(1896—1967)
प्रारंभ में अध्यापन कार्य करने के बाद लंबे समय तक स्वतंत्र रूप से राष्ट्र और साहित्य सेवा में जुटे रहे। ‘विशाल भारत’ के संपादक के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त की। हिंदी में ‘शिकार साहित्य’ के अग्रणी लेखक माने गए। प्रमुख रचनाएँ : शिकार, बोलती प्रतिमा तथा जंगल के जीव (शिकार संबंधी पुस्तकें), सेवाग्राम की डायरी एवं सन् बयालीस के संस्मरण इत्यादि।
‘स्मृति’ कहानी लेखक (श्रीराम शर्मा) के बचपन की यादों का वह ऐसा लोमहर्षक ब्योरा है, जिसे पढ़कर क्षणभर के लिए बच्चों की शरारतों और उनसे उत्पन्न गंभीर परिस्थितियों को देखकर हृदय काँप उठता है तथा मन अज्ञात आशंका से सिहर उठता है। इस कहानी का घटनाक्रम स्वाभाविक और लेखन-शैली अत्यंत रोमांचक है। प्रत्येक पंक्ति के साथ परिस्थिति की गंभीरता, बालमन की विवशता और प्रतिपल सामने आए खतरे का वर्णन पाठक के कौतूहल को आदि से अंत तक बनाए रखता है। बच्चों की शरारतें, उनकी जिज्ञासाएँ, अटूट आत्मविश्वास और खेल कभी-कभी उन्हें ऐसे कठिन एवं जोखिम से भरे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती हैं, जहाँ से सकुशल बाहर निकलना, दैवी-कृपा और अदम्य उत्साह शक्ति पर ही निर्भर है। कच्चे कुएँ के घरातल पर विषैले सर्प के साथ भिड़कर, गिरी हुई चिट्ठियों को उठाना, एक लाठी के सहारे साँप से मुकाबला करना, पूर्व निर्धारित योजना को बदलकर नई योजना बनाना, लेखक के बालमन के अदम्य साहस एवं ज़िम्मेदारी की भावना का परिचायक है।
हालाँकि पाठ में वर्णित ये कथन कि सूखे कुएँ में लगभग दो महीने से साँप गिरा हुआ था ये मुझे कुछ हजम नहीं होता क्योंकि दो महीने उस सूखे कुएँ में साँप ने क्या खाकर खुद को ज़िंदा रखा होगा ये सोचने का विषय है। परंतु विज्ञान की माने तो यह साँप पर निर्भर करता है कि वह कितना अच्छा भोजन पा रहा है। यह देखना आम बात है कि जंगल में साँप 3 से 6 महीने तक बिना खाए रहते हैं। उनमें अपने चयापचय (Metabolism) को धीमा करने की अद्भुत क्षमता होती है।
बेर तोड़कर लेखक का घर आना
लेखक का डाकखाने के लिए प्रस्थान-
रास्ते के कच्चे कुएँ में चिट्ठियों का गिरना-
जोखिम भरा निर्णय-
धोती के सहारे कुएँ में उतरना
साँप के साथ दाँव-पेंच
लेखक साँप को परास्त करना
लेखक की जीत
सन् 1915 में मैट्रीक्युलेशन पास करने के उपरांत यह घटना माँ को सुनाना।
1908 ई. के सर्दी के दिन थे। लड़कों के साथ शाम को झरबेरी के बेर तोड़ते समय लेखक को उसका भाई बुलाता है। वह उसे मक्खनपुर डाकखाने में कुछ चिट्ठियाँ डालने को देता है। लेखक और उसका भाई अपनी धोती और बबूल का डंडा लेकर रवाना हुए। कुर्ते में जेब न होने के कारण वह चिट्ठियों को टोपी के भीतर रख लेता है। लेखक के गाँव से चार फर्लांग की दूरी पर एक चौबीस हाथ गहरा कच्चा कुआँ था, जिसमें पानी नहीं था। उसमें एक भयंकर साँप गिर पड़ा था। गाँव से मक्खनपुर स्कूल जाते समय लेखक भी अन्य बच्चों के साथ उस कच्चे कुएँ में डेले फेंककर प्रायः रोज ही साँप की फुफकार सुनता था आज भी लेखक उस कच्चे कुएँ की ओर बढ़ा और उसने एक ढेला उठाकर जैसे ही कुएँ में फेंका, उसकी टोपी से निकलकर चिट्ठियाँ कुएँ में जा गिरीं। लेखक की तो जैसे जान ही निकल गई। दोनों भाई चिट्ठियों के कुएँ में गिर जाने से बहुत घबरा गए। उन्हें सच बोलने पर पिटाई का भय था और उस समय तक लेखक झूठ बोलना जानता नहीं था। बड़ा भारी संकट खड़ा हो गया था। करें तो क्या करें ? अन्ततः लेखक ने कुएँ में उतरकर चिट्ठियाँ निकालने का निश्चय किया। यह निर्णय बहुत जोखिम भरा था। कुएँ में उतरने का निर्णय आसान था किंतु उसे कार्य रूप में बदलना कठिन। लेखक ने तरकीब सोची। उसने पाँच धोतियाँ इकट्ठी कीं। दो धोतियाँ दोनों भाइयों ने पहन रखी थीं। दो से वे अपने कान बाँधे हुए थे और एक में चने बँधे थे। इन पाँच धोतियों को गाँठ लगाकर रस्सी की भाँति बनाया। धोती के एक सिरे को कुएँ पर रखी डेंग (वह लकड़ी जिस पर चरसपुर टिकता है) से बाँधा और उसे छोटे भाई को पकड़ा दिया और दूसरे सिरे में डंडे बाँधकर कुएँ में लटका दिया। लेखक धोती के सहारे धीरे-धीरे कुएँ में उतरने लगा।
