मनुष्य का विकास पशुओं से हुआ है, यह सिद्धांत सत्य हो या न हो, पर इसकी पुष्टि मनुष्य के स्वभाव से अवश्य की जा सकती है। वह सदा से प्रकृति से और अपने समीपवर्ती मानव से संघर्ष करता आया है। संघर्ष, झगड़ा और युद्ध उसके स्वभाव का अंग बन गया है। जब से मानव का इतिहास मिलता है, वह युद्ध करता रहा है। सच तो यह है कि मानव जाति का इतिहास युद्धों और भारी संघर्षों के इतिहास के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। एक रूप में मानव इतिहास में से युद्धों को निकाल दीजिए— आयों के भारत प्रवेश पर द्रविड़ों और आदिम जातियों के संघर्ष, राम-रावण युद्ध, महाभारत, विभिन्न राजवंशों के सत्ता प्राप्ति के लिए किए गए युद्ध, चंद्रगुप्त व समुद्रगुप्त के युद्ध, मुस्लिम आक्रमण, मराठों के युद्ध, अंग्रेजों के युद्ध आदि को निकाल दीजिए, तो भारत का इतिहास क्या रह जाएगा? भारतीय इतिहास के संबंध में जो सत्य है, वही आम देशों के संबंध में भी सत्य है। वस्तुतः युद्ध मानव की मूलभूत भावना है। यह भावना उसे यहां से विरासत में मिली हो या उसका सहज संस्कार हो, यह प्रश्न पृथक् है। यही कारण है कि वेद व शास्त्रों के शांति व प्रेम के उपदेशों के बावजूद आज भी मानव किसी भी क्षण दानव के रूप में दीखने लगता है।
दानवी शक्ति का स्वामी
ज्यों-ज्यों नए से नए शस्त्रों का आविष्कार होता गया, मानव की दानवता भी बढ़ती गई है, पत्थरों व लाठियों से वह युद्ध नहीं करता, तलवारों व बन्दूकों से भी वह आज युद्ध नहीं करता। आज तो वह विध्वंसक वायुयानों पर बैठकर अणुबमों से अथवा 50-100 मील दूर तक मार करने वाले राकेटों या भयंकर तोपों से युद्ध करता है। आज वह एक-एक आदमी को मारने के लिए उससे अलग-अलग कुश्ती नहीं करना चाहता, वह तो जान गया है कि किस तरह अचानक ही रात के गहरे अंधकार में चुपचाप वायुयान द्वारा सोते हुए हजारों नागरिकों – बच्चे-बूढ़े, नर-नारियों – पर दो-एक बम गिराकर उन्हें मारा जा सकता है। आज तो वह हिरोशिमा पर एक अणुबम फेंककर 30-40 हजार आदमियों को दो क्षणों में मार सकता है, क्षण भर में सृष्टि को प्रलय में परिणत कर सकने की दानवी सामर्थ्य उसे प्राप्त हो गई है। कौन जाने वैज्ञानिकों द्वारा होने वाले निरंतर नए आविष्कार उद्जन बमों और रॉकेट बमों के रूप में उसकी विध्वंसक शक्ति किस असीम मात्रा तक बढ़ाते हैं।
विनाश का उन्माद
विज्ञान के द्वारा प्राप्त यह दैत्य शक्ति ही आज मानव के सामने एक भयंकर समस्या अथवा एक बृहदाकार प्रश्न बनकर उपस्थित हो गई है। यों युद्ध तो पहले भी होते थे, पर मनुष्य चाहकर भी भयंकर विनाश नहीं कर सकता था, उसकी शक्ति अत्यंत सीमित थी। ज्यों-ज्यों वह अपनी बुद्धि व विज्ञान बल से अधिकाधिक विध्वंसक शक्ति प्राप्त करता गया, त्यों-त्यों संसार की समस्त मानव जाति और उसकी समस्त सभ्यता के विनाश का खतरा प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अभी बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध ही बीता है कि विश्व दो महान विश्व युद्धों द्वारा होने वाली भीषण क्षति को भूलकर तीसरे प्रलयकारी युद्ध को तैयारी में जुट गया है। प्रशांत महासागर हो या अन्ध महासागर, पूर्व हो या पश्चिम, साम्यवादी देश हों या लोकतंत्रवादी, विनाशकारी रणताण्डव के लिए समस्त देश उन्नत हो रहे हैं।
