राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भारत में नहीं आज पूरे विश्व में पूजनीय हैं। 1893 में दक्षिण अफ्रीका में रेल के डिब्बे में हुई दुर्व्यवहार और भेदभाव की एक घटना ने उनके जीवन की धारा ही मोड़ दी। 1894 से 1914 तक, लगभग 20 वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह द्वारा रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। 1919 में भारत आ गए और ब्रिटिश सरकार के रौलट ऐक्ट के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन चलाया। 1920 में असहयोग आंदोलन, 1930 में नमक कानून उल्लंघन, 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन, 1922-24, 1930 तथा 1942-44 में जेल यात्रा। 15 अगस्त 1947 देश के लिए स्वतंत्रता दिवस था और राष्ट्रपिता के लिए यह उपवास और आत्मशुद्धि का दिवस था। 30 जनवरी 1948 को सत्य और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी हिंसा के शिकार हो गए। मेरा जीवन ही मेरा संदेश है, यह कहने वाले महात्मा गांधी ने हर विषय पर अपने विचार प्रकट किए। यहाँ हम 30 जनवरी 1937 को क्विलोन में दिए गए भाषण ‘हिंदू धर्म क्या है’ तथा गुजरात के पेटलाद जिले के सोजित्रा गाँव में दिए गए भाषण को दे रहे हैं।
हिंदू धर्म क्या है ? (30 जनवरी 1937)
अब जरा इस बात पर विचार करें कि हिंदू-धर्म का मर्म क्या है, वह कौन-सी चीज़ है जिससे उन अनेक संत-महात्माओं ने प्रेरणा ग्रहण की, जिनका इतिहास में उल्लेख हुआ है। क्या कारण है कि इसने संसार को इतने सारे तत्त्वचिंतक दिए ? हिंदू धर्म में क्या है कि इसके भक्त सदियों से इस पर निछावर होते आए हैं ? अस्पृश्यता विरोधी संघर्ष के दौरान अनेक कार्यकर्ताओं ने मुझसे हिंदू धर्म का सार तत्त्व जानना चाहा है। उनका कहना है कि हमारे पास न तो इसलाम की तरह कोई ‘कलमा’ है और न जैसे बाइबिल में, 3-16 सेंट जॉन में ईसाई धर्म की केंद्रीय मान्यता का उल्लेख हुआ है, वैसा कुछ है। वे पूछते हैं, हमारे पास कोई ऐसी चीज़ है या नहीं जो अत्यंत चिंतनशील तथा दुनियादारी में लगे दोनों तरह के हिंदुओं को संतोष दे सके ? कुछ लोगों का कहना है-और अकारण नहीं है-कि गायत्री मंत्र ऐसा ही है। मैंने ‘गायत्री मंत्र’ के अर्थ को समझकर शायद हजारों बार उसका जाप किया है लेकिन मुझे अब भी लगता है कि वह मंत्र मेरी पूरी आध्यात्मिक पिपासा को तृप्त नहीं कर पाया। फिर, आप जानते ही हैं कि वर्षों से मैं भगवद्गीता का भक्त हूँ और मैंने कहा है कि इससे अपनी सभी समस्याओं का समाधान मुझे मिलता रहा है तथा शंका और कठिनाई के सैकड़ों प्रसंगों पर इसने मेरे लिए कामधेनु का, मार्गदर्शिका और सहायिका का काम किया है। ऐसा कोई प्रसंग मुझे याद नहीं आता जब इसने मुझे निराश किया हो। लेकिन यह ऐसी पुस्तक नहीं है जिसे मैं यहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं के सामने उनके स्वीकारार्थ रख सकूँ। प्रार्थनापूर्ण मन से इसके गहन अध्ययन-मनन के उपरांत ही आत्मा के लिए इसके पयोधर में संचित परम पौष्टिक दूध हमें प्राप्त हो सकता है।
लेकिन एक मंत्र ऐसा अवश्य है जिसमें मैंने हिंदू धर्म के समस्त सार को समाविष्ट माना है। वही मंत्र मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ। मेरा खयाल है, आपमें से बहुत से लोग ‘ईशोपनिषद’ के बारे में तो जानते ही होंगे। वर्षों पूर्व इसे मैंने अनुवाद और टीका सहित पढ़ा था । यरवदा जेल में मैंने इसे कंठाग्र कर लिया। लेकिन तब मैं इस पर उस प्रकार मुग्ध नहीं हुआ था जिस प्रकार कि पिछले कुछ महीनों से हो रहा हूँ। और अब मैं अंतिम रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यदि सारे उपनिषद तथा हमारे अन्य सारे धर्मग्रंथ अचानक नष्ट हो जाएँ और यदि ‘ईशोपनिषद’ का केवल पहला श्लोक हिंदुओं की स्मृति में कायम रहे तो भी हिंदू धर्म सदा जीवित रहेगा।
