सह-शिक्षा का अर्थ है एक कक्षा में, एक कमरे में छात्रों और छात्राओं की एक साथ पढ़ाई। भारत में इसका सदा विरोध किया जाता था और यह व्यवस्था थी कि बालक और बालिकाओं के गुरुकुल अलग-अलग और एक-दूसरे से दूर हों। यूरोप में भी सह-शिक्षा का रिवाज 18वीं – 19वीं सदी में बहुत नहीं था। आज वहाँ सह-शिक्षा आम बात हो गई है और उसकी देखा-देखी भारत में भी प्रचलित हो चुकी है और निरंतर इसका प्रचार बढ़ता जा रहा है। सह-शिक्षा का विरोध क्रमशः शिथिल होता जा रहा है।
समर्थन में युक्तियाँ
सह-शिक्षा के समर्थक बहुत प्रकांड विद्वान्, उन्नत और प्रगतिशील हैं। वे कहते हैं कि सह-शिक्षा से देश को अनेक लाभ हैं, जिनकी उपेक्षा करना आज हानिकर होगा। उनकी मुख्य युक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) सह-शिक्षा से राष्ट्र के धन का अपव्यय नहीं होगा। एक साथ लड़कों व लड़कियों के पढ़ने से अध्यापक वर्ग, भवन, फर्नीचर, पुस्तकालय तथा व्यवस्था आदि पर दोहरा व्यय नहीं करना होगा। आज जब कि योग्य, शिक्षित अध्यापकों का अभाव है, यह और भी अधिक आवश्यक है कि दोनों एक योग्य अध्यापक से पढ़ लिया करें। इसी तरह विद्यालयों की इमारतें भी अलग- अलग नहीं बनानी पड़ेंगी।
(2) लड़कों व लड़कियों के एक साथ पढ़ने और अधिक परिचय से उनमें एक दूसरे के प्रति मिथ्या आकर्षण कम हो जाएगा। अपरिचित व अज्ञात रहस्य के प्रति आकर्षण अधिक होता है। एक दूसरे के साथ अधिक सहवास से नवीनता, कुतूहलता और रहस्यमयता कम हो जाएगी और फलतः वातावरण सहज नैतिक हो जाएगा।
(3) दोनों के एक साथ रहने से लड़कों की उच्छृङ्खलता कम हो जाएगी। वे लड़कियों से शालीनता, नम्रता आदि गुण सीखेंगे। दूसरी ओर लड़कियाँ लड़कों से पौरुष व साहस आदि गुण सीखेंगी।
(4) आज नारी भी राष्ट्र की समान नागरिक है। नागरिकता के सब गुणों का विकास सह- शिक्षा से ही नारी में हो सकेगा।
विरोधी क्या कहते हैं?
परंतु ये युक्तियाँ सह-शिक्षा के विरोधियों को प्रभावित नहीं करतीं। उनका कहना है कि सह-शिक्षा से मितव्यय सिर्फ वहीं हो सकता है, जहाँ विद्यार्थियों की संख्या कम हो। स्त्री-शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ अब उनकी संख्या इतनी अधिक हो गई है और होती जा रही है कि उनके लिए अलग शिक्षालय खोलने में अपव्यय नहीं होगा। यों भी 100 छात्रों को एक कमरे में नहीं पढ़ाया जा सकता। जब लड़कियों की कमी नहीं है, उनके लिए अलग अध्यापक व पृथक् भवनों की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। लड़के व लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। एक साथ अध्ययन से उसमें कमी आती तो यूरोप और अमरीका के शिक्षालयों में चरित्रहीनता के प्रतिदिन उदाहरण न सुने जाते। स्वाभाविक प्रवृत्ति को थोड़ा-सा भी अवसर मिलेगा, तो वह उग्र रूप धारण करेगी। पूर्वजों ने युवक युवती को अग्नि व घी की जो उपमा दी है, वह निराधार नहीं है। एक दूसरे के गुणों को सीखने का तर्क भी बहुत भ्रान्त है। मानव अच्छे गुण देर में सीखता है, दुर्गुण जल्दी सीखता है। इसलिए एक दूसरे के गुण सीखने की बजाए यह संभव है कि लड़के नाजुक बनने लगें, शृंगारप्रिय हो जाएँ और लड़कियाँ उच्छृङ्खल हो जावें। आज भारतीय शिक्षालयों में यह दुष्प्रवृत्ति देखी जा सकती है। नागरिकता के गुणों का विकास पृथक्-पृथक् विद्यालयों में भी हो सकता है।
