कवि परिचय – सुमित्रानंदन पंत
सुमित्रानंदन पंत
हिंदी का छायावाद युग (1918-1936) कविता का उत्कर्ष काल है। इसके चार गायकों ने चार मुख्य स्वरों को मुखरित किया है। प्रसाद ने सौंदर्य, निराला ने पौरुष, पंत ने प्रकृति और महादेवी ने करुणा को वाणी दी है। इसके कारण उनके जीवन की परिस्थितियों में निहित हैं।
सुमित्रानंदन पंत (1900-1977) का जन्म हिमालय के सुंदर पार्वत्य- प्रदेश कुमायूँ की गोद में कोसानी नामक गाँव में हुआ। माता चल बसीं तो दादी ने पाला पोसा। मनोरम प्रकृति के आँगन अल्मोड़ा में शिक्षा प्राप्त की। इलाहाबाद के प्रख्यात सेंट्रल म्योर कॉलेज में (1919 – 21) पढ़ रहे थे, लेकिन महात्मा गाँधी के आह्वान से कॉलेज छोड़ा। स्वतंत्रता संग्राम के पक्षधर साहित्य साधना में डटे रहे। स्वाध्याय किया। इलाहाबाद में 1950 में आकाशवाणी में कार्य किया।
शुरू किया सुकुमार कल्पना के साथ, प्रगतिशील यथार्थवादी हो कर जन-जीवन का विषय उठाया और अंत में अरविंद दर्शन में डूब गए। इस प्रकार वे कविता को नई-नई भावभूमियों पर ले गए। ‘उच्छ्वास’, ‘ग्रंथि’, ‘वीणा’, ‘पल्लव’ और ‘गुंजन’ में प्रकृति के सुकुमार सौंदर्य के चित्र मिलते हैं। यहाँ कवि प्रकृति की सुंदरता से इतना आकृष्ट है कि नारी- सौंदर्य को भी अस्वीकार करता है। पंतजी की ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं- “छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले ! तेरे बालजाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।” फिर ‘ज्योत्स्ना’, ‘युगान्त’, ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ आदि में कवि भारत के जन-जीवन को देखता है। कोमल कल्पनाएँ, सहानुभूति और संवेदना, दुखी जीवन से व्याकुलता इन कविताओं में स्पष्ट है। इसमें योगी अरविंद के चिंतन की छाया स्पष्ट है।
‘उत्तरा’, काला और बूढ़ा चाँद, ‘युगपथ’, ‘चिदम्बरा’, ‘रश्मिबंध’ में युग चेतना की झाँकियाँ मिलती हैं। ‘लोकायतन’ महाकाव्य है, जिसमें भारत माता के सांस्कृतिक जीवन के बदलते रूप के साथ लोकतांत्रिक चेतना पर बल है।
शांतिप्रिय द्विवेदी के अनुसार पंत ‘मनोरम कल्पना’ के कवि हैं। अन्य विद्वानों के विचार से पंत कोमल भावनाओं के चित्रकार हैं। नामवर सिंह पंतजी को निपुण शब्द-शिल्पी मानते हैं। स्वयं कवि अपनी कविता के बारे में कहता है – ‘मेरा काव्य युग के महान संघर्ष का काव्य है।’ सच में, पंतजी की ‘वीणा’ के गीत आज के तुमुल कोलाहल में वीणा की झंकार जैसे सुनाई देते हैं।
कविता परिचय –
‘भारत माता’ कविता में स्वाधीन भारत के यथार्थ जीवन का चित्रण करते हुए कवि उसके भावी रूप पर अपने विचार व्यक्त करता है। पराधीनता-जन्य दुर्बलता और कुंठाओं की स्मृति दिलाते हुए कवि ने भारत को पुन: उस दार्शनिक गौरव को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है जिसके कारण विश्व में उसका सम्मान होता रहा है। यह कविता भारत माता के प्रति कवि की भावांजलि का उत्तम उदाहरण है।
भारत माता
भारत माता
भारतमाता
ग्राम वासिनी !
खेतों में फैला दृग श्यामल
शस्य भरा जनजीवन आँचल
गंगा यमुना में शुचि श्रम जल
शील मूर्ति
सुख दुख उदासिनी !