लेखक ने कई तरह के प्रयास किये चिट्ठियों को निकालने के पर सब विफल रहे, फिर उसने अपने दोनों पैर कुएँ के सतह पर लगाकर डंडे की सहायता से साँप के पास पड़ी चिट्ठियों को अपनी ओर करने का प्रयास किया। साँप ने बहुत विरोध किया, उसने डंडे पर अपना विष तक उगल दिया, फिर उसने साँप को बिना मारे ही कुएँ से चिट्ठियाँ निकालने का प्रयत्न किया। अन्ततः वह चिट्ठियाँ निकाल पाने में सफल रहा। चिट्ठियाँ धोती के पल्ले में बाँध दी गई और ऊपर बैठे छोटे भाई ने उन्हें ऊपर खींच लिया। फिर लेखक महज ग्यारह वर्ष की उम्र में छत्तीस फुट ऊपर चढ़कर किसी प्रकार कुएँ से निकल आया।
सन् 1908 ई. की बात है। दिसंबर का आखिर या जनवरी का प्रारंभ होगा। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था। दो-चार दिन पूर्व कुछ बूँदा-बाँदी हो गई थी, इसलिए शीत की भयंकरता और भी बढ़ गई थी। सायंकाल के साढ़े तीन या चार बजे होंगे। कई साथियों के साथ मैं झरबेरी के बेर तोड़-तोड़कर खा रहा था कि गाँव के पास से एक आदमी ने ज़ोर से पुकारा कि तुम्हारे भाई बुला रहे हैं, शीघ्र ही घर लौट जाओ। मैं घर को चलने लगा। साथ में छोटा भाई भी था। भाई साहब की मार का डर था इसलिए सहमा हुआ चला जाता था। समझ में नहीं आता था कि कौन-सा कसूर बन पड़ा। डरते-डरते घर में घुसा।
आशंका थी कि बेर खाने के अपराध में ही तो पेशी न हो। पर आँगन में भाई साहब को पत्र लिखते पाया। अब पिटने का भय दूर हुआ। हमें देखकर भाई साहब ने कहा – “इन पत्रों को ले जाकर मक्खनपुर डाकखाने में डाल आओ। तेज़ी से जाना, जिससे शाम की डाक में चिट्ठियाँ निकल जाएँ। ये बड़ी ज़रूरी हैं।”
जाड़े के दिन थे ही, तिस पर हवा के प्रकोप से कँप-कँपी लग रही थी। हवा मज्जा तक ठिठुरा रही थी, इसलिए हमने कानों को धोती से बाँधा। माँ ने भुँजाने के लिए थोड़े चने एक धोती में बाँध दिए। हम दोनों भाई अपना-अपना डंडा लेकर घर से निकल पड़े। उस समय उस बबूल के डंडे से जितना मोह था, उतना इस उमर में रायफल से नहीं। मेरा डंडा अनेक साँपों के लिए नारायण-वाहन हो चुका था। मक्खनपुर के स्कूल और गाँव के बीच पड़ने वाले आम के पेड़ों से प्रतिवर्ष उससे आम झुरे जाते थे। इस कारण वह मूक डंडा सजीव-सा प्रतीत होता था।
प्रसन्नवदन हम दोनों मक्खनपुर की ओर तेज़ी से बढ़ने लगे। चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया, क्योंकि कुर्ते में जेबें न थीं।
हम दोनों उछलते-कूदते, एक ही साँस में गाँव से चार फर्लांग दूर उस कुएँ के पास आ गए जिसमें एक अति भयंकर काला साँप पड़ा हुआ था। कुआँ कच्चा था, और चौबीस हाथ गहरा था। उसमें पानी न था। उसमें न जाने साँप कैसे गिर गया था? कारण कुछ भी हो, हमारा उसके कुएँ में होने का ज्ञान केवल दो महीने का था। बच्चे नटखट होते ही हैं। मक्खनपुर पढ़ने जाने वाली हमारी टोली पूरी बानर टोली थी। एक दिन हम लोग स्कूल से लौट रहे थे कि हमको कुएँ में उझकने की सूझी। सबसे पहले उझकने वाला मैं ही था। कुएँ में झाँककर एक ढेला फेंका कि उसकी आवाज़ कैसी होती है। उसके सुनने के बाद अपनी बोली की प्रतिध्वनि सुनने की इच्छा थी, पर कुएँ में ज्योंही ढेला गिरा, त्योंही एक फुसकार सुनाई पड़ी।
कुएँ के किनारे खड़े हुए हम सब बालक पहले तो उस फुसकार से ऐसे चकित हो गए जैसे किलोलें करता हुआ मृगसमूह अति समीप के कुत्ते की भौंक से चकित हो जाता है। उसके उपरांत सभी ने उछल-उछलकर एक-एक ढेला फेंका और कुएँ से आने वाली क्रोधपूर्ण फुसकार पर कहकहे लगाए।
