सूरदास – के पद

सूरदास (1478-1583)

महाकवि सूरदास का जन्म, दिल्ली के निकट ब्रज की ओर स्थित ‘सीही’ नामक गाँव में सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ। कहा गया है कि वे जन्मांध थे। यह भी कहा है कि वे बाद में अंधे हो गए। जो हो, उनका साहित्य उनके गहरे जीवानानुभव का परिचय देता है। विद्याध्ययन के बाद वे विरागी होकर ‘गऊघाट’ में रहते थे। भजन गाते थे। बहुत अच्छे संगीतज्ञ थे। वहीं वल्लभाचार्य के साथ भेंट हुई। उनके शिष्य हो गए। आचार्य ने सूरदास को अपने आराध्य बालकृष्ण श्रीनाथ जी की कीर्तन- सेवा में लगा दिया। सूरदास ने भागवत के आधार पर कृष्ण लीला से संबंधित ‘सूरसागर’ जैसा प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा।

सूरदास कृष्ण भक्त थे। पहले वे विनय के पद लिखते और गाते थे, जिसका विषय भक्त की दीनता और नम्रता है। वल्लभाचार्य के आदेश से वे भक्ति के पद लिखने और गाने लगे।

सूरदास वात्सल्य रस के श्रेष्ठ कवि हैं। उन्होंने कृष्ण की बाललीलाओं का वर्णन किया है। बच्चे के सभी मनोभावों के चित्र उन पदों में मिलते हैं। कृष्ण की लोकरंजनकारी लीलाओं के वर्णन में वे रम गए। राधाकृष्ण का प्रेम वर्णन भी किया। वे कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति, शरणागति और संपूर्ण भरोसा रखते थे। शृंगार के संयोग और वियोग पदों का वर्णन, गोपी उद्धव संवाद (भ्रमरगीत) सगुण भक्ति का सबल प्रतिपादन आदि में सूर की काव्यकला निखर उठी है।

ब्रजभाषा को उन्होंने काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। उनके पदों में भावात्मकता, चित्रात्मकता, आलंकारिकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता और बिवविधान सर्वत्र मिलते हैं।

सूरदास हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उन्हें हिंदी काव्य का ‘सूर्य’ कहा गया है- यह उक्ति प्रसिद्ध है- ‘सूर सूर तुलसी ससि’।

विनय के पद

1.

अविगत – गति कछु कहत न आवै।

ज्यों गूँगा मीठे फल को रस अंतरगत ही भावे॥

परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै।

मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जाने जो पावै।

रूप-रेख-गुन-जाति- जुगति बिनु, निरालंब कित धावै।

सब बिधि अगम बिचारही तातैं सूर सगुन पद गावै॥

शब्दार्थ –

अविगत – गति – अव्यक्त ब्रह्म की महिमा

ज्यों – जैसे

अंतरगत – अपने मन से

भावे – पसंद

सु – से

निरंतर – लगातार

अमित – जो न मिटे

तोष – संतोष

उपजावै उपज होना  

मन-बानी – मन और वाणी

कौं – कौन

अगम – जहां जाया न जा सके

अगोचर – जो इंद्रियों के ज्ञान से परे हो

सो – वह

पावै – पाना  

बिनु – बिना

निरालंब – जिसका कोई आधार नहीं

कित – कहाँ

धावै – दौड़ना  

बिधि – विधि, तरीका

बिचारही – विचारा कर

तातैं – असंभव

सूर – सूरदास

भावार्थ –

यहाँ सूरदास कहते हैं कि अव्यक्त ब्रह्म की महिमा कुछ कही नहीं जा सकती। जिस प्रकार गूँगा मीठे फलों के स्वाद को बता नहीं सकता केवल उसे महसूस कर सकता है। ठीक उसी प्रकार निराकार ब्रह्म की महिमा भी अव्यक्त हैं। उनका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। वेदों में उन्हें ‘नेति नेति’ कहा गया है। उसका मर्मरस तो अंतरतम या हृदय के भीतर यानी मन ही मन अच्छा लगता है। उनके अनुभव का परम स्वाद अत्यंत आनंददायक है। उनसे मन में अपरिमित संतोष मिलता है। वह ब्रह्म मन से या वाणी या शब्दों के जरिये अगम अगोचर अनजाना रह जाता है। जो उसे जानता है, वही अनुभव करता है। हमारा मन चिंतन-मनन करने के लिए अथवा स्नेह-संबंध स्थापित करने के लिए किसी इंद्रिय गोचर विषय को खोजता है। चूँकि अव्यक्त ब्रह्म का कोई रूप, आकार, गुण, पहचान या युक्ति नहीं है, मन को कोई अवलंबन नहीं मिलता; वह भटकता रह जाता है। निर्गुण निराकार ब्रह्म का गुणगान असंभव जानकर सूरदास सगुण ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गुणगान करते हैं। ताकि भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति के माध्यम से आम जन भी परम-सुख प्राप्त कर सकें।

