अंबरीष एक प्रजापालक और हरिभक्त राजा थे। उनकी रानी भी उन्हीं की भाँति वैष्णव विचारों की पति-परायण नारी थी। राजा नियमित रूप से यज्ञ आदि किया करते थे और एकादशी के दिन निर्जला व्रत रखकर द्वादशी को ब्राह्मणों को गायेँ दान किया करते थे।
अंबरीष की परीक्षा लेने के लिए एक दिन महर्षि दुर्वासा अपने अट्ठासी हजार शिष्यों के साथ वहाँ आ धमके। राजा ने उनका प्रेम-पूर्वक अभिवादन किया। बोला, “पधारिए महर्षि। आपके आगमन से आज मैं धन्य हो गया। मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइए?”
महर्षि दुर्वासा बोले, “राजन, मैं और मेरे ये शिष्य बहुत दूर से आ रहे हैं। हम सभी भूखे हैं। पहले हमारे भोजन की व्यवस्था करवाइए।”
“अवश्य महर्षि। आप लोग स्नान करके आइए, तब तक मैं आपके भोजन की व्यवस्था कराए देता हूँ।”
दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ यमुना में स्नान करने के लिए चले गए। वहाँ उन्होंने जानबूझकर देरी लगा दी। इस पर उनके शिष्यों ने कहा, “गुरुदेव ! हम सब स्नान कर चुके हैं। अब चलिए, चलकर भोजन करेंगे।”
“थोड़ी देर और ठहरो, युवक। शायद वहाँ अभी भोजन की व्यवस्था पूरी न हो पाई हो।” दुर्वासा ने कहा।
दुर्वासा और उनके शिष्यों को लौटने में देरी होते देख अंबरीष सोचने लगे, ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि महर्षि ने मेरे यहाँ भोजन करने का अपना विचार बदल दिया हो। ये साधु-संत रमते राम होते हैं। किसी अन्य जगह चले गए तो मेरा व्रत अधूरा रह जाएगा।”
जब बहुत समय व्यतीत हो गया और दुर्वासा अपने शिष्यों सहित वापस न लौटे तो अंबरीष ने उनकी और प्रतीक्षा करना उचित न समझा। उन्होंने चरणामृत लेकर अपना व्रत खोल लिया और दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गए।
कुछ देर बाद दुर्वासा अपने शिष्यों सहित वापस लौटे और राजा से बोले, “राजन! हम लोग स्नान-ध्यान से निवृत्त हो चुके हैं। अब आप भोजन की व्यवस्था कराइए। “
“भोजन तो तैयार है, महर्षि।” अंबरीष बोले, “लेकिन मुझसे एक अपराध हो गया है। उसकी क्षमा चाहता हूँ।”
“किस अपराध की क्षमा चाहते हो, राजन?”
“महर्षि। मैंने बहुत समय तक आप लोगों के लौटने को प्रतीक्षा की, किंतु जब आप न आए तो यह सोचकर मैंने अपना व्रत खोल लिया कि शायद आप किसी अपने अन्य भक्त के यहाँ भोजन करने के लिए चले गए हैं।” राजा ने विनीत स्वर में कहा।
यह सुनकर महर्षि दुर्वासा गुस्से से आग-बबूला हो गए। कड़क कर बोले, “मूर्ख राजा ! तेरी इतनी हिम्मत की संतों को जूठा भोजन कराए।”
“महर्षि, क्षमा कर दो। मैंने स्वयं अभी भोजन नहीं लिया है, सिर्फ भगवान का चरणामृत लेकर अपना व्रत खोला है।”
“कुछ भी हो।” दुर्वासा दहाड़े, “तुमने हमें निमंत्रित करके हमारा अपमान किया है। इसका दंड तो तुम्हें भुगतना ही पड़ेगा।”
दुर्वासा ने अपनी जटा से एक बाल तोड़ा और उसे भूमि पर पटक दिया। तुरंत ही कृत्या नाम की एक महाभयंकर अग्नि उत्पन्न हो गई। कृत्या अपना विकराल मुख खोलकर राजा को भस्म करने के लिए दौड़ पड़ी।
राजा ने धैर्य न खोया और न ही वे भयभीत हुए। वे वहीं भूमि पर बैठ गए और हरि नाम का स्मरण करने लगे, “हे प्रभु, मेरी रक्षा करो। महर्षि दुर्वासा क्रोध के वशीभूत होकर मुझ निर्दोष को दंडित करने पर उतारू हैं। अब आप ही इनके कोप से मेरी रक्षा कर सकते हैं।”