गाँव से मक्खनपुर जाते और मक्खनपुर से लौटते समय प्रायः प्रतिदिन ही कुएँ में ढेले डाले जाते थे। मैं तो आगे भागकर आ जाता था और टोपी को एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से ढेला फेंकता था। यह रोज़ाना की आदत-सी हो गई थी। साँप से फुसकार करवा लेना मैं उस समय बड़ा काम समझता था। इसलिए जैसे ही हम दोनों उस कुएँ की ओर से निकले, कुएँ में ढेला फेंककर फुसकार सुनने की प्रवृत्ति जाग्रत हो गई। मैं कुएँ की ओर बढ़ा। छोटा भाई मेरे पीछे ऐसे हो लिया जैसे बड़े मृगशावक के पीछे छोटा मृगशावक हो लेता है। कुएँ के किनारे से एक ढेला उठाया और उछलकर एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर ढेला गिरा दिया, पर मुझ पर तो बिजली-सी गिर पड़ी। साँप ने फुसकार मारी या नहीं, ढेला उसे लगा या नहीं यह बात अब तक स्मरण नहीं। टोपी के हाथ में लेते ही तीनों चिट्ठियाँ चक्कर काटती हुई कुएँ में गिर रही थीं। अकस्मात् जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली से हत होने पर निकल जाती है और वह तड़पता रह जाता है, उसी भाँति वे चिट्ठियाँ क्या टोपी से निकल गईं, मेरी तो जान निकल गई। उनके गिरते ही मैंने उनको पकड़ने के लिए एक झपट्टा भी मारा; ठीक वैसे जैसे घायल शेर शिकारी को पेड़ पर चढ़ते देख उस पर हमला करता है। पर वे तो पहुँच से बाहर हो चुकी थीं।
उनको पकड़ने की घबराहट में मैं स्वयं झटके के कारण कुएँ में गिर गया होता। कुएँ की पाट पर बैठे हम रो रहे थे – छोटा भाई ढाढ़ें मारकर और मैं चुपचाप आँखें डबडबाकर। पतीली में उफ़ान आने से ढकना ऊपर उठ जाता है और पानी बाहर टपक जाता है। निराशा, पिटने के भय और उद्वेग से रोने का उफ़ान आता था। पलकों के ढकने भीतरी भावों को रोकने का प्रयत्न करते थे, पर कपोलों पर आँसू ढुलक ही जाते थे। माँ की गोद की याद आती थी। जी चाहता था कि माँ आकर छाती से लगा ले और लाड़-प्यार करके कह दे कि कोई बात नहीं, चिट्ठियाँ फिर लिख ली जाएँगी। तबीयत करती थी कि कुएँ में बहुत-सी मिट्टी डाल दी जाए और घर जाकर कह दिया जाए कि चिट्ठी डाल आए, पर उस समय मैं झूठ बोलना जानता ही न था। घर लौटकर सच बोलने पर रुई की तरह धुनाई होती। मार के खयाल से शरीर ही नहीं मन भी काँप जाता था। सच बोलकर पिटने के भावी भय और झूठ बोलकर चिट्ठियों के न पहुँचने की ज़िम्मेदारी के बोझ से दबा मैं बैठा सिसक रहा था। इसी सोच-विचार में पंद्रह मिनट होने को आए। देर हो रही थी, और उधर दिन का बुढ़ापा बढ़ता जाता था। कहीं भाग जाने को तबीयत करती थी, पर पिटने का भय और ज़िम्मेदारी की दुधारी तलवार कलेजे पर फिर रही थी।
दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियाँ कट जाती हैं। मेरी दुविधा भी दूर हो गई। कुएँ में घुसकर चिट्ठियों को निकालने का निश्चय किया। कितना भयंकर निर्णय था! पर जो मरने को तैयार हो, उसे क्या? मूर्खता अथवा बुद्धिमत्ता से किसी काम को करने के लिए कोई मौत का मार्ग ही स्वीकार कर ले, और वह भी जानबूझकर, तो फिर वह अकेला संसार से भिड़ने को तैयार हो जाता है। और फल? उसे फल की क्या चिंता। फल तो किसी दूसरी शक्ति पर निर्भर है। उस समय चिट्ठियाँ निकालने के लिए मैं विषधर से भिड़ने को तैयार हो गया। पासा फेंक दिया था। मौत का आलिंगन हो अथवा साँप से बचकर दूसरा जन्म – इसकी कोई चिंता न थी। पर विश्वास यह था कि डंडे से साँप को पहले मार दूँगा, तब फिर चिट्ठियाँ उठा लूँगा। इसी दृढ़ विश्वास के बूते पर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी।
छोटा भाई रोता था और उसके रोने का तात्पर्य था कि मेरी मौत मुझे नीचे बुला रही है, यद्यपि वह शब्दों से न कहता था। वास्तव में मौत सजीव और नग्न रूप में कुएँ में बैठी थी, पर उस नग्न मौत से मुठभेड़ के लिए मुझे भी नग्न होना पड़ा। छोटा भाई भी नंगा हुआ। एक धोती मेरी, एक छोटे भाई की, एक चनेवाली, दो कानों से बँधी हुई धोतियाँ – पाँच धोतियाँ और कुछ रस्सी मिलाकर कुएँ की गहराई के लिए काफ़ी हुईं। हम लोगों ने धोतियाँ एक-दूसरी से बाँधी और खूब खींच-खींचकर आज़मा लिया कि गाँठें कड़ी हैं या नहीं। अपनी ओर से कोई धोखे का काम न रखा। धोती के एक सिरे पर डंडा बाँधा और उसे कुएँ में डाल दिया। दूसरे सिरे को डेंग (वह लकड़ी जिस पर चरस-पुर टिकता है) के चारों ओर एक चक्कर देकर और एक गाँठ लगाकर छोटे भाई को दे दिया। छोटा भाई केवल आठ वर्ष का था, इसीलिए धोती को डेंग से कड़ी करके बाँध दिया और तब उसे खूब मज़बूती से पकड़ने के लिए कहा। मैं कुएँ में धोती के सहारे घुसने लगा। छोटा भाई रोने लगा।
