भगवतीचरण वर्मा
जन्म: 30 अगस्त 1903
मृत्यु: 5 अक्तूबर 1988
भगवती चरण वर्मा का जन्म राफीपुर गाँव में हुआ। इलाहबाद विश्वविद्यालय से बी. ए. और एल एल. बी. की परीक्षा पास करने के बाद, उन्होंने वकालत शुरू की, परंतु उसमें मन नहीं लगा। लिखने-पढ़ने की ओर ध्यान गया। कुछ दिनों ‘विचार’ नामक साप्ताहिकी का प्रकाशन- सम्पादन किया। फिर आकाशवाणी के कई केन्द्रों में कार्य किया। फिल्म कॉर्पोरेशन, कलकत्ता और मुंबई में फिल्म – कथालेखन भी किया। बाद में 1957 से मृत्यु पर्यन्त स्वतंत्र साहित्यकार के रूप में लेखन कार्य किया।
साहित्य की ओर वर्मा जी की प्रवृत्ति बचपन से ही थी। सातवीं कक्षा में पढ़ते समय उनकी कुछ कविताएँ कानपुर के दैनिक ‘प्रताप’ में प्रकाशित हुई थीं। 1931 में वे कथा-लेखन की ओर अगसर हुए और शीघ्र ही उन्हें प्रतिष्ठा मिली। ‘चित्रलेखा’ उपन्यास प्रकाशित होने के बाद कथाकार के रूप में उनकी ख्याति बढ़ गई। यह एक ऐसा बिरला उपन्यास है जिसकी लोकप्रियता काल की सीमा को भी लाँघ गई।
प्रमुख कृतियाँ
उपन्यास : चित्रलेखा, भूले बिसरे चित्र, प्रश्न और मरीचिका, टेढ़े
मेढे रास्ते, सामर्थ्य और सीमा, सबहिं नचावत राम गोसाईं।
कहानी संग्रहः मेरी कहानियाँ, मोर्चाबंदी।
कविता संग्रहः मधुकण, प्रेम संगीत, मानव,
नाटक : मेरे नाटक।
कहानी परिचय
‘कुँवर साहब का कुत्ता’ वर्मा जी की श्रेष्ठ कहानियों में से है। हास्य- -व्यंग्य शैली के जरिए मानव जीवन की कुरूपता को इसमें दिखाया गया है। रईसवर्ग के मिथ्याडंबर और दोगलेपन का पर्दाफास हुआ है। कुँवर साहब और उनके अमीर मेहमान ऐसे शोषक और अमानवीय चरित्र हैं जो अपने गुलामों को कुत्ते से भी बदतर मानते हैं। कुत्ते पालना उनकी प्रतिष्ठा का सूचक है, परंतु अपने गुलामों पर बेवजह हाथ उठाना, और उन्हें बेगारी पर खटाना उनका हक है। यदि कोई इस बात की शिकायत कर दे या फिर उनके सामने बोल दे तो नमकहराम बन जाता है। सच तो यह है कि भगवान ने प्रत्येक मनुष्य को एक प्रकार का ही हाड़-मांस दिया हैं, भावनाएँ दी हैं तथा उचित – अनुचित का ज्ञान भी दिया है। अपने मतलब और अभिमान के लिए दूसरे इन्सानों को गुलाम बनाकर रखना सरासर अन्याय है। परंतु साम्यवाद का सिद्धांत बघारने वाले कुँवर साहब इसे समझ नहीं पाते। मैकू धोबी के गधे का कोई दोष न था उसे अपनी गोलियों का निशाना बना दिया। गधे ने उनके अलसेशियन को दुलत्ती से मार गिराया था। सच तो यह है कि अलसेशियन के आक्रमण से अपनी सुरक्षा के लिए गधे ने दुलत्ती का सहारा लिया। ऐसा करते हुए कुँवर साहब गरीबों और गुलामों पर अपना दबदबा बनाए रखते हैं।
इस प्रकार वर्माजी पाठकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि गरीबों के प्रति अमानवीय व्यवहार उचित नहीं है। इससे समाज में वर्गसंघर्ष की स्थिति पैदा होगी जो किसी के हित में नहीं है। इसलिए सबके साथ मनुष्योचित व्यवहार किया जाना एक स्वस्थ समाज के लिए जरूरी है।
कुँवर साहब का कुत्ता
