रामविलास शर्मा – अतिथि

रामविलास शर्मा

रामविलास शर्मा का जन्म उत्तरप्रेदश के बैसवाड़ा के उन्नाव जनपद में हुआ। आप अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक रहे। लखनऊ विश्वविद्यालय तथा बी. आर. महाविद्यालय आगरा में भी नौकरी की। मार्क्सवाद, समाजशास्त्र और भाषा शास्त्र में आपकी विशेष रुचि रही। आपने निराला-साहित्य-साधना को तीन खण्डों में प्रकाशित करवाया। ‘प्रगतिशील लेखक संघ के साथ आपका घनिष्ठ संबंध रहा है।

प्रमुख कृतियाँ: निराला की साहित्य साधना, भारतेन्दु युग, प्रेमचंद और उनका युग, भाषा और समाज, मार्क्स और पिछड़े समाज, आस्था और सौंदर्य, मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य, भाषा, युगबोध और कविता, इतिहास दर्शन (दो भाग), भारतीय साहित्य की भूमिका, हिंदी जाति का साहित्य रूप तरंग, सदियों के सोये जाग उठे (कविता), विरामचिह्न (निबंध), पंचरत्न, बड़े भाई, अपनी धरती अपने लोग, चार दिन आदि।

प्रस्तुत पाठ में लेखक असमय में पहुँचने वाले अतिथियों की सरल ढंग से चर्चा की है। ये स्वार्थी अतिथि तो ऐसे हैं जो घड़ी, पल, घंटा, पहर किसी भी बात का ज्ञान नहीं रखते। इनके लिए समय-असमय कुछ नहीं! सबेरे से रात तक उन्हें जब मौका मिलता है आ सकते हैं। अपने आने के पीछे मजबूत तर्क भी रखते हैं। एक बार आकर बैठ गए तो जाने का नाम नहीं लेते। इस तरह इन अतिथियों के आने से हमारा काम हमेशा रुक जाता है। शिष्टतावश हम उनसे कुछ कह नहीं पाते केवल मात्र मन मसोस कर रह जाते हैं। कभी- कभी तो सारा का सारा काम बिगड़ जाता है पर अतिथि को इसकी परवाह नहीं होती। आप काम कर रहे हैं- कहने पर वे आपको मीठी झिड़की देकर जो बैठते हैं, उठने का नाम ही नहीं लेते।

अतिथि

अतिथि से मेरा मतलब उन लोगों से नहीं है जो बिना तिथि बताए आपके भोजन में शरीक होने के लिए आ जाते हैं। इस तरह का आतिथ्य अब चाय-पानी तक रह गया है, खासकर, इस महँगाई के जमाने में लोग भोजन के लिए पूछते हुए सवाल को मन में दोहरा लेते हैं। अगर आपका जजमान जिसके यहाँ आप अतिथि, यानी मान न मान मैं तेरा मेहमान बने हैं- दम साधकर घबराहट में एक ही साँस में आपसे भोजन के लिए पूछे तो आप उसके शब्दों का उत्तर उनकी ध्वनि में पढ़कर तुरंत ही नहीं दे देंगे। यदि मीठी-मीठी बातें करके वह आपसे भोजन के लिए ऐसे आग्रह करे जैसे वह आपकी बाट ही जोह रहा था और आपके बिना उसका भोजन विष-तुल्य हो जाएगा, तो आप निश्चय जानिए कि उसने कोई भारी दाँव सोच रखा है। आप लेखक हों और मेहमान नवाज प्रकाशक हों तो समझ लीजिए कि दालदा की पूड़ियाँ और कद्दू की तरकारी खिलाकर वह आपसे मुफ्त लेख लिखाना चाहता है। इस काल के अतिथि सत्कार से ब्राह्मण सावधान !