मैंने उसे आश्वासन दिलाया कि मैं कुएँ के नीचे पहुँचते ही साँप को मार दूँगा और मेरा विश्वास भी ऐसा ही था। कारण यह था कि इससे पहले मैंने अनेक साँप मारे थे। इसलिए कुएँ में घुसते समय मुझे साँप का तनिक भी भय न था। उसको मारना मैं बाएँ हाथ का खेल समझता था।
कुएँ के धरातल से जब चार-पाँच गज़ रहा हूँगा, तब ध्यान से नीचे को देखा। अक्ल चकरा गई। साँप फन फैलाए धरातल से एक हाथ ऊपर उठा हुआ लहरा रहा था। पूँछ और पूँछ के समीप का भाग पृथ्वी पर था, आधा अग्र भाग ऊपर उठा हुआ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। नीचे डंडा बँधा था, मेरे उतरने की गति से जो इधर-उधर हिलता था। उसी के कारण शायद मुझे उतरते देख साँप घातक चोट के आसन पर बैठा था। सँपेरा जैसे बीन बजाकर काले साँप को खिलाता है और साँप क्रोधित हो फन फैलाकर खड़ा होता और फुँकार मारकर चोट करता है, ठीक उसी प्रकार साँप तैयार था। उसका प्रतिद्वंद्वी – मैं – उससे कुछ हाथ ऊपर धोती पकड़े लटक रहा था। धोती डेंग से बँधी होने के कारण कुएँ के बीचोंबीच लटक रही थी और मुझे कुएँ के धरातल की परिधि के बीचोंबीच ही उतरना था। इसके माने थे साँप से डेढ़-दो फुट – गज़ नहीं – की दूरी पर पैर रखना, और इतनी दूरी पर साँप पैर रखते ही चोट करता। स्मरण रहे, कच्चे कुएँ का व्यास बहुत कम होता है। नीचे तो वह डेढ़ गज़ से अधिक होता ही नहीं। ऐसी दशा में कुएँ में मैं साँप से अधिक-से-अधिक चार फुट की दूरी पर रह सकता था, वह भी उस दशा में जब साँप मुझसे दूर रहने का प्रयत्न करता, पर उतरना तो था कुएँ के बीच में, क्योंकि मेरा साधन बीचोंबीच लटक रहा था। ऊपर से लटककर तो साँप नहीं मारा जा सकता था। उतरना तो था ही। थकावट से ऊपर चढ़ भी नहीं सकता था। अब तक अपने प्रतिद्वंद्वी को पीठ दिखाने का निश्चय नहीं किया था। यदि ऐसा करता भी तो कुएँ के धरातल पर उतरे बिना क्या मैं ऊपर चढ़ सकता था – धीरे-धीरे उतरने लगा। एक-एक इंच ज्यों-ज्यों मैं नीचे उतरता जाता था, त्यों-त्यों मेरी एकाग्रचित्तता बढ़ती जाती थी। मुझे एक सूझ सूझी। दोनों हाथों से धोती पकड़े हुए मैंने अपने पैर कुएँ की बगल में लगा दिए। दीवार से पैर लगाते ही कुछ मिट्टी नीचे गिरी और साँप ने फू करके उस पर मुँह मारा। मेरे पैर भी दीवार से हट गए, और मेरी टाँगें कमर से समकोण बनाती हुई लटकती रहीं, पर इससे साँप से दूरी और कुएँ की परिधि पर उतरने का ढंग मालूम हो गया। तनिक झूलकर मैंने अपने पैर कुएँ की बगल से सटाए, और कुछ धक्के के साथ अपने प्रतिद्वंद्वी के सम्मुख कुएँ की दूसरी ओर डेढ़ गज़ पर – कुएँ के धरातल पर खड़ा हो गया। आँखें चार हुईं। शायद एक – दूसरे को पहचाना। साँप को चक्षुःश्रवा कहते हैं। मैं स्वयं चक्षुःश्रवा हो रहा था। अन्य इंद्रियों ने मानो सहानुभूति से अपनी शक्ति आँखों को दे दी हो। साँप के फन की ओर मेरी आँखें लगी हुई थीं कि वह कब किस ओर को आक्रमण करता है। साँप ने मोहनी-सी डाल दी थी। शायद वह मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था, पर जिस विचार और आशा को लेकर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी थी, वह तो आकाश-कुसुम था। मनुष्य का अनुमान और भावी योजनाएँ कभी-कभी कितनी मिथ्या और उलटी निकलती हैं। मुझे साँप का साक्षात् होते ही अपनी योजना और आशा की असंभवता प्रतीत हो गई। डंडा चलाने के लिए स्थान ही न था। लाठी या डंडा चलाने के लिए काफ़ी स्थान चाहिए जिसमें वे घुमाए जा सकें। साँप को डंडे से दबाया जा सकता था, पर ऐसा करना मानो तोप के मुहरे पर खड़ा होना था। यदि फन या उसके समीप का भाग न दबा, तो फिर वह पलटकर ज़रूर काटता, और फन के पास दबाने की कोई संभावना भी होती तो फिर उसके पास पड़ी हुई दो चिट्ठियों को कैसे उठाता? दो चिट्ठियाँ उसके पास उससे सटी हुई