2.

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।

जैसे उड़ी जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै॥

कमल- नैन को छाँडि, महातम, और देव कौं ध्यावै।

परमगंग को छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै॥

जिहीं मधुकर अंबुज रस चाख्यौ, क्यों करीलफल खावै।

सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥

शब्दार्थ –

मेरो मन – मेरा मन

अनत – अन्य जगह  

पावै – पाएगा  

फिरि – फिर

आवै – आएगा  

कमल- नैन – कृष्ण

को छाँडि – को छोड़कर

महातम – महात्मा  

देव कौं ध्यावै – देवता का ध्यान करना   

परमगंग – गंगा

पियासौ – प्यासा

दुरमति – मूर्ख

कूप खनावै – कुआँ खोदना

जिहीं – जिस

मधुकर – भौंरा

अंबुज – कमल  

चाख्यौ – चखना

करीलफल – एक कड़वा फल

खावै – खाएगा

कामधेनु – हर मनोकामना पूर्ण करने वाली गाय

तजि – त्याग

छेरी – बकरी

दुहावै – दुहना  

भावार्थ –

इस पद में सूरदास जी कहते हैं कि मेरा मन कृष्ण की भक्ति के बिना कहीं लगता ही नहीं है। जहाज में रहनेवाला पक्षी उड़ कर बहुत दूर आकाश में जाने पर भी आखिर में उसी जहाज पर उसे लौटना पड़ता है। इसी प्रकार कवि कहते हैं कि मेरे मन का एकमात्र आश्रय भगवान श्रीकृष्ण हैं। सांसारिक कार्यों में जितना मगन रहो, अंत में भगवान की शरण में ही जाना पड़ता है। कमलनयन श्रीकृष्ण का आश्रय छोड़ कौन मूर्ख होगा जो अन्य देवताओं का ध्यान करेगा? गंगा पास में है तो कौन मूर्ख व्यक्ति प्यास बुझाने के लिए कुआँ खोदेगा? अर्थात् ऐसा कोई नहीं करेगा। जिस भौंरे ने एक बार कमल का मकरंद चखा है, वह करील फल नहीं खाता। सूरदास जी अंत में यह भी कहते हैं कि मेरे प्रभु तो कामधेनु की भाँति सदा कृपावर्षण करते रहते हैं उन्हें छोड़कर भला कोई बकरी का दूध निकालने के लिए क्यों परेशान रहे।   

3.