मैं पहले ही कह चुका कहूँ कि अतिथि से मेरा मतलब उन लोगों से नहीं है। मेरा मतलब उन लोगों से है जो ‘तिथि’ की बात दूर, ‘घड़ी’, ‘पल’, ‘घंटा’, ‘पहर’ का भी ध्यान न रखे हुए एकदम अयाचित आ धमकते हैं। इन सभी शब्दों में ‘अ’ लगाने से इनका नामकरण हो सकता है, लेकिन जब तक ‘अच्छी हिंदी’ के लेखक इस ओर अपना उत्तरदायित्व नहीं निबाहते, तब तक में उन्हें अतिथि ही कहता हूँ और आपसे प्रार्थना करता हूँ कि शब्द पर न जाकर आप मेरा मतलब समझ लें।

आप सोचिए, चौबीस घंटों में ऐसा कौन-सा घंटा या मिनट है, जब कभी-न-कभी किसी अतिथि ने आकर आपका काम न रोक दिया है। वे लोग धन्य हैं, जिन्हें बारह से चार तक कम से कम रात के समय इन मेहमानों से नजात मिली हो।

कॉलेज का अध्यापक अगर लेखक भी हो तो उसके लिए अतिथि की आवाज यमदूत के संदेश से कम भयावह नहीं होती। सबेरे चाय पीकर या स्वस्थ मन के हुए तो दूध-बादाम पीकर आप कॉलेज की किताबें लेकर बैठे। दस मिनट के बाद जब आपकी तन्मयता बढ़ रही थी, तभी आ गए अतिथि जी कहेंगे- “आप शायद काम कर रहे थे; मैं थोड़ी ही देर बैठूँगा।” अब आप यह तो कहने से रहे- “नहीं; थोड़ी देर भी न बैठिए।” अरब के तंबू में पहले ऊँट की गर्दन आई, फिर क्रमशः दस बज गए और आपकी उदासीनता, अँगड़ाइयाँ, इधर-उधर देखना, खामोश रहना- वह सभी कुछ व्यर्थ करते रहे। आखिर वह आपकी परेशानी का पूरा मजा लेकर उठे। आपका समय नष्ट करने के लिए खेद प्रकट किया और अंत में चलने ही लगे कि उन्हें वह असली काम याद आ गया जिसके लिए वह आए थे। आप जल्दी से निपटाने के फिराक में कमरे से बाहर निकले; लेकिन वह सीढ़ी पर एक पैर रखकर फिर जम गए। खैर; दस मिनट के बाद उन्होंने नमस्ते भी किया, लेकिन आपको

घूमकर चलने का मौका न देकर उन्होंने अपना ‘पुनश्च’ फिर आरंभ कर दिया। यहाँ एक-एक क्षण कल्प हो रहा है, यह किसी को क्या मालूम?

भोजन के उपरांत अखबार पढ़ते-पढ़ते कहीं आप झपकी लेने लगे, तो अतिथि की आवाज ब्रह्मांड पर सोंटे की तरह ऐसे गिरती है कि स्वप्न- सत्य सब एक हो जाता है। टॉरपिडो लगने से जैसे जहाज का मल्लाह चौंक उठता है, वैसे ही कुछ क्षण को तो हृदय-वीणा के तार ऐसे झनझना उठते हैं जैसे उसकी तूम्बीर पर पत्थर पड़े हों।

सौभाग्य से नींद पूरी करके, हाथ-मुँह धोकर, प्रसन्नचित्त आप बहुत दिनों के पत्रों का जवाब लिखने बैठे, तभी यह सोचकर कि यह आपका फुर्सत का समय होगा, अतिथि जी पुनः आ पधारे। कहीं कॉलेज की छुट्टियाँ हुईं, तब तो अतिथि को छूट ही मिल जाती है। आपने बड़ी शिष्टता बरतते हुए किसी काम का जिक्र किया, तो बस वह बरस पड़े- अजी, अब भी तुम्हें काम है? अब तो छुट्टियाँ हैं, तुम्हें फुरसत ही फुरसत है और फिर जमे तो बेहोश होकर अंगद का पैर बनकर रह गए।

रात में आप बहुत निश्चिंत होकर लेख लिखने बैठे ! कुछ देर तक कागज खराब करने के बाद जब सुरूर आया, तभी आपके फालतू समय में हिस्सा बटाने के लिए पुनः अतिथि जी आ धमके। क्या करें बेचारे। दिन में आपके मिलने का ठीक नहीं रहता। रात में खुद अपने काम का नुकसान करके आपको कृतार्थ करने आए हैं। उन्हें क्या मालूम उनके कारण हिंदी का भंडार कितने रत्नों से वंचित रह जाता है। कितने ही महाग्रंथों की रचना का विचार उन महापुरुषों का ध्यान आते ही तज देना पड़ता है। कम से कम कवि होने का विचार तो छोड़ ही देना पड़ा क्योंकि इन कविता के दुश्मनों का कोई ठिकाना नहीं, कब कल्पना लोक में वनमानुष बनकर कूद पड़े। संपादक चिट्ठी लिखते हैं, फिर तार भेजते हैं, पत्रों का उत्तर न पानेवाले गालियाँ लिखकर भेजते हैं। समय पर भोजन-स्नान के बदले, आलोचक बनने से अभिशाप स्वरूप, निठल्ले कवियों से कविता और उन्हीं के मुँह उसकी प्रशंसा सुननी पड़ती है। लेकिन इस दर्द को कोई क्या समझे?