पड़ी थीं और एक मेरी ओर थी। मैं तो चिट्ठियाँ लेने ही उतरा था। हम दोनों अपने पैंतरों पर डटे थे। उस आसन पर खड़े-खड़े मुझे चार-पाँच मिनट हो गए। दोनों ओर से मोरचे पड़े हुए थे, पर मेरा मोरचा कमज़ोर था। कहीं साँप मुझ पर झपट पड़ता तो मैं – यदि बहुत करता तो – उसे पकड़कर, कुचलकर मार देता, पर वह तो अचूक तरल विष मेरे शरीर में पहुँचा ही देता और अपने साथ-साथ मुझे भी ले जाता। अब तक साँप ने वार न किया था, इसलिए मैंने भी उसे डंडे से दबाने का खयाल छोड़ दिया। ऐसा करना उचित भी न था। अब प्रश्न था कि चिट्ठियाँ कैसे उठाई जाएँ। बस, एक सूरत थी। डंडे से साँप की ओर से चिट्ठियों को सरकाया जाए। यदि साँप टूट पड़ा, तो कोई चारा न था। कुर्ता था, और कोई कपड़ा न था जिससे साँप के मुँह की ओर करके उसके फन को पकड़ लूँ। मारना या बिलकुल छेड़खानी न करना – ये दो मार्ग थे। सो पहला मेरी शक्ति के बाहर था। बाध्य होकर दूसरे मार्ग का अवलंबन करना पड़ा।
डंडे को लेकर ज्यों ही मैंने साँप की दाईं ओर पड़ी चिट्ठी की ओर उसे बढ़ाया कि साँप का फन पीछे की ओर हुआ। धीरे-धीरे डंडा चिट्ठी की ओर बढ़ा और ज्योंही चिट्ठी के पास पहुँचा कि फुँकार के साथ काली बिजली तड़पी और डंडे पर गिरी। हृदय में कंप हुआ, और हाथों ने आज्ञा न मानी। डंडा छूट पड़ा। मैं तो न मालूम कितना ऊपर उछल गया। जान-बूझकर नहीं, यों ही बिदककर। उछलकर जो खड़ा हुआ, तो देखा डंडे के सिर पर तीन-चार स्थानों पर पीव-सा कुछ लगा हुआ है। वह विष था। साँप ने मानो अपनी शक्ति का सर्टीफिकेट सामने रख दिया था, पर मैं तो उसकी योग्यता का पहले ही से कायल था। उस सर्टीफिकेट की ज़रूरत न थी। साँप ने लगातार फूँ-फूँ करके डंडे पर तीन-चार चोटें कीं। वह डंडा पहली बार इस भाँति अपमानित हुआ था, या शायद वह साँप का उपहास कर रहा था।
उधर ऊपर फूँ-फूँ और मेरे उछलने और फिर वहीं धमाके से खड़े होने से छोटे भाई ने समझा कि मेरा कार्य समाप्त हो गया और बंधुत्व का नाता फूँ-फूँ और धमाके में टूट गया। उसने खयाल किया कि साँप के काटने से मैं गिर गया। मेरे कष्ट और विरह के खयाल से उसके कोमल हृदय को धक्का लगा। भ्रातृ-स्नेह के ताने-बाने को चोट लगी। उसकी चीख निकल गई।
छोटे भाई की आशंका बेजा न थी, पर उस फूँ और धमाके से मेरा साहस कुछ बढ़ गया। दुबारा फिर उसी प्रकार लिफ़ाफ़े को उठाने की चेष्टा की। अबकी बार साँप ने वार भी किया और डंडे से चिपट भी गया। डंडा हाथ से छूटा तो नहीं पर झिझक, सहम अथवा आतंक से अपनी ओर को खिंच गया और गुंजल्क मारता हुआ साँप का पिछला भाग मेरे हाथों से छू गया। उफ़, कितना ठंडा था! डंडे को मैंने एक ओर पटक दिया। यदि कहीं उसका दूसरा वार पहले होता, तो उछलकर मैं साँप पर गिरता और न बचता, लेकिन जब जीवन होता है, तब हज़ारों ढंग बचने के निकल आते हैं। वह दैवी कृपा थी। डंडे के मेरी ओर खिंच आने से मेरे और साँप के आसन बदल गए। मैंने तुरंत ही लिफ़ाफ़े और पोस्टकार्ड चुन लिए। चिट्ठियों को धोती के छोर में बाँध दिया, और छोटे भाई ने उन्हें ऊपर खींच लिया।
डंडे को साँप के पास से उठाने में भी बड़ी कठिनाई पड़ी। साँप उससे खुलकर उस पर धरना देकर बैठा था। जीत तो मेरी हो चुकी थी, पर अपना निशान गँवा चुका था। आगे हाथ बढ़ाता तो साँप हाथ पर वार करता, इसलिए कुएँ की बगल से एक मुट्ठी मिट्टी लेकर मैंने उसकी दाईं ओर फेंकी कि वह उस पर झपटा, और मैंने दूसरे हाथ से उसकी बाईं ओर से डंडा खींच लिया, पर बात-की-बात में उसने दूसरी ओर भी वार किया। यदि बीच में डंडा न होता, तो पैर में उसके दाँत गड़ गए होते।
अब ऊपर चढ़ना कोई कठिन काम न था। केवल हाथों के सहारे, पैरों को बिना कहीं लगाए हुए 36 फुट ऊपर चढ़ना मुझसे अब नहीं हो सकता। 15-20 फुट बिना पैरों के सहारे, केवल हाथों के बल, चढ़ने की हिम्मत रखता हूँ कम ही, अधिक नहीं। पर उस ग्यारह वर्ष की अवस्था में मैं 36 फुट चढ़ा। बाहें भर गई थीं। छाती फूल गई थी। धौंकनी चल रही थी। पर एक-एक इंच सरक-सरककर अपनी भुजाओं के बल मैं ऊपर चढ़ आया। यदि हाथ छूट जाते तो क्या होता इसका अनुमान करना कठिन है। ऊपर आकर, बेहाल होकर, थोड़ी देर तक पड़ा रहा। देह को झार-झूरकर धोती-कुर्ता पहना। फिर किशनपुर के लड़के को, जिसने ऊपर चढ़ने की चेष्टा को देखा था, ताकीद करके कि वह कुएँ वाली घटना किसी से न कहे, हम लोग आगे बढ़े।
