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हिंदू समाज में वर्णाश्रम धर्म

varnashram par hindi men ek shandaar nibandh

यदि हम वर्णाश्रमधर्म के प्राचीनतम इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें ज्ञान होता है कि वर्णों की व्यवस्था एक ऐसे काल में की गई थी जब वैसा करना अनिवार्य था। नित्य प्रति के संघर्ष आर्यों और अनार्यों के बीच चलते थे। समाज विस्तृत होता जा रहा था। इसलिए समाज का समस्त कार्यभार अव्यवस्थित रूप से नहीं संभाला जा सकता था। आर्यजाति ने उस काल में वर्णाश्रम-धर्म की व्यवस्था करके मानव जीवन को चार प्रधान भागों में विभाजित कर दिया-(1) विद्या का पठन-पाठन, (2) समाज की रक्षा, (3) धन और अन्न उपार्जन, तथा (4) इन तीनों काम करने वालों की सेवा करना।

इस प्रकार समाज विभाजित होकर अपने-अपने कार्य में जुट गए और कुछ ही दिनों में आर्यजाति ने आशातीत उन्नति की। जीवन के सभी कार्यों का संचालन भली-भाँति होने लगा और मानव समाज में कोई भी ऐसा व्यक्ति न रहा जिसका कि कुछ कर्तव्य न हो। यदि वह विद्या की ओर संलग्न है तो वह ब्राह्मण है, यदि वीर पराक्रमी है तो वह क्षत्रिय है, यदि धनोपार्जन में रुचि रखता है तो वह वैश्य है और यदि इन तीनों कार्यों में कुछ नहीं कर सकता तो वह सेवा भार तो अपने ऊपर ले ही सकता है। इसी प्रकार व्यवस्थित होकर आर्य समाज ने राज व्यवस्था, कला कौशल, उद्योग-धंधे, व्यापार इत्यादि सभी क्षेत्रों में संसार का प्रतिनिधित्व किया।

इस वर्ण व्यवस्था का सबसे बड़ा गुण आर्य समाज के संचालकों ने यह रखा था कि इसका आधार जन्म पर न होकर कर्म पर था। वर्णों का विभाजन कर्मों के आधार पर होता था। एक शूद्र विद्याध्ययन करके ब्राह्मण बन सकता था और ब्राह्मण बुरे काम करके शुद्र हो सकता था। प्राचीन साहित्य में ऐसे दृष्टान्त हैं कि जहाँ शिकारी ज्ञान प्राप्त करके महामुनि हो गए हैं और रावण जैसे ब्राह्मण आचार्य राक्षस कहलाए हैं। वर्ण व्यवस्था का यह मूल सिद्धांत धीरे-धीरे ह्रास को प्राप्त होता चला गया और इसी के ह्रास के साथ-साथ वर्णाश्रम धर्म का महत्त्व भी नष्ट होने लगा।

शक्ति पाकर शक्ति खोना कोई नहीं चाहता, या फिर वह शक्ति निर्बल होकर देनी पड़ती है अथवा उनसे छीन ली जाती है। ब्राह्मण जाति के हाथों में शक्ति आई और उन्होंने अपनी संतान को मायाजाल में फँसाकर वर्णाश्रम धर्म के मूल सिद्धांतों को भुला दिया। ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण कहलाए चाहे उसके आचरण कैसे भी क्यों न हों। मानव-मानव में स्वार्थ के वशीभूत होकर घृणा और विद्वेष की भावना का प्राबल्य हुआ। अपनी-अपनी शक्ति को सुसंगठित रखने के लिए वर्णों की सीमाओं को रूढ़िवादों के आधार पर बाँध दिया गया। वर्ण शब्द का एक प्रकार से लोप सा दिखाई देने लगा और इसके स्थान पर जाति शब्द का प्रयोग प्रचलित हो गया। मानव समाज को जातियों में विभा-जित किया जाने लगा और ज्यों-ज्यों मानव समाज का विस्तार हुआ त्यों-त्यों जातियों की संख्या भी बढ़ने लगी। इस प्रकार संख्याओं का बढ़ना स्वाभाविक ही था क्योंकि व्यवस्था गुणों से हटकर जन्म पर आधारित हो चुकी थी, और जन्म की व्यवस्था को सीमित नहीं किया जा सकता था।

गुणों की व्यवस्था समाप्त होकर जन्म की व्यवस्था होने पर समाज अंग-प्रत्यंगों के विभाजन में आ जाने से समाज का जो सबसे बड़ा अहित हुआ वह यह था कि मानव के विकास तथा उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हो गया। जाति-बंधन के प्रतिबंधों ने मानव के बुद्धिवाद, अनुभूति और विकासवाद तीनों का गला घोट दिया और जनता का साम्राज्य मानव पर छा गया। धन संपत्ति की भाँति बुद्धि, गुण-आचरण, यश और पांडित्य भी बपौती के रूप में समाज के व्यक्तियों को प्राप्त होने और उनके लिए करने को कुछ अवशेष ही न रहा। ब्राह्मण का पुत्र पंडित है और वैश्य का सेठ, क्षत्रिय-पुत्र वीर है और शूद्र-पुत्र दास। इससे अधिक बढ़ने के लिए किसी को कोई सुविधा न थी। यहाँ तक कि धर्म के पाखंडों ने अपना जाल फैलाया कि शुद्र यदि वेद-मंत्र अकस्मात् भी सुन ले तो उसके कानों में गर्म करवाकर सीसा भरवा दिया गया। इस वर्णाश्रम धर्म की यहाँ तक दुर्गति हुई।

इसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म और जैन धर्म का विकास हुआ। यह वर्णाश्रम धर्म ही एक प्रकार से ब्राह्मण धर्म कहलाता है। और इसी के आचरणों के विरुद्ध बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने विद्रोह किया। यह सब विद्रोह हुए, अनेकों बवंडर उठे। विधर्मियों के आक्रमण हुए, शताब्दियों तक भारतीय सत्ता पदाक्रांत होती रही परंतु ब्राह्मण धर्म की शृंखलाएँ ढीली नहीं पड़ी। यह सत्य है कि शृंखलाओं ने प्रगतिवाद को धक्का पहुँचाया परंतु मध्य युग में भक्ति के रूप में हृदयवाद को इतने विशाल रूप में जन्म दिया कि हिंदू समाज के चारों वर्णों के नैराश्य को अपनी भावना की धारा में प्रवाहित कर दिया। इस धारा ने भारतीय पुराने वर्णाश्रम धर्म पर कुठाराघात नहीं किया परंतु धर्म-क्षेत्र में सब वर्गों को स्वाधीनता दे डाली। रामायण पढ़ने का एक शूद्र को उतना ही अधिकार प्राप्त हो गया जितना कि एक ब्राह्मण को भक्ति की इस धारा ने भारतीय समाज के विचारों में भी एक क्रांति को जन्म दिया और उनका उस काल में विद्रोह भी कम नहीं हुआ। भाषा में ग्रंथों का होना और फिर इसे सभी वर्णों को उन्हें पढ़ने का समानाधिकार देना बपौती के रूप में धर्म के ठेकेदारों के मार्ग में कठिन बाधा बनकर खड़ा हो गया। समाज में उनकी पोल खुलने लगी और लोगों की श्रद्धा भी धीरे-धीरे उन पर से उठने लगी। आराम से बैठकर मठों में हलवा-पूड़ी खाने वाले विलासी महन्तों और साधुओं के लिए परीक्षा का समय आ गया। इस प्रकार कर्म के क्षेत्र में चारों वर्णों को स्वाधीनता मिली। परंतु फिर भी शूद्रों को मंदिरों में जाने का अधिकार नहीं था। उन्हें अपने मंदिर पृथक बनवाने पड़े।

समाज की प्रगति फिर भी न रुक सकी। धार्मिक क्षेत्र में स्वतंत्रता मिलने पर भी समाज का व्यापक क्षेत्र अधूरा-सा रह गया जहाँ वर्णों को अभी तक इसी प्रकार गलत समझा जा रहा था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज द्वारा पुरातन आर्य प्रणाली के अनुसार फिर से हिंदू जनता के सम्मुख वर्ण-व्यवस्था के गूढ़ सिद्धांतों को रखा और देश भर में एक बड़ा भारी सामाजिक और धार्मिक आंदोलन खड़ा किया। शूद्रों को आर्यसमाज का सदस्य बनाकर ब्राह्मणों के साथ बिठलाया और महात्मा गांधी ने उस रहे-सहे कलंक को भारत के मस्तक से धोने का प्रयत्न किया परंतु फिर भी उस प्राचीन वर्ण-व्यवस्था का बिगड़ा हुआ रूप जो भारत की असंख्य जातियों में व्यापक हो चुका है, वह आज भी ज्यों-का-त्यों वर्तमान है। बड़े-बड़े विद्वानों में आज जातीयता की संकुचित भावना मिलती है। पांडेय पांडेय को शर्मा शर्मा को, सिख सिख को इसी प्रकार जीवन में सब संप्रदाय अपने-अपने लोगों को सहायता देकर योग्य व्यक्तियों के मार्ग में बाधक बनते हैं। जातीयता की भावना ने इस संकीर्ण मनोवृत्ति को जन्म दिया और वह भारतीय समाज के उत्थान में रुकावट है। वर्णाश्रम धर्म आज भी सिद्धांत रूप में बुरा नहीं। व्यवहार रूप में भारत के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ है और हो रहा है परंतु आज के समाज में यह भावना अधिक दिन तक न ठहर सकेगी। मानववाद के अटल सिद्धांत के सम्मुख इस संकुचित भावना का लोप हो जाना होगा और वर्णों का विभाजन होगा अवश्य, परंतु यह प्राचीन आर्य-काल की ही भाँति गुणों के ही आधार पर करना होगा।

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