अगर आपके पास रूपया है तो आप बड़े मजे में कुत्ता पाल सकते हैं, कुत्ता ही क्यों, घोड़ा, भालू, शेर सभी कुछ पाल सकते हैं। यही नहीं बल्कि आप अपने मकान को जू बना सकते हैं और आपकी ओर कोई उँगली नहीं उठा सकता। मानी हुई बात है कि मुझे हरीश का कुँवर साहब और उनके कुत्तों को गालियाँ देते हुए, गांधीवाद से लेकर साम्यवाद तक के सिद्धातों पर घण्टे भर तक व्याख्यान देना बुरा ही लगा। मैं तो कहता हूँ कि अगर आदमी हो तो निरंजन-सा हो। निरंजन को आप नहीं जानते, दुबला-पतला-सा नवयुवक है, तीन साल हुए बी. ए. पास किया था। पर अभी तक बेकार है। संतोषी आदमी है, साथ ही अथक परिश्रम करने में विश्वास करता है। एक दिन कुँवर साहब के यहाँ से लौटकर (कुँवर साहब के यहाँ वह नौकरी की तलाश में गया था) उसने मुझसे बड़ी गंभीरतापूर्वक कहा था, “भाई परमेश्वरी, अच्छा होता यदि भगवान ने मुझे कुँवर साहब का कुत्ता बनाकर पैदा किया होता! ऐसी हालत में मुझे तीन समय अच्छे से अच्छा खाना तो मिलता – गोश्त, दूध, बिस्कुट सभी- कुछ और फिर एक नौकर, एक मकान और देखभाल करने के लिए एक डाक्टर भी मैं पाता। और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं मौका- बेमौका कुँवर साहब तथा कुँवरानी साहिबा का मुँह भी चाट लेता!”
निरंजन के अंतिम वाक्य पर मैंने उसे डाँटना चाहा, पर निरंजन की उम्र का ख्याल करके चुप ही रह जाना पड़ा। कुँवर साहब शौकीन रईस हैं, और उनके शौकों में मुख्य स्थान कुत्तों के शौक को दिया जा सकता है। चूहे के बराबर से गधे के बराबर तक के कुत्ते आपको उनके यहाँ मिलेंगे। हर रंग के और हर शक्ल के यह बतला देना अनुचित न होगा कि आदमियों की भाँति कुत्ते भी विलायती ही अच्छे समझे जाते हैं और
इसलिए आप ताज्जुब न करें, जब मैं आपसे यह कहूँ कि कुँवर साहब के सभी कुत्ते सात समुद्र पार करके हिंदुस्तान को पवित्र करने आए थे। इन कुत्तों की संख्या करीब चालीस थी, जिनमें प्रत्येक कुत्ता लगभग एक हजार का था।
कुँवर साहब मेरे घनिष्ठ मित्र हैं और स्वभाव के अच्छे हैं। उनका आग्रह था कि मैं उनके यहाँ कुछ दिनों के लिए ठहरूँ। बड़े आदमी का निमंत्रण पाने के लिए मैं सदा लालायित रहता हूँ। उस मौके का चूकना मैंने मुनासिब न समझा। उन दिनों कुँवर साहब के अन्य कई मेहमान आए थे, हर एक का मिजाज और हर एक का रहन-सहन अलग-अलग था। कुछ रईस थे और कुछ रईसों के कृपा-पात्र थे। दिन-भर गपबाजी होती थी और खेल होते थे।
संध्या के समय चाय पीकर हम लोग बैठे ही थे कि कुत्तों पर बातचीत चल पड़ी। कुँवर साहब यदि कवि नहीं हैं, तो कवि हृदय अवश्य हैं। आकाश की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, “ओह! कुत्ता जितना स्वामिभक्त प्राणी संसार में नहीं मिलेगा। पशु है, फिर भी वह मनुष्य से कहीं ऊँचा है। उसमें दगा, फरेब, कृतघ्नता, ये कभी न मिलेंगे। उसकी मूक स्वामिभक्ति अद्वितीय है।” और कुँवर साहब ने अपने अलसेशियन के सिर पर हाथ फेरा। “मैं सच कहता हूँ, कुत्ते के बराबर मित्र संसार में कोई नहीं है। दुनिया में जब चारों ओर सूनापन मालूम होता है, प्रत्येक ओर नजर उठाकर देखने पर भी जब ऐसा कोई मनुष्य नहीं दिखलाई देता, जिसे हम अपना कह सकें, जिस पर हम विश्वास कर सकें, उस समय कुत्ता ही हमें अपने सबसे निकट दिखाई देता है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इंसान सबसे अधिक स्वार्थी है, नमकहराम है।”