अंबरीष की करुण पुकार क्षीरसागर में शेष – शैय्या पर लेटे भगवान विष्णु के कानों तक पहुँची। वे तुरंत उठे और लक्ष्मी जी से बोले, “देवी लक्ष्मी ! मेरा कोई भक्त मुझे आर्त्तस्वर में पुकार रहा है, मैं उसकी रक्षा के लिए मृत्युलोक में जा रहा हूँ।”
सुदर्शन चक्र उँगली पर उठाए भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर सवार हुए और मृत्युलोक की ओर चल पड़े।
आकाश में अदृश्य रहकर श्रीहरि ने नीचे अंबरीश के महल का सारा दृश्य देखा। उन्होंने अंबरीष की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र चला दिया। चक्र ने दुर्वासा द्वारा पैदा की गई कृत्या को जलाकर राख कर दिया। तुरंत ही चक्र ने अपनी दिशा बदली और वह दुर्वासा का सिर काटने उनकी ओर बढ़ा। यह देखकर दुर्वासा भयभीत हो गए और अपनी जान बचाने के लिए वहाँ से भाग निकले। किंतु चक्र ने उनका पीछा करना न छोड़ा। दुर्वासा जहाँ-जहाँ जाते, चक्र उधर ही पहुँच जाता। दुर्वासा भागकर अमरावती में देवराज इंद्र के पास पहुँचे और भयभीत स्वर में बोले, “मेरी रक्षा करो देवराज, भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र मुझे समाप्त करना चाहता है।”
इस पर इंद्र ने कहा, “मैं विवश हूँ महर्षि। भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का सामना करने की मुझमें शक्ति नहीं है। उचित यही है कि आप पितामह ब्रह्मा की शरण में जाएँ।”
दुर्वासा भागकर ब्रह्मलोक में पहुँचे और करबद्ध होकर ब्रह्माजी से प्रार्थना की, “पितामह। भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र मेरा पीछा कर रहा है। कृपा करके उस चक्र से मेरी रक्षा कीजिए।”
यह सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने कहा, “क्षमा कीजिए महर्षि दुर्वासा। भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से आपकी रक्षा कर पाना मेरे लिए असंभव है। आप भगवान विष्णु की शरण में ही जाइए। वही अपने चक्र को शांत कर सकते हैं।”
इस बार दुर्वासा भागकर विष्णुलोक में पहुँचे और श्रीहरि से प्रार्थना की, “रक्षा कीजिए देव। रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण हूँ।” यह सुनकर श्रीहरि ने कहा, “महर्षि ! आपने अंबरीष जैसे धर्मपरायण व्यक्ति का घोर अपमान किया है। आपने तो क्रुद्ध होकर उसे मारने की ही सोच ली थी। आपके द्वारा उत्पन्न कृत्या उसे जीते जी समाप्त कर डालती, यदि मैं सुदर्शन चक्र से उसे भस्म न कर डालता। अब आपकी रक्षा अंबरीष के पास जाकर और उससे अपने कृत्य की क्षमा मांगने पर ही हो सकती है, अन्यथा मेरा चक्र रुकेगा नहीं। वह अनंत काल तक आपको यूँ ही दौड़ाता रहेगा।”
लज्जित और दुखी मन से दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे। उससे अपने कृत्य की क्षमा माँगी तो अंबरीष ने सहज भाव से उन्हें क्षमा कर दिया। इतना ही नहीं उसने अपने व्रत को ऋषि को भोजन कराने से पहले ही तोड़ देने पर ऋषि से क्षमा मांगी। फिर उसने सुदर्शन चक्र की आराधना की जिससे शांत होकर वह पुनः भगवान विष्णु के पास लौट गया। तब दुर्वासा और उनके शिष्यों की साँस में साँस आई। फिर अंबरीष द्वारा कराए भोजन को खाकर दुर्वासा और उनके सभी शिष्य वापस लौट गए। तभी तो कहा गया है कि भक्ति में बहुत शक्ति होती है। भक्त के प्रेम में फँसकर भगवान स्वयं उसके पास दौड़े-दौड़े चले आते हैं।