कबीर परिचय
कबीरदास (1399-1518 ई.)
कहते हैं कि कबीरदास का जन्म हिंदू परिवार में हुआ और पालन-पोषण नीरू नाम के मुसलमान जुलाहे के घर पर हुआ। वे रामानंद के शिष्य बताए जाते हैं। कबीर निम्न वर्ग में पैदा हुए। शिक्षा ज्यादा नहीं मिल पाई, लेकिन जीवन का अनुभव खूब मिला। सामान्य जनता से मिलते रहते थे, सत्संग करते थे। वे बड़े बुद्धिमान थे। अपने विचारों के बल पर अपना मत बनाया, जो लोगों के द्वारा आसानी से समझा जा सके।
वे बाहरी धार्मिक क्रियाकलापों पर जोर न देकर मानसिक पवित्रता, श्रद्धा, प्रेम, शुद्ध आचरण और ईश्वर भक्ति पर जोर देते थे। उन्होंने माला जपने, तिलक लगाने, मूर्ति पूजा करने का विरोध किया। सभी प्रकार के भेद भाव को दूर करने का प्रयास किया। प्रेम का महत्त्व समझाया। हिंदू और मुसलमानों के कर्मकांडों की खिल्ली उड़ाई। उदार, व्यापक मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया। अहंकार त्यागने को कहा। उनका ब्रह्म निर्गुण निराकार है। उनका राम दशरथ सुत नहीं, अजन्मा परमात्मा है। अद्वैत सिद्धांत को मानें तो ईश्वर एक है, अनादि अनंत है। जीव उनका अंश है। संसार माया है। मनुष्य जीवन अनमोल है। साधना करते करते ब्रह्म को पाना है। इसको समझाने के लिए उन्होंने सत्संग करना, स्मरण, कीर्तन आत्मनिवेदन को उत्साहित किया। भक्ति को समझाने के लिए प्रेम-व्यापार से तुलना की। कबीरदास साधारण जनता की भावनाओं को उन्हीं की भाषा में कहने वाले सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनके दोहे साहित्य-प्रेमी और अनपढ़ जनता सभी को समान रूप से प्रिय लगते हैं। बात बात में कबीर के दोहे गाकर लोग जीवन के संकट समय में रास्ता ढूँढ़ लेते हैं।
कबीरदास के दोहे
दोहा – 1
गुरु गोविंद तो एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटै हरि भजै, तब पावै दीदार॥
शब्दार्थ –
गुरु – शिक्षक
गोविंद – भगवान
दूजा – दूसरा
आकार – रूप
आपा – घमंड
मेटै – मिटना
हरि भजै – ईश्वर का भजन करना
पावै – पाना
दीदार – दर्शन
व्याख्या –
कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु और गोविंद (ईश्वर) एक ही हैं, उनमें कोई पार्थक्य नहीं है। बाकी जो देखते हो, वह सब मिथ्या है। आपा यानी मनुष्य अपने अहंकार को छोड़ दो तो ईश्वर के दर्शन स्वत: ही (दीदार) मिलते हैं।
दोहा – 2
चकई बिछुरी रैन की, आई मिले परभाति।
जे न बिछुरे राम सों, ते दिन मिले न राति॥
शब्दार्थ –
चकई – एक पक्षी
बिछुरी – बिछड़ना
रैन – रात
परभाति – प्रभात, सुबह
जे – जो
राम – परमात्मा
सों – वह
राति – रात
व्याख्या –
संसार में मिलन और विच्छेद लगा रहता है। दुख और सुख के दिन बदलते रहते हैं, जैसे रात (रैन) को चकवा – चकवी बिछुड़ जाते हैं तो प्रभात (दिन) होते ही मिल भी जाते हैं। लेकिन जो जीव (आत्मा) राम (परमात्मा) से बिछड़ते हैं, वे दिन या रात कभी नहीं मिल पाते हैं। उन्हें अपने जीवन में सर्वदा दुख ही दुख भोगना पड़ता है।
दोहा – 3
सतगुरु हम सौं रीझि करि, कहा एक परसंग।
बरसा बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