यह मंत्र चार हिस्सों में बँटा हुआ है। पहला हिस्सा है ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।’ मैं इसका अर्थ इस प्रकार करता हूँ : विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, सबमें ईश्वर की सत्ता व्याप्त है। फिर दूसरा और तीसरा हिस्सा इस प्रकार है : ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा।’ इन्हें दो हिस्सों में बाँटकर उनका अनुवाद इस तरह करता हूँ—इसका त्याग करो और इसका भोग करो। इसका एक दूसरा अनुवाद भी है, यद्यपि उसका भी अर्थ प्रायः वही है। वह दूसरा अनुवाद है : वह तुम्हें जो कुछ दे, उसका भोग करो। इस अनुवाद की दृष्टि से भी इसके दो हिस्से तो किए ही जा सकते हैं। इसके बाद आता है इसका अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा -‘मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।’ इसका मतलब है किसी की संपत्ति को लोभ की दृष्टि से मत देखो। इस प्राचीन उपनिषद के शेष सभी मंत्र इस प्रथम मंत्र के भाष्य हैं या यों कहिए कि उनमें इसी का पूरा अर्थ उद्घाटित करने का प्रयत्न किया गया है। जब मैं इस मंत्र को ‘गीता’ को ध्यान में रखकर या ‘गीता’ को इस मंत्र को ध्यान में रखकर पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि ‘गीता’ भी इसी मंत्र का भाष्य है। मुझे तो लगता है, यह मंत्र समाजवादियों और साम्यवादियों, तत्त्वचिंतकों और अर्थशास्त्रियों सबका समाधान कर देता है। जो लोग हिंदू-धर्म के अनुयायी नहीं हैं उनसे मैं यह कहने की धृष्टता करता हूँ कि यह उन सबका भी समाधान करता है। और अगर यह बात सही है – मैं तो मानता हूँ कि सही है – तो फिर आपको हिंदू धर्म की ऐसी किसी चीज को महत्त्व देने की जरूरत नहीं है जो इस मंत्र के अर्थ से असंगत हो या उसके विरुद्ध हो। कोई साधारण आदमी इससे ज्यादा और क्या जानना चाहेगा कि एक ही ईश्वर और जीवनमात्र का एक ही सृष्टा और नियंता विश्व के कण-कण में व्याप्त है।
यह मंत्र के तीन हिस्से सीधे पहले हिस्से में से फलित होते हैं। यदि आप यह मानते हैं कि ईश्वर अपनी समस्त सृष्टि में व्याप्त है तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि आप ऐसी किसी वस्तु का उपभोग नहीं कर सकते जो उसकी दी हुई नहीं हो और यह देखते हुए कि वह अपनी असंख्य संतानों का सृष्टा है, यह तो स्पष्ट ही है कि आप किसी की भी संपदा को लोभ की दृष्टि से नहीं देख सकते। अगर आप यह समझते हैं कि आप भी उसकी सृष्टि के असंख्य प्राणियों में से एक हैं तो सब कुछ का त्याग करके उसे उसके चरणों पर अर्पित कर देना आपका धर्म हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि त्याग का यह कार्य मात्र स्थूल त्याग नहीं है, बल्कि दूसरे या नए जन्म का प्रतीक है। यह कोई अज्ञानजनित नहीं, बल्कि विचारपूर्वक किया हुआ कार्य होता है। इसीलिए यह एक नवजन्म ही होता है। चूँकि देहधारी को भोजन, पानी और वस्त्र चाहिए ही, इसीलिए उसे जिस किसी वस्तु की आवश्यकता होती है, ईश्वर से ही माँगता है। और यह सब उसे अपने त्याग के स्वाभाविक पुरस्कारस्वरूप प्राप्त हो जाता है। मानो इतना पर्याप्त न हो, इसलिए इस मंत्र के अंत में एक भव्य विचार रखा गया है-किसी की संपदा को लोभ की दृष्टि से न देखो। इस शिक्षा को अपने जीवन में उतारते ही आप संसार के सभी प्राणियों के साथ शांति और सौहार्द के साथ रहने वाले समझदार विश्व नागरिक बन जाते हैं। यह मनुष्य की इहलोक और परलोक की ऊँची से ऊँची आकांक्षाओं को तृप्त करता है।