स्वप्न मौन, प्रभु – पद – नत-चितवन
ओठों पर हँसते दुख के क्षण,
संयम तप का धरती-सा मन,
स्वर्ग-कला
भू पथ प्रवासिनी !
तीस कोटि सुत, अर्ध नग्न तन,
अन्न वस्त्र पीड़ित, अनपढ़ जन,
झाड़ फूँस खर के घर आँगन,
प्रणत शीश
तरुतल निवासिनी !
विश्व प्रगति से निपट अपरिचित
अर्ध सभ्य, जीवन रुचि संस्कृत,
रूढ़ि रीतियों से गति कुंठित,
राहु-ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी !
सदियों का खंडहर, निष्क्रिय मन
लक्ष्य हीन, जर्जर जन जीवन,
कैसे हो भू-रचना नूतन,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी !
पंचशील रत, विश्व शांति व्रत,
युग युग से गृह आँगन श्रीहत
कब होंगे जन उद्यत जाग्रत?
सोच मग्न
जीवन विकासिनी !
उसे चाहिए लौह संगठन
सुंदर तन, श्रद्धा दीपित मन,
भव जीवन प्रति अथक समर्पण,
लोक कलामयी,
रस विलासिनी।
शब्दार्थ और भावार्थ :
भारतमाता
ग्राम वासिनी !
खेतों में फैला दृग श्यामल
शस्य भरा जनजीवन आँचल
गंगा यमुना में शुचि श्रम जल
शील मूर्ति
सुख दुख उदासिनी !
स्वप्न मौन, प्रभु – पद – नत-चितवन
ओठों पर हँसते दुख के क्षण,
संयम तप का धरती-सा मन,
स्वर्ग-कला
भू पथ प्रवासिनी !
शब्दार्थ –
श्यामल – कृष्ण वर्ण। शस्य – धान। शुचि – पवित्र। श्रम- जल – पसीने की बूँद। चितवन – दृष्टि। स्वर्गकला – स्वर्ग-सी सुंदर। भूपथ – पृथ्वी के मार्ग।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश कवि पंत की ‘भारत माता’ कविता से उद्धृत है। इसमें कवि ने भारत माता के स्वरूप और उसकी भावनाओं को चित्रित किया है।
व्याख्या –
यह भारत माता ग्रामवासिनी हैं। भारत को ग्रामीण सभ्यता का, कृषि प्रधान देश माना जाता है। उसका वास्तविक रूप देश में फैले साढ़े सात लाख गाँवों में ही मिलता है। दूर तक फैले हुए खेतों का शस्य श्यामल स्वरूप उसकी आँखों की नीलिमा के समान ही है। जिस आँचल में वहाँ का जन जीवन रहता है- शस्य श्यामला घरती माता का आँचल है, जिसकी छाया में भारतीय जन समाज अपना जीवन व्यतीत करता है। गंगा और यमुना में प्रवाहित जल उस माँ के पसीने की ही बूँदें हैं। त्याग, तपस्या, संयम और शील की साक्षात् मूर्ति भारत माता अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से सुख-दुखात्मक अनुभूतियों से सर्वथा तटस्थ, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसकी समदर्शिता को सुख अथवा दुख स्खलित नहीं कर पाते।
भारत माता अपने भाव-स्वप्नों आदर्श मान्यताओं में तल्लीन होने के कारण मौन है। उसकी दृष्टि सदैव प्रभु चरणों में लगी रहती है। उसके अधरों पर अमिट मुसकान सदैव खेलती रहती है, दुख के क्षणों में भी उसके चेहरे पर हँसी ही रहती है। संयम, साधना और तपस्या से परिपूर्ण भारत माता का मन धरती के समान सहनशील और उदार है। भारत स्वर्ग की संपूर्ण कलाओं, संपदाओं और सुषमा का साकार स्वरूप है। जिस प्रकार कोई मार्ग भटक कर किसी अनजाने देश में पहुँच जाता है उसी प्रकार यह भारत जैसे स्वर्ग से भटक कर धरती पर आ गई है, इसीलिए प्रवासिनी के समान सभी प्रकार की विषमताओं से निर्लिप्त जीवन व्यतीत कर रही है।
विशेष –
(1) प्रस्तुत अवतरण में कवि ने भारत माता का वर्णन करते हुए भारतीय जन जीवन और संस्कृति की सभी विशेषताएँ चित्रित कर दी हैं। भारत की ग्रामीण सभ्यता, कृषि प्रधान जीवन, भारतीयों का कठोर परिश्रम, सांस्कृतिक जीवन के प्रति आसक्ति, आस्तिकता तथा दार्शनिक प्रवृत्तियों के कारण सांसारिकता के प्रति उदासीनता आदि भावना और आदर्शों का चित्रण करने में कवि को पूर्णतया सफलता मिली है।
शब्दार्थ और भावार्थ :
तीस कोटि सुत, अर्ध नग्न तन,
अन्न वस्त्र पीड़ित, अनपढ़ जन,
झाड़ फूँस खर के घर आँगन,
प्रणत शीश
तरुतल निवासिनी !