शब्दार्थ –
रीझि – प्रसन्न
परसंग – प्रसंग
भीजि – भीग
व्याख्या –
कबीर जी कहते हैं कि सतगुरु के द्वारा उपदेश पाकर शिष्य की आत्मा प्रसन्न हो जाती है। एक दिन गुरु ने ईश्वर की महिमा का ऐसा वर्णन किया (प्रसंग कहा) कि प्रेम (भक्ति) का बादल बरसा और शिष्य का सारा शरीर उससे सराबोर हो गया। ईश्वर प्रेम की रसमयी – कथा सुनकर अथाह आनंद मिला।
दोहा – 4
कस्तुरी कुंडल बसै, मृग ढूँढै बन माहि।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं॥
शब्दार्थ –
कस्तुरी – Musk
कुंडल – नाभि
बसै – होता है
मृग – हिरण
बन माहि – वन में
घट – जगह
पीव – प्रिय
जानै नाहि – नहीं जानता
व्याख्या –
संत कवि कबीरदास जी के द्वारा यहाँ तत्त्व की एक बात कही गई है। वास्तव में ईश्वर या परमात्मा कहीं बाहर नहीं है, वह तो शरीर के अंदर है: हृदय में विराजमान है। लेकिन साधक या भक्त उसे मंदिर, मस्जिद आदि बाहरी स्थानों में ढूँढ़ता रहता है। कस्तूरी मृग की नाभि (कुंडल) में कस्तूरी रहती है। पर उसका सुवास पाकर मृग उसे वन-वन में ढूँढ़ता फिरता है। यह व्यर्थ प्रयास करता है। अर्थात् बाहरी पूजा-प्रार्थना छोड़ ईश्वर को अपने भीतर ढूँढो।
दोहा – 5
साईं इतना दीजिए जामै कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
शब्दार्थ –
साईं – ईश्वर
जामै – जिसका
कुटुंब – अतिथि
व्याख्या –
कबीरदास जीवन में संतोष के महत्त्व को समझाते हैं। लोग धन कमाने के लिए जीवन भर भागते फिरते हैं। मूल्यवान जीवन ईश्वर-चिंतन छोड़ सांसारिक अनित्य बातों में लगा रहता है। कवि ईश्वर से माँगता है कि मुझे ज्यादा धन नहीं चाहिए। इतना धन दीजिए कि मेरा गुजारा चल जाए और कोई भक्त, साधु अतिथि आ जाए तो उसका सत्कार अच्छे से कर सकूँ।
दोहा – 6
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलय होयगा, बहुरि करेगो कब्ब॥
शब्दार्थ –
काल – कल
करै – करना
सो – वह
अब्ब – अब
परलय – प्रलय
बहुरि – फिर
व्याख्या –
ज्ञानी कबीर यह कहते हैं कि मनुष्य का जीवन अनिश्चित है। इसलिए जो भी काम करना है उसे तुरंत करना चाहिए। कल का काम आज कर लो क्योंकि प्रलय या मृत्यु या नाश कब आ जाएगा, पता नहीं। तब काम करने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए समय का मान रखना चाहिए और अपने कामों को समय के अनुसार ही कर लेना चाहिए।
दोहा – 7
जेहि घटि प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहिं राम।
ते नर आइ संसार में, उपजि खाए बेकाम॥
शब्दार्थ –
जेहि – जिस
घटि – शरीर
प्रीति – प्रेम
पुनि – फिर
रसना – जीभ
ते – वह
उपजि – उपज
बेकाम – बिन काम
व्याख्या –
संत कवि कबीर ईश्वर के महात्म्य का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जिस व्यक्ति के हृदय में प्रीति (श्रद्धा) नहीं, न ही जिसे प्रेम (भक्ति) का अनुभव होता है, जिसकी जीभ (रसना) राम का भजन नहीं करती, वह इस संसार में व्यर्थ जन्म लेता है, वह केवन खाने के लिए ही जीवित है उसका जीवन बिना ईश्वर स्मरण के व्यर्थ है।
दोहा – 8
मणिषां जन्म दुरलभ है, देह न बारंबार।
तरवर थैं फल झरि परयो, बहुरि न लागै डार॥