प्रभु मोरे अवगुन चित न धरौ।

समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करौ॥

इक नदी इक नार कहावत मैलो नीर भरौ।

जब दोऊ मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम धरौ॥

इक लोहा पूजा में राखत इक घर बधिक परौ॥

यह दुबिधा पारस नहीं जानत, कंचन करत खरौ।

एक जीव एक ब्रह्म कहावत, सूर स्याम सगरौ।

अबकी बार मोहिं पार उतारो नहीं पन जात टरौ॥

शब्दार्थ –

मोरे अवगुन – मेरे अवगुण

चित – हृदय

धरौ – रखना  

समदरसी – समदर्शी – सबको समान रूप से देखने वाला

तिहारो – आपका

पार करौ – उद्धार करना  

इक – एक

नार – नाली

मैलो नीर – मैला पानी

भरौ – भरना  

दोऊ – दोनों

बरन – वर्ण, रंग  

भये – होना

सुरसरि – गंगा

धरौ – रखना  

बधिक – हत्या करने वाला

परौ – पर

दुबिधा – दुविधा

पारस – एक ऐसा धातु जिसके संपर्क में आने से लोहा भी सोना बान जाता है।

कंचन – सोना

करत – करना

खरौ – खरा  

सगरौ – हर जगह  

अबकी बार – इस बार

मोहिं – मुझे

टरौ – टलना

भावार्थ –

सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु, मेरे अवगुणों को अपने मन में न रखिए क्योंकि आप तो समदर्शी हैं- गुणी और अवगुणी, दोषी तथा निर्दोष को समान दृष्टि से देखते हैं, इसलिए मेरा बेड़ा पार लगा दीजिए। जैसे नदी और नाले का स्वच्छ और गंदा पानी गंगा में पड़कर गंगाजल हो जाता है, वैसे आप सबको समान कर देते हैं। हे ईश्वर, आप तो पारस स्वरूप हैं क्योंकि पारस व्याध या हत्यारे की कटारी के लोहे को और पूजा में प्रयोग किए जाने वाले लोहे को अपने संपर्क में लाकर एक समान खरा सोना बना देता है। कवि आगे कहते हैं कि एक जीवत्मा है, वह सर्वत्र व्याप्त है, दूसरा परमात्मा है, दोनों बराबर हैं। आप पतितों के उद्धारक हैं। मैं पतित हूँ, मुझे भवसागर से पार करा दीजिए नहीं तो आपकी प्रतीक्षा में मेरे प्राण-पखेरू उड़ जाएँगे।

बाललीला

4.

कहन लगै मोहन मैया मैया।

पिता नंद सों बाबा, अरु हलधर सों भैया॥

ऊँचे चढ़ि चढ़ि कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया।

दूर कहुँ जनि जाहु लला रे, मारेगी काहू की गया॥

गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर घर लेत बलैया।

मनि खम्भन प्रतिबिंब बिलोकत, नचत कुँवर निज पैया॥

नंद जसोदाजी के उर तें, इहि छवि अनत न जैया।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस को चरननि की बलि जैया॥

शब्दार्थ –

अरु – और

हलधर – बलराम

कहुँ – कहीं

जाहु – जाना

लला – कृष्ण

गैया – गाय  

बलैया – रोग बलाई लेना  

मनि – मणि

खम्भन – खंभा

प्रतिबिंब – Reflection

बिलोकत – देखना

नचत – नाचना

निज पैया – अपने पैर  

उर तें – हृदय में

इहि – यह

छवि – चित्र

अनत – कभी नहीं

जैया – जाना  

भावार्थ –

इस पद में कविवर सूरदास जी बालकृष्ण का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि कृष्ण बड़े हो रहे हैं। कृष्ण अब यशोदा को माँ-माँ कहते हैं, नंद जी को बाबा कहकर पुकारते हैं। बलराम को भैया कहते हैं। जब वे बाहर कभी निकल जाते हैं तो यशोदा ऊँचे स्थान पर चढ़ कर उनसे कहती हैं कि – बेटा रे, दूर कहीं मत जाना। किसी की गाय मार देगी। गोपी-ग्वाल कृष्ण के खेल देखकर खुश होते हैं। घर-घर में लोग कृष्ण की दोनों हथेलियों की मुट्ठी बनाकर उसके सिर से छुलाकर अपने सिर से छूते हैं और सारी बलैया स्वयं ले लेते हैं। कृष्ण मणि के खंभों पर प्रतिबिंब देखते हैं और अपने नन्हें पैरों से नाचते-कूदते हैं। कृष्ण का यह सुंदर रूप नंद-यशोदा के मन में सर्वदा बैठा रहता है। सूरदास कहते हैं- हे प्रभो, मैं तुम्हारे चरण कमलों के दर्शन का अभिलाषी हूँ। मैं अपने को उन चरणों पर न्योछावर करता हूँ।

5.

