाला और धूप लाता है, जबकि नारी रात की शांति लाती है, कवि की एक झूठी कल्पना है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
लेखक बताते हैं कि आदिमानव और आदिमानवी में ऐसा कोई विभाजन नहीं था। वे धूप और चाँदनी, वर्षा और आतप में साथ-साथ रहते थे, आहार-संचय करते थे और जानवरों का सामना भी साथ मिलकर करते थे। नारी की पराधीनता का आरंभ कृषि के आविष्कार से हुआ। जब पुरुष बाहर काम करने लगा और नारी घर तक सीमित हो गई, तो जीवन दो टुकड़ों में बँट गया – घर का जीवन सीमित और बाहरी जीवन असीमित हो गया। पशुओं और पक्षियों ने अपनी मादाओं पर आर्थिक परवशता नहीं लादी, लेकिन मनुष्य की सभ्यता की पहली सीढ़ी पर ही यह पराधीनता नारी पर थोप दी गई, जिससे नारी अपने अस्तित्व की अधिकारिणी नहीं रही।
धार्मिक दृष्टिकोण और नारी की अवहेलना
पराधीनता के कारण नारी का मूल्य पुरुषों की आवश्यकता पर निर्भर हो गया। प्रवृत्तिमार्गी अर्थात् गृहस्थ लोगों ने नारी को आनंद का स्रोत मानकर अपनाया, जबकि निवृत्तिमार्गी अर्थात् संन्यासी लोगों ने उसे जीवन से अलग कर दिया। प्राचीन काल में जब मोक्ष की खोज प्रमुख हुई, तो कई पुरुषों ने संन्यास ले लिया, जिससे उनकी पत्नियों पर जीवित वैधव्य का पहाड़ टूट पड़ा।
बुद्ध और महावीर ने नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था, लेकिन यह भी सुरक्षित नहीं रह सका। जैनों के दिगम्बर-सम्प्रदाय ने कहा कि नारी जीवन में मोक्ष नहीं मिल सकता, उन्हें पुरुष योनि में जन्म लेने तक इंतजार करना चाहिए। यहाँ तक कि बुद्ध ने भी पश्चात्ताप के साथ कहा कि नारियों को भिक्षुणी बनाने से उनके धर्म की अवधि कम हो जाएगी। कई महात्माओं ने विवाह करके भी नारियों की निंदा की, जैसा कि कबीर के दोहे में दिखता है। बर्नार्ड शॉ ने भी नारी को ‘अहेरिन’ और पुरुष को ‘अहेर’ माना। लेखक इन विचारों को पुरुषों की दुर्बलता छिपाने का बहाना मानता है, क्योंकि विकार और आखेट (शिकार) का स्वभाव पुरुष में भी होता है।
आधुनिक विचारकों का मत और भविष्य की दिशा
रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचंद जैसे आधुनिक विचारकों ने भी नारी के अर्धनारीश्वरी रूप को स्वीकार नहीं किया। प्रेमचंद ने कहा कि पुरुष नारी के गुण सीखकर देवता बनता है, पर नारी नर के गुण सीखकर राक्षसी हो जाती है। रवीन्द्रनाथ ने नारी की सार्थकता उसकी मोहकता और प्रेम की प्रतिमा बनने में मानी, न कि कर्म या शिक्षा में। लेखक का मानना है कि ऐसी प्रशंसाएँ नारियों को अभी भी आकर्षित करती हैं, जिससे उनके भीतर उठने वाली स्वतंत्रता की चिनगारियाँ मंद पड़ जाती हैं।
लेखक यह भी कहते हैं कि अब पतियों का अभिशप्त काल समाप्त हो गया है, और नारी प्रेरणा का स्रोत व शक्ति का उद्गम मानी जाती है। फिर भी, वह अपनी सही जगह पर नहीं पहुँची है। पुरुष अब भी नारी को घर तक सीमित रखना चाहता है, उसे अपनी मनोविनोद की वस्तु मानता है।
संतुलन की आवश्यकता