शब्दार्थ –
मणिषा – मनुष्य
दुरलभ – दुर्लभ
बारंबार – बार-बार
तरवर – पेड़
थैं – से
झरि – झड़ना
परयो – पड़ना
बहुरि – फिर
लागै – लगना
डार – डाली
व्याख्या –
कबीर के अनुसार मनुष्य का जन्म आसानी से नहीं मिलता। यह दुर्लभ होता है। मानव शरीर बार – बार नहीं मिलता। इसलिए इसका सदुपयोग करना चाहिए क्योंकि तरुवर (पेड़) से फल एक बार झड़ जाए तो फिर डाल (डार) से नहीं लग सकता। बीता जीवन काल लौट नहीं आता।
दोहा – 9
कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत सब सोधिया, दूजा देखौं काल॥
शब्दार्थ –
सुमिरन – स्मरण
सकल – सारा
जंजाल – समस्याओं का घर
आदि – आरंभ
सोधिया – खोजबीन
दूजा – दूसरा
काल – मौत
व्याख्या –
कबीर कहते हैं कि ईश्वर का स्मरण (ईश्वर का स्मरण या भजन) ही सार की बात है। बाकी सारे सांसारिक कार्य व्यर्थ (जंजाल) हैं। कबीर कहते हैं उन्होंने काफी खोजबीन और चिंतन-मनन करके इस सत्य को पाया है। उन्होंने जीवन को शुरू से अंत तक देखा है और यह पाया कि एक जीवन तो दूसरा तत्त्व काल (मरण) ही है।
दोहा – 10
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समानां, यह तत्त कहत अज्ञानी॥
शब्दार्थ –
कुंभ – मटका
फूटा – टूट जाना
कुंभ – मटका
जलहिं – पानी में
समानां – मिल जाना
तत्त – तत्त्व
कहत – कहता है
व्याख्या –
मनुष्य के शरीर में जीवात्मा है, बाहर सर्वत्र ईश्वर परमात्मा है। जैसे पानी के कुंभ में जल है और बाहर जलाशय का जल है। ये दोनों तत्त्व एक हैं। जैसे कुंभ फूट जाता है तो भीतर का जल बाहर की विशाल जलराशि के साथ मिल जाता है, वैसे शरीर नष्ट हो जाता है तो आत्मा परमात्मा से जाकर मिलकर एकाकर हो जाता है। यह ही अद्वैतवादी दर्शन है।
दोहा – 11
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपनां, मुझ सा बुरा न कोय॥
शब्दार्थ –
बुरा – खराब
देखन – देखने
मिलिया – मिला
कोय – कोई
दिल – हृदय, मन
आपनां – अपना
व्याख्या –
कबीर अपने इस दोहे में उपदेश देते हुए आत्म-समीक्षा के रूप में कहते हैं कि आदमी अपने को अच्छा मान लेता है और दूसरों की बुराई ढूँढ़ता रहता है। लेकिन कबीर कहते हैं कि पहले मैं भी ऐसा ही करता था पर जब मैंने अपने दिल में अन्तर्दृष्टि से देखा तो मैं ही इस संसार में सबसे बुरा आदमी निकला। अतएव दूसरों के अच्छे गुणों को देखो। अपने बुरे गुणों को पहचानो और उसे दूर करो।
दोहा – 12
माला तो कर में फिरैं, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनवां तो दसदिस फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं॥
शब्दार्थ –
कर – हाथ
फिरैं – फिरना
मुख माहिं – मुख में
मनवां – मन
दसदिस – दस दिशा
सुमिरन – स्मरण
नाहिं – नहीं
व्याख्या –
यहाँ बाहरी क्रिया की अपेक्षा हार्दिक श्रद्धा या प्रेम भाव पर जोर दिया गया है। माला जपते समय माला हाथ में फिरती रहती है, उधर मन में अनेक इच्छाएँ जागती रहती हैं। जीभ खाने को तरसती है। (जीभ फिरै मुख माहिं) और मन जो जप में लगा रहना चाहिए वह तो तरह-तरह की चिंता – फिक्र में दुनिया भर घूमता रहता है। यह कैसा ईश्वर-स्मरण है?