कुँवर साहब की बात समाप्त होते ही उनकी बगल में बैठे हुए दूसरे
सज्जन बोल उठे, “इसमें क्या शक है। वाकई यह सच है कि इंसान सबसे अधिक नमकहराम है। आप लाख उसका हित कीजिए, लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आता। अभी साल भर हुआ, एक दिन मैं जरा कुछ ज्यादा पी गया, आप जानते ही हैं कि कभी कभी ज्यादा हो ही जाया करती है, और जनाब, ज्यादा पी जाने के बाद मैंने खिदमतगार को गुस्से में मार दिया। कोई तलवार बंदूक तो मारी न थी, केवल हाथ से मारा था। लेकिन वह साला मरियल खिदमतगार मेरी मार बरदास्त न कर सका और उसे कुछ चोट आ गई। अब जनाब, उस साले का मैंने इलाज करवाया। सब कुछ उसके लिए किया, लेकिन इन कांग्रेस वालों के बरगलाने से वह साला पुलिस में रिपोर्ट करने जा रहा था। वह तो यों कहिए कि मैं था, मैंने साफ-साफ कह दिया कि अगर थाने तक पहुँचाने का इत्तिला मुझे मिली, तो खाल खिंचवा लूँगा और फिर उसकी क्या मजाल, जो वह थाने जाता। वरना और कोई दूसरा होता तो उस खिदमतगार ने उसे मुसीबत में डाल दिया होता! अब जरा गौर करें कि मेरा खिदमतगार पुश्त-दर- पुश्त से मेरे नमक पर पला था। अगर मैंने उसे थोड़ा-सा मार ही दिया, और वह भी तब जब मैं कुछ ज्यादा पी गया था, तो क्या उसे थाने की बात सोचनी चाहिए? लेकिन क्या किया जाए, नमकहरामी तो इंसान की नस-नस में भरी है।”
दूसरे सज्जन के बाद तीसरे सज्जन ने अपना किस्सा सुनाया, “भाई मेरी, समझ में नहीं आता कि क्या किया जाए। आए दिन ही इन आदमियों की नमकहरामी के सबूत मिलते रहते हैं। अभी महीना भर हुआ कि कमिश्नर साहब मेरे इलाके में आए। उन दिनों जुताई हो रही थी और बेगारी लगे हुए थे। जरा गौर कीजिए कि कमिश्नर साहब ऐसे बड़े मेहमान की खातिर करना कोई साधारण बात तो है नहीं। रियासत के सभी अमले कमिश्नर साहब की खातिरदारी में लगे थे, और उसका
नतीजा यह हुआ कि उस दिन बेगारियों को चबेना देना भूल गए। अब आप समझिए कि अगर एक दिन बेगारियों को चबेना नहीं मिला, तो वह मर न जाते, और फिर कमिश्नर साहब की खातिरदारी की वजह से चबेना देना भूले थे! तो जनाब, जब कमिश्नर साहब चलने लगे, तो एक लौंडा उन बेगारियों के बीच से निकलकर कमिश्नर साहब के सामने खड़ा हो गया और एड़ी-बड़ी शिकायतें करने लगा। वह तो मेरा मामला था, कमिश्नर साहब ने सुनी-अनसुनी कर दी और चले गए।”
“इसके बाद हुआ क्या?” दबी जबान में मैंने पूछा।
“होता क्या, साले पर वह मार पड़ी कि पंद्रह दिन तक चारपाई संकता रहा। इसके बाद बेदखल कर दिया। अब कहीं भीख माँगता होगा, लेकिन मुझे तो आपको यह बतलाना था कि इंसान कितना नमकहराम होता है।”