सिखावति चलन जसोदा मैया।

अरबराई कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनि धरै पैया॥

कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि ले बलैया॥

कबहुँक बल को टेरि बुलावति, इहि आँगन खेलो दोउ भैया।

कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवौ मेरो बाल कन्हैया॥

सूरदास प्रभु सब सुखदायक, अति प्रताप बालक नँद रैया॥

शब्दार्थ –

सिखावति – सिखाना

चलन – चलना

अरबराई कर – घबराकर

पानि – हाथ

गहावत – पकड़ना

डगमगाइ – डगमगाना

धरनि – धरती

धरै पैया – पैर रखना

कबहुँक – कभी

बदन – शरीर

बिलोकति – देखना  

उर – हृदय

आनँद – आनंद

बलैया – रोग बलाई लेना  

बल – बलराम

टेरि – पुकारना 

बुलावति – बुलाना

इहि – इसी

दोउ – दोनों  

मनावति – इच्छा मानना  

चिरजीवौ – चिरायु

रैया – राजा

भावार्थ –

इस पद में कविवर सूरदास जी बालकृष्ण का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि माता यशोदा कृष्ण को चलना सिखाती हैं। कृष्ण भूमि पर पाँव रख कर चलने लगते हैं तो लड़खड़ा जाते हैं, तब यशोदा घबराकर कृष्ण का हाथ पकड़ लेती हैं। यशोदा कभी तो कृष्ण सुंदर मुख को निहारती है, कभी आनंद से भरकर उनकी बलैया लेती हैं। कभी बलदेव को पुकार कर कहती है कि इसी आँगन में दोनों भाई मिलकर खेलो। कभी कुल देवता से शुभ विनती करती हैं कि मेरे नन्हें कन्हैये को चिरायु करना। सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण तो स्वयं प्रभु हैं वे सबके सुखदाता हैं और नंद राजा के प्रतापशाली बेटे हैं।

1. ‘अविगत गति’ का क्या मतलब है?

उत्तर – ‘अविगत गति’ का अर्थ है ‘अव्यक्त ब्रह्म’। कवि सूरदास कहते हैं कि अव्यक्त ब्रह्म की महिमा कुछ कही नहीं जा सकती। जिस प्रकार गूँगा मीठे फलों के स्वाद को बता नहीं सकता केवल उसे महसूस कर सकता है। ठीक उसी प्रकार निराकार ब्रह्म की महिमा भी अव्यक्त हैं। उनका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। वेदों में उन्हें ‘नेति नेति’ कहा गया है। वह अगोचर है अर्थात् इंद्रियों से परे है।

2. गूँगा मीठे फल का रस कैसे अनुभव करता है?

उत्तर – गूँगा मीठे फलों के स्वाद को शब्दों के माध्यम से बता नहीं सकता है केवल अंतर्मन से उसे महसूस कर सकता है।

3. किससे ‘अमित तोष’ उपजता है?

उत्तर – श्रीकृष्ण की भक्ति से अमित तोष उपजता है क्योंकि इनकी भक्ति में आत्मिक आनंद और माधुर्य रस वर्षण निरंतर होता रहता है।

4. निरालंब का ध्यान करना असंभव क्यों है?

उत्तर – निरालंब का ध्यान करना असंभव है क्योंकि यह अगोचर विषय है अर्थात् इंद्रियों से परे है।  

5. जहाज के पंछी की क्या मजबूरी है?

उत्तर – जब जहाज समुद्र में होता है तो जहाज़ के पंछी की यह मजबूरी होती है कि वह आसमान में चाहे जितनी दूर उड़ कर चला जाए आश्रय पाने के लिए उसे पुनः जहाज़ पर ही आना पड़ता है।

6. ‘महात्मा’ क्या करता है?

उत्तर – ‘महात्मा’ कमलनयन श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और किसी देवता की भक्ति में लीन नहीं होते हैं। उनका मन तो केवल मोहन को ही भजता है।    

7. जिस भौंरे ने कमल का रस पिया, वह क्या नहीं करता?

उत्तर – जिस भौंरे ने कमल का रस पिया है वह कभी भी करील के फूलों का रसास्वादन नहीं करता। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रीकृष्ण की भक्ति में रम जाने के बाद, मन और किसी की भक्ति में नहीं लगता। 

8. ‘कामधेनु’ और ‘छेरी’ किस किसके प्रतीक हैं?

उत्तर – ‘कामधेनु’ को प्रभु कृष्ण का प्रतीक बताया गया है जो आध्यात्मिक हैं और ‘छेरी’ को क्षणिक दैहिक सुख देने वाले माया के रूप में प्रतीकित किया गया है।  

9. ‘समदरशी’ प्रभु क्या करते हैं?