लेखक निष्कर्ष निकालते हैं कि नर और नारी एक ही द्रव्य की दो प्रतिमाएँ हैं। सदियों से दोनों ने अपने भीतर के विपरीत लिंगी गुणों को दबाया है, जिससे पुरुष कर्कश और नारी दुर्बल हो गई है। इसका परिणाम यह है कि दुनिया की आधी आबादी युद्ध और संघर्ष में लगी है, जबकि आधी फूलों की सैर में। इन संबंधों के सुधरे बिना विश्व शांति संभव नहीं है।
लेखक गांधी और मार्क्स के दृष्टिकोण को समाधान मानता है। गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में नारीत्व की साधना की थी, जिसे उनकी पोती ने अपनी पुस्तक “बापू, मेरी माँ” में गांधीजी को माँ कहा है। दया, माया और सहिष्णुता जैसे नारी गुण पुरुष को अपनाने चाहिए और साहस, शूरता जैसे पुरुष गुण नारी को। यह समन्वय अर्धनारीश्वर का सच्चा रूप है, जो नर और नारी को पूर्ण बनाता है।
लेखक का अंतिम विचार है कि प्रत्येक नर को एक हद तक नारी और प्रत्येक नारी को एक हद तक नर बनना आवश्यक है। दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता जैसे स्त्रियोचित गुण पुरुषों के पौरुष को कम नहीं करते, बल्कि उसे पूर्णता देते हैं। इसी प्रकार, अध्यवसाय, साहस और शूरता का वरण करने से नारीत्व की मर्यादा नहीं घटती। अर्धनारीश्वर केवल अधूरेपन का प्रतीक नहीं, बल्कि इस बात का भी प्रतीक है कि पुरुष में नारीत्व की ज्योति जले और नारी में पौरुष का आभास हो।
‘अर्धनारीश्वर’ से जुड़े बहुविकल्पीय प्रश्न
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर किसका संयुक्त रूप है?
अ) विष्णु और लक्ष्मी
ब) शिव और पार्वती
स) ब्रह्मा और सरस्वती
द) इंद्र और इंद्राणी
उत्तर – ब) शिव और पार्वती - प्रश्न – अर्धनारीश्वर की मूर्ति में एक हाथ में क्या होता है?
अ) कमल
ब) डमरू
स) गदा
द) चक्र
उत्तर – ब) डमरू - प्रश्न – अर्धनारीश्वर में नारी अंग की विशेषता क्या है?
अ) त्रिशूल
ब) जटाजूट
स) चूड़ियाँ और साड़ी
द) बाघम्बर
उत्तर – स) चूड़ियाँ और साड़ी - प्रश्न – अर्धनारीश्वर का प्रतीक क्या दर्शाता है?
अ) नर-नारी की असमानता
ब) शिव और शक्ति का समन्वय
स) युद्ध और शांति
द) धन और समृद्धि
उत्तर – ब) शिव और शक्ति का समन्वय - प्रश्न – लेखक के अनुसार, नर-नारी के गुणों का विभाजन कब शुरू हुआ?
अ) औद्योगिक क्रांति में
ब) कृषि के विकास से
स) वैदिक काल में
द) आधुनिक युग में
उत्तर – ब) कृषि के विकास से - प्रश्न – समाज में नारी को क्या माना गया है?
अ) बलशाली और स्वतंत्र
ब) लता और आश्रित
स) विधाता और कर्मठ
द) सत्ता की स्वामिनी
उत्तर – ब) लता और आश्रित - प्रश्न – पुरुष को लेखक ने किसके प्रतीक के रूप में देखा?
अ) चाँदनी
ब) धूप और ग्रीष्म
स) वर्षा
द) भावना
उत्तर – ब) धूप और ग्रीष्म - प्रश्न – नारी की पराधीनता का मुख्य कारण क्या है?
अ) शिक्षा का अभाव
ब) कृषि के कारण घर में सीमित होना
स) पुरुषों की उदारता
द) धार्मिक मान्यताएँ
उत्तर – ब) कृषि के कारण घर में सीमित होना - प्रश्न – लेखक के अनुसार, नारी का मूल्य किस पर निर्भर करता है?
अ) उसकी स्वतंत्रता पर
ब) पुरुष की आवश्यकता पर
स) उसकी शिक्षा पर
द) उसके सौंदर्य पर
उत्तर – ब) पुरुष की आवश्यकता पर - प्रश्न – प्रवृत्तिमार्गी नारी को किस रूप में देखते थे?
