बिहारीलाल दोहे

बिहारी लाल (1595-1663)

बिहारीलाल का जन्म ग्वालियर में 1595 ई. को हुआ और निधन 1663 ई. को। वे ओड़छा, आगरा और अंत में आमेर दरबार में सुखपूर्वक रहे।

बिहारीलाल मथुरा के ब्राह्मण थे, बज भाषा में प्रवीण थे। बिहारी ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के लिखित साहित्य का खूब अध्ययन किया। प्रतिभाशाली तो थे ही। शाहजहाँ के दरबार में आगरा गए। वहाँ अरबी, फारसी, उर्दू पढ़ी।

तत्कालीन परिस्थितियाँ भक्ति मार्ग को छोड़ चुकी थीं। सांसारिक जीवन के अनुकूल थीं। मुगल शासन प्रतिष्ठित हो चुका था। छोटे-छोटे राजा भी सुरा सुंदरी में डूबे हुए थे। शृंगारिकता, आलंकारिकता, विलासप्रियता का युग था। बिहारी ने उसी के अनुसार कविता लिखकर काफी यश और धन कमाया। जीवन में कभी-कभी तिक्त अनुभव भी होता था। उसकी झाँकियाँ भी उनके (नीति) दोहों में मिलती हैं।

भाव और भाषा दोनों में बराबर अधिकार रखनेवाले बिहारी के दोहे बड़े मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली हैं। एक बार वे जयपुर गए। राजा नवविवाहिता रानी के प्रेम में मत्त हो राजकाज छोड़ बैठे थे। कोई उनके पास फटक नहीं पाता था। बिहारी ने एक दोहा लिखकर भेजा यह अत्यंत प्रसिद्ध है-

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।

अली कली हि सो बँध्यो आगे कौन हवाल॥  

जहाँ, प्रार्थना, नीति, उपदेश काम नहीं कर सका वहाँ बिहारी के दोहे ने अपना जादू दिखाया।

बिहारी अपने दोहे का जादू फैलाते गए। उनकी ‘बिहारी सतसई’ सात सौ से अधिक दोहों की एक छोटी रचना है। पर इसी के बल पर बिहारी को ‘महाकवि’ का सम्मान मिल गया।

दोहे – 1

मेरी भव बाधा हरौ, राधानागरि सोइ।

जा तनकी झाई पर, स्यामु, हरित-दुति होइ॥

शब्दार्थ –

भव बाधा सांसरिक कष्ट

हरौ – दूर करना

राधानागरि – चतुर राधा

सोइ – वही

जा – जिसकी

तनकी – शरीर की

झाई – छाया

स्यामु – कृष्ण

हरित – हरा-भरा

दुति – आभा, चमक

व्याख्या –

इस दोहे में बिहारी जी समझदार और प्रभावशालिनी राधा से अपने सांसारिक दुखों को दूर कर देने का निवेदन कर रहे हैं। यहाँ बिहारी जी राधा के बारे में कहते हैं कि राधा के शरीर की परछाई अर्थात् आभा पड़ने पर श्याम रंगवाले कृष्ण हरे रंग की द्युति वाले अर्थात् बहुत ही प्रसन्न हो जाते हैं। अर्थात् कृष्ण को प्रसन्न करने वाली राधा सबसे श्रेष्ठ हैं। यह दोहा इनकी रचना बिहारी सतसई का पहला दोहा है। यहाँ कवि अपने ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए प्रार्थना कर रहा है। दूसरी ओर बिहारी निम्बार्क संप्रदाय के शिष्य थे, जहाँ राधा – श्याम की उपासना होती है।