विश्व प्रगति से निपट अपरिचित
अर्ध सभ्य, जीवन रुचि संस्कृत,
रूढ़ि रीतियों से गति कुंठित,
राहु-ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी !
शब्दार्थ –
खर – प्रखर। प्रणत शेष – झुका हुआ सिर। निपट पूर्णतया। कुंठित – अवरुद्ध। शरदेन्दु – शीतकालीन चंद्रमा।
प्रसंग –
प्रस्तुत अवतरण में कवि ने भारतीय जन जीवन के अभावों – समस्याओं का संकेत करते हुए उसके गौरवशाली रूप का पराधीनता के कारण होने वाले ह्रास का चित्रण किया है। कवि कहता है :
व्याख्या –
भारत माता की तीस करोड़ संतान आज अनेक समस्याओं और अभावों में उलझी हुई हैं। पराधीनता के युग में उसका इतना शोषण हुआ है कि आज उसे जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ भी प्राप्त नहीं होतीं। आज भारतीयों का शरीर वस्त्राभाव के कारण अर्द्धनग्न-सा है; अन्न और वस्त्र आदि न मिलने के कारण संपूर्ण समाज पीड़ित है। अशिक्षा के कारण भारतीय जनता अज्ञान और रूढ़ियों के अधंकार में घिरी हुई है। रहने के लिए आज उसे निवास स्थान की सुविधा भी अप्राप्य है। जनता झाड़-फूस के घरों में ही जीवन यापन करती है। अत्याचार, शोषण और पराधीनता के कारण निराश भारत का सिर झुका हुआ है। उसका स्वाभिमान चिन्ताओं से ग्रस्त है। अपनी संतान के दुखों से संतप्त भारत की स्थिति इस प्रकार है, जैसे घर-बार न होने के कारण किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए जीवन-यापन कर रही हो।
भारत और उसकी जनता अशिक्षा, पराधीनता और शोषण के कारण विश्व में होने वाली बहुमुखी प्रगति से सर्वथा अपरिचित है। विश्व की अनेक वैज्ञानिक, सामाजिक एवं आर्थिक उपलब्धियों के कारण वहाँ का जीवन सुख-साधन संपन्न हो रहा है, किंतु उनसे संपर्क न होने के कारण आज यहाँ की जनता पूर्णतया नवीन सभ्यता को ग्रहण नहीं कर सकी। अर्द्ध सभ्य होने पर भी भारतीय जन-जीवन उच्चतम सुसंस्कृत प्रवृत्तियों से परिपूर्ण है। किंतु धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक अंधविश्वासों, रूढ़ियों और रीतियों ने उसके विकास और प्रगति के प्रवाह को कुंठित किया हुआ है। शीतकालीन चंद्रमा के समान उन्मुक्त और सात्विक हँसी वाली भारत माता का जीवन इसी प्रकार का है जैसे चंद्रमा को राहु ने ग्रस्त किया हुआ हो। ग्रहण लगने पर चंद्रमा का आलोक कुछ निष्प्रभ हो जाता है, उसी प्रकार पराधीनता ने भारतीय जीवन के उदात्त- मूल्यों को आच्छादित किया हुआ है; उसमें जीवन के सहज आनंद का अभाव है।
विशेष –
प्रस्तुत अवतरण में कवि ने भारतीय जीवन के अभावों का यथार्थ चित्रण किया है। भूतकाल में बौद्धिक, आध्यात्मिक, भौतिक संपदाओं के कारण जिसका जीवन सभी प्रकार के आनंद और सुख का आगार था, पराधीनता के कारण उसे राहु ग्रस्त शरदेन्दु के समान बहकर कवि ने जीवन- व्यापी विषमताओं का प्रभावी चित्रण कर दिया है।
शब्दार्थ और भावार्थ :
सदियों का खंडहर, निष्क्रिय मन
लक्ष्य हीन, जर्जर जन जीवन,
कैसे हो भू-रचना नूतन,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी !
पंचशील रत, विश्व शांति व्रत,
युग युग से गृह आँगन श्रीहत
कब होंगे जन उद्यत जाग्रत?
सोच मग्न
जीवन विकासिनी !
शब्दार्थ –
खंडहर – भग्नावशेष। निष्क्रिय – कार्य शून्य। जर्जर – टूटा-फूटा। रत – लीन | श्रीहत – शोभा रहित। उद्यत – तत्पर।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश ‘भारत माता’ से उद्धृत है। इसमें कवि ने तरह- तरह के अत्याचारों, आक्रमणों और शोषण के कारण भारतीय जीवन में उत्पन्न होने वाली दुर्बलताओं का वर्णन करते हुए आधुनिक युग में उनके योगदान का उल्लेख करते हुए कहा है-
व्याख्या –
शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारी आततायी साम्राज्यवादियों द्वारा शोषण और पराधीनता के कारण भारतीय जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया है। जिस प्रकार कोई भव्य मंदिर समय के आघात से खंडहर हो जाता है, उसमें किसी प्रकार का आकर्षण अथवा जीवन के आमोद-प्रमोद की झलक नहीं रहती, उसी प्रकार यहाँ का जनजीवन सर्वथा निष्क्रिय हो चुका है। किसी के समक्ष जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं, जनजीवन उत्साह और आनंद से शून्य हो चुका है। ऐसी विषमावस्था में जीवन का नव-निर्माण कैसे हो – यह प्रश्न विचारणीय है। जिसने कभी विश्व को गीता का अमर ज्ञान देकर प्रकाशित किया था, आज वही भारत अपने ज्ञान को विस्मृत करके अज्ञानी और मूढ़ बना हुआ है।
आज भारत स्वाधीन हो चुका है। विश्व में व्याप्त युद्धों की विभीषिका को समाप्त करने के लिए भारत ने पंचशील के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, सह-अस्तित्व के आधार पर विश्व शांति स्थापित करने का व्रत लेकर आधुनिक भारत विश्व की राजनीति में योग दे रहा है। जीवन को बहुमुखी प्रगति की प्रेरणा देने वाली भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का चरमोत्कर्ष करने की दिशा दिखाने वाली, भारतमाता आज इसी चिंता में मग्न है कि युग-युगांतरों से विश्व का आँगन युद्ध की विभीषिका से सहज स्वाभाविक सौंदर्य को समाप्त कर चुका है, जहाँ जीवन में प्रगति करने की भावना समाप्त प्राय: हो चुकी है, वहाँ की जनता किस प्रकार प्रगति, उन्नति एवं विकास कार्यों को करने में तत्पर होगी।
विशेष –
प्रस्तुत अवतरण में कवि ने भारत में व्याप्त निष्क्रियता, गौरव-हीनता तथा अपने ज्ञान का विस्मरण करने की स्थिति का यथार्थ वर्णन किया है। आधुनिक युग-जीवन को पंचशील का सिद्धान्त भारत की अमूल्य भेंट है, जिसके द्वारा विश्व-मानवता को सुख-समृद्धि देने का संकल्प भारत ने किया था, उसका चित्रण भी प्रेरक एवं उत्साहवर्द्धक है।
शब्दार्थ और भावार्थ :
उसे चाहिए लौह संगठन
सुंदर तन, श्रद्धा दीपित मन,
भव जीवन प्रति अथक समर्पण,
लोक कलामयी,
रस विलासिनी।
शब्दार्थ –