अगर इस लेख को मैं अपने कमरे में टाँग दूँ तो क्या आप समझते हैं, उन की स्थिरता में अथवा जड़ता में कोई अंतर आ जाएगा? वे इस लेख की प्रशंसा करने के बहाने ही जम जाएँगे और फिर तो दस-पाँच मिनट में उठनेवाले कोई और ही होंगे !

विष-तुल्य – जहर के समान, फिराक – सोच, सोटा-मोटा डंडा।

1. निम्नलिखित में से सही विकल्प चुनकर रिक्त स्थान भरिए।

(i) अतिथ्य अब ________ तक रह गया है।

(A) नास्ता

(B) खानपान

(C) चाय-पानी

(D) रहन-सहन

उत्तर – (C) चाय-पानी

(ii) मान न मान मैं तेरा- ________

(A) कद्रदान

(B) इम्तहान

(C) फूड़ादान

(D) मेहमान

उत्तर – (D) मेहमान

(iii) शब्द पर न जाकर आप मेरा ________ समझ लें।

(A) भाव

(B) मतलब

(C) जीवन

(D) कहना

उत्तर – (B) मतलब

(iv) दस मिनट बाद आपकी तन्मयता बढ़ रही थी, तभी आ गए ________ ।

(A) अतिथि जी

(B) साहब जी

(C) बाबू जी

(D) पिताजी

उत्तर – (A) अतिथि जी

(v) फिर जगे तो बेहोश होकर ________ के पैर बन कर रह गए।

(A) राम के

(B) रावण के

(C) लक्ष्मण के

(D) अंगद के

उत्तर – (D) अंगद के

(i) लेखक ने अतिथि किसे कहा है?

उत्तर – लेखक ने अतिथि उसे कहा है जो ‘तिथि’ की बात दूर, ‘घड़ी’, ‘पल’, ‘घंटा’, ‘पहर’ का भी ध्यान न रखते हुए एकदम अयाचित आ धमकते हैं।

(ii) कौन धन्य है?

उत्तर – वे लोग धन्य हैं, जिन्हें बारह से चार तक कम से कम रात के समय मेहमानों से मुक्ति मिली हो।

(iii) कॉलेज के अध्यापक के लिए अतिथि की आवाज कैसी है?

उत्तर – कॉलेज के अध्यापक के लिए अतिथि की आवाज यमदूत के संदेश से कम भयावह नहीं होती।

(iv) सवेरे-सवेरे अतिथि आकर क्या कहते हैं?

उत्तर – सवेरे-सवेरे अतिथि जी आकर कहेंगे- “आप शायद काम कर रहे थे; मैं थोड़ी ही देर बैठूँगा।”

(v) अतिथि पर किसका प्रभाव नहीं होता?

उत्तर – अतिथि को अगर यह बता भी दिया जाए कि उनकी वजह से हिंदी साहित्य का रत्न भंडार वंचित हो रहा है फिर भी उन पर इस बात का प्रभाव नहीं पड़ता।

(vi) अतिथि जाते-जाते सीढ़ी पर क्यों रुक जाते हैं?

उत्तर – अतिथि जाते-जाते सीढ़ी पर रुक जाते हैं क्योंकि मेजबान से उनकी बातें अभी तक शेष नहीं हुई होती हैं।

(vii) अतिथि के न जाने पर लेखक का एक-एक पल किसमें बदल जाता है?

उत्तर – अतिथि के न जाने पर लेखक का एक-एक पल एक-एक कल्प में बदल जाता है।

(viii) भोजन के उपरांत अखबार पढ़ते हुए झपकी लगते समय अतिथि की आवाज कैसी लगती है?