सन् 1915 में मैट्रीक्युलेशन पास करने के उपरांत यह घटना मैंने माँ को सुनाई। सजल नेत्रों से माँ ने मुझे अपनी गोद में ऐसे बिठा लिया जैसे चिड़िया अपने बच्चों को डैने के नीचे छिपा लेती है।
कितने अच्छे थे वे दिन! उस समय रायफल न थी, डंडा था और डंडे का शिकार – कम-से-कम उस साँप का शिकार – रायफल के शिकार से कम रोचक और भयानक न था।
1. रूप – शक्ल
2. ख्याति – प्रसिद्धि
3. अग्रणी – आगे रहने वाला
4. चिल्ला – बहुत अधिक
5. बेर – फल
6. सहमा -डरा हुआ
7. कसूर -दोष
8. आशंका – संदेह
9. अपराध – दोष
10. प्रकोप – Outbreak
11. मज्जा – Bone marrow
12. रायफल – बंदूक
13. कुर्ते – कमीज़
14. मूक – Deaf
15. सजीव – जीवित
16. फर्लांग – 1 Furlong = 201. 168 Meters
17. बानर – बंदर
18. उझकने – झाँकना
19. प्रतिध्वनि – Echo
20. ढेला – पत्थर
21. भौंक – Barking
22. उपरांत – के बाद
23. रोज़ाना – प्रतिदिन
24. आदत – अभ्यास
25. प्रवृत्ति – स्वभाव
26. अकस्मात् – अचानक
27. शिकारी – आखेटक
28. घायल – ज़ख़्मी
29. उद्वेग – चिंता
30. उफ़ान – उत्तेजना
31. तबीयत – स्वास्थ्य
32. सिसक – Sobbing
33. दुधारी – दो मुँह वाली
34. कलेजे – हृदय
35. संकल्प – इरादा
36. बेड़ियाँ – जंजीर
37. दुविधा – समस्या
38. विषधर – साँप
39. तात्पर्य – मतलब
40. यद्यपि – हालाँकि
41. मुठभेड़ – भिड़ंत
42. गाँठें – Ties
43. आश्वासन – दिलासा
44. धरातल – सतह
45. गज़ – एक इकाई
46. आसन – बैठने की मुद्रा
47. घातक – खतरनाक
48. प्रतिद्वंद्वी – Competitor
49. परिधि – Circumference
50. व्यास – Diameter
51. दशा – स्थिति
52. प्रयत्न – कोशिश
53. अवलंबन – अपनाना
54. पीव – Pus
55. सर्टीफिकेट – प्रमाणपत्र
56. उपहास – मज़ाक
57. बंधुत्व – मित्रता
58. भ्रातृ – भाई
59. बेजा – बेवजह
60. कृपा – दया
61. धौंकनी – धड़कना
62. अनुमान – अंदाज़ा
63. डैने – पंख
64. रोचक – Interesting
1. भाई के बुलाने पर घर लौटते समय लेखक के मन में किस बात का डर था?
उत्तर – लेखक जब झरबेरी के बेर तोड़—तोड़कर खा रहा था तभी गाँव के पास से एक आदमी ने ज़ोर से पुकारा कि तुम्हारे भाई बुला रहे हैं, शीघ्र ही घर लौट जाओ। लेखक घर को चल दिया पर उनके मन में डर था। उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि उससे कौन-सा कसूर हो गया है? उसे यह आशंका थी कि कहीं बेर खाने के अपराध में तो पेशी नहीं हो रही है। उसे बड़े भाई की मार का डर था। वह डरते-डरते घर में घुसा।
2. मक्खनपुर पढ़ने जाने वाली बच्चों की टोली रास्ते में पड़ने वाले कुएँ में ढेला क्यों फेंकती थी?
उत्तर – मक्खनपुर पढ़ने जाने वाली बच्चों की टोली पूरी बानर टोली थी। उन बच्चों को पता था कि कुएँ में साँप है। वे कुएँ में ढेला फेंककर कुएँ से आनेवाली क्रोधपूर्ण फुसकार सुनने का मज़ा लेते थे। उसे सुनने के बाद अपनी बोली की प्रतिध्वनि सुनने की लालसा के कारण मक्खनपुर पढ़ने जाने वाली बच्चों की टोली कुएँ में ढेला फेंकती थी।
3. ‘साँप ने फुसकार मारी या नहीं, ढेला उसे लगा या नहीं, यह बात अब तक स्मरण नहीं’ – यह कथन लेखक की किस मनोदशा को स्पष्ट करता है?
उत्तर – लेखक के साथ यह घटना सन्1908 में घटी थी जिसे लेखक ने सन् 1915 में अपनी माँ को बताया था। लेखक ने जब ढेला उठाकर कुएँ में फेंका तब टोपी में रखी तीनों चिट्ठियाँ चक्कर काटती हुई कुएँ में गिर गईं। लेखक की तो जान ही निकल गई। वह बुरी तरह घबरा गया था और अपने होश खो बैठा था। उसे ठीक से यह भी याद नहीं कि साँप ने फुसकार मारी या नहीं, ढेला उसे लगा या नहीं यह बात अब तक स्मरण नहीं।
4. किन कारणों से लेखक ने चिट्ठियों को कुएँ से निकालने का निर्णय लिया?