जितने लोग वहाँ बैठे थे, सबके सब इन बातों की ताईद करते थे। मुझसे न रहा गया। मैंने कुछ झल्लाकर कहा, “जी हाँ, नमकहरामी तो इंसान के हक में पड़ी, लेकिन मुसीबत तो यह है कि भगवान ने प्रत्येक मनुष्य को एक प्रकार का ही हाड़-मांस दिया है, उसको भावनाएँ दी हैं, उसे अनुचित उचित का ज्ञान दिया है। जब आप अपने को उस खिदमतगार या उस बेगारी के स्थान में रखें, तब आपको उसके दुख-दर्द का पता लगे। आप अपनी बराबरी वाले, बल्कि किन्हीं बातों में आपसे कहीं अधिक श्रेष्ठ मनुष्य को रोटी के टुकड़े का गुलाम बनाना चाहते हैं, यहाँ आप गलती करते हैं। आप ही लोगों के कारण साम्यवाद का प्रचार…”
एकाएक कुँवर साहब ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे सचेत कर दिया, मैं तो न जाने क्या-क्या कह जाता। मेरी उस बात से वहाँ बैठे हुए लोगों में निस्तब्धता छा गई। लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगे। कुँवर साहब ने कहा, “परमेश्वरी बाबू हम लोगों का मतलब ठीक तरह से नहीं समझते, इसीलिए वे क्रोध में कुछ उचित अनुचित कह गए। आप लोग उनकी बात का बुरा न मानिएगा।”
किसी ने इस पर कुछ नहीं कहा, सारा वातावरण एकाएक शुष्क तथा नीरस हो गया। लोग वहाँ से उठकर इधर-उधर टहलने चले गए, मैं अकेला सोचता रह गया।
मैं क्या सोचता रहा, मुझे याद नहीं; कितनी देर तक सोचता रहा, यह भी याद नहीं, पर इतनी याद है कि कुँवर साहब ने बड़े कोमल स्वर में मुझे सचेत करते हुए कहा, “परमेश्वरी बाबू! मैं जानता हूँ कि मेरे मित्रों के दृष्टिकोण से आप सहमत न होंगे, जबकि स्वयं मैं ही उस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूँ, पर उस हँसी-खुशी के वातावरण को नष्ट करके क्या आपने अच्छा काम किया? क्या आप समझते हैं कि आप यह सब कुछ कहकर उन लोगों के दृष्टिकोण को प्रभावित कर सके?”
कुँवर साहब की इस बात में सार था, इसका मैंने अनुभव किया। अपनी तेजी पर मुझे पश्चाताप हुआ। मैंने कुँवर साहब से कहा, “हाँ, इतना मानता हूँ कि मुझसे गलती हो गयी और उसके लिए मुझे खेद है। पर फिर भी आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि उनकी बातों पर बुरा लगना ही चाहिए था, और मैं देवता तो हूँ नहीं कि मुझे क्रोध न आए।”
मुस्कराते हुए कुँवर साहब ने कहा, “आप ठीक कहते हैं, परमेश्वरी बाबू! मनुष्य मनुष्य है, और प्रत्येक मनुष्य बराबर है। आपका क्रोधित हो जाना स्वाभाविक ही था।” इतना कहकर कुँवर साहब ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठा लिया, “चलो, थोड़ा सा टहल आएँ।”
कुआँर का महीना था, संध्या सुहावनी थी। कुँवर साहब साम्यवाद के ही सिद्धांतों का समर्थन कर रहे थे, और उनके पीछे-पीछ दो सिपाही बंदूक लिए चल रहे थे। सूर्यास्त हो रहा था और आगे-आगे कुँवर साहब का अलसेशियन रास्ता दिखलाता हुआ चल रहा था।
खेतों को और बागों को पार करते हुए हम दोनों गाँव की सघन आबादी में पहुँचे। देहाती कुँवर साहब को देखकर खड़े हो जाते और हाथ जोड़कर ‘अन्नदाता की दुहाई’ बोलते थे, और कुँवर साहब मुझसे इस प्रकार बातें करते चल रहे थे कि मानो उन देहातियों का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।
काफी दूर तक टहलकर हम लोग लौटे। उस अलसेशियन का साथ कहाँ छूट गया, यह नहीं याद; पर जब हम दोनों गाँव में लौटे, तो एक विचित्र दृश्य दिखाई पड़ा।