दोहा – 13
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दोउ न समाहिं॥
शब्दार्थ –
मैं – घमंड
हरि – ईश्वर
नाहिं – नहीं
अति – अत्यधिक
साँकरी – तंग
ता मैं – उसमें
दोउ – दोनों
न समाहिं – नहीं समाएगा
व्याख्या –
मनुष्य का अहंकार (मैं) सर्वदा उसके साथ रहता है। वह कहता है- मैंने यह काम किया, मैंने वैसा किया। उसका घमंड सदा बोलता है। तब ईश्वर उसके मन में नहीं आते हैं। जब उसका अहंकार (मैं) मिट जाता है, तब उसे ईश्वर (हरि) की अनुभूति होती है। भक्ति मार्ग (प्रेम गली) में दो के लिए जगह नहीं होती है, वह काफी सँकरी है। उसमें तो केवल एक ही के प्रवेश की जगह होती है। अर्थात् ईश्वर एक हैं, अद्वितीय हैं, और सर्वत्र हैं।
दोहा – 14
पोथी, पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई अच्छर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई॥
शब्दार्थ –
पोथी – मोटी किताब
पढ़ि पढ़ि – पढ़ – पढ़कर
जग मुआ – दुनिया मर गई
पंडित – ज्ञानी
भया – होना
ढाई अच्छर – प्यार, प्रेम
सो – वह
व्याख्या –
कबीर जी का मानना है कि पोथी पढ़ना, शास्त्रों का ज्ञान अर्जन करना आदि कामों से कोई ज्ञानी नहीं बन पाता है। ऐसा करके न जाने कितने लोग मर गए पर पंडित नहीं बन पाए हैं। असली ज्ञानी तो वही होता है जिसने ‘प्रेम’ शब्द के ढाई अक्षर को अपने जीवन में उतारता हो और सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हो। वही सच्चा पंडित है।
दोहा – 15
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होई॥
शब्दार्थ –
सुमिरन – स्मरण
काहे – क्यों
होई – हो
व्याख्या –
कबीर कहते हैं कि लोग दुख के समय ईश्वर को पुकारते हैं। परंतु सुख के दिनों में ईश्वर को भूल जाते हैं। अगर सुख में भी ईश्वर स्मरण होता रहे तो दुख आएगा ही नहीं।
कबीर की काव्यगत विशेषताएँ –
1. कबीर उदार मानववादी हैं। वे जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत आदि किसी प्रकार के भेदभाव को नहीं मानते हैं। इन सारे नियम- बंधनों का खुलकर विरोध करते हैं।
2. कबीर निर्गुणवादी हैं, अर्थात् वे ब्रह्म को निराकार निर्गुण, सूक्ष्म तत्त्व मानते हैं। इसलिए मूर्तिपूजा, अवतार (राम कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि) नहीं मानते। माला – तिलक, पूजा-पाठ, तीर्थव्रत, रोजा – नमाज को व्यर्थ समझते हैं। श्रद्धा और भक्ति से हीन ऐसे बाहरी कर्मकांड की खिल्ली उड़ाते हैं। इनको ढोंग समझते हैं। हिंदू हो मुसलमान हो कबीर धर्मों के बाहरी आचरण को दिखावा मानते हैं और उसकी आलोचना करते हैं। सच्चे प्रेम को महत्त्व देते हैं।
3. वे हृदय के प्रेमभाव को, भक्ति को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। वे अद्वैतवादी हैं। ब्रह्म को सत्य और संसार को अनित्य, नाशशील, मायामय, मिथ्या बताते हैं। सत्संग और सदाचार पर बल देते हैं। आत्मा और परमत्मा के मिलन की बात करते हैं।
4. वे वेदादि शास्त्रज्ञान को भी अनावश्यक मानते हैं, अपने अनुभव, प्रत्यक्षज्ञान, आँखों देखी बातों पर जोर देते हैं।
5. इसलिए उनकी कविता काफी भावात्मक, मार्मिक और सांसारिक अनुभव पर आधारित है। वे उपदेश देने के लिए जीवन की अनुभूतियों और वस्तुओं को चुनते हैं। उनकी उपमा-तुलना दैनन्दिन जीवन की घटनाओं पर आधारित है। इसलिए उनके दोहों को ‘साखी’ (साक्षी = आँखो देखी) कहा जाता है। उनके गेय पद भी हैं जिनको उनके शिष्यों ने लिख लिया है।
6. कबीर की भाषा जनसाधारण की बोलचाल की भाषा है। अनेक स्थानों में घूमते रहने के कारण उनमें विभिन्न बोलियों के शब्द भरे हुए हैं। पर सरल कथन है। काव्यात्मक अलंकार-योजना नहीं है। फिर भी उनका काव्य उच्च कोटि के भावों विचारों से भरा है।
7. लोग कबीर के दोहों को गाकर जीवन में प्रेरणा, मार्गदर्शन और सुख प्राप्त करते हैं।
1. प्रश्न – अभ्यास
1. सतगुरु ने एक प्रसंग (बात) कहा, तो क्या हुआ?
उत्तर – सतगुरु ने जब अलौकिक ईश्वर का वर्णन किया तथा उनकी भक्ति के चमत्कारिक लाभों के बारे में बताया तो उनकी बातों को सुनकर भक्तों का हृदय प्रफुल्लित हो गया। वास्तव में गुरु ने ईश्वर की महिमा का ऐसा वर्णन किया कि प्रेम का बादल बरसा और शिष्य का सारा शरीर उससे सराबोर हो गया।
2. जिसके शरीर में प्रीति (ईश्वर प्रेम) नहीं है उनके बारे में कबीर की क्या राय है?