अ) पाप की खान
ब) आनंद की खान
स) बाधा
द) कर्मठ योद्धा
उत्तर – ब) आनंद की खान - प्रश्न – निवृत्तिमार्गी नारी को क्यों त्याग देते थे?
अ) वह उपयोगी नहीं थी
ब) वह सत्ता की स्वामिनी थी
स) वह धार्मिक थी
द) वह स्वतंत्र थी
उत्तर – अ) वह उपयोगी नहीं थी - प्रश्न – बुद्ध ने नारियों को क्या अधिकार दिया?
अ) राजसत्ता में भागीदारी
ब) भिक्षुणी होने का अधिकार
स) युद्ध में भाग लेने का अधिकार
द) संपत्ति का अधिकार
उत्तर – ब) भिक्षुणी होने का अधिकार - प्रश्न – जैन दिगंबर सम्प्रदाय ने नारियों के बारे में क्या कहा?
अ) नारी को मोक्ष मिल सकता है
ब) नारी को भिक्षुणी बनने का अधिकार नहीं
स) नारी पुरुष से श्रेष्ठ है
द) नारी को युद्ध में भाग लेना चाहिए
उत्तर – ब) नारी को भिक्षुणी बनने का अधिकार नहीं - प्रश्न – कबीर ने नारी को क्या कहा?
अ) प्रेरणा की खान
ब) महा विकार
स) शक्ति का स्रोत
द) सौंदर्य की मूर्ति
उत्तर – ब) महा विकार - प्रश्न – बर्नार्ड शॉ ने नारी को क्या माना?
अ) अहेरिन
ब) योद्धा
स) शिक्षिका
द) शासक
उत्तर – अ) अहेरिन - प्रश्न – रवीन्द्रनाथ ने नारी की सार्थकता किसमें देखी?
अ) कर्म और कीर्ति
ब) सौंदर्य और प्रेम
स) युद्ध और साहस
द) शिक्षा और दीक्षा
उत्तर – ब) सौंदर्य और प्रेम - प्रश्न – प्रेमचन्द के अनुसार, नारी पुरुष के गुण अपनाए तो क्या बनेगी?
अ) देवी
ब) राक्षसी
स) योद्धा
द) शिक्षिका
उत्तर – ब) राक्षसी - प्रश्न – लेखक ने नारी को पुरुष की तुलना में क्या कहा?
अ) कमजोर और असहाय
ब) समान और पूरक
स) श्रेष्ठ और स्वतंत्र
द) आश्रित और सजावटी
उत्तर – ब) समान और पूरक - प्रश्न – लेखक ने नारी की पराधीनता का इतिहास किससे जोड़ा?
अ) औद्योगिक क्रांति
ब) कृषि का विकास
स) वैदिक युग
द) आधुनिक शिक्षा
उत्तर – ब) कृषि का विकास - प्रश्न – आदिमानव और आदिमानवी में क्या समानता थी?
अ) दोनों आहार संचय में साथ थे
ब) दोनों युद्ध में भाग लेते थे
स) दोनों घर में रहते थे
द) दोनों धार्मिक थे
उत्तर – अ) दोनों आहार संचय में साथ थे - प्रश्न – लेखक के अनुसार, पुरुष क्यों कठोर हो गया?
अ) शिक्षा के अभाव से
ब) नारीत्व को दबाने से
स) युद्ध के अनुभव से
द) धार्मिक मान्यताओं से
उत्तर – ब) नारीत्व को दबाने से - प्रश्न – लेखक ने नारी को पुरुष की क्या माना?
अ) क्रीड़ा की वस्तु
ब) शक्ति का स्रोत
स) बाधा
द) कमजोर लता
उत्तर – ब) शक्ति का स्रोत - प्रश्न – गांधीजी ने अपने जीवन में क्या साधना की?
अ) केवल पौरुष
ब) नारीत्व
स) युद्ध कौशल
द) धार्मिक अनुष्ठान
उत्तर – ब) नारीत्व - प्रश्न – गांधी की पोती ने उनकी पुस्तक का नाम क्या रखा?
अ) बापू, मेरा पिता
ब) बापू, मेरी माँ
स) बापू, मेरा गुरु
द) बापू, मेरा मित्र
उत्तर – ब) बापू, मेरी माँ - प्रश्न – लेखक के अनुसार, नारीत्व में कौन-सा गुण शामिल है?