लोह संगठन – दृढ़ संगठन। दीपित – प्रकाशित। कलामयी – कलाओं से युक्त। रस विलासिनी – आनंद में विहार करने वाली।
प्रसंग –
‘भारतमाता’ कविता के प्रस्तुत अवतरण में कवि ने भारत के जीवन का अपेक्षित चित्रण किया है। भावों जीवन की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए कवि कहता है –
व्याख्या –
आज भारत को एक ऐसे सुदृढ़ संगठन की आवश्यकता है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति शरीर से सुंदर और स्वस्थ हो; प्रत्येक व्यक्ति का मन श्रद्धा से अणुप्राणित हो, वह विश्व-जीवन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर हो। ऐसा होने पर भारत विकास करेगा। यह भारत जो कि लोक जीवन और संस्कृति से युक्त है, जो हर समय उस रस रूप में ही क्रीड़ारत रहे, उस भारत को अभी पूर्ण स्वातन्त्र्य का आनंद उपभोग करना है।
विशेष –
इस अवतरण में कवि ने पारिवारिक जीवन के पुनर्निर्माण का विचार व्यक्त किया है। स्वतंत्र देश का निर्माण करने के लिए अधिकाधिक जीवन को उसमें संयोजित करना कवि आवश्यक मानता है। स्वामी विवेकानंद ने भी अपने देश का निर्माण करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को लौह-संगठन में बाँधकर उसे परमोत्कर्ष तक पहुँचाना स्वीकार किया है।
प्रश्नोत्तर और अभ्यास
1. सही विकल्प चुनिए :
(i) भारतमाता की खास विशेषता क्या है? यह –
(क) ग्रामवासिनी
(ख) भोग विलासिनी
(ग) वीणावादिनी
(घ) पदचारिणी
उत्तर – (क) ग्रामवासिनी
(ii) ‘अर्ध-नग्न-जन’ कौन है?
(क) पहाड़
(ख) भारत की जनता
(ग) संन्यासी
(घ) भिखारी
उत्तर – (ख) भारत की जनता
2. एक / दो वाक्यों में उत्तर दीजिए :
(i) गंगा – यमुना में शुचि-श्रम-जल कैसे बहता है?
उत्तर – गंगा – यमुना में बहने वाला जल श्रमिकों और किसानों द्वारा बहाए गए पवित्र पसीने की तरह ही प्रवाहित हो रहा है।
(ii) शरदेन्दु राहुग्रस्त कौन है?
उत्तर – भारतीय आध्यात्म, बौद्धिकता, भौतिक संपदाएँ और जीवन के अभाव शरदेन्दु राहुग्रस्त है।
(iii) ‘तरुतल निवासिनी’ किसे कहा गया है?
उत्तर – दुखों से संतप्त भारत माता की संतान को ‘तरुतल निवासिनी’ कहा गया है।
3.निम्न प्रश्नों के उत्तर तीन/चार वाक्यों में दीजिए।
(i) ‘स्वर्ग कला भू पथ प्रवासिनी’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर – संयम, साधना और तपस्या से परिपूर्ण भारत माता का मन धरती के समान सहनशील और उदार है। भारत स्वर्ग की संपूर्ण कलाओं, संपदाओं और सुषमा का साकार स्वरूप है। जिस प्रकार कोई मार्ग भटक कर किसी अनजाने देश में पहुँच जाता है उसी प्रकार यह भारत जैसे स्वर्ग से भटक कर धरती पर आ गई है, इसीलिए प्रवासिनी के समान सभी प्रकार की विषमताओं से निर्लिप्त जीवन व्यतीत कर रही है।
(ii) ज्ञानमूढ़ गीता शास्त्र प्रकाशिनी कौन है?
