(1926—1997)
बहुचर्चित लेखक एवं संपादक, कई पत्रिकाओं से जुड़े पर अंत में ‘धर्मयुग’ के संपादक के रूप में गंभीर पत्रकारिता का एक मानक निर्धारित किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी धर्मवीर भारती की लेखनी ने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, आलोचना, अनुवाद, रिपोर्ताज आदि अनेक विधाओं द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं: साँस की कलम से, मेरी वाणी गैरिक वसना, कनुप्रिया, सात गीत-वर्ष, ठंडा लोहा, सपना अभी भी, सूरज का सातवाँ घोड़ा, बंद गली का आखिरी मकान, पश्यंती, कहनी अनकहनी, शब्दिता, अंधा युग, मानव-मूल्य और साहित्य तथा गुनाहों का देवता। धर्मवीर भारती पद्मश्री की उपाधि के साथ ही व्यास सम्मान एवं अन्य कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत हुए।
जुलाई 1989। बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। तीन-तीन ज़बररदस्त हार्ट-अटैक, एक के बाद एक। एक तो ऐसा कि नब्ज़ बंद, साँस बंद, धड़कन बंद। डॉक्टरों ने घोषित कर दिया कि अब प्राण नहीं रहे। पर डॉक्टर बोर्जेस ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (Shocks) दिए। भयानक प्रयोग। लेकिन वे बोले कि यदि यह मृत शरीर मात्र है तो दर्द महसूस ही नहीं होगा, पर यदि कहीं भी ज़रा भी एक कण प्राण शेष होंगे तो हार्ट रिवाइव (Revive) कर सकता है। प्राण तो लौटे, पर इस प्रयोग में साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। केवल चालीस प्रतिशत बचा। उसमें भी तीन अवरोध (Blockage) हैं। ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन हिचक रहे हैं। केवल चालीस प्रतिशत हार्ट है। ऑपरेशन के बाद न रिवाइव हुआ तो? तय हुआ कि अन्य विशेषज्ञों की राय ले ली जाए, तब कुछ दिन बाद ऑपरेशन की सोचेंगे। तब तक घर जाकर बिना हिले-डुले विश्राम करें।
बहरहाल, ऐसी अर्द्धमृत्यु की हालत में वापस घर लाया जाता हूँ। मेरी ज़िद है कि बेडरूम में नहीं, मुझे अपने किताबों वाले कमरे में ही रखा जाए। वहीं लिटा दिया गया है मुझे। चलना, बोलना, पढ़ना मना। दिन-भर पड़े-पड़े दो ही चीज़ें देखता रहता हूँ, बाईं ओर की खिड़की के सामने रह-रहकर हवा में झूलते सुपारी के पेड़ के झालरदार पत्ते और अंदर कमरे में चारों ओर फ़र्श से लेकर छत तक ऊँची, किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ। बचपन में परी कथाओं (Fairy tales) में जैसे पढ़ते थे कि राजा के प्राण उसके शरीर में नहीं, तोते में रहते हैं, वैसे ही लगता था कि मेरे प्राण इस शरीर से तो निकल चुके हैं, वे प्राण इन हज़ारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास बरस में धीरे-धीरे मेरे पास जमा होती गई हैं। कैसे जमा हुईं, संकलन की शुरूआत कैसे हुई, यह कथा बाद में सुनाऊँगा।
पहले तो यह बताना ज़रूरी है कि किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक कैसे जागा। बचपन की बात है। उस समय आर्य समाज का सुधारवादी आंदोलन अपने पूरे ज़ोर पर था। मेरे पिता आर्य समाज रानीमंडी के प्रधान थे और माँ ने स्त्री-शिक्षा के लिए आदर्श कन्या पाठशाला की स्थापना की थी।
पिता की अच्छी-खासी सरकारी नौकरी थी। बर्मा रोड जब बन रही थी तब बहुत कमाया था उन्होंने। लेकिन मेरे जन्म के पहले ही गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। हम लोग बड़े आर्थिक कष्टों से गुज़र रहे थे, फिर भी घर में नियमित पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं – ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ और दो बाल पत्रिकाएँ खास मेरे लिए – ‘बालसखा’ और ‘चमचम’। उनमें होती थी परियों, राजकुमारों, दानवों और सुंदरी राजकन्याओं की कहानियाँ और रेखाचित्र। मुझे पढ़ने की चाट लग गई। हर समय पढ़ता रहता। खाना खाते समय थाली के पास पत्रिकाएँ रखकर पढ़ता। अपनी दोनों पत्रिकाओं के अलावा भी ‘सरस्वती’ और ‘आर्यमित्र’ पढ़ने की कोशिश करता। घर में पुस्तकें भी थीं। उपनिषदें और उनके हिंदी अनुवाद, ‘सत्यार्थ प्रकाश’। