‘अज्ञेय’ हिरोशिमा

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

‘अज्ञेय’ जी का पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ है। उनका जन्म 7 मार्च 1911 ई. को कसाया (जिला देवरिया) में पुरातत्त्व शिविर में हुआ। उनके पिता का नाम डॉ. हीरानंद शास्त्री था। अपने पिता के साथ उनका अधिक समय कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। श्रीनगर और जम्मू में उन्होंने संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी की प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। स्वर्गीय राखालदास बंदोपाध्याय से उन्होंने बंगला भाषा का अध्ययन किया।

अज्ञेय का व्यक्तित्व क्रांतिकारी था। जब वे एम. ए. कर रहे थे तब क्रांतिकारी आंदोलन में फरार हुए। 1930 में गिरफ्तार हुए। चार साल जेल में रहे। और दो साल नजरबंद। उसके बाद उन्होंने किसान आंदोलन में भाग लिया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि के क्षेत्र में अपनी लेखनी की। वे बहुत सी कलाएँ भी जानते थे; मसलन- फोटोग्राफी, चर्म-शिल्प, पर्वतारोहण, सिलाई-कला आदि।

प्रतिभासंपन्न अज्ञेय ने ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’ और अंग्रेजी त्रैमासिक ‘वाक्’ का संपादन किया। साथ ही ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में भी नौकरी की। 1943 से 45 तक सेना में रहे। उन्होंने समाचार साप्ताहिक ‘दिनमान’, ‘नया प्रतीक’ तथा ‘दैनिक नवभारत टाइम्स’ का कुशलतापूर्वक संपादन किया।

‘प्रयोगवाद’ के प्रवर्तक अज्ञेय ने 1943 में ‘तारसप्तक’ का संपादन किया। इसमें सात कवि संकलित थे जिन्हें उन्होंने ‘राहों का अन्वेषी’ कहा। इनमें से अधिकांश कवि प्रगतिवादी थे।

अज्ञेय यायावरी प्रकृति के थे। मूल रूप से ये प्रेम और प्रकृति के कवि हैं। अज्ञेय जी को 1964 में ‘आँगन के पार द्वार’ काव्य संकलन पर ‘साहित्य अकादमी’ का पुरस्कार मिला। ‘कितनी नावों में कितनी बार’ कविता संग्रह पर उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

उनकी प्रमुख रचनाएँ

इत्यलम्, बावरा अहेरी, हरी घास पर क्षण भर, आँगन के पार द्वार (कविताएँ), शेखर – एक जीवनी, नदी के द्वीप (उपन्यास), छोड़ा हुआ रास्ता, लौटती पगडंडियाँ (कहानियाँ), अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली (यात्रा वर्णन), त्रिशंकु, आत्मनेपद, अद्यतन आलोचना आदि।

कविवर अज्ञेय विरचित ‘हिरोशिमा’ में द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका का वर्णन किया गया है। यह कविता अमेरिका द्वारा जापान के नगर हिरोशिमा पर परमाणु बम के गिराए जाने की घटना पर आधारित है। कवि कहता है कि परमाणु-बम के फटने से ऐसा प्रकाश हुआ मानो सूर्य आकाश की बजाय पृथ्वी से निकल आया हो। पूर्व से निकलने की बजाय नगर के बीच से निकल आया हो, लेकिन यह सूर्य नहीं था अपितु यह परमाणु बम था।

हिरोशिमा

एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे, क्षितिज पर नहीं

नगर के चौक पर

धूप बरसी

पर अन्तरिक्ष से नहीं

फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की

दिशाहीन

सब ओर पड़ी – वह सूरज

नहीं उगा था पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के :

काल- सूर्य के रथ के

पहियों के ज्यों अरे टूट कर

बिखरे गये हों

दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त !