मैकू धोबी कुँवर साहब के इलाके में ही पला और बसा था। बुड्ढा- सा आदमी, सारे बाल सफेद हो गए थे। उसकी हड्डी-हड्डी गिनी जा सकती थी और लोगों ने उसे सदा एक लँगोट ही लगाए देखा।
मैकू का खानदान काफी बड़ा था, उसकी बीवी और चार बच्चे और एक गधा। गधे के हौसले बड़े थे, मैकू अपने बच्चे के समान ही उस गधे को भी रखता था। वह गधा मैकू की जीविका का सहारा था। रोज सुबह उस पर लादी लादी जाती थी। रोज शाम को लादी वापस लाता था। दिनभर वह घाट पर किलौलें करता था।
उस दिन लादी खुलने के बाद मैकू ने गधे को बाँध दिया था; पर उसने अपनी रस्सी तुड़ाई और चहलकदमी की ठानी। एकाएक कुँवर साहब के अलसेशियन की नजर उस गधे पर पड़ी। या तो अलसेशियन को संध्या के समय गधे की चहलकदमी करने की अनधिकार चेष्टा पर बुरा लगा,
या फिर उसने गधे से कुछ खिलवाड़ करना चाहा। कारण जो कुछ रहा हो, पर इतना निश्चित है कि कुँवर साहब के कुत्ते ने गधे का पीछा किया। गधा कुछ दूर तक भागा और एकाएक रुक गया। उसे शायद यह याद हो आया कि संसार में सबको शांतिपूर्वक रहने का समानाधिकार प्राप्त और भागना कायरता है। कायर को संसार में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।
गधे ने अलसेशियन का सामना किया, सीधे-सादे ढंग से उसकी मुद्रा साफ कह रही थी, “म्यां, क्यों सताते हो, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? आखिर तुम्हारा इरादा क्या है? तुम्हारे मालिक कुँवर हैं, होंगे। अपने राम को इसकी कोई चिंता नहीं। अपने राम तुमसे जरा भी दबनेवाले नहीं।”
गधा तो गधा है- अलसेशियन को उसका यह व्यवहार तनिक भी अच्छा नहीं लगा। वह कुँवर साहब का कुत्ता था, जर्मनी से आया था। अहिंसा पर उसे रत्ती भर विश्वास न था, साथ ही अपने अधिकार का उसे गर्व था। गधे के इस अहिंसात्मक सत्याग्रह का प्रभाव उस अलसेशियन पर ऐसा पड़ा जैसा कांग्रेस वालंटियर के बैठ जाने का प्रभाव लाठी चार्ज के लिए तैयार पुलिस वाले पर पड़ता। उसने गधे पर धावा बोल दिया। पर गधा तो आदमी है नहीं, उसका सत्याग्रह दुराग्रह में परिणत हो गया। इसके पहले कि अलसेशियन के तेज दाँत उसके शरीर में गड़ें, वह घूमा और उसने बिजली की भाँति अपनी दुलत्ती का पूरा प्रयोग किया। एक भारी गुर्राहट के साथ कुत्ता धराशायी हुआ, आँखें बंद और मुँह से खून निकलता हुआ। गाँववाले दौड़ पड़े, शोर मच गया कि मैकू के गधे ने कुँवर साहब के कुत्ते को मार डाला।
जब हम लोग लौटे, तब अलसेशियन अंतिम साँस ले रहा था। कुँवर साहब की आवाज सुनते ही अलसेशियन ने एक बड़ी ही करूण कातर
दृष्टि से कुँवर साहब को देखा और फिर सदा के लिए आँखें बंद कर लीं।
गधा वहीं पर खड़ा था, अपनी विजय पर छाती फुलाए। कुँवर साहब ने लोगों से किस्सा सुना, खिदमतगार से उन्होंने बंदूक ली और दो गोलियाँ उन्होंने गधे के मत्थे में दाग दीं। गधा गिर गया। नौकरों से कुत्ता उठवाकर वे अपने महल की ओर चले गए, मैं वहीं रह गया।
उस समय मैंने मैकू को देखा; मैकू को ही नहीं, उसकी बीवी को, उसके चार बच्चों को। गधे की मृत्यु का समाचार सुनकर सबके सब बेतहाशा भागते हुए आए-गधे को घेरकर सब के सब खड़े हो गए। वे रो रहे थे, सबके सब बुरी तरह रो रहे थे, मानों उनका कोई आत्मीय मर गया हो। उस रोज मैकू के यहाँ खाना नहीं बना।