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के खंडन-मंडन वाले अध्याय पूरी तरह समझ तो नहीं पाता था, पर पढ़ने में मज़ा आता था। मेरी प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानंद की एक जीवनी, रोचक शैली में लिखी हुई, अनेक चित्रों से सुसज्जित। वे तत्कालीन पाखंडों के विरूद्ध अदम्य साहस दिखाने वाले अद्भुत व्यक्तित्व थे। कितनी ही रोमांचक घटनाएँ थीं उनके जीवन की जो मुझे बहुत प्रभावित करती थीं। चूहे को भगवान का भोग खाते देखकर मान लेना कि प्रतिमाएँ भगवान नहीं होतीं, घर छोड़कर भाग जाना, तमाम तीर्थों, जंगलों, गुफाओं, हिमशिखरों पर साधुओं के बीच घूमना और हर जगह इसकी तलाश करना कि भगवान क्या है? सत्य क्या है? जो भी समाज-विरोधी, मनुष्य-विरोधी मूल्य हैं, रूढ़ियाँ हैं, उनका खंडन करना और अंत में अपने से हारे को क्षमा कर उसे सहारा देना। यह सब मेरे बालमन को बहुत रोमांचित करता। जब इस सबसे थक जाता तब फिर ‘बालसखा’ और ‘चमचम’ की पहले पढ़ी हुई कथाएँ दुबारा पढ़ता।
माँ स्कूली पढ़ाई पर ज़ोर देतीं। चिंतित रहतीं कि लड़का कक्षा की किताबें नहीं पढ़ता। पास कैसे होगा! कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग गया तो? पिता कहते – जीवन में यही पढ़ाई काम आएगी, पढ़ने दो। मैं स्कूल नहीं भेजा गया था, शुरू की पढ़ाई के लिए घर पर मास्टर रखे गए थे। पिता नहीं चाहते थे कि नासमझ उम्र में मैं गलत संगति में पड़कर गाली-गलौज सीखूँ, बुरे संस्कार ग्रहण करूँ अतः मेरा नाम लिखाया गया, जब मैं कक्षा दो तक की पढ़ाई घर पर कर चुका था। तीसरे दर्जे में मैं भरती हुआ। उस दिन शाम को पिता उँगली पकड़कर मुझे घुमाने ले गए।
लोकनाथ की एक दुकान ताज़ा अनार का शरबत मिट्टी के कुल्हड़ में पिलाया और सिर पर हाथ रखकर बोले – “वायदा करो कि पाठ्यक्रम की किताबें भी इतने ही ध्यान से पढ़ोगे, माँ की चिंता मिटाओगे।” उनका आशीर्वाद था या मेरा जी-तोड़ परिश्रम कि तीसरे, चौथे में मेरे अच्छे नंबर आए और पाँचवें में तो मैं फर्स्ट आया। माँ ने आँसू भरकर गले लगा लिया, पिता मुसकुराते रहे, कुछ बोले नहीं। चूँकि अंग्रेज़ी में मेरे नंबर सबसे ज़्यादा थे, अतः स्कूल से इनाम में दो अंग्रेज़ी किताबें मिली थीं। एक में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और कुंजों में भटकते हैं और इस बहाने पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारी उन्हें मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं – कितने प्रकार के होते हैं, कौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, नाविकों की ज़िंदगी कैसी होती है, कैसे-कैसे द्वीप मिलते हैं, कहाँ ह्वेल होती है, कहाँ शार्क होती है।
इन दो किताबों ने एक नयी दुनिया का द्वार मेरे लिए खोल दिया। पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र। पिता ने अलमारी के एक खाने से अपनी चीज़ें हटाकर जगह बनाई और मेरी दोनों किताबें उस खाने में रखकर कहा – “आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है।”
यहाँ से आरंभ हुई उस बच्चे की लाइब्रेरी। बच्चा किशोर हुआ, स्कूल से कॉलेज, कॉलेज से युनिवर्सिटी गया, डॉक्टरेट हासिल की, युनिवर्सिटी में अध्यापन किया, अध्यापन छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आया, संपादन किया। उसी अनुपात में अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया।