उत्तर – भोजन के उपरांत अखबार पढ़ते हुए झपकी लगते समय अतिथि की आवाज, ब्रह्मांड पर सोंटे की तरह ऐसे गिरती है कि स्वप्न- सत्य सब एक हो जाता है। टॉरपिडो लगने से जैसे जहाज का मल्लाह चौंक उठता है, वैसे ही कुछ क्षण को तो हृदय-वीणा के तार ऐसे झनझना उठते हैं जैसे उसकी तूम्बीर पर पत्थर पड़े हों।

(ix) रात को अतिथि जब लेखक से मिलने आते हैं तो क्या कहते

हैं?

उत्तर – रात को अतिथि जब लेखक से मिलने आते हैं तो कहते हैं कि दिन में आपके मिलने का ठीक नहीं रहता इसलिए अभी आपसे मिलने आया हूँ।

(x) लेखक ने कविताओं का दुश्मन किसे कहा है?

उत्तर – लेखक ने कविताओं का दुश्मन उन लोगों को कहा है जो अतिथि के रूप में आकर मेज़बानों (लेखकों) का मूल्यवान समय नष्ट करते हैं।

(xi) लेखक ने अतिथियों को वनमानुष क्यों कहा है?

उत्तर – लेखक ने अतिथियों को वनमानुष कहा है क्योंकि जब लेखक लेखन कार्य के लिए कल्पना लोक में रहते हैं तभी अतिथि वनमानुष बनकर कूद पड़ते हैं।

(i) लेखक इस पाठ में किस प्रकार के अतिथियों की बात कहते हैं?

उत्तर – लेखक इस पाठ में तरह-तरह के अतिथियों के बारे में कहते हैं कि कुछ अतिथि मेज़बान के समय का ध्यान न रखते हुए केवल अपने बारे में ही कहते चलते हैं। कुछ अतिथि तो अंगद के पैर की तरह होते हैं जो मेज़बान के घर में बिलकुल जम ही जाते हैं। और कुछ तो अतिथि ऐसे होते हैं जिन्हें लेखक ने वनमानुष कहा है।   

(ii) पत्रों का जवाब लिखने के लिए बैठते समय अतिथि आकर क्या कहते हैं?

उत्तर – पत्रों का जवाब लिखने के लिए बैठते समय अतिथि आकर कहते हैं कि अभी आपकी छुट्टियाँ चल रही हैं और आप फुर्सत में होंगे इसलिए आपसे मिलने आए हैं।

(iii) लेखक ने कवि होने का विचार क्यों छोड़ दिया?

उत्तर – लेखक ने कवि होने का विचार छोड़ दिया क्योंकि जब भी वे कुछ लिखने बैठते तब कोई न कोई अतिथि आ धमकता और उनके लेखन कार्य में विघ्न डाल देता।  

(iv) यदि प्रकाशक मेहमाननवाज हों तो लेखक को क्या समझ लेना चाहिए?

उत्तर – यदि प्रकाशक मेहमाननवाज हों तो लेखक को समझ लेना चाहिए मेहमाननवाज यदि भोजन के लिए पूछ रहे हैं और यदि मेहमान उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो प्रकाशक मेहमाननवाज खाना खिलाने के उपरांत लेखक से मुफ़्त में कोई लेख लिखवा कर उसे प्रकाशित करेगा।  

(v) किन लोगों को लेखक ने धन्य कहा है?

उत्तर – लेखक ने उनलोगों को धन्य कहा है जो मेहमानों के अनधिकार आगमन से बच जाते हैं। ऐसे लोग वास्तव में वे होते हैं जो रात के समय बारह से चार बजे तक अतिथियों के आवभगत करने से बचकर अपने समय का सदुपयोग अपने कार्यों में करते हैं।

(i) निबंधकार ने आजकल के अतिथियों के बारे में क्या कहा है?