दोहा – 02

या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोइ।

ज्यों ज्यों बूड़े स्याम रंग त्यौं त्यों उज्जलु, होइ॥

शब्दार्थ –

अनुरागी – प्रेमी

चित्त – मन

गति – स्थिति

समुझै – समझना

कोइ – कोई  

ज्यों ज्यों – जैसे-जैसे

बूड़े – डूबना

स्याम रंग – कृष्ण के प्रेम में, काल अरंग

त्यौं त्यों – वैसे-वैसे

उज्जलु – उज्ज्वल

व्याख्या –

बिहारी कहते हैं कि ‘अनुरागी चित्त’ अर्थात् भक्ति या प्रेम में मग्न मन की विचित्रगति और परिणति होती है। मन जितना अधिक कृष्ण के ‘रंग’ यानी प्रेम- भक्ति में मग्न हो जाता है, उतना ही पवित्र अर्थात् श्वेत और उज्जवल हो जाता है। अनुराग या प्रेम का रंग लाल माना जाता है। कवि कहता है अनुरागी मन श्याम रंग अर्थात् काले रंग में डूब कर सफेद, स्वच्छ, पवित्र हो उठता है। आनंदित और मुग्ध होता है। यह बात तो शास्त्रोक्त है तथा विरोधाभास अलंकार है।

दोहा – 03

सीस – मुकुट, कटि काछनी, कर-मुरली उर-माल।

इहि बानक मो मन बसौ सदा बिहारी लाल॥

शब्दार्थ –

सीस – सिर

कटि – कमर

काछनी – पीले वस्त्र

कर – हाथ

मुरली – बांसुरी

उर – छाती

माल – माला  

इहि – यह

बानक – रूप

मो मन – मेरा मन

बसौ – बसिए

सदा – हमेशा

बिहारी लाल – बाँके बिहारी श्रीकृष्ण

व्याख्या –

बिहारी द्वारा यहाँ श्रीकृष्ण की वेशभूषा का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण के सिर पर मोर के पंखों से बना मुकुट शोभा पा रहा है, कमर पर पीले वस्त्र धरण किए हैं। हाथ में मुरली है। उर या छाती में वैजयंती माला झूल रही है। बिहारीलाल विनती करते हैं कि हे बाँके बिहारी श्रीकृष्ण आपका यह बानक या सुंदर मनोहर रूप, मेरे मन में सदा-सर्वदा बैठा रहे।

दोहा – 04

तजि तीरथ, हरि – राधिका – तन-दुति करि अनुरागु।

जिहिं बज – केलि निकुंज – मग पग पग होत प्रयागु॥

शब्दार्थ –

तजि – त्याग

तीरथ – तीर्थ  

हरि – कृष्ण

राधिका – राधा

तन-दुति – शरीर की चमक

करि – से करे  

अनुरागु – प्रेम

जिहिं – जहाँ

बज – ब्रज

केलि – खेल

निकुंज – उपवन

मग – रास्ता

पग – राह

होत – होता है

प्रयागु – प्रयाग-एक तीर्थ स्थान  

व्याख्या –

कवि बिहारीलाल कहते हैं कि तीर्थ स्थानों में जाना छोड़ दो। कृष्ण-राधा के शरीर की आभा श्याम और गौर वर्ण का मन में ध्यान करो, उससे ही प्रेम करो। प्रयाग में गंगा का गौर वर्ण और यमुना का रंग काला होता है वैसे ही इस ब्रजभूमि के स्थान-स्थान पर, केलि-कुंजों में, यहाँ की भूमि के पग-पग पर राधा-कृष्ण के विहार करने के कारण प्रयाग तीर्थ बने हुए हैं। जिस प्रकार प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती का मेल होने के कारण वह एक पवित्र स्थल बन गया उसी प्रकार ब्रजभूमि में गंगा राधा हैं, यमुना कृष्ण हैं और हमारा उनके प्रति अनुराग लाल वर्ण का होने के कारण सरस्वती नदी का रूप है और इन तीनों के मेल से यहाँ भी त्रिवेणी की संकल्पना साकार हो जाती है।