पर आप पूछ सकते हैं कि किताबें पढ़ने का शौक तो ठीक, किताबें इकट्ठी करने की सनक क्यों सवार हुई? उसका कारण भी बचपन का एक अनुभव है। इलाहाबाद भारत के प्रख्यात शिक्षा-केंद्रों में एक रहा है। ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन तक। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तथा अनेक कॉलेजों की लाइब्रेरियाँ तो हैं ही, लगभग हर मुहल्ले में एक अलग लाइब्रेरी । वहाँ हाईकोर्ट है, अतः वकीलों की निजी लाइब्रेरियाँ, अध्यापकों की निजी लाइब्रेरियाँ । अपनी लाइब्रेरी वैसी कभी होगी, यह तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था, पर अपने मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी – ‘हरिभवन’। स्कूल से छुट्टी मिली कि मैं उसमें जाकर जम जाता था। पिता दिवंगत हो चुके थे, लाइब्रेरी का चंदा चुकाने का पैसा नहीं था, अतः वहीं बैठकर किताबें निकलवाकर पढ़ता रहता था। उन दिनों हिंदी में विश्व साहित्य विशेषकर उपन्यासों के खूब अनुवाद हो रहे थे। मुझे उन अनूदित उपन्यासों को पढ़कर बड़ा सुख मिलता था। अपने छोटे-से ‘हरि भवन’ में खूब उपन्यास थे। वहीं परिचय हुआ बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘कपाल कुण्डला’ और ‘आनंदमठ’ से टालस्टाय की ‘अन्ना करेनिना’, विक्टर ह्यूगो का ‘पेरिस का कुबड़ा’ (हंचबकै ऑफ नात्रेदाम), गोर्की की ‘मदर’, अलेक्जंडर कुप्रिन का ‘गाड़ीवालों का कटरा’ (यामा द पिट) और सबसे मनोरंजक सर्वा-रीज़ का ‘विचित्र वीर’ (यानी डॉन क्विक्ज़ोट)। हिंदी के ही माध्यम से सारी दुनिया के कथा-पात्रों से मुलाकात करना कितना आकर्षक था! लाइब्रेरी खुलते ही पहुँच जाता और जब शुक्ल जी लाइब्रेरियन कहते कि बच्चा, अब उठो, पुस्तकालय बंद करना है, तब बड़ी अनिच्छा1 से उठता। जिस दिन कोई उपन्यास अधूरा छूट जाता, उस दिन मन में कसक होती कि काश, इतने पैसे होते कि सदस्य बनकर किताब इश्यू करा लाता, या काश, इस किताब को खरीद पाता तो घर में रखता, एक बार पढ़ता, दो बार पढ़ता, बार-बार पढ़ता पर जानता था कि यह सपना ही रहेगा, भला कैसे पूरा हो पाएगा!
पिता के देहावसान के बाद तो आर्थिक संकट इतना बढ़ गया कि पूछिए मत। फीस जुटाना तक मुश्किल था। अपने शौक की किताबें खरीदना तो संभव ही नहीं था। एक ट्रस्ट से योग्य पर असहाय छात्रों को पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए कुछ रूपये सत्र के आरंभ में मिलते थे। उनसे प्रमुख पाठ्यपुस्तकें ‘सेकंड-हैंड’ खरीदता था, बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता और नोट्स बना लेता। उन दिनों परीक्षा के बाद छात्र अपनी पुरानी पाठ्यपुस्तकें आधे दाम में बेच देते और उसमें आने वाले नए लेकिन उसे विपन्न छात्र खरीद लेते। इसी तरह काम चलता।
लेकिन फिर भी मैंने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक अपने पैसों से कैसे खरीदी, यह आज तक याद है। उस साल इंटरमीडिएट पास किया था। पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी – ए – की पाठ्यपुस्तकें लेने एक सेकंड-हैंड बुकशॉप पर गया। उस बार जाने कैसे पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रूपये बच गए थे। सामने के सिनेमाघर में ‘देवदास’ लगा था। न्यू थिएटर्स वाला। बहुत चर्चा थी उसकी। लेकिन मेरी माँ को सिनेमा देखना बिलकुल नापसंद था। उसी से बच्चे बिगड़ते हैं। लेकिन उसके गाने सिनेमागृह के बाहर बजते थे। उसमें सहगल का एक गाना था – ‘दुख के दिन अब बीतत नाहीं’। उसे अकसर गुनगुनाता रहता था। कभी-कभी गुनगुनाते आँखों में आँसू आ जाते थे जाने क्यों! एक दिन माँ ने सुना। माँ का दिल तो आखिर माँ का दिल! एक दिन बोली – “दुख के दिन बीत जाएँगे बेटा, दिल इतना छोटा क्यों करता है? धीरज से काम ले!” जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो फिल्म ‘देवदास’ का गाना है, तो सिनेमा की घोर विरोधी माँ ने कहा – “अपना मन क्यों