उत्तर – संत कबीर ईश्वर के महात्म्य का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जिस व्यक्ति के हृदय में ईश्वर के प्रति प्रीति नहीं, न ही जिसे प्रेम का अनुभव होता है, जिसकी जीभ राम का भजन नहीं करती, वह इस संसार में व्यर्थ जन्म लेता है, वह केवन खाने के लिए ही जीवित है उसका जीवन बिना ईश्वर स्मरण के व्यर्थ है।
3. जीवन में सार क्या है?
उत्तर – कबीर कहते हैं कि ईश्वर का स्मरण ही सार की बात है। बाकी सारे सांसारिक कार्य जंजाल हैं। कबीर कहते हैं उन्होंने काफी खोजबीन और चिंतन-मनन करके इस सत्य को पाया है। उन्होंने जीवन को शुरू से अंत तक देखा है और यह पाया कि एक जीवन तो दूसरा तत्त्व मरण ही है।
4. कुंभ फूट गया तो जल जल में मिल गया इसका क्या अर्थ है?
उत्तर – मनुष्य के शरीर में जीवात्मा है, बाहर सर्वत्र परमात्मा हैं। जैसे पानी के कुंभ में जल है और बाहर जलाशय का जल है। ये दोनों तत्त्व एक हैं। जैसे कुंभ फूट जाता है तो भीतर का जल बाहर की विशाल जलराशि के साथ मिल जाता है, वैसे शरीर नष्ट हो जाता है तो आत्मा परमात्मा से जाकर मिलकर एकाकर हो जाता है। यह ही अद्वैतवादी दर्शन है।
5. इस संसार में बुरा कौन है?
उत्तर – इस संसार में सबसे बुरा वह है जो अपनी गलतियाँ न देखकर दूसरों की गलतियाँ देखता है। कबीर कहते हैं कि आदमी अपने को अच्छा मान लेता है और दूसरों की बुराई ढूँढ़ता रहता है। लेकिन कबीर कहते हैं कि पहले मैं भी ऐसा ही करता था पर जब मैंने अपने मन को अन्तर्दृष्टि से देखा तो मैं ही इस संसार में सबसे बुरा आदमी निकला। अतएव दूसरों के अच्छे गुणों को देखो। अपने बुरे गुणों को पहचानो और उसे दूर करो।
6. ‘हरि’ और ‘मैं’ का क्या संबंध है?
उत्तर – ‘हरि’ और ‘मैं’ का विरोधी संबंध है। मनुष्य का अहंकार सर्वदा उसके साथ रहता है। वह कहता है- मैंने यह काम किया, मैंने वैसा किया। उसका घमंड सदा बोलता है। तब ईश्वर उसके मन में नहीं आते हैं। जब उसका अहंकार मिट जाता है, तब उसे ईश्वर की अनुभूति होती है। भक्ति मार्ग में दो के लिए जगह नहीं होती है, वह काफी सँकरी है। उसमें तो केवल एक ही के प्रवेश की जगह होती है। अर्थात् ईश्वर एक हैं, अद्वितीय हैं, और सर्वत्र हैं।
7. पोथी का क्या अर्थ है?
उत्तर – पोथी का अर्थ मोटी-मोटी किताबों से है। कबीर जी का मानना है कि पोथी पढ़ना, शास्त्रों का ज्ञान अर्जन करना आदि कामों से कोई ज्ञानी नहीं बन पाता है। ऐसा करके न जाने कितने लोग मर गए पर पंडित नहीं बन पाए हैं। असली ज्ञानी तो वही होता है जिसने ‘प्रेम’ शब्द के ढाई अक्षर को अपने जीवन में उतारता हो और सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हो। वही सच्चा पंडित है।
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखकर अभ्यास कीजिए:
1. चकई और नर की विरह-दशा का अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – संसार में मिलन और विच्छेद लगा रहता है। दुख और सुख के दिन बदलते रहते हैं, जैसे रात को चकवा – चकवी बिछुड़ जाते हैं तो प्रभात होते ही मिल भी जाते हैं। लेकिन जो नर राम से बिछड़ते हैं, वे दिन या रात कभी नहीं मिल पाते हैं। उन्हें अपने जीवन में सर्वदा दुख ही दुख भोगना पड़ता है।
2. ‘मृग का वन-वन घूमना’- इस सामान्य बात से कौन-सी तात्विक बात कही गई है?