एक के बाद एक युद्ध
यह ठीक है कि मानव का मननशील मन कभी-कभी इन विध्वंसों को देख कर क्षण भर के लिए अपनी मूर्खतापूर्ण प्रवृत्तियों पर चिंतन करने लगता है और युद्धों से बचने का उपाय सोचने लगता है। दो देशों में परस्पर संधियाँ होती हैं, राष्ट्रसंघ बनते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि अब युद्ध का खतरा दूर हो गया और संसार में शांति का राज्य स्थापित हो जाएगा, परंतु कुछ समय भी नहीं बीतने पाता और संधिपत्र की स्याही भी नहीं सूखने पाती कि नए युद्ध की तैयारियाँ होने लगती हैं। वस्तुतः जो संधियाँ की जाती हैं, वे सौहार्द का परिणाम नहीं होतीं, वे तो पराजित को दबाने लिए की जाती हैं। फल यह होता है कि उसी संधि में आगामी युद्ध के बीज बो दिए जाते हैं। प्रथम विश्व- युद्ध के बाद की संधि में दूसरे विश्व युद्ध के बीज बो दिए गए थे और दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही तीसरे विश्व युद्ध के जन्म का कारण पैदा हो गया था। आज एक ओर संयुक्त राष्ट्रसंघ और पंचशील का नारा लग रहा है, तो दूसरी ओर संसार फिर दो संघर्षशील गुटों में बँट गया है। कई राष्ट्र मिलकर अपनी सामूहिक रक्षा की तैयारी में लग गए हैं। एक ओर अमेरिका पश्चिमी राष्ट्रों से कुछ संधियाँ कर चुका है, तो दूसरी ओर साम्यवादी राष्ट्र भी इसी प्रकार का रक्षात्मक गुट बना चुके हैं। प्रतिदिन शांति और निःशस्त्रीकरण का नारा लगाते हुए भी रूस, अमेरिका और ब्रिटेन अणु व उद्जन बमों के परीक्षणों में लगे हुए हैं। ये परीक्षण – भयंकर विस्फोट ही मानव जाति के जीवन लिए खतरा बन रहे हैं। आजकल बिकनी द्वीप समूह में अथवा उत्तरी ध्रुव की ओर अणु व उद्जन बम के जो परीक्षण हो रहे हैं वे विश्व के वायुमंडल को विषाक्त कर रहे हैं। पिछले दिनों अनेक रोगों का कारण भी वातावरण का रेडियो सक्रिय हो जाना बताया जाता है।
भयंकर विनाश का खतरा
भारत सरकार ने समस्त प्रश्न पर विचार करने के लिए वैज्ञानिकों का एक कमीशन नियत किया था। इसे कहा गया था कि वह उपलब्ध सामग्री के आधार पर अणु तथा अन्य महाविनाशकारी शस्त्रास्त्रों के उपयोग के परिणामों का अध्ययन करे। इन वैज्ञानिकों ने जो परिणाम निकाले हैं, उनसे प्रकट होता है कि इन अस्त्रों का परिणाम बहुत भयंकर होगा। मानव संस्कृति के सब अमूल्य चिह्न नष्ट हो जाएँगे, मानव जाति के स्वरूप पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। एक दफा जापानी मछियारों ने जो हजारों मछलियाँ पकड़ी थीं, वे सब रेडियो परमाणुओं से विषाक्त अतः अखाद्य हो गई थीं। उपर्युक्त वैज्ञानिकों की सूचना के अनुसार हाल के परीक्षणों में अनुमानत: 15 उद्जन बमों का विस्फोट हो चुका है। एक 20 मीगेटन (उद्जन) बम’ में उतनी ही शक्ति होती है, जितनी एक बड़े भूकम्प या बवंडर में। दूसरे शब्दों में दुनिया में सालाना कुल जितनी बिजली तैयार होती है, उसके 2 प्रतिशत के बराबर शक्ति इस एक बम में होती है। एक बम के विस्फोट से आज संसार का बड़े से बड़ा संपूर्ण नगर उड़ाया जा सकेगा। इसके रेडियो- सक्रियाणु विश्व के सब से बड़े किसी एक देश को ध्वंस करने के लिए काफी हैं। यदि यह बम परंपरागत विस्फोटक पदार्थों से बनाया जाए, तो मोटे तौर से इसकी लागत ही करोड़ों पौंड होगी। इसकी तुलना में अणु बम विनाशक शक्ति के दृष्टिकोण से, संसार में सबसे सस्ता पड़ता है— परंपरागत हथियारों से इसकी लागत हजारवाँ हिस्सा भी नहीं पड़ती। जब वैज्ञानिक सस्ते विनाश-साधन का आविष्कार कर रहा है, तो विनाश के लिए युद्ध में इसके प्रयोग का प्रलोभन रोकना युद्धोन्मुख राष्ट्र के लिए अत्यंत कठिन हो जाता है।