अ) कठोरता
ब) दया और माया
स) आक्रामकता
द) स्वार्थ
उत्तर – ब) दया और माया - प्रश्न – पुरुष में नारीत्व अपनाने से क्या होगा?
अ) उसकी मर्यादा घटेगी
ब) उसकी पूर्णता बढ़ेगी
स) वह कमजोर हो जाएगा
द) वह समाज से बहिष्कृत होगा
उत्तर – ब) उसकी पूर्णता बढ़ेगी - प्रश्न – लेखक ने महाभारत युद्ध से क्या उदाहरण दिया?
अ) कुन्ती और गांधारी की भूमिका
ब) कृष्ण और अर्जुन की रणनीति
स) दुर्योधन की हठधर्मिता
द) भीष्म की वीरता
उत्तर – अ) कुन्ती और गांधारी की भूमिका - प्रश्न – नारी को कर्मक्षेत्र में भागीदारी क्यों आवश्यक है?
अ) पुरुषों की सहायता के लिए
ब) मानवीय संबंधों में कोमलता के लिए
स) आर्थिक लाभ के लिए
द) सामाजिक प्रदर्शन के लिए
उत्तर – ब) मानवीय संबंधों में कोमलता के लिए - प्रश्न – अर्धनारीश्वर का अंतिम संदेश क्या है?
अ) नर और नारी अलग हैं
ब) नर-नारी में समन्वय और पूर्णता
स) पुरुष श्रेष्ठ है
द) नारी को घर में रहना चाहिए
उत्तर – ब) नर-नारी में समन्वय और पूर्णता - प्रश्न – लेखक ने नर-नारी के संबंधों का प्रभाव किस पर बताया?
अ) आर्थिक विकास
ब) विश्व शांति
स) धार्मिक प्रगति
द) वैज्ञानिक खोज
उत्तर – ब) विश्व शांति
‘अर्धनारीश्वर’ पाठ से जुड़े एक वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर का रूप किसका प्रतीक है?
उत्तर – अर्धनारीश्वर का रूप शिव और शक्ति के समन्वय का प्रतीक है। - प्रश्न – अर्धनारीश्वर की कल्पना में क्या दर्शाया गया है?
उत्तर – इसमें पुरुष और नारी के गुणों के एकत्व और समानता को दर्शाया गया है। - प्रश्न – समाज में आज अर्धनारीश्वर की भावना क्यों नहीं दिखती?
उत्तर – समाज में आज अर्धनारीश्वर की भावना नहीं दिखती क्योंकि पुरुष और स्त्री दोनों एक-दूसरे के गुण अपनाने से हिचकते हैं। - प्रश्न – नारी को पराधीन कब से माना जाने लगा?
उत्तर – नारी की पराधीनता तब आरंभ हुई जब मानव ने कृषि का आविष्कार किया। - प्रश्न – कृषि के विकास से नारी की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर – नारी घर के सीमित क्षेत्र में रह गई और पुरुष बाहरी, विस्तृत जीवन में चला गया। - प्रश्न – पशु-पक्षियों में नारी पराधीन क्यों नहीं होती?
उत्तर – क्योंकि वहाँ आर्थिक निर्भरता नहीं होती। - प्रश्न – नारी की प्रतिष्ठा किस पर निर्भर हो गई?
उत्तर – पुरुष की आवश्यकता और स्वीकृति पर। - प्रश्न – निवृत्तिमार्गियों का नारी के प्रति क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर – उन्होंने नारी को त्याज्य और बाधा मानकर जीवन से अलग कर दिया। - प्रश्न – बुद्ध ने नारी को भिक्षुणी बनने का अधिकार क्यों दिया?
उत्तर – वे समानता में विश्वास रखते थे, फिर भी उन्हें बाद में पश्चात्ताप हुआ। - प्रश्न – दिगम्बर जैन संप्रदाय ने नारी के लिए क्या नियम बनाया?
उत्तर – उन्होंने कहा कि मोक्ष नारी जीवन में नहीं मिल सकता। - प्रश्न – कबीर का नारी विषयक दृष्टिकोण क्या था?
उत्तर – उन्होंने नारी को विकार की खान कहा। - प्रश्न – प्रेमचन्द ने नारी के पुरुष गुण ग्रहण करने पर क्या कहा?