मारता है, जाकर पिक्चर देख आ। पैसे मैं दे दूँगी।” मैंने माँ को बताया कि “किताबें बेचकर दो रूपये मेरे पास बचे हैं।” वे दो रूपये लेकर माँ की सहमति से फिल्म देखने गया। पहला शो छूटने में देर थी, पास में अपनी परिचित किताब की दुकान थी। वहीं चक्कर लगाने लगा। सहसा देखा, काउंटर पर एक पुस्तक रखी है – ‘देवदास’। लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय। दाम केवल एक रूपया। मैंने पुस्तक उठाकर उलटी-पलटी। तो पुस्तक-विक्रेता बोला – “तुम विद्यार्थी हो। यहीं अपनी पुरानी किताबें बेचते हो। हमारे पुराने गाहक हो। तुमसे अपना कमीशन नहीं लूँगा। केवल दस आने में यह किताब दे दूँगा”। मेरा मन पलट गया। कौन देखे डेढ़ रूपये में पिक्चर? दस आने में ‘देवदास’ खरीदी। जल्दी-जल्दी घर लौट आया, और दो रूपये में से बचे एक रूपया छः आना माँ के हाथ में रख दिए।
“अरे तू लौट कैसे आया? पिक्चर नहीं देखी?” माँ ने पूछा।
“नहीं माँ! फिल्म नहीं देखी, यह किताब ले आया देखो।”
माँ की आँखों में आँसू आ गए। खुशी के थे या दुख के, यह नहीं मालूम। वह मेरे अपने पैसों से खरीदी, मेरी अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। आज जब अपने पुस्तक संकलन पर नज़र डालता हूँ जिसमें हिंदी-अंग्रेजी के उपन्यास, नाटक, कथा-संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्त्व, राजनीति की हज़ारहा पुस्तकें हैं, तब कितनी शिद्दत से याद आती है अपनी वह पहली पुस्तक की खरीदारी! रेनर मारिया रिल्के, स्टीफ़ेन ज़्वीग, मोपाँसा, चेखव, टालस्टाय, दास्तोवस्की, मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन एज़रा पाउंड, यूजीन ओ नील, ज्याँ पाल सात्र, ऑल्बेयर कामू, आयोनेस्को के साथ पिकासो, ब्रूगेल, रेम्ब्राँ, हेब्बर, हुसेन तथा हिंदी में कबीर, तुलसी, सूर, रसखान, जायसी, प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी और जाने कितने लेखकों, चिंतकों की इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ।
मराठी के वरिष्ठ कवि विंदा करंदीकर ने कितना सच कहा था उस दिन! मेरा ऑपरेशन सफल होने के बाद वे देखने आये थे, बोले – “भारती, ये सैकड़ों महापुरूष जो पुस्तक-रूप में तुम्हारे चारों ओर विराजमान हैं, इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें पुनर्जीवन दिया है।” मैंने मन-ही-मन प्रणाम किया विंदा को भी, इन महापुरूषों को भी।
यह रचना लेखक की आत्मकथा (Autobiography) का अंश है।
वृद्धावस्था में तीन-तीन जबर्दस्त हार्ट अटैक के पश्चात् उन्हें अर्धमृत्यु की अवस्था में घर में उनके किताबों वाले कमरे अर्थात् पुस्तकालय में लिटाया गया।
बचपन से ही पढ़ने का चाव था।
स्कूल से इनाम में मिली दो पुस्तकों से इनकी निजी लाइब्रेरी का शुभारंभ हुआ था।
पिता की मृत्यु के पश्चात् अभावों तथा आर्थिक संकटों से संघर्ष करना पड़ा।
अपनी पढ़ाई-ज़ारी रखी तथा पढ़ने का चाव भी बरकरार रखा।
पाठ्यपुस्तकें खरीदने के पश्चात् बचे दो रुपए देकर अपने पैसे से पहली किताब ‘देवदास’ खरीदी।
विभिन्न महान लेखकों की रचनाओं से आज लाइब्रेरी भरी है।
शायद इन्हीं महापुरुषों के आशीर्वाद और डॉक्टर बोर्जेस की वजह से इन्हें पुनर्जीवन मिला।
जुलाई 1989 में तीन बार दिल का दौरा पड़ने से लेखक को जीवन और मृत्यु से कठिन संघर्ष करना पड़ा। डॉक्टरों ने ओपन हार्ट ऑपरेशन से पहले उन्हें घर जाकर बिना हिले-डुले विश्राम करने की सलाह दी। लेखक ने अपने किताबों वाले कमरे में ही विश्राम करने की इच्छा प्रकट की। किताबों के संकलन और उन्हें सहेजकर रखने की अपनी इच्छा के बारे में बताते हुए लेखक कहते हैं कि उनके पिता जी आर्यसमाज रानी मंडी के प्रधान थे तथा अच्छी-खासी सरकारी नौकरी थी। उनके घर में पत्र-पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती रहती थीं, जिनमें आर्यमित्र साप्ताहिक, वेदोदम, सरस्वती, गृहणी और दो बाल पत्रिकाएँ, बाल-सखा और चमचम हमेशा ली जाती थीं। लेखक को बचपन से पढ़ने का शौक था। वे अपनी बाल पत्रिकाओं के साथ-साथ सरस्वती, आर्यमित्र, सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ने की कोशिश करते थे।