उत्तर – लेखक को चिट्ठियाँ बड़े भाई ने दी थीं। यदि चिट्ठियाँ डाकखाने में नहीं डाली जातीं तो घर में मार पड़ती। सच बोलकर पिटने का भय और झूठ बोलकर चिट्ठियों के न पहुँचने की ज़िम्मेदारी का बोध उसे लगातार परेशान कर रहा था। उनका मन तो कहीं भाग जाने का हो रहा था मगर ऐसा करना उनके लिए संभव नहीं था। अंत में लेखक ने कुएँ से चिट्ठी निकालने का निर्णय कर ही लिया।
5. साँप का ध्यान बँटाने के लिए लेखक ने क्या—क्या युक्तियाँ अपनाईं?
उत्तर – साँप का ध्यान बाँटने के लिए लेखक ने निम्नलिखित युक्तियाँ अपनार्इं –
i. उसने डंडे से साँप को दबाने का ख्याल छोड़ दिया।
ii. उसने साँप का फन पीछे होते ही अपना डंडा चिट्ठियों की ओर कर दिया और लिफ़ाफ़ा उठाने की कोशिश की।
iii. डंडा लेखक की ओर खींच आने से साँप के आसन बदल गए और लेखक चिट्ठियाँ चुनने में कामयाब हो गया।
6. कुएँ में उतरकर चिट्ठियों को निकालने संबंधी साहसिक वर्णन को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – लेखक की चिट्ठियाँ कुएँ में गिरी पड़ी थीं। कुएँ में उतरकर चिट्ठियाँ निकाल लाना साहस का कार्य था। लेखक ने इस चुनौती को स्वीकार किया और उसने छ: धोतियों को जोड़कर डंडा बाँधा और एक सिरे को कुएँ में डालकर उसके दूसरे सिरे को कुएँ के चारों ओर घूमाने के बाद उसमें गाँठ लगाकर छोटे भाई को पकड़ा दिया। धोती के सहारे जब वह कुएँ के धरातल से चार-पाँच गज़ ऊपर था, उसने देखा साँप फन फैलाए लेखक के नीचे उतरने का इंतज़ार कर रहा था। साँप को धोती में लटककर नहीं मारा जा सकता था। डंडा चलाने के लिए भी काफी जगह नहीं थी इसलिए उसने डंडा चलाने का इरादा छोड़ दिया। लेखक ने डंडे से चिट्ठियों को खिसकाने का प्रयास किया कि साँप डंडे से चिपक गया। साँप का पिछला भाग लेखक को छू गया। लेखक ने डंडे को एक ओर पटक दिया। देवी माँ की कृपा से साँप के आसन बदल गए और लेखक चिट्ठियाँ उठाने में सफल हो गया।
7. इस पाठ को पढ़ने के बाद किन—किन बाल—सुलभ शरारतों के विषय में पता चलता है?
उत्तर – बच्चे कौतूहल प्रिय और जिज्ञासु प्रवृति के होते हैं। उनकी जिज्ञासा और पीड़ा कभी-कभी उनको निर्णायक मोड़ पर ला खड़ा कर देती है। इस पाठ में लेखक उनके छोटे भाई और मित्रों की बाल – सुलभ शरारतों का भी पता चलता है जो कुछ इस प्रकार की हैं-
i. बच्चे झरबेरी से बेर तोड़कर खाने का आनंद लेते हैं।
ii. कठिन व जोखिमपूर्ण कार्य करते हैं।
iii. माली से छुप-छुपकर पेड़ों से आम तोड़ना पसंद करते हैं।
iv. बच्चे स्कूल जाते समय रास्ते में शरारत करते हैं।
v. बच्चे कुएँ में ढेला फेंककर खुश होते हैं।
vi. वे जानवरों को तंग करते हैं।
8. ‘मनुष्य का अनुमान और भावी योजनाएँ कभी—कभी कितनी मिथ्या और उलटी निकलती हैं’ – का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – मनुष्य हर स्थिति से निबटने के लिए अपना अनुमान लगाता है। वह अपने अनुमान के आधार पर भविष्य की योजनाएँ बनाता है पर ये योजनाएँ हर बार सफल नहीं हो पातीं। कई बार तो स्थिति बिलकुल उल्टी होती है जैसा कि इस पाठ में वर्णित है। लेखक की चिट्ठियाँ कुएँ में गिर जाती हैं और वह कुएँ के अंदर जाकर चिट्ठियाँ लाने का निर्णय करता है। कुएँ में घुसने से पहले उसने कई योजनाएँ बना रखी थीं जैसे कि नीचे उतरते ही पहले वह साँप को डंडे से मार देगा और चिट्ठियाँ उठा लेगा। परंतु नीचे उतरने के बाद तो पूरा समीकरण ही बदल गया। इससे यह पता चलता है कि मनुष्य की कल्पना और वास्तविकता में बहुत अंतर होता है।
9. ‘फल तो किसी दूसरी शक्ति पर निर्भर है’ – पाठ के संदर्भ में इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – मनुष्य कर्म तो करता है परंतु फल पर उसका अधिकार नहीं होता। मनुष्य को चाहिए कि बिना फल की आशा रखे कर्म करें। अगर उसके कर्म में पवित्रता होगी और कर्म के पीछे किसी श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति का उद्देश्य होगा तो अवश्य ही सुखद फल प्राप्त होगा। इस पाठ में भी लेखक ने चिट्ठियाँ प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयास किया और उसे सफलता मिली। गीता में भी लिखा है,”कर्मण्येव वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्”