उत्तर – ‘समदरशी’ प्रभु – गुणी और अवगुणी, दोषी तथा निर्दोष को समान दृष्टि से देखते हैं और सबका बेड़ा पार लगा देते हैं।  

10. नदी के साथ नाला मिल जाय तो क्या होता है?

उत्तर – नदी के साथ नाला मिल जाए तो नाले का दूषित और मैला पानी भी नदी के जल की तरह पवित्र और पूजनीय हो जाता है।

11. लोहा कितने तरह के हैं?

उत्तर – सूरदास के पद के अनुसार लोहा दो तरह का होता है एक पूजा में प्रयोग किया जाने वाला लोहा और दूसरा हत्यारे की कटारी का लोहा। 12. पारस क्या नहीं जानता?

उत्तर – पारस पूजा में प्रयोग किया जाने वाला लोहा और हत्यारे की कटारी का लोहा, दोनों के भेद या अंतर को नहीं जानता है।   

13. ‘कंचन करत खरौ’ का क्या तात्पर्य है?

उत्तर – ‘कंचन करत खरौ’ का यह तात्पर्य है कि पारस जो प्रभु के समान है, उसके संपर्क में चाहे पूजा में प्रयोग किया जाने वाला लोहा आए या फिर हत्यारे की कटारी का लोहा आए, दोनों में बिना भेद किए वह उसे खरे सोने में बदल देता है।

14. सब एक हैं परंतु दो समझकर क्या-क्या नाम दिया गया है?

उत्तर – सब एक हैं परंतु दो समझकर उसे ‘जीवात्मा’ और ‘परमात्मा’ नाम दिया गया है।

15. यशोदा श्याम को क्या चेतावनी देती है?

उत्तर – यशोदा अपने पुत्र श्याम से अत्यधिक प्रेम करती हैं और श्याम जब खेलते-खेलते घर से दूर निकलने ही वाले होते हैं तब यशोदा ऊँचे स्थान पर चढ़ कर चेतावनी देते हुए उनसे कहती हैं कि – बेटा रे, दूर कहीं मत जाना। किसी की गाय मार देगी।

16. गोपी और ग्वाल कृष्ण को चलते देख क्या करते हैं?

उत्तर – गोपी और ग्वाल कृष्ण को चलते देखकर वात्सल्य रस से अभिभूत हो जाते हैं। यह रमणीय दृश्य उन्हें असीम आत्मिक सुख प्रदान करता है और वे कृष्ण की सारी बलैया ले लेते हैं।

17. कान्हा अपना प्रतिबिंब मणि- खंभों में देख क्या करते हैं?

उत्तर – कृष्ण मणि के खंभों पर जब प्रतिबिंब देखते हैं तो अपने नन्हें पैरों से नाचने-कूदने लगते हैं।

18. यशोदा मैया कान्हा को क्या सिखाती हैं?

उत्तर – यशोदा मैया कान्हा को चलना सिखाती हैं।

19. ‘अरबराइ’ का अर्थ बताइए?

उत्तर – ‘अरबराइ’ का अर्थ है – घबराकर।

20. माँ यशोदा कुल देवता से क्या मिन्नत करती हैं?

उत्तर – अपने दोनों पुत्रों बलदेव और कृष्ण को आँगन में स्नेह भाव से खेलते देखकर माँ यशोदा कुल देवता से शुभ मिन्नत करती हैं कि मेरे नन्हें कन्हैये और बलराम को चिरायु करना।

21. नंदसुत को सूरदास प्रतापशाली क्यों कहते हैं?

उत्तर – नंदसुत को सूरदास प्रतापशाली कहते हैं क्योंकि कृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार हैं। विष्णु इस जगत के नियंता और पालक हैं।

1. सूरदास सगुन पद गाने का निश्चय क्यों करते हैं?

उत्तर – सूरदास जी का मानना है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना और उनके रहस्य को जानना सबके वश की बात नहीं है। सूरदास उन भक्तों के लिए जिन्हें भक्ति के लिए मूर्त रूप में विद्यमान ईश्वर की आवश्यकता होती है, उनके भक्तिमार्ग को सहज, सरल और सरस करने के उद्देश्य से सगुण पद गाने का निश्चय करते हैं।

2. अव्यक्त-गति वाले ब्रह्म का ध्यान क्यों नहीं किया जा सकता है?