लेखक की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। दो दर्जे की पढ़ाई घर पर पूरी करके तीसरे दर्जे में वे स्कूल में भरती किए गए। पाँचवीं कक्षा में प्रथम आने पर उन्हें स्कूल से इनाम में दो पुस्तकें मिलीं, जिन्होंने न केवल नई दुनिया का द्वार उनके सामने खोला, अपितु निजी लाइब्रेरी बनाने की चाह भी मन में लगा दी। ‘हरिभवन’ तथा अन्य लाइब्रेरी में उनका परिचय, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, टालस्टाय, विक्टर ह्यूगो गोकी, अलेक्जेंडर कुप्रिन, रेनर मारिया रिल्के, स्टीफ़ेन ज़्वीग, मोपाँसा, चेखव, टालस्टाय, दास्तोवस्की, मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन एज़रा पाउंड, यूजीन ओ नील, ज्याँ पाल सात्र, ऑल्बेयर कामू की रचनाओं से हुआ। उनके पिता के देहावसान के बाद जीवन में असंख्य परेशानियों आईं। स्कूल की फीस के लिए पैसे नहीं होते थे। दूसरों से पाठ्य पुस्तकें उधार लेकर नोट्स बनाने पड़ते थे। लेखक ने आधे दामों में पुरानी पुस्तकें खरीदकर अपनी पढ़ाई जारी रखी।
लेखक ने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद पुस्तक भंडार से ‘देवदास’ नामक पुस्तक केवल दस आने में खरीदी। वे देवदास सिनेमा देखने नहीं गए और दो रुपये में से बचे एक रुपया छह आना माँ के हाथों पर रख दिया। यह उनकी निजी लाइब्रेरी की पहली पुस्तक थी। आज उनके पास हिंदी, अंग्रेजी के उपन्यास, नाटक, कथा संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्व, राजनीति की हजार से भी अधिक पुस्तकें हैं। महान लेखकों, चिंतकों, रचनाकारों की अनगिनत कृतियों के बीच लेखक स्वयं को भरापूरा महसूस करते थे।
लेखक के हृदय का ऑपरेशन सफल हो गया। मराठी के वरिष्ठ कवि उन्हें देखने के लिए आए और कहा कि ये सैकड़ों महापुरुष, जो पुस्तक रूप में तुम्हारे चारों ओर विराजमान हैं, इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें पुनर्जीवन प्रदान किया है। लेखक ने विंदा के साथ-साथ इन महापुरुषों को भी प्रणाम किया।
1. बहुचर्चित – अत्यधिक प्रसिद्ध
2. संपादक – Editor
3. मानक – Standard
4. बहुमुखी प्रतिभा – Multi-talented
5. रिपोर्ताज – Report
6. समृद्ध – मजबूत
7. ज़बरदस्त – ज़ोर का
8. नब्ज़ – नाड़ी
9. धड़कन – Heartbeat
10. महसूस – आभास
11. ज़रा – थोड़ा
12. जरा – बुढ़ापा
13. कण – Particle
14. सर्जन – Surgeon
15. विशेषज्ञों – Specialist
16. बहरहाल – हालाँकि
17. ज़िद – हठ
18. सुपारी – Betel nut
19. फ़र्श – Floor
20. सुधारवादी – Reformation
21. आदर्श – Ideal
22. आह्वान – बुलावा
23. आर्थिक – Economic
24. रेखाचित्र – एक साहित्यिक विधा
25. उपनिषद – वेदांत
26. अदम्य – जिसे दबाया न जा सके
27. रोमांचक – Adventurous
28. तलाश – खीज
29. रूढ़ियाँ – परंपराएँ
30. संगति – Company
31. दर्जे – Class
32. कुल्हड़ – मिट्टी का प्याला
33. कुंजों – बगीचे
34. ह्वेल – Whale
35. शार्क – Shark
36. युनिवर्सिटी – विश्वविद्यालय
37. संपादन – Edition
38. हाईकोर्ट – उच्च न्यायालय
39. निजी – Private
40. दिवंगत – मृत्यु को प्राप्त
41. अनुवाद – Translation
42. काश – Wish
43. इश्यू -Issue
44. देहावसान – मृत्यु को प्राप्त
45. सहपाठियों – Classmates
46. विपन्न – बुरी हालत
47. सिनेमाघर – Theatre
48. विक्रेता – बेचने वाला
49. कमीशन – Commission
50. कृतियों – रचनाएँ
1 – लेखक का ऑपरेशन करने से सर्जन क्यों हिचक रहे थे?