मुहावरे
1. बिजली-सी गिरना – भयभीत होना
2. जान निकलना – मृत समान होना
3. रुई की तरह धुनना – खूब मारना
4. बाएँ हाथ का खेल – आसान काम
5. पासा फेंकना – अपनी चाल चलना
6. अक्ल चकरा जाना – कुछ समझ में न आना
7. घातक चोट के आसन पर बैठना – नुकसान पहुँचाने की पूरी तैयारी करना
8. पीठ दिखाना – युद्ध से भाग जाना
9. मुँह मारना – खाने के लिए उद्धत होना
10. आँखें चार होना – आमने-सामने होना
11. आंखें लगना – नींद आना, टकटकी लगाकर देखना, सावधान रहना
12. ठान लेना – इरादा बना लेना
13. आकाश कुसुम – दुर्लभ वस्तु
14. तोप के मुहरे पर खड़े होना – आपदस्थिति में होना
15. कोई चारा न होना – कोई उपाय न होना
16. हृदय को धक्का लगना – अचानक दुखी होना
वाक्यांशों के लिए एक शब्द
1. प्रतिध्वनि = किसी ध्वनि की गूंज
2. हास = निंदासूचक हास
3. आश्वासन = दिलासासूचक शब्द
4. अचूक = जो कभी न चूके
विलोम शब्द
1. प्रारंभ # अंत
2. शीत # ग्रीष्म
3. मूक # वाचाल
4. कच्चा # पक्का
5. गहरा # उथला
6. आत्मा # परमात्मा
7. आशा # निराशा
8. ज़िम्मेदार # गैरज़िम्मेदार
9. बुढ़ापा # जवानी
10. संकल्प # विकल्प
11. निर्णय # अनिर्णय
12. मूर्खता # बुद्धिमत्ता
13. स्वीकार # तिरस्कार
14. अकेला # दुकेला
15. विष # अमृत
16. सजीव # निर्जीव
17. अग्र # पश्च
18. सम्मुख # विमुख
19. मिथ्या # सत्य
20. समीप # दूर
21. कमजोर # मज़बूत
22. दाईं # बाईं
23. आज्ञा # प्रार्थना
24. योग्यता # अयोग्यता
25. उचित # अनुचित
अनेकार्थी शब्द
1. पाट = फैलाव, शिला
2. बेर = एक फल, बार, समय
3. आम = सामान्य, फल विशेष
4. पानी = जल, चमक, इज़्ज़त
5. काम = कार्य, विलास कार्य
6. बगल = अंग विशेष, पास
7. आसन = चटाई, मुद्रा विशेष
8. वार = दिन, आक्रमण
9. निशान = चिह्न, झंडा
उपसर्ग एवं प्रत्यय
उपसर्ग
1. अ- असंभव
2. वि – विश्वास
3. सम – समकोण
4. अन्- अनेक
5. अव- अवलंबन
6. प्र – प्रकोप, प्रवृत्ति
7. स – सजल
8. बे – बेहाल
9. उप – उपहास
10. अप – अपमानित
11. प्रति – प्रतिवर्ष, प्रतिदिन, प्रतिध्वनि
प्रत्यय
12. आपा – बुढ़ापा
13. इत – क्रोधित, अपमानित
14. त्व – बंधुत्व
15. आवट – थकावट
16. खानी – छेड़खानी
17. धर – विषधर
18. ता – भयंकरता, योग्यता, असंभवता
19. इक – तनिक
20. ला – पिछला
21. दारी – ज़िम्मेदारी
22. याँ – चिट्ठियाँ,
23. यों – सथियों, चिट्ठियों
24. आहट – घबराहट
25. आना – रोज़ाना
26. ई – गहरी, दोस्ती
पर्यायवाची
1. दिन – दिवस, वार, वासर
2. साथी – सखा, मित्र, बंधु
3. गाँव – ग्राम, देहात
4. आदमी- मानव, मनुष्य, नर
5. भाई – भ्राता, सहोदर, अग्रज
6. पत्र – चिट्ठी, खत
7. भय – डर, आशंका, भीति
8. हवा – पवन, वायु, समीर
9. साँप – सर्प, अहि, विषधर
10. कान – कर्ण, श्रवणेंद्रिय
11. आम – रसाल, आम्र, फलराज
12. वदन – मुख, चेहरा, आनन
13. टोली – दल, गिरोह, समूह
14. कुआँ – कूप, इनारा
15. वानर – कपि, मर्कट, शाखामृग
16. चकित – विस्मित, आवक्, स्तंभित
17. मृग – हिरण, कुरंग, सारंग
18. कुत्ता – श्वान, कुकुर
19. हाथ – हस्त, कर, पाणि
20. प्रवृत्ति – प्रकृति, आचरण, स्वभाव
21. छोटा – लघु, नन्हा, बारीक
22. आत्मा – जीवात्मा, रूह, प्राण
23. शेर – सिंह, व्याल, केसरी
24. शिकारी- आखेटक, अहेरी
25. पलक – चक्षुपट, नयनपट
26. कपोल – गाल, रुखसार, आरिज
27. आँसू – अश्रु, अश्क, नेत्रांबु
28. तलवार – असि, कृपाण, खड्ग
29. संकल्प – प्राण, निश्चय, इरादा
30. शक्ति – पराक्रम, बल, ताकत
31. विष – गल , हलाहल, जहर
32. पूँछ – दुम, पुच्छ, पुछल्ला
33. यत्न – कोशिश, चेष्टा, प्रयास
34. मार्ग – रास्ता, पथ, वीथी
35. साहस – हिम्मत, दिलेरी, मनोबल
36. आशंका – संदेह, भ्रम, शक
37. चिड़िया- खग, पक्षी, पखेरू