मैं लौटा। कुँवर साहब और उनके मेहमान मैदान में बैठे थे। लोगों के सामने शरबत के गिलास थे। कुँबर साहब बोल रहे थे और उनका सेक्रेटरी लिख रहा था, “पंद्रह सौ रुपये भेज रहा हूँ। जिस अलसेशियन का फोटो आपने भेजा था, उसे खरीदकर भेज दें।”
शब्दार्थ
जू-चिड़ियाघर।
मौका-बेमौका – समय-असमय।
रईस – अमीर, धनी।
मुनासिब – ठीक, उचित।
मेहमान – अतिथि।
मिजाज – स्वभाव, प्रकृति।
कृतघ्नता- किसी से मिले हुए उपकार को भूल जाना या किसी उपकारी व्यक्ति के खिलाफ कार्य करना।
सूनापन – तन्हाई, शून्यता।
नमक हराम – धोखेबाज, कृतघ्न।
दावे के साथ- दृढ़तापूर्वक।
वाकई – निश्चित रूप से।
आदत – प्रकृति, अभ्यास।
खिदमतगार – सेवक, नौकर।
मरियल – बहुत कमजोर।
इलाज – चिकित्सा।
इत्तिला – खबर, सूचना।
खाल – चमड़ा।
मुसीबत – विपत्ति, संकट।
पुश्त-दर-पुश्त – पीढ़ी-दर-पीढ़ी, वंश- परंपरा।
सबूत – प्रमाण।
रियासत – राज्य।
अमले – सरकारी कर्मचारी।
नतीजा – परिणाम।
जुताई – जोतने का काम या भाव, जोतने की मजदूरी।
बेगारी- बिना मजदूरी लिए काम करनेवाला व्यक्ति।
चबेना- भुना हुआ अन्न जो चबाकर खाया जाता है।
एंडी-बेंडी शिकायतें – उल्टा-सीधा अभियोग।
दबी जवान- धीमी आवाज।
चारपाई सेंकता रहा – खटिया से उठ नहीं पाया था, खटिया पर पड़ा रहा।
बेदखल करना – काम से निकाल देना
ताईद – तरफदारी, अनुमोदन, समर्थन।
निस्तब्धता – चुप्पी, नीरवता।
खेद – अफसोस।
कुआँर का महीना – अश्विन मास
साम्यवाद – वह सिद्धांत जो यह निर्देश करता है कि सब मनुष्यों के समान अधिकार और कर्त्तव्य हैं तथा अमीर एवं गरीब का भेद संसार से उठजाना चाहिए, समानतावाद।
देहाती – ग्रामीण।
खानदान – घराना, कुल।
लादी – पशु पर लादी हुई गठरी या बोझ।
कायरता – भीरुता।
इरादा – उद्देश्य, लक्ष्य।
वालंटियर – स्वयंसेवक।
धावा बोलना – आक्रमण करना।
दुराग्रह – अनुचित हठ।
गुर्राहट – डराने के लिए कुत्ते-बिल्ली आदि का गंभीर शब्द करना।
दुलत्ती – घोड़े आदि चौपायों का पिछले दोनों पैरों को उठाकर मारना। बेतहाशा – तेजी से घबराकर बिना सोचे-समझे।
दुहाई – अनुनय-विनय करना।
प्रश्न- अभ्यास
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए :
(क) निरंजन कुँवर साहब का कुत्ता बनना क्यों चाहता था?
उत्तर – निरंजन ने तीन साल हुए बी. ए. पास किया था। वह अथक परिश्रम करने में विश्वास करता है फिर भी अभी तक बेरोजगार ही है। नौकरी की तलाश एक दिन कुँवर साहब के यहाँ गया हुआ था। वहाँ उसने देखा कि कुत्तों की बड़ी पूछ है, बड़ी इज्ज़त है। कुत्ते होते हुए भी उन्हें आदमी से अच्छा खाना, जैसे- गोश्त, दूध, बिस्कुट सभी- कुछ और फिर एक नौकर, एक मकान और देखभाल करने के लिए एक डॉक्टर भी तैनात है। ऐसी स्थिति को देखकर उसे अपने मानव जीवन पर बड़ी ग्लानि हुई और गंभीरतापूर्वक सोचने लगा, अच्छा होता यदि भगवान ने मुझे कुँवर साहब का कुत्ता बनाकर पैदा किया होता! ऐसी हालत में मुझे तीन समय अच्छे से अच्छा खाना तो मिलता।
(ख) कुँवर साहब किस-किस प्रकार के कुत्ते पाला करते थे?