उत्तर – लेखक को तीन-तीन ज़बरदस्त हार्ट-अटैक आए थे । एक तो ऐसा कि नब्ज़ बंद, साँस बंद, धड़कन बंद। डॉक्टरों ने लेखक को मृत घोषित कर दिया। पर डॉक्टर बोर्जेस ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी, उन्होंने नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (Shocks) दिए। उनका मानना था कि यदि यह मृत शरीर मात्र है तो दर्द महसूस ही नहीं होगा, पर यदि कहीं भी ज़रा भी एक कण प्राण शेष होंगे तो हार्ट रिवाइव (Revive) हो सकता है। प्राण तो लौटे, पर इस प्रयोग में साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। केवल चालीस प्रतिशत बचा। उसमें भी तीन अवरोध (Blockage) हैं। ऐसे में ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन हिचक रहे थे क्योंकि केवल चालीस प्रतिशत हार्ट है और अगर ऑपरेशन के बाद न रिवाइव हुआ तो लेखक की मृत्यु निश्चित है।
2 – ‘किताबों वाले कमरे’ में रहने के पीछे लेखक के मन में क्या भावना थी?
उत्तर – अस्पताल से घर जाने के बाद ‘किताबों वाले कमरे’ में रहने के पीछे लेखक के मन में पुस्तकों का वह संकलन था जो उन्होंने बचपन से लेकर अब तक संकलित की थीं। उनका मानना था कि उनके प्राण इन हजारों किताबों में बसे हुए हैं। लेखक को किताबों से बहुत प्यार था और अपने जीवन के अंतिम चरण में हर व्यक्ति यह चाहता है कि वह अपने प्रिय वस्तु या परिजन से संलग्न रहे।
3 – लेखक के घर कौन-कौन-सी पत्रिकाएँ आती थीं?
उत्तर – लेखक के घर में नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं जिनमें- ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ शामिल थीं और दो बाल पत्रिकाएँ खास लेखक के लिए – ‘बालसखा’ और ‘चमचम’।
4 – लेखक को किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक कैसे लगा?
उत्तर – लेखक के घर में बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं जिसकी वजह से पढ़ाई के प्रति उनकी चाह बलवती होती गई। लेखक के घर में उपनिषदें और उनके हिंदी अनुवाद, ‘सत्यार्थ प्रकाश’, जैसे पठन सामग्री भी उपलब्ध थीं जो लेखक की पढ़ने की इच्छा का पोषण कर रही थी। पाँचवीं कक्षा में प्रथम आने पर स्कूल की तरफ़ से लेखक को दो अँग्रेजी की किताबें इनाम स्वरूप मिलीं। इन दो किताबों ने लेखक के लिए एक नयी दुनिया का द्वार खोल दिया। पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र। लेखक के पिता ने भी अलमारी के एक खाने से अपनी चीज़ें हटाकर जगह बनाई और लेखक की दोनों किताबें उस खाने में रखकर कहा – “आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का हैं । यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है। इस प्रकार लेखक को किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक लग गया।
5 – माँ लेखक की स्कूली पढ़ाई को लेकर क्यों चिंतित रहती थी?
उत्तर – लेखक स्कूल की किताबों के अतिरिक्त अन्य किताबें ज़्यादा पढ़ता था। इस वजह से माँ चिंतित रहने लगी। लेखक की माँ को यह डर था कि इन किताबों के असर से कहीं यह साधु बनकर घर से भाग गया तो? उनका यह भी मानना था कि इन किताबों से ज़्यादा स्कूल की किताबें भविष्य निर्माण के लिए आवश्यक हैं।
6 – स्कूल से इनाम में मिली अंग्रेज़ी की दोनों पुस्तकों ने किस प्रकार लेखक के लिए नई दुनिया के द्वार खोल दिए?