उत्तर – ज्ञानमूढ़ गीता शास्त्र प्रकाशिनी भारत देश है। भारत ने कभी विश्व को गीता का अमर ज्ञान देकर ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित किया था, आज वही भारत अपने ज्ञान को विस्मृत करके अज्ञानी और मूढ़ बना हुआ है।
(iii) भारत को क्या चाहिए?
उत्तर – आज भारत को एक ऐसे सुदृढ़ संगठन की आवश्यकता है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति शरीर से सुंदर और स्वस्थ हो; प्रत्येक व्यक्ति का मन श्रद्धा और ज्ञान से अणुप्राणित हो, कर्मक्षेत्र में कर्मठ हो, वह विश्व-जीवन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर हो। ऐसा होने पर भारत विकास करेगा।
(iv) भारत को कवि किस रूप में देखना चाहता है?
उत्तर – कवि भारत से अति प्रेम करता है। वह भारत का स्वर्णिम गौरव लौटता हुआ देखना चाहता है। वह चाहता है कि भारत फिर से विश्व का सिरमौर बने। विश्वगुरु कहलाए। सभी भारतीयों के जीवन में सुख, शांति और समृद्धि चिरकालीन रहे।
4.निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए।
(i) भारतमाता की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – भारतमाता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह भारत के साढ़े साथ लाख गाँवों में भारतमाता का स्वरूप फैला हुआ है। त्याग, तपस्या, संयम और शील की साक्षात् मूर्ति भारत माता अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से सुख-दुखात्मक अनुभूतियों से सर्वथा तटस्थ, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसकी समदर्शिता को सुख अथवा दुख स्खलित नहीं कर पाते। भारत माता अपने भाव-स्वप्नों आदर्श मान्यताओं में तल्लीन होने के कारण मौन है। उसकी दृष्टि सदैव प्रभु चरणों में लगी रहती है। उसके अधरों पर अमिट मुसकान सदैव खेलती रहती है, दुख के क्षणों में भी उसके चेहरे पर हँसी ही रहती है। संयम, साधना और तपस्या से परिपूर्ण भारत माता का मन धरती के समान सहनशील और उदार है। भारत स्वर्ग की संपूर्ण कलाओं, संपदाओं और सुषमा का साकार स्वरूप है।
(ii) ‘भारतमाता’ कविता पढ़कर आपको कैसा लगा, बताइए।
उत्तर – ‘भारतमाता’ कविता पढ़कर मुझे ऐसा लगा मानो मैं साक्षात् कवि सुमित्रानंदन पंत से ही भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान पर विचार-विमर्श कर रहा हूँ। कवि का भारतीयों के प्रति कर्मठ बनने के आवाहन, भारत माता का अतुलनीय वर्णन, दरिद्र और पीड़ित भारतवासियों का मर्मभेदी चित्रण मुझे अनायास ही यह सोचने के लिए बाध्य कर देता है कि भारत के उत्थान में मेरी भूमिका क्या थी, है और होगी।
(iii) ‘कविता की भाषा अत्यंत मर्मस्पर्शी है’ प्रमाणित कीजिए।
उत्तर – भाषा उस समय अत्यंत मर्मस्पर्शी बन पड़ती है जब कोई हमें सच्चाई से रू-ब-रू करवा दे और हम यह मानने पर मजबूर हो जाएँ कि कहे गए कथन सत्य से युक्त हैं और हमें इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए। यहाँ कवि ने हमें हमारे गौरवमयी अतीत की स्मृति करवाई तथा वर्तमान की समस्याओं का कारण बताते हुए उद्यमी बनने के लिए भी प्रेरित किया। इन सबके लिए कवि ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह सीधे हृदय को छूती है और कर्मठ बनने के लिए हमें मानसिक रूप से उद्वेलित भी करती है।
(iv) ‘सुख-दुख उदासिनी’ की व्यंजना को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – त्याग, तपस्या, संयम और शील की साक्षात् मूर्ति भारत माता अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से सुख-दुखात्मक अनुभूतियों से सर्वथा तटस्थ, निर्विकार और निर्लिप्त है। उसकी समदर्शिता को सुख अथवा दुख स्खलित नहीं कर पाते। भारत माता तो सदैव शांतचित्त मुद्रा में ही रहती है।