अणु विस्फोटों के रेडियो सधर्मी तत्त्वों का मौसम, समुद्र के जीवों, मछलियों तथा हवा और पानी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसका भावी संतति पर – मानव प्रजनन शक्ति पर भी खतरनाक प्रभाव पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि आज के परीक्षण न केवल आज के मानव को, परंतु आने वाले मानवों को भी भयंकर क्षति पहुँचाए बिना न रहेंगे। यही कारण है कि संसार के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने जिनमें अलबर्ट आइन्सटीन, परसी ब्रिडमैन, ल्यूपोल्ड इन्फ्लैंड, हरमेन जे. मुलर, सिसेल एफ॰ पावेल, जोसेफ रोटव्लेट, बरट्रेड रसेल, हाईडेकी यकूवा, जान फेडिक इत्यादि सम्मिलित हैं — विश्व को एक चेतावनी दी थी। इन संसारप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने इस समस्या को, जो आज मानवता के सन्मुख उपस्थित है, बड़े साफ शब्दों में रखा था – “या तो मानव-जाति को मिटना पड़ेगा या युद्धों को तिलांजलि देनी होगी?”
अणुबमों पर रोक
मानव की पशु-प्रवृत्ति जब अणुबम का साधन पा लेगी तब वह उसे प्रयुक्त करने का प्रलोभन रोक सकेगी, इसमें पूर्ण संदेह है। यही कारण है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू अणुबमों के परीक्षणों पर भी पाबन्दी लगाने का आंदोलन कर रहे हैं। पर न अमेरिका इन्हें बंद करने को तैयार है, न रूस। रूसी नेता जब भारत में पंचशील का नारा लगा रहे थे, तब रूसी वैज्ञानिक उद्जन बम का भयंकर विस्फोट कर रहे थे। अब तो ऐसे अस्त्र निकलने लगे हैं कि बिना वायुयानों के ही 3 – 3 हजार मील दूर तक फेंक कर शत्रु देश को नष्ट-भ्रष्ट किया जा सकता है। इसी को देखकर डर लगता है कि यह विश्व, हजारों वर्षों तक उन्नति की दिशा में मानव के प्रयत्न – मानव- सभ्यता के चिह्न – बड़े-बड़े नगर, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, बड़े-बड़े लोहमय दानवाकार कारखाने और मानव जाति की यह संस्कृति सब कुछ किसी भी समय इतिहास की वस्तु रह जाएँगे, यदि सिर्फ कुछ उन्मत्त राजनीतिज्ञों व शासकों ने संयम से काम न लिया। यदि संसार को मानव जाति को जीवित रहना है, तो अणुशक्ति का प्रयोग सर्वथा निषिद्ध करना होगा।
परंतु
परंतु प्रश्न यह है कि क्या आज की भौतिकवादी सभ्यता में मानव अपने ऊपर संयम कर लेगा? क्या वह अणुशक्ति हाथ में रहने पर भी उसका प्रयोग नहीं करेगा? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि युद्ध को सर्वदा के लिए समाप्त करना है, तो आज की भौतिकवादी सभ्यता ही छोड़नी पड़ेगी, अपनी प्रवृत्तियों को अंतर्मुखी करना होगा, जीवन स्तर को ऊँचा करने का प्रलोभन छोड़कर सादे जीवन व ऊँचे विचार को अपनाना होगा, बड़ी मशीनरी के स्थान पर चरखा चलाना पड़ेगा। परंतु क्या प्राज विश्व महात्मा गांधी की आवाज सुनने को तैयार है?