उत्तर – लेखक को स्कूल से इनाम में दो अंग्रेज़ी किताबें मिली थीं। एक में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और कुंजों में भटकते हैं और इस बहाने पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारियाँ उन्हें मिलती हैं। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं – जहाज कितने प्रकार के होते हैं, कौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, नाविकों की ज़िंदगी कैसी होती है, कैसे-कैसे द्वीप मिलते हैं, कहाँ ह्वेल होती है, कहाँ शार्क होती है? देखा जाए तो पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र से स्ंबंधित इन दो किताबों ने लेखक के लिए एक नई दुनिया के द्वार खोल दिए।
7 – ‘आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है’ – पिता के इस कथन से लेखक को क्या प्रेरणा मिली?
उत्तर – ‘आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का है। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है’ – पिता के इस कथन ने लेखक में पुस्तकों के संकलन की चाह पैदा कर दी। यहाँ से आरंभ हुई उस लेखक की लाइब्रेरी। लेखक किशोर हुआ, स्कूल से कॉलेज, कॉलेज से युनिवर्सिटी गया, डॉक्टरेट हासिल की, युनिवर्सिटी में अध्यापन किया, अध्यापन छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आया, संपादन किया। उसी अनुपात में अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया।
दूसरी तरफ़ ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित पब्लिक लाइब्रेरी, महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन, विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी, लेखक के मुहल्ले की लाइब्रेरी – ‘हरिभवन’, वकीलों की निजी लाइब्रेरियाँ तथा अध्यापकों की निजी लाइब्रेरियों ने बचपन से ही लेखक के मन में उनकी खुद की लाइब्रेरी स्थापित करने की नींव डाल दी थी।
8 – लेखक द्वारा पहली पुस्तक खरीदने की घटना का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर -पिता के देहावसान के बाद तो आर्थिक संकट इतना बढ़ गया कि फीस जुटना तक मुश्किल हो गया। लेखक के लिए अपने शौक की किताबें खरीदना संभव ही नहीं था। एक ट्रस्ट से योग्य पर असहाय छात्रों को पाठ्य पुस्तकें खरीदने के लिए कुछ रुपए सत्र के आरंभ में मिलते थे। लेखक उन पैसों से प्रमुख पाठ्य पुस्तकें सेकेंड-हैंड खरीदता था बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता था और नोट्स बना लेता था। जिस साल लेखक ने इंटरमीडिएट पास किया,अपनी पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी – ए – की पाठ्यपुस्तकें लेने एक सेकेंड-हैंड बुकशॉप पर गया। उस बार न जाने कैसे पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रूपये बच गए थे। उन्होंने बचे हुए रुपयों से फ़िल्म ‘देवदास’ देखना चाहा पर तभी किसी परिचित के किताब की दुकान पर लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय की लिखी ‘देवदास’ दिखी और उन्होंने वह किताब खरीद ली। बचे हुए पैसे उन्होंने अपनी माँ को लौटा दिए। इस प्रकार लेखक ने अपनी पहली पुस्तक खरीदी।