उत्तर – कुँवर साहब शौकीन रईस हैं और कुत्ते पालना अपनी प्रतिष्ठा का सूचक मानते हैं। उन्होंने चूहे के बराबर से गधे के बराबर तक के कुत्ते पाल रखें हैं। हर रंग के और हर शक्ल के विलायती कुत्ते उनके पास थे। इन कुत्तों की संख्या करीब चालीस थी, जिनमें प्रत्येक कुत्ता लगभग एक हजार का था।
(ग) कुत्तों के बारे में कुँवर साहब का विचार क्या था?
उत्तर – कुँवर साहब को कुत्ते इस दुनिया में शायद सबसे प्रिय प्राणी प्रतीत होते थे। उनका मानना था कि कुत्ता जितना स्वामिभक्त प्राणी संसार भर में नहीं है। ये पशु है, फिर भी वह मनुष्य से कहीं ऊँचा है। इसमें दगा, फरेब, कृतघ्नता, नहीं है। उसकी मूक स्वामिभक्ति अद्वितीय है। कुँवर साहब का तो यह तक मानना है कि कुत्ते के बराबर मित्र संसार में कोई नहीं है। दुनिया में जब चारों ओर सूनापन मालूम होता है, प्रत्येक ओर नजर उठाकर देखने पर भी जब ऐसा कोई मनुष्य नहीं दिखलाई देता, जिसे हम अपना कह सकें, जिस पर हम विश्वास कर सकें, उस समय कुत्ता ही हमें अपने सबसे निकट दिखाई देता है।
(घ) “मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इंसान सबसे अधिक स्वार्थी
है, नमकहराम है” – क्या कुँवर साहब का ऐसा कथन सही है?
उत्तर – “मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इंसान सबसे अधिक स्वार्थी
है, नमकहराम है।” – कुँवरसाहब का ऐसा कथन कुछ अंशों में सही हो सकता है परंतु शत-प्रतिशत तो कभी नहीं। मनुष्य इस संसार के सबसे श्रेष्ठ प्राणी हैं और इतिहास के पन्नों पर हमें नमकहलाली के अनेक प्रमाण मिलते हैं। इस आधार पर कुँवर साहब का यह कथन निर्मूल साबित होता है। पर हाँ, ऐसे कुछ वाकयात और मामलात सामने ज़रूर आए हैं जिसमें इन्सानों की नमकहरामी की वजह से पूरी मानवता शर्मसार हो गई है।
(ङ) “कायर को संसार में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।” – तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर – कहा गया है कि वीर एक ही बार मरता है जबकि कायर अपने एक ही जीवन में कई बार। “कायर को संसार में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।” वास्तव में यह कथन मैकू के गधे के संदर्भ में आया है। जब कुँवर साहब का अलसेसियन कुत्ता अपनी क्रूरता दिखाने के लिए अपने दाँत गधे के शरीर में गड़ाना चाहता था तब गधे को शायद यही लगा कि अहिंसा के मार्ग का अनुसरण महँगा साबित होगा। उसने कुत्ते से मुक़ाबला करने की सोची और दुलत्ती मारकर कुत्ते के प्राण पखेरू उड़ा दिए। इस कथन का आशय यह है कि जीना है तो शान से ही जीना चाहिए। ऐसे लोग इस दुनिया में भरे पड़े हैं जो आपको यह एहसास दिलाते रहेंगे कि उनकी वजह से आपका वजूद है। वे जैसे चाहे आपका इस्तेमाल कर सकते हैं। हमें इस भ्रांति और भय से निकलकर स्वच्छंद तरीके से जीना चाहिए।
(च) इंसान की नमकहरामी के बारे में दूसरे सज्जन ने क्या कहा?