उत्तर – ‘मृग का वन-वन घूमना’- इस सामान्य बात से एक तात्विक बात कही गई है। वास्तव में ईश्वर या परमात्मा कहीं बाहर नहीं हैं, वे तो शरीर के अंदर ही हैं: हृदय में विराजमान हैं। लेकिन साधक या भक्त उसे मंदिर, मस्जिद आदि बाहरी स्थानों में ढूँढ़ता रहता है। कस्तूरी मृग की नाभि में कस्तूरी रहती है। पर उसका सुवास पाकर मृग उसे वन-वन में ढूँढ़ता फिरता है। यह व्यर्थ प्रयास करता है। अर्थात् बाहरी पूजा-प्रार्थना छोड़ ईश्वर को अपने भीतर ढूँढन चाहिए।
3. काम में ढिलाई करने से क्या परिणाम होता है?
उत्तर – ज्ञानी कबीर यह कहते हैं कि मनुष्य का जीवन अनिश्चित है। इसलिए जो भी काम करना है उसे तुरंत करना चाहिए। कल का काम आज ही कर लेना चाहिए क्योंकि प्रलय या मृत्यु या नाश कब आ जाएगा, पता नहीं। तब काम करने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए समय का मान रखना चाहिए और अपने कामों को समय के अनुसार ही कर लेना चाहिए।
4. मनुष्य का जन्म दुर्लभ है, इस सत्य का अनुभव कैसे होता है?
उत्तर – मनुष्य का जन्म दुर्लभ है, इस सत्य का अनुभव कबीर के अनुसार कुछ इस प्रकार होता है। मनुष्य का जन्म आसानी से नहीं मिलता। यह तो अत्यंत दुर्लभ होता है। इसलिए इसका सदुपयोग करना चाहिए क्योंकि पेड़ से फल एक बार झड़ जाए तो फिर डाल से नहीं लग सकता। अर्थात् बीता जीवन काल लौट नहीं आता।
5. माला फेरने की जरूरत है अथवा नहीं है?
उत्तर – कबीर के अनुसार माला फेरने की जरूरत नहीं है। यहाँ बाहरी क्रिया की अपेक्षा हार्दिक श्रद्धा या प्रेम भाव पर जोर दिया गया है। माला जपते समय माला हाथ में फिरती रहती है, उधर मन में अनेक इच्छाएँ जागती रहती हैं। जीभ खाने को तरसती है और मन जो जप में लगा रहना चाहिए वह तो तरह-तरह की चिंता – फिक्र में दुनिया भर घूमता रहता है। यह कैसा ईश्वर-स्मरण है?
6. ईश्वर की प्राप्ति में बाधक क्या है?
उत्तर – ईश्वर की प्राप्ति में ‘मैं’ रूपी अहंकार सबसे बड़ा बाधक है क्योंकि जब मनुष्य अहंकारी होता है वह खुद को ही सबसे बड़ा मानने लगता है। फलस्वरूप वह परम सत्ता के शक्ति को नहीं पहचान पाता है।
7. पोथी न पढ़कर भी पंडित हुआ जा सकता है, कैसे? समझाइए।
उत्तर – पोथी न पढ़कर भी पंडित हुआ जा सकता है, यह तभी संभव है जब मनुष्य प्रेम के ढाई अक्षर ‘प्रेम’ को अपने जीवन में पूरी शिद्दत से उतारे और सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करे।
3. नीचे दिए गए प्रश्नों के चार चार विकल्प दिए गए हैं। उनमें से सही
विकल्प चुनिए :-
1. कबीर को अच्छे गुरु मिल गए तो क्या हुआ?
(क) मजा आ गया
(ख) आटे में लोन मिल गया
(ग) सत्संग होने लगा
(घ) जाति पाँति समझी गई
उत्तर – (ग) सत्संग होने लगा
2. चकवी रात को बिछुड़ती है तो सुबह मिलती है, लेकिन जो राम से बिछुड़ते हैं, उनका क्या होता है?
(क) वे सर्वदा सुखी हैं
(ख) उन्हें सर्वदा दुख होता
(ग) वे कभी नहीं मिलते
(घ) वे संसार से मिलते हैं
उत्तर – (ख) उन्हें सर्वदा दुख होता
3. कल करने वाले काम को आज ही कर लेना चाहिए क्योंकि
(क) कल समय नहीं मिलेगा
(ख) पता नहीं कब क्या हो जाए
(ग) पल में प्रलय होगा
(घ) बहुरि कब करेगा
उत्तर – (ख) पता नहीं कब क्या हो जाए