9 – ‘इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ’ – का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – लेखक का यह कथन इन वाक्यों से शुरू होता है, “आज जब अपने पुस्तक संकलन पर नज़र डालता हूँ जिसमें हिंदी-अंग्रेजी के उपन्यास, नाटक, कथा-संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्त्व, राजनीति की हज़ारहा पुस्तकें हैं, तब कितनी शिद्दत से याद आती है अपनी वह पहली पुस्तक की खरीदारी! रेनर मारिया रिल्के, स्टीफ़ेन ज़्वीग, मोपाँसा, चेखव, टालस्टाय, दास्तोवस्की, मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन एज़रा पाउंड, यूजीन ओ नील, ज्याँ पाल सात्र, ऑल्बेयर कामू, आयोनेस्को के साथ पिकासो, ब्रूगेल, रेम्ब्राँ, हेब्बर, हुसेन तथा हिंदी में कबीर, तुलसी, सूर, रसखान, जायसी, प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी और जाने कितने लेखकों, चिंतकों की इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ।” इन किताबों के बीच लेखक अपने आपको अकेला महसूस नहीं करता है। उन्हें किताबों को देखकर संतोष होता है। उनका मानना है कि यही किताबें उनके पूरे जीवन की उपलब्धि है।
मुहावरे
1. हिम्मत न हारना – निराश न होना
2. चाट लगना – शौकीन होना
3. अपने से हारा व्यक्ति – कमजोर व्यक्ति
4. सनक सवार होना – किसी चीज़ के लिए ज़िद
5. जम जाना – एक जगह बैठ जाना
6. मन पलटना – दूसरी वस्तु की ओर झुकाव
वाक्यांशों के लिए एक शब्द
1. आंदोलन = उथल-पुथल करनेवाला प्रयत्न
2. मनोरंजक – मन का रंजन करने वाला
3. असहाय = जिसका कोई सहायक न हो
4. योग्य = जो पात्र लायक हो
विलोम शब्द
1. उम्मीद # नाउम्मीद
2. घोषित # अघोषित
3. मृत # जीवित
4. अर्ध # पूर्ण
5. शिक्षा # अशिक्षा
6. स्थापना # विस्थापना
7. नियमित # अनियमित
8. स्वामी # सेवक
9. वीर # कायर
10. इच्छा # अनिच्छा
11. अवसान # प्रारंभ
12. सहाय # असहाय
13. विरोधी # पक्षपाती
14. सफल # असफल
15. वरिष्ठ # कनिष्ठ
16. विपन्न # संपन्न
अनेकार्थी शब्द
1. शेष = बचा हुआ, शेषनाग
2. जमा = जमना, इकट्ठा होना
3. चाट = चाटना, एक खाद्य सामग्री
4. भोग = विलास, प्रसाद
5. माल = धन, सामान
उपसर्ग एवं प्रत्यय
उपसर्ग
1. अ- अदम्य, असहाय
2. वि – विशेषज्ञ, विपन्न, विराज, विरुद्ध, विरोधी
3. सम् – संस्कार
4. ना – नासमझ, नापसंद
5. अनु – अनुपात, अनुभव, अनुवाद
6. प्र – प्रयोग, प्रणाम, प्रकार
7. सु – सुसज्जित
8. अन् – अनिच्छा
9. महा – महापुरुष
10. अव – अवरोध, अवसान
11. प्रति – प्रतिशत
प्रत्यय
12. ना – चलना, बोलना, पढ़ना
13. इत – नियमित, सज्जित, प्रभावित, परिचित, स्थापित, अनूदित
14. भर – दिनभर
15. आई – पढ़ाई
16. दार – खरीदार, झालरदार
17. यों – कृतियों
18. इत – तड़ित, प्रतिकित
19. क – रोमांचक
20. ईन – कालीन
21. याँ – कहनियाँ, अलमारियाँ, लाइब्रेरियाँ
22. इक – आर्थिक, साहित्यिक,साप्ताहिक
23. आत – शुरूआत
24. ओं – कथाओं, हजारों, जंगलों, तीर्थों, जतियों, लेखकों, चिंतकों
25. शाला – पाठशाला
26. ई – जरूरी, सरकारी, नौकरी, सुंदरी, विरोधी, स्कूली
27. एँ – पुस्तकें, प्रतिमाएँ, कथाएँ
28. त्व – व्यक्तित्व
29. मान – विराजमान
30. कार – संस्कार
पर्यायवाची
1. प्राण – जीवन, ज़िंदगी, जान
2. मृत्यु – शरीरांत, इंतकाल, देहत्याग
3. किताब – पुस्तक, पोथी, बही
4. पत्ते – पर्ण, पत्र, पल्लव, पात
5. परी – हूर, अप्सरा, देवांगना
6. कथा – आख्यान, कहानी, गल्प
7. शौक – लालसा, रुचि, चाव
8. पिता – जनक, तात, पितृ
9. स्त्री – कांता, नारी, मानवी
10. शिक्षा – सीख, सबक, विद्या
11. कन्या – कुमारी, लड़की, पुत्री
12. स्वामी – मालिक, नाथ, प्रभु
13. चूहा – मूषक, मूस, गणेशवाहन
14. गुफा – कंदर, गुहा, माँद
15. हिम – तुहिन, तुषार, बर्फ़
16. शिखर – चोटी, शृंग
17. साधु – सरल, मुनि, सज्जन
18. क्षमा – माफ़ी
19. कक्षा – वर्ग, दर्जा, श्रेणी
20. कुंज – पर्णशाला, बगीचा, उद्यान
21. नाविक – केवट, मल्लाह, माँझी
22. द्वार – दरवाज़ा, पट, किवाड़
23. किशोर – नवयुवक, अल्पवय, अवयस्क
24. अध्यापक – शिक्षक, गुरू, आचार्य
25. स्वप्न – सपना, ख्वाब
26. भवन – महल, प्रासाद, बंगला