उत्तर – इंसान की नमकहरामी के बारे में दूसरे सज्जन बोल उठे कि बेशक इंसान सबसे अधिक नमकहराम है। अपना एक किस्सा सुनाते हुए कहने लगे कि एक बार मैंने कुछ ज़्यादा पी ली थी और किसी बात पर अपने खिदमतगार को गुस्से में मार दिया था। बाद में मैंने उसका इलाज करवाया। लेकिन कांग्रेस वालों के बरगलाने से वह पुलिस में रिपोर्ट करने जा रहा था। जब मुझे इसकी जानकारी मिली तो उसे उसकी खाल खिंचवा लेने की धमकी दी नहीं तो उसने मुझे मुसीबत में डाल दिया होता। मेरे नमक पर पुश्त-दर-पुश्त पलने वाले नौकर मुझसे ही नमकहरामी करने लगे। सचमुच, नमकहरामी तो इंसान की नस-नस में भरी है।
(छ) गधे और अलसेशियन की लड़ाई के जरिए कहानीकार क्या
बताना चाहते हैं?
उत्तर – गधे और अलसेशियन की लड़ाई के जरिए कहानीकार यह बताना चाहते हैं कि अमीर घरों के बिगड़ैल लोग गरीबों को अपने मनोरंजन की वस्तु समझते हैं और जिस तरह चाहे उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। वास्तव में यह प्रथा सदियों से चली आ रही है। कहा भी जाता है, “ज़ोर जिसका, मुल्क उसका।” लेकिन अब समय आ गया है कि इस अमानवीय प्रथा को हम उखाड़ फेंके और अलसेशियन जो अमीरों और अनीति का प्रतीक है उसका अस्तित्व ही मिटा दें।
(ज) गधे को गोलियों का निशाना बनाया जाना क्या न्याय संगत है-
तर्कसहित उत्तर दीजिए।
उत्तर – गधे को गोलियों का निशाना बनाया जाना कदाचित न्याय संगत नहीं है। यह अधिकार विधि और विधान द्वारा किसी को नहीं दिया गया है कि अपना आक्रोश प्रकट करने के लिए किसी की जान ले ली जाए। गधे की जान लेने वाले कुँवर साहब ने अपनी शक्ति और क्रूरता का घिनौना रूप नज़ीर की तरह पेश किया। वह गधा मैकू के परिवार का आर्थिक आधार था जबकि कुँवर साहब का अलेसेसियन मात्र प्रतिष्ठा का प्रतीक। इस घटना का दूसरा पहलू यह भी है कि गधा दुनिया के दबे-कुचले, बेबस-लाचार और आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है जबकि कुँवर साहब समाज के तथाकथित शक्तिशाली लोगों का। भले ही कुँवर साहब पढ़े-लिखे और समाज में सम्मानित व्यक्ति हैं फिर भी उनके कृत्य की कहीं निंदा नहीं होगी।
(झ) क्या सचमुच कुँवर साहब साम्यवाद के समर्थक हैं? तर्क सहित
अपने विचार लिखिए।
उत्तर – सच कहा जाए तो कुँवर साहब साम्यवाद के कतई समर्थक नहीं हैं। हाँ ऐसा ज़रूर है कि उन्हें साम्यवाद के सिद्धांतों का बोध है पर उनके व्यवहार में साम्यवाद की झलक लेश मात्र भी नहीं दिखती। अपने अहम् को सेंक देने के लिए गधे के सिर में गोलियाँ दाग देना, मनुष्यों को पशुओं से भी बदतर समझना। दुहाई देने वाले लोगों को नज़रअंदाज़ करना। अपने विकृत मानसिकता वाले दोस्तों के साथ मनुष्यों के नमकहरामी पर निरधार चर्चा करना इस तथ्य को पुष्ट करता है कि वे साम्यवाद के समर्थक तो क्या मनुष्यों को मनुष्य समझने वाले मनुष्य भी नहीं है।
(ञ) प्रस्तुत कहानी में छिपे व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- देखिए, आज के दौर में व्यंग्य एक ऐसी विधा बन चुकी है जिसके माध्यम से कटु से कटु सत्य को हास्यास्पद तरीके से लोगों के सामने लाया जा सकता है और यह बहुत ही प्रभावशाली तरीके से काम करता है। इस पाठ में हमें यह व्यंग्य देखने को मिलता है कि एक ओर जहाँ कुँवर साहब बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, खुद को साम्यवाद का समर्थक बताते हैं, दूसरी तरफ़ उनके कृत्य अति नीच कोटी के हैं। इस पाठ में यह दर्शाया गया है कि किस तरह समाज के धनवान लोग गरीबों और मज़लूमों पर अत्याचार करते हैं और अपने धन के कारण ही हर बार वे कानून की गिरफ़्त से बच जाते हैं।