केवल एक प्रज्वलित क्षण की

दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लम्बी हो-हो कर 

मानव ही सब भाप हो गये।

छायाएँ तो अभी लिखी हैं,

झुलसे हुए पत्थरों पर

उजड़ी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुआ सूरज

मानव को भाप बना कर सोख गया।

पत्थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है।

एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे, क्षितिज पर नहीं

नगर के चौक पर

धूप बरसी

पर अन्तरिक्ष से नहीं

फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की

दिशाहीन

सब ओर पड़ी – वह सूरज

नहीं उगा था पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के :

काल- सूर्य के रथ के

पहियों के ज्यों अरे टूट कर

बिखरे गये हों

दसों दिशा में।

शब्दार्थ –

क्षितिज – पृथ्वी और आकाश के बीच का स्थल। अन्तरिक्ष – आकाश। छायाएँ – प्रतिबिम्ब। काल-सूर्य – मृत्यु रूपी सूर्य। अरे – पहिए के वृत्त को जोड़ने वाली तीलियाँ।

प्रसंग –

प्रस्तुत काव्यांश कविवर अज्ञेय विरचित काव्य-संकलन ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में संकलित ‘हिरोशिमा’ नामक कविता से उद्धृत किया गया है। इसमें कवि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के नगर हिरोशिमा पर परमाणु बम के गिराए जाने वाले प्रसंग को अंकित करता है और भीषण नरसंहार का वर्णन भी करता है।

व्याख्या –

कवि कहता है कि अमेरिका द्वारा अचानक हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिए जाने और उसके विस्फोट से ऐसा लगा कि जैसे सूर्य उस दिन पूर्व के क्षितिज की बजाय अचानक नगर के बीचों-बीच चौक पर निकल आया है। धूप भी अंतरिक्ष की बजाय फटी धरती से निकली है। मानव की रचनाएँ भी दिशाहीन हो सब ओर फैली दिखाई दीं। वह सूर्य पूर्व से नहीं उगा था। वह धरतीवासियों को जीवन आलोकमयी खुशी देने वाला सूर्य नहीं था। ऐसा लगा था कि काल रूपी सूर्य के रथ पहियों को जोड़ने वाली अरे (धुरी) टूटकर दशों-दिशाओं में बिखर गए हों। अर्थात् परमाणु बम की प्राणघातक अग्नि- श्लाकाएँ दशों दिशाओं में फैलती हुई नरसंहार कर रही थीं।

विशेष –

1.कवि ने 6, 7 अगस्त 1945 को अमेरिका द्वारा जापान के दो बड़े शहरों (हिरोशिमा और नागासाकी) पर परमाणु बम गिराए जाने की घटना को सांकेतिक रूप में अंकित किया है। इस बम के गिराए जाने से पौने दो लाख लोगों की जान गई थी और एक लाख से अधिक लोग घायल, अपाहिज और अंधे हो गए थे।

2. सहसा सूरज, बीचों-बीच, दशों दिशाओं में अनुप्रास अलंकार है।

3. काल सूर्य में रूपक अलंकार है।

4. पहिये के ज्यों अरे टूटकर बिखर गये हों, उत्प्रेक्षा अलंकार है।

5. सम्पूर्ण पद्य में बिम्बात्मकता है।

6. भाषा सहज, सरल, प्रभावपूर्ण और प्रयोगशील है।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!

केवल एक प्रज्वलित क्षण की

दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी : फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लम्बी हो-हो कर :

मानव ही सब भाप हो गये।

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्थरों पर

उजड़ी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुआ सूरज

मानव को भाप बना कर सोख गया।

पत्थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है।

शब्दार्थ –

उदय-अस्त – निकलना और छिपना। प्रज्वलित – जलता हुआ। झुलसे – थोड़े जले हुए। गच – धरातल, फर्श। साखी – गवाह।

प्रसंग –

प्रस्तुत काव्यांश कविवर अज्ञेय विरचित काव्य-संकलन ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में संकलित ‘हिरोशिमा’ नामक कविता से उद्धत किया गया है। इसमें कवि द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जापान के नगर हिरोशिमा पर परमाणु बम के गिराए जाने वाले प्रसंग को अंकित करता है और भीषण नरसंहार का वर्णन भी करता है।

व्याख्या –

कवि कहता है कि अणु बम के गिरने से ऐसा लगा कि थोड़ी देर के लिए वहाँ सूर्य निकला और अस्त हो गया है। दोपहरी के समय अणु बम गिराया गया, जिसने देखते-देखते ही सारे दृश्य को नष्ट कर दिया अर्थात् हिरोशिमा नगर को नष्ट कर दिया गया।