उत्तर – अव्यक्त-गति वाले ब्रह्म का ध्यान नहीं किया जा सकता है क्योंकि अव्यक्त ब्रह्म का कोई रूप, आकार, गुण, पहचान या युक्ति नहीं है, मन को कोई अवलंबन नहीं मिलता; वह भटकता रह जाता है। इसलिए निर्गुण निराकार ब्रह्म का गुणगान असंभव जान पड़ता है।

3.  जैसे जहाज का पंछी वापस जहाज में ही आता है, वैसे और कौन है?

उत्तर – जैसे जहाज का पंछी वापस जहाज में ही आता है, वैसे ही श्रीकृष्ण के भक्त हैं क्योंकि जो श्रीकृष्ण की भक्ति में एक बार लीन हो जाता है वह फिर किसी और की भक्ति में कभी भी लीन हो ही नहीं पाता है।

4. कमलनैन कृष्ण को छोड़ दूसरे देवता का ध्यान करना कैसी मूर्खता है?

उत्तर – कमलनैन कृष्ण को छोड़ दूसरे देवता का ध्यान करना वैसी ही  मूर्खता है जैसे बगल में गंगा नदी के प्रवाहित होने पर भी प्यासा कूप खनन करके अपनी प्यास बुझाने की निरर्थक प्रयास करता हो।

5. सूरदास प्रभु से अपना अवगुण या दोष न धरने को किस आधार पर कहते हैं?

उत्तर – सूरदास प्रभु से अपने अवगुण या दोष न धरने को कहते हैं क्योंकि प्रभु तो समदर्शी होते हैं। उन्होंने प्रभु को पारस के समान कहा है, जैसे पारस पूजा के लोहे और हत्यारे की कटारी के लोहे में भेद नहीं करता है और दोनों को खरे सोने में बदल देता है। उन्होंने प्रभु की महता का वर्णन गंगा नदी से करते हुए कहा है कि गंगा में मिलने वाला नाले का दूषित जल भी पवित्र और पूजनीय हो जाता है।  

6. ‘अबकी बार मोहिं पार उतारो नहिं पन जात टरो’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए?

उत्तर – ‘अबकी बार मोहिं पार उतारो नहिं पन जात टरो’ का अर्थ है- सूरदास जी प्रभु से विनती करते हुए कहते हैं कि आप पतितों के उद्धारक हैं। मैं पतित हूँ, मुझे भवसागर से पार करा दीजिए नहीं तो आपकी प्रतीक्षा में मेरे प्राण-पखेरू उड़ जाएँगे।

7. सूरदास के बाललीला – वर्णन की क्या-क्या विशेषताएँ हैं?

उत्तर – सूरदास के बाललीला की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

– बाल सुलभ प्रवृत्तियों का वास्तविक वर्णन।

– वात्सल्य रस का रमणीय वर्णन।

– पुत्र प्रेम और मातृ चिंतन का समुचित संयोजन।

– सरल और सरस शब्दों का भावानुकूल प्रयोग।  

8. यशोमती की मानसिक दशा का वर्णन कीजिए।  

उत्तर – यशोमती की मानसिक दशा वर्णन अनेक पदों में मिलता है। कभी वह कृष्ण के प्रति चिंतित होकर उसे दूर जाने से यह कहते हुए मना करती हैं कि किसी की गाय तुझे मार सकती है। जब वह श्याम को चलना सिखाती हैं तो कृष्ण के डगमगाने पर वह घबराकर उसके हाथ को थाम लेती हैं ताकि वह गिर न जाए। और उसके आँगन में जब कृष्ण और बलराम स्नेहपूर्वक खेल रहे होते हैं तो कुलदेवता से दोनों पुत्रों के चिरायु होने की कामना भी करती हैं।

1. कमलनेन वासुदेव को छोड़ क्या करना बड़ी मूर्खता है?

(क) गिरिवर धारण

(ख) अंबुज – रस सेवन

(ग) दूसरे देवताओं का पूजन

(घ) गंगाजल पान

उत्तर – (ग) दूसरे देवताओं का पूजन

2. यशोदा मैया कान्हा को क्या सिखाती है?

(क) चलना

(ख) माखन खाना

(ग) गाँव की गली में खेलना

(घ) गाय चराना

उत्तर – (क) चलना

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