उत्तर – उन्होंने कहा कि नारी जब पुरुष के गुण अपनाती है तो राक्षसी बन जाती है। - प्रश्न – रवीन्द्रनाथ का नारी के कर्तृत्व पर क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर – उन्होंने नारी को केवल प्रेम, सौन्दर्य और सेवा की मूर्ति माना। - प्रश्न – नारी की भूमिका को समाज में सीमित क्यों किया गया?
उत्तर – ताकि पुरुष के वर्चस्व और सुविधा को बनाए रखा जा सके। - प्रश्न – नारी को पुरुष घर से बाहर क्यों नहीं जाने देता?
उत्तर – क्योंकि वह नारी को अपने आराम और सुख का साधन मानता है। - प्रश्न – लेखक के अनुसार नारी और पुरुष में क्या समानता है?
उत्तर – दोनों एक ही द्रव्य की दो प्रतिमाएँ हैं और मूलतः समान हैं। - प्रश्न – आज का पुरुष कैसा हो गया है?
उत्तर – वह कठोर और कर्कश हो गया है। - प्रश्न – लेखक ने महाभारत युद्ध के सन्दर्भ में क्या कल्पना की है?
उत्तर – यदि कुन्ती और गांधारी ने वार्ता की होती, तो युद्ध टल सकता था। - प्रश्न – नारी की कोमलता ने उसमें कौन सी कमजोरी भर दी है?
उत्तर – उसने पौरुष से स्वयं को विहीन कर लिया है। - प्रश्न – पुरुष नारी में कोमलता की पूर्ति से क्या लाभ लेता है?
उत्तर – वह अपने भीतर कोमलता विकसित नहीं करता। - प्रश्न – लेखक ने नारी को क्या स्थान देने की बात की है?
उत्तर – जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का स्थान। - प्रश्न – गांधीजी ने नारीत्व की क्या साधना की थी?
उत्तर – उन्होंने अपने भीतर स्त्रियोचित गुणों को अपनाने का प्रयास किया। - प्रश्न – ‘बापू, मेरी माँ’ पुस्तक से क्या संदेश मिलता है?
उत्तर – गांधीजी ने मातृवत स्नेह और करुणा का आचरण किया। - प्रश्न – दया, माया और सहिष्णुता किसके गुण माने जाते हैं?
उत्तर – ये स्त्रियोचित गुण माने जाते हैं। - प्रश्न – भीरुता किस स्थिति में एक अच्छा गुण है?
उत्तर – जब वह विनाश से बचाव करती है। - प्रश्न – साहस और शूरता अपनाने से नारी की मर्यादा पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर – इससे उसकी मर्यादा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है। - प्रश्न – अर्धनारीश्वर का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर – नर और नारी की पूर्णता उनके समन्वय में है। - प्रश्न – लेखक के अनुसार नारी केवल प्रेरणा का स्रोत क्यों नहीं है?
उत्तर – क्योंकि वह स्वयं भी सृजन और कर्म की भागीदार है। - प्रश्न – वर्तमान समाज में नारी की भूमिका किस तरह सीमित की गई है?
उत्तर – उसे घर के भीतर की सीमित भूमिकाओं में बाँध दिया गया है। - प्रश्न – लेखक का अंतिम संदेश क्या है?
उत्तर – नर में नारीत्व और नारी में पौरुष का विकास आवश्यक है।
‘अर्धनारीश्वर’ पाठ से जुड़े 30-40 शब्दों वाले प्रश्न और उत्तर
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर किसका कल्पित रूप है और इसकी विशेषता क्या है?
उत्तर – अर्धनारीश्वर शंकर और पार्वती का कल्पित रूप है, जिसका आधा अंग पुरुष का और आधा अंग नारी का होता है। यह शिव और शक्ति के पूर्ण समन्वय को दर्शाता है।
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर रूप में शिव के एक नयन में क्या है और दूसरे में क्या?