उत्तर – निबंधकार ने आजकल के अतिथियों के बारे में कहा है कि अतिथियों में केवल अपने समय और काम को लेकर जागृति रहती है।  उन्हें मेजबान के समय से कुछ लेन-देन नहीं। आजकल के अतिथि तो ये भी नहीं सोचते की जिनके घर वे अतिथि बनकर जा रहे हैं वे वास्तव में उनसे मिलना भी चाहते हैं या नहीं। उनका (मेजबान) समय किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए निश्चित हुआ हो सकता है। वे कोई ज़रूरी काम कर रहे होंगे। आजकल अतिथियों को तो समय का संज्ञान भी नहीं रहता है। वे जाते हैं तो किसी मामूली से काम के लिए पर न जाने कितने घंटे अपना और मेहमाननवाज़ दोनों का व्यर्थ की बातों में व्यय कर देते हैं।

(ii) अतिथि सवेरे-सवेरे घर आकर लेखक को किस तरह परेशान करते हैं?

उत्तर – लेखक सवेरे चाय पीकर या स्वस्थ मन के होते हैं और किताबें लेकर बैठते हैं तो लगभग दस मिनट के बाद लेखक की तन्मयता बढ़ रही होती है तब अतिथि जी आकर कहेंगे- “आप शायद काम कर रहे थे; मैं थोड़ी ही देर बैठूँगा।” अब लेखक तो यह कहने से रहे- “नहीं; थोड़ी देर भी न बैठिए।” यह तो यही बात हो गई कि अरब के तंबू में पहले ऊँट की गर्दन आई, और फिर पूरा का पूरा ऊँट। अतिथि थोड़ी देर कह कर दस बजा देते हैं। लेखक की उदासीनता, अँगड़ाइयाँ, इधर-उधर देखना, खामोश रहना- आदि क्रियाओं से भी अतिथि यह समझ नहीं पाते कि अब मेजबान के लिए यह ऊबाऊ स्थिति है। खैर; दस मिनट के बाद जब अतिथि ने नमस्ते किया, लेकिन लेखक को घूमकर चलने का मौका न देकर उन्होंने अपना ‘पुनश्च’ फिर आरंभ कर दिया। यहाँ एक-एक क्षण कल्प हो रहा है, यह अतिथि को क्या मालूम?

(iii) कॉलेज की छुट्टियों में घर आकर अतिथि क्यों काम नहीं करने देते?

उत्तर – कॉलेज की छुट्टियों में अतिथि घर आकर काम नहीं करने देते क्योंकि अतिथियों का यह मानना है कि छुट्टी के समय में तो लेखक आराम से घर पर बैठे होंगे। मेरी तरह उन्हें भी कुछ काम नहीं होगा। इसी विश्वास के साथ अतिथि लेखक के घर आ जाते हैं और उन्हें काम नहीं करने देते। दूसरी तरफ  लेखक छुट्टियों में अपने लिए सृजन कार्य करने का मन बनाए रखते हैं। पर अतिथियों के आगमन से उनके रचनाकर्म में व्यवधान आ जाता है।

(iv) रात में अतिथि लेखक के किस काम में बाधा डालते हैं?

उत्तर – रात में अतिथि लेखक के घर आकर उनकी साहित्यिक गतिविधियों और रचनाकर्म के काम में बाधा डालते हैं। अतिथियों का यह मानना है कि लेखक तो दिनभर अपने कामों में व्यस्त रहते हैं और मैं भी अपने कामों में व्यस्त ही रहता हूँ ऐसे में रात्रि का समय ही सही ठहरा लेखक से उनका कुशल-क्षेम पूछने के लिए। दूसरी तरफ अतिथियों को यह लगता है कि रात्रि का समय वार्तालाप करने का सबसे सही समय होता है क्योंकि इस समय प्राय: लोग अपने घरों में आराम से होते हैं। 

(iv)निबंधकार ऐसा क्यों कहते हैं कि यदि वे इस लेखन को अपने कमरे में टाँग भी देंगे तो अतिथियों की जड़ता में कोई परिवर्तन नहीं आएगा?

उत्तर – अपने अनुभवों के आधार पर लेखक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि अधिकतर लोग आज ऐसे हो चुके हैं जिन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मेरे इस काम से सामने वाले को बुरा लग सकता है, उनका समय नष्ट हो सकता है या उनके किसी काम में बाधा आ सकती है। आत्मचिंतन और आत्ममंथन के अभाव में लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं इसलिए निबंधकार ऐसा कहते हैं कि यदि वे इस लेखन को अपने कमरे में टाँग भी देंगे तो अतिथियों की जड़ता में कोई परिवर्तन नहीं आएगा वरन् इसकी प्रशंसा करने के लिए वे कुछ और समय तक टिके रहेंगे।

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