मानव छाया में इधर-उधर नहीं बिखरे अपितु गर्मी की अधिकता से उन सबका वाष्पन हो गया अर्थात् मनुष्यों के शरीर भाँप बन गए। भले ही मानव शरीर नहीं बचे,  उनके चिह्न भी नहीं बचे, लेकिन उनकी छायाएँ अभी भी शेष हैं अर्थात् उस भयंकर विनाश की याद आज भी है। झुलसे हुए पत्थरों और पक्के धरातलों पर विनाश की परछाइयाँ आज भी हैं। मनुष्य के द्वारा बनाए सूर्य (अणु बम) ने मनुष्य को ही भाँप बनाकर सोख लिया, उसे ही नष्ट कर दिया। पत्थरों पर यह परछाइयाँ, आज भी उस दिन की घटना की भयंकर विनाशलीला की गवाह हैं।

विशेष –

1. प्रस्तुत कविता ‘विज्ञान वरदान है या अभिशाप’ पर गहराई से चिन्तन, मनन करने की ओर संकेत देती है।

2. जापान में परमाणु विस्फोट से बची एक मिसाओं नाम की औरत ने बताया कि मैं हिरोशिमा से दूर अपने छोटे से घर की खिड़की में खड़ी थी। मैंने आकाश में चाँदी की एक चमकदार खूबसूरत चिड़िया देखी और एक सैकेण्ड से भी कम समय में चारों ओर आग की दहकती हुई मिट्टी थी। 6 अगस्त, 1945 को प्रातः 8 बजकर 16 मिनट पर सब मुर्दा हो गए थे। आग चारों और फैल गई थी और भवन कागज़ की भाँति जल रहे थे।

3. ‘साखी’ शब्द साक्षी का तद्भव है। इस शब्द प्रयोग से कवि की प्रयोगधर्मिता परिलक्षित होती है।

4. ‘पत्थर पर’ में अनुप्रास, ‘मानव ही’, ‘सब भाप हो गए’ में लुप्तोपमा एवं हो हो में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

1. सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए।

(i) नगर के चौराहे पर क्या उदित हुआ?

(क) चाँद

(ख) सूरज

(ग) सितारे

(घ) ग्रह

उत्तर – (ख) सूरज

(ii) धूप कहाँ से बरसी?

(क) अंतरिक्ष से

(ख) फटी मिट्टी से

(ग) तालाब से

(घ) खेत से

उत्तर – (ख) फटी मिट्टी से

(iii) सूरज सहसा कहाँ बरसा?

(क) नगर के बाहर

(ख) नगर के बीचोंबीच

(ग) गाँव में

(घ) पार्क में

उत्तर – (ख) नगर के बीचोंबीच

(iv) किसकी छायाएँ दिशाहीन सब ओर पड़ीं?

(क) मानव जन की

(ख) मानव मन की

(ग) बाघ – बकरी की

(घ) शहरवालों की

उत्तर – (क) मानव जन की

(v) किसके रथ के पहिए टूट कर बिखर गए?

(क) आयु के

(ग) अर्जुन के

(ख) उम्र के

(घ) काल सूर्य के

उत्तर – (घ) काल सूर्य के

(vi) रथ के पहिए टूटकर कहाँ बिखरे?

(क) एक दिशा में

(ख) दो दिशा में

(ग) दसों दिशा में

(घ) चारों दिशा में

उत्तर – (ग) दसों दिशा में

(vii) परमाणु बम रूपी सूरज का उदय अस्त कितने क्षण का था?

(क) दो क्षणों का

(ख) कुछ क्षणों का

(ग) चार घंटों का

(घ) पाँच घंटों का

उत्तर – (ख) कुछ क्षणों का

(viii) किसकी छायाएँ लंबी हो-होकर नहीं मिटीं?

(क) मानव जन की

(ख) पशु समाज की

(ग) आत्मा की

(घ) परिजन की

उत्तर – (क) मानव जन की

(ix) परमाणु बम के फटने से कौन भाप हो गए?

(क) बासिंदे

(ग) चिड़िया

(ख) मानव

(घ) बाघ

उत्तर – (ख) मानव

(x) जली हुई छाया किस पर लिखी है?

(क) सिलेट पर

(ख) दीवार पर

(ग) छत पर

(घ) पत्थर पर

उत्तर – (घ) पत्थर पर

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