उत्तर – अर्धनारीश्वर रूप में शिव के एक नयन में ‘गरल’ (विष) है, जबकि दूसरे नयन में ‘संजीवन की धार’ है, जो जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक है।
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर की कल्पना से नर-नारी की समानता के बारे में क्या संकेत मिलता है? उत्तर – यह कल्पना संकेत करती है कि नर-नारी पूर्ण रूप से समान हैं। एक के गुण दूसरे के दोष नहीं होते, बल्कि उनमें परस्पर गुणों के आदान-प्रदान से पूर्णता आती है।
- प्रश्न – वर्तमान समाज में पुरुष और स्त्री में अर्धनारीश्वर का रूप क्यों नहीं दिखता?
उत्तर – वर्तमान में पुरुष स्त्रियोचित गुणों को अपनाने से डरता है और स्त्री पुरुषोचित गुणों को नारीत्व के लिए हानिकारक मानती है, जिससे गुणों का विभाजन हो गया है।
- प्रश्न – पुरुष ने नारी के लिए कौन-सी उपमाएँ गढ़ी हैं और खुद को क्या माना है?
उत्तर – पुरुष ने खुद को वृक्ष, वृंत, धूप, ग्रीष्म और विचार माना, जबकि नारी को लता, कली, चाँदनी, वर्षा और भावना की उपमाएँ दीं, उसे अपने अधीन माना।
- प्रश्न – आदिमानव और आदिमानवी धूप और चाँदनी का बँटवारा कैसे करते थे?
उत्तर – कवि के अनुसार, आदिमानव और आदिमानवी धूप और चाँदनी का बँटवारा नहीं करते थे। वे साथ-साथ धूप, चाँदनी, वर्षा और आतप में घूमते थे तथा आहार-संचय भी साथ करते थे।
- प्रश्न – नारी की पराधीनता कब आरंभ हुई और इसका क्या परिणाम हुआ?
उत्तर – नारी की पराधीनता कृषि के आविष्कार के साथ आरंभ हुई, जब पुरुष बाहर और नारी घर में रहने लगी। इससे घर का जीवन सीमित हो गया और नारी बड़ी जिन्दगी के अधीन होती गई।
- प्रश्न – पशुओं और पक्षियों ने अपनी मादाओं पर क्या नहीं लादा जो मनुष्य ने लादा?
उत्तर – पशुओं और पक्षियों ने अपनी मादाओं पर आर्थिक परवशता नहीं लादी, जबकि मनुष्य की मादा पर यह पराधीनता अपने आप लद गई, जिससे उसकी सहज दृष्टि छीन ली गई।
- प्रश्न – प्राचीन विश्व में संन्यास लेने का क्या प्रभाव विवाहित स्त्रियों पर पड़ा?
उत्तर – प्राचीन विश्व में जब वैयक्तिक मुक्ति की खोज बढ़ी, तब कई विवाहित पुरुषों ने संन्यास ले लिया, जिससे उनकी पत्नियों को जीवित वैधव्य और असहनीय पीड़ा का सामना करना पड़ा।
- प्रश्न – बुद्ध और महावीर ने नारियों को कौन सा अधिकार दिया, जो सुरक्षित नहीं रह सका?
उत्तर – बुद्ध और महावीर ने नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था, लेकिन जैनों के दिगम्बर-सम्प्रदाय ने इसे व्यर्थ बताते हुए मोक्ष के लिए पुरुष योनि में जन्म को अनिवार्य बताया।
- प्रश्न – कबीर साहब ने नारी के बारे में क्या कहा है?
उत्तर – कबीर साहब ने कहा है,
“नारी तो हम हूँ करी, तब ना किया विचार।
जब जानी तब परिहरी, नारी महा विकार॥”
यानी उन्होंने नारी को विकार का मूल बताया।
- प्रश्न – बर्नार्ड शॉ ने नारी और नर को किस रूप में देखा है?
उत्तर – बर्नार्ड शॉ ने नारी को ‘अहेरिन’ (शिकार करने वाली) और नर को ‘अहेर’ (शिकार) माना है। इसका तात्पर्य है कि पुरुष को नारी के पाश से बचकर रहना चाहिए।
- प्रश्न – प्रेमचंद ने पुरुष और नारी के गुणों के संबंध में क्या विचार व्यक्त किए हैं?
उत्तर – प्रेमचंद के अनुसार, पुरुष जब नारी के गुण लेता है तो देवता बन जाता है, लेकिन नारी जब नर के गुण सीखती है तो राक्षसी हो जाती है।
- प्रश्न – रवीन्द्रनाथ ठाकुर नारी की सार्थकता किसमें मानते थे?