मूल प्रश्न
ग्रह-शिक्षा के प्रश्न पर वस्तुतः विचार करने के लिए हमें अधिक गंभीर स्तर पर सोचना होगा। शिक्षा का संबंध मानव जीवन से है। यदि शिक्षा जीवन के उपयोग में नहीं आई तो वह व्यर्थ है। शिक्षण काल में विद्यार्थी या विद्यार्थिनी को उन गुणों का विकास करना चाहिए, जो उसके भावी जीवन में उपयोगी हों। सह-शिक्षा के प्रश्न पर विचार करते ही हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि पुरुष और नारी को अपने भावी जीवन के लिए किन गुणों की आवश्यकता है। यदि उनका कार्य क्षेत्र एक है, उन दोनों को एक समान सार्वजनिक कार्य करने हैं, एक समान सरकारी या व्यापारिक दफ्तरों में नौकरी करनी है, एक समान अदालतों में वकालत करनी है और एक समान धन उपार्जन करना है, तब तो सह-शिक्षा का विरोध नहीं किया जा सकता। साधारणत: सह- शिक्षा के सभी समर्थक नारी के समान अधिकार और वस्तुतः समान कर्त्तव्यों के समर्थक हैं, इसलिए वे दोनों में एक समान गुणों का विकास आवश्यक समझते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षालयों में, जहाँ चरित्र और स्वभाव का विकास होता है, एक समान वातावरण हो और एक- सी शिक्षा दोनों को दी जाए। किंतु यदि नर और नारी ने पृथक् पृथक् क्षेत्रों में काम करना है, पुरुष ने बाह्य क्षेत्र में काम करना है और नारी ने घर में रह कर संतान का पालन-पोषण करना है, तो यह निश्चित है कि दोनों के जीवन के लिए भिन्न गुणों के विकास की आवश्यकता है। जब यह सिद्धांत स्वीकार कर लिया जाए तो यह भी आवश्यक है कि दोनों के शिक्षालय पृथक्-पृथक् हों, जिनमें वातावरण भिन्न हो, शिक्षण भिन्न हो ताकि दोनों अपने-अपने जीवन के लिए विभिन्न गुणों का विकास कर सकें। हमारी अपनी नम्र सम्मति में नारी का कार्य क्षेत्र घर है, बाहरी दुनिया नहीं। नारी का सफल जीवन उसके मातृत्व में है। मंगलमय भगवान् की यही व्यवस्था है। पुरुष में पौरुष, दृढ़ता, कठोर परिश्रम, वीरता, साहस आदि गुणों के विकास की आवश्यकता है और नारी में स्नेह, धैर्य, ममता, सहानुभूति आदि गुणों के विकास की आवश्यकता है। इन भिन्न-भिन्न गुणों के विकास के लिए भिन्न वातावरण और भिन्न-भिन्न शिक्षणक्रम की आवश्यकता है। यों भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास अथवा साधारण विज्ञान आदि विषय दोनों प्रकार के शिक्षालयों में एक प्रकार से पढ़ाए जाएँगे। परंतु नर और नारी के कला-कौशल भिन्न-भिन्न होंगे। नारी को गृह-धर्म सिखाना होगा और पुरुष को शासन, सैनिक शिक्षा, व्यापार तथा उद्योग आदि। मूल प्रश्न यह है कि नारी का कार्य क्षेत्र क्या है। यदि उसे बाह्य क्षेत्र में काम करना है तो सह-शिक्षा में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि इसके विपरीत नारी का आदर्श सच्ची गृहिणी और आदर्श माँ बनना है तो उनके शिक्षालय पृथक् ही होने चाहिएँ। श्राज का युग नारी के समानाधिकार का है और समानाधिकार का अर्थ शिक्षित नारी समझती है एक समान कर्त्तव्य और एक कार्य-क्षेत्र। और इसलिए आज इस बात की संभावना बहुत कम है कि सह-शिक्षा की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जा सकेगा।