Blog

जय और विजय को शाप क्यों मिला?

दोपहर के पूर्व का समय था। बैकुंठ लोक में भगवान विष्णु के द्वार पर दो प्रहरी पहरा देने के उद्देश्य से खड़े थे। उन प्रहरियों में एक का नाम जय और दूसरे का नाम विजय था। जो भी भगवान विष्णु से मिलने के लिए जाता, उसे उन प्रहरियों से अनुमति लेनी पड़ती थी। स्वयं भगवान विष्णु का आदेश था, कोई भी अनुमति के बिना भीतर प्रवेश न करने पाए।

जय और विजय दोनों बड़ी दृढ़ता के साथ अपने कर्तव्य का पालन किया करते थे। दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं रमा को भी वे भीतर जाने से रोक देते थे। एक बार रोके जाने पर रमा ने क्रुद्ध होकर उन्हें अभिशाप तक दे दिया था, किंतु फिर भी वे अपने कर्तव्य पालन में ढिलाई नहीं करते थे।

संयोग की बात, सनकादि मुनि भी भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के दर्शनार्थ द्वार पर जा पहुँचे। सनकादि मुनि बहुत बड़े भक्त और ज्ञानी थे। वे प्राणियों का कल्याण करने के उद्देश्य से तीनों लोकों में भ्रमण किया करते थे। वे जहाँ भी जाते, मोह और आसक्ति के बंधनों से छुड़ाने के लिए ज्ञानोपदेश किया करते थे।

सनकादि मुनि छह द्वारों को लाँघते हुए भीतर चले गए। जब सातवें द्वार के भीतर दाखिल होने लगे, तो द्वार पर खड़े जय और विजय ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने कहा, “अनुमति के बिना भीतर प्रवेश करना निषिद्ध है।”

सनकादि मुनि रुक गए। उन्होंने जय और विजय की ओर देखते हुए कहा, “हमारे लिए भी निषिद्ध है! हम भगवान के अनन्य भक्त और प्रेमियों में हैं।”

जय और विजय ने उत्तर दिया, “आप कोई भी हों, अनुमति के बिना भीतर नहीं जा सकते। स्वयं भगवान का ही आदेश है कि बिना अनुमति किसी को भीतर न आने दो। स्वयं रमा को भी इस नियम का पालन करना पड़ता है।”

यद्यपि जय और विजय ने नियम का पालन किया था, किंतु सनकादि मुनि ने उस नियमपालन से अपने अपमान का अनुभव किया। वे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने जय और विजय की ओर देखते हुए कहा, “यह विष्णुलोक है। विष्णुलोक में वे विष्णु भगवान रहते हैं जो भेदों से परे हैं, जो प्रेम के प्रतिरूप हैं। इस लोक में जो भी प्राणी रहता है उसके हृदय में भेदों का विकार नहीं रहता। वह सम होता है, एक रूप होता है, तुम दोनों बैकुंठलोक में रहने योग्य नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे हृदय में भेदों का विकार है। हम तुम दोनों को श्राप दे रहे हैं कि दैत्य लोक में जाकर जन्म लो।”

सनकादि मुनि का श्राप सुनकर जय और विजय बड़े दुखी हुए। दोनों ने विनीत वाणी में निवेदन किया, “मुने! हमने जो कुछ किया, अपने कर्तव्यपालन के लिए किया। किंतु फिर भी हम आपका श्राप स्वीकार कर रहे हैं, पर आप हम पर कृपा करें। हमें कोई ऐसा उपाय बताएँ, जिसके द्वारा हम पुनः बैकुंठ लोक में श्रीहरि के निकट आ सकें।”

दोनों प्रहरियों और सनकादि मुनि में वार्तालाप हो ही रहा था कि स्वयं भगवान विष्णु वहाँ उपस्थित हुए। उन्हें जब पता चला कि उनके पार्षदों ने सनकादि मुनि को द्वार पर रोक दिया है, तो वे स्वयं वहाँ पहुँचे। सनकादि मुनि ने भगवान को विनयपूर्वक प्रणाम किया।

भगवान विष्णु ने सनकादि मुनि के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा, ” श्रेष्ठ मुनि! आपने मेरे पार्षदों को श्राप का दंड देकर अच्छा किया है। मेरे पार्षदों ने आपका अपमान करके अच्छा नहीं किया। आपका अपमान मेरा अपमान है।”

भगवान विष्णु की विनम्रता ने सनकादि मुनि के हृदय में आनंद का सागर उँड़ेल दिया। उन्होंने परमानंदित होकर कहा, “भगवन आप धन्य हैं। आप अपने इन सद्विचारों के कारण ही महान हैं। आप भेदों से परे, विकार से रहित, प्रेम के समुद्र हैं। हम आपके दर्शन पाकर कृतकृत्य हो गए हैं।”

सनकादि मुनि जब भगवान विष्णु की अभिवंदना करके चले गए, तो भगवान ने अपने पार्षदों की ओर देखते कहा, “तुम दोनों चिंता मत करो। इसके पूर्व लक्ष्मी जी भी तुम दोनों को श्राप दे चुकी हैं। जाओ, दैत्य वंश में जन्म लो। कुछ दिनों के पश्चात् पुनः मेरे पास आ जाओगे।” बैकुंठनाथ के आश्वासन देने पर दोनों के मन का दुख दूर हो गया। दोनों बैकुंठलोक छोड़कर असुरों के लोक में चले गए।

उन दिनों एक बहुत बड़े ऋषि थे, उनका नाम था कश्यप। कश्यप की दो पत्निययाँ थीं। दिति और अदिति। दिति स्वभाव की बड़ी चंचला थी, किंतु अदिति शांत, मृदुला और क्षमाशील थी।

संध्या का समय था। कश्यप संध्यावंदन के लिए कुशासन पर बैठे थे। दिति ने ऋषि के पास पहुँचकर उनका हाथ पकड़ लिया। वह उन्हें कुशासन से उठाती हुई बोली, “मेरा मन चंचल हो उठा है। आप मेरे पति हैं, आप मेरे मन की चंचलता शांत कीजिए।”

ऋषि ने कुशासन से उठते हुए उत्तर में कहा, “दिति, तुम्हारे मन की चंचलता तो शांत हो जाएगी, किंतु तुम्हारे गर्भ से जो संतान उत्पन्न होगी, वह बुरे विचारों वाली होगी।”

ऋषि का कथन सत्य हुआ। समय पर दिति के गर्भ से दो जुड़वाँ बालक पैदा हुए, जो पैदा होते ही दैत्यों की भाँति बड़े हो गए। दिति के वे ही दोनों दैत्यपुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के नाम से प्रसिद्ध हुए। दोनों में बड़ा भाई जय और छोटा विजय था। भगवान के हाथों मारे जाने के कारण दोनों बैकुंठ लोक में गए और भगवान के द्वार के पार्षद हुए।

जय और विजय की कथा हमें यह बताती है कि कर्तव्य का पालन करते हुए हमें उचित और अनुचित पर विचार करना चाहिए।

About the author

हिंदीभाषा

Leave a Comment

You cannot copy content of this page