उत्तर – रवीन्द्रनाथ ठाकुर नारी की सार्थकता उसकी मोहक भंगिमा, पृथ्वी की शोभा, आलोक और प्रेम की प्रतिमा बनने में मानते थे। वे कर्म, कीर्ति या शिक्षा-दीक्षा को आवश्यक नहीं मानते थे।
- प्रश्न – पुरुष वर्तमान में नारी को घर से बाहर निकलने से क्यों रोकता है?
उत्तर – पुरुष नारी को अपनी क्रीड़ा की वस्तु और मनोविनोद का साधन मानता है। वह नहीं चाहता कि उसकी “आनन्द की मूर्ति” पर धूल या धुएँ का धब्बा लगे, इसलिए उसे घर में रखता है।
- प्रश्न – नर और नारी को एक-दूसरे के गुणों को क्यों अपनाना चाहिए?
उत्तर – नर और नारी एक ही द्रव्य की दो प्रतिमाएँ हैं। दोनों को अपने भीतर के दबे हुए गुणों को जगाना चाहिए ताकि वे पूर्ण बन सकें और मानवीय संबंध अधिक कोमल व संतुलित हों।
- प्रश्न – कौरवों की सभा में यदि कुंती और गांधारी ने संधि वार्ता की होती तो क्या हो सकता था?
उत्तर – यदि कुंती और गांधारी ने संधि वार्ता की होती, तो बहुत संभव था कि महाभारत नहीं होता, क्योंकि नारियों में कोमलता और शांति की प्रवृत्ति अधिक होती है।
- प्रश्न – गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में किस गुण की साधना की थी?
उत्तर – गांधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में नारीत्व की साधना की थी, जैसा कि उनकी पोती की पुस्तक ‘बापू, मेरी माँ’ से स्पष्ट होता है।
- प्रश्न – स्त्रियोचित गुण जैसे दया, माया, सहिष्णुता अपनाने से पुरुष के पौरुष पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर – दया, माया और सहिष्णुता जैसे स्त्रियोचित गुणों को अपनाने से पुरुष के पौरुष में कोई दोष नहीं आता, बल्कि ये गुण उसे अनावश्यक विनाश से बचाते हैं और उसकी पूर्णता बढ़ाते हैं।
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर किस बात का प्रतीक है?
उत्तर – अर्धनारीश्वर केवल इस बात का प्रतीक नहीं कि नर-नारी अलग रहकर अधूरे हैं, बल्कि यह भी कि पुरुष में नारीत्व की ज्योति जगे और प्रत्येक नारी में पौरुष का स्पष्ट आभास हो।
‘अर्धनारीश्वर’ पाठ से जुड़े दीर्घ उत्तरीय प्रश्न और उत्तर
- प्रश्न – अर्धनारीश्वर की कल्पना क्या दर्शाती है?
उत्तर – अर्धनारीश्वर शिव और पार्वती का संयुक्त रूप है, जो नर-नारी के समन्वय का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि दोनों के गुण एक-दूसरे की पूर्णता बढ़ाते हैं। पुरुष में नारीत्व और नारी में पौरुष अपनाने से मर्यादा नहीं घटती, बल्कि पूर्णता बढ़ती है। यह कल्पना समाज में गुणों के कृत्रिम विभाजन को चुनौती देती है। - प्रश्न – नर-नारी के गुणों का विभाजन कैसे हुआ?
उत्तर – पुरुष ने नारी से बिना राय लिए गुणों का बँटवारा किया, स्वयं को वृक्ष, बलशाली, और सत्ता का स्वामी माना, जबकि नारी को लता, कोमल, और आश्रित बनाया। धूप, ग्रीष्म, और कर्म पुरुष के, जबकि चाँदनी, वर्षा, और भावना नारी के हिस्से आए। यह विभाजन कृषि के विकास से गहराया, जब नारी घर में सीमित हो गई। - प्रश्न – नारी की पराधीनता का कारण क्या है?
उत्तर – नारी की पराधीनता कृषि के विकास से शुरू हुई, जब पुरुष बाहर और नारी घर में सीमित हो गई। इससे जीवन दो भागों में बँट गया: सीमित घरेलू जीवन और निस्सीम बाहरी जीवन। नारी की आर्थिक और सामाजिक निर्भरता बढ़ी, जिसने उसकी स्वतंत्रता छीन ली। पुरुष ने नारी को आनंद की वस्तु और सजावट माना। - प्रश्न – प्रवृत्तिमार्गी और निवृत्तिमार्गी नारी को कैसे देखते थे?
उत्तर – प्रवृत्तिमार्गी नारी को आनंद की खान मानकर गले लगाते थे, क्योंकि वे जीवन से सुख चाहते थे। निवृत्तिमार्गी नारी को त्याग देते थे, क्योंकि वे उसे वैयक्तिक मुक्ति में बाधा मानते थे। इससे नारी की मर्यादा प्रवृत्तिमार्ग में बढ़ती और निवृत्तिमार्ग में गिरती थी, जिससे जीवित वैधव्य की स्थिति बनी। - प्रश्न – बुद्ध और महावीर ने नारी को क्या अधिकार दिया?
उत्तर – बुद्ध और महावीर ने नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार दिया, जो उनकी धार्मिक साधना में भागीदारी का प्रतीक था। हालांकि, जैन दिगंबर सम्प्रदाय ने इसे नकार दिया, यह कहकर कि नारी को मोक्ष के लिए पुरुष जन्म लेना होगा। बुद्ध ने भी बाद में इस निर्णय पर पश्चात्ताप व्यक्त किया। - प्रश्न – कबीर और बर्नार्ड शॉ ने नारी को कैसे देखा?
उत्तर – कबीर ने नारी को “महा विकार” कहा, यह दर्शाते हुए कि वह पुरुष की साधना में बाधा है। बर्नार्ड शॉ ने नारी को अहेरिन माना, जिससे पुरुष को बचना चाहिए। ये धारणाएँ पुरुष की कमजोरी को छिपाने और उनकी श्रेष्ठता को बढ़ाने के लिए थीं, जो अर्धनारीश्वर के समन्वय से विपरीत हैं। - प्रश्न – रवीन्द्रनाथ और प्रेमचन्द का नारी के प्रति दृष्टिकोण क्या था?
उत्तर – रवीन्द्रनाथ ने नारी को सौंदर्य, प्रेम, और शोभा की मूर्ति माना, न कि कर्म या साहस की। प्रेमचन्द ने कहा कि पुरुष नारी के गुण अपनाकर देवता बनता है, पर नारी पुरुष के गुण अपनाए तो राक्षसी हो जाती है। दोनों नारी को पुरुष के क्षेत्र से अलग रखते थे। - प्रश्न – नारी की वर्तमान स्थिति पर लेखक की क्या राय है?
उत्तर – लेखक कहता है कि नारी अब विकारों की खान नहीं, बल्कि शक्ति और प्रेरणा का स्रोत है। फिर भी, पुरुष उसे घर तक सीमित रखना चाहता है, उसे क्रीड़ा की वस्तु मानता है। नारी को अपनी स्वतंत्रता और कर्मक्षेत्र में भागीदारी के लिए जागरूक होना चाहिए, ताकि वह अर्धनारीश्वर के आदर्श को साकार कर सके। - प्रश्न – गांधी और मार्क्स का नारी के प्रति दृष्टिकोण क्या था?
उत्तर – गांधी ने नारीत्व की साधना की, जिसे उनकी पोती ने “बापू, मेरी माँ” कहा। वे दया, माया जैसे गुणों को पुरुषों के लिए भी महत्वपूर्ण मानते थे। मार्क्स ने सामाजिक समानता पर जोर दिया। दोनों ने नारी को पुरुष के समान कर्मक्षेत्र में भागीदार माना, जो अर्धनारीश्वर के समन्वय को दर्शाता है। - प्रश्न – अर्धनारीश्वर का अंतिम संदेश क्या है?
उत्तर – अर्धनारीश्वर का संदेश है कि नर और नारी समान और पूरक हैं। पुरुष में नारीत्व और नारी में पौरुष का विकास आवश्यक है। दोनों को एक-दूसरे के गुण अपनाकर पूर्णता प्राप्त करनी चाहिए। यह जीवन-यज्ञ में समान भागीदारी और मानवीय संबंधों में कोमलता की वृद्धि का आह्वान करता है।