दोहा – 05

हरि-छबि-जल जब तैं परे, तब तैं छिनु बिछुरै न।

भरत, ढरत, बूड़त, तरत रहत धरी लौं नैन॥

शब्दार्थ –

हरि-छबि-जल – कृष्ण के रूप-सौन्दर्य का जल  

तैं – से

परे – पड़ा

छिनु – क्षण भर

बिछुरै – बिछड़ना

न – नहीं

भरत – भरना

ढरत – गिरना

बूड़त – डूबना

तरत – तैरना

रहत – रहना

धरी – पकड़ कर

लौं – में  

नैन – आँख  

व्याख्या –

यहाँ बिहारीलाल ने नैनों की दशा का वर्णन किया है। जिस प्रकार आँखों में नमी हमेशा बनी रहती है उसी प्रकार बिहारी कहते हैं कि जब से वह कृष्ण के सौंदर्य जल से सराबोर हो गए हैं, तभी से एक क्षण के लिए भी वह इनसे अलग नहीं हो सके हैं। अर्थात् उनकी आँखों में अब कृष्ण की भक्ति का जल समा चुका है। उनकी आँखें प्रेम भक्ति से भरती हैं और कभी उसी में डूब जाती हैं। कभी आँसू छलक जाते हैं। अर्थात् कृष्ण के शोभाजल में ही डूबती, तैरती रहती हैं।

दोहा – 06

दृग उरझत टूटत कुटुंब, जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठि दुरजन हियें, दई, नई यह रीति॥

शब्दार्थ –

दृग – नैन

उरझत – उलझना

टूटत – टूटना

कुटुंब – रिश्तेदार

जुरत – जुड़ना

चित – हृदय

प्रीति – प्रेम

परति – पड़ना

गाँठि – गाँठ

दुरजन – बुरे लोग

हियें – हृदय में

दई – परमात्मा

नई – नया

रीति – नियम

व्याख्या –

इस दोहे में प्रेम मार्ग की दिक्कतों का वर्णन किया गया है। नायक- नायिका के बीच प्रेम व्यापार का आरंभ दोनों की आँखों के उलझने से शुरू होता है। आँखें चार होती हैं, प्रेम जागृत होता है तो कुटुंब से रिश्ता टूट जाता है। चतुर नायक और नायिका में प्रेम-जुड़न होता है। लेकिन दुर्जन लोग इसे सहन नहीं कर पाते। उनकी छाती में ईर्ष्या की गाँठ पड़ जाती है। यह विचित्र परिस्थिति है। प्रेमलीला में चौतरफ़ा चोट होती है। हे परमात्मा यह प्रेम का यह मार्ग तो विचित्र है।

दोहा – 07

कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात॥

शब्दार्थ –

कहत – कहना

नटत – मना करना

रीझत – प्रसन्न होना

खिझत – गुस्सा होना

मिलत –  मिलना

खिलत – खिल जाना

लजियात – लज्जा करना

भरे – भरा हुआ

भौन – भवन

करत – करना

नैननु – आँखों से

सब – सारा

व्याख्या –

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने नायक-नायिका मे मिलन पर उनकी सांकेतिक वार्तालाप और उनकी मुख मुद्रा का अति सुंदर चित्रण किया है। इसमें नायक-नायिका से सांकेतिक भाषा में कुछ कहता है लेकिन नायिका मना कर देती है और खीझ जाती है। उसके मना करने पर उसकी मुख मुद्रा को देखकर नायक नायिका पर और भी रीझ जाता है। ऐसे में जब दोनों की नज़रें परस्पर मिलती हैं तो नायिका लजा जाती है। इस प्रकार भरे भवन में अनेक लोगों कि उपस्थिति के बावजूद नायक-नायिका आँखों की भाषा में बात-चीत करते हैं।

दोहा – 08

आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।

साहस, कैकै सनेह बस सखी सबै ढिग जाति॥

शब्दार्थ –

आड़े दै – ओट करके

आले – गीले

बसन – कपड़े

जाड़े – शीत

राति – रात  

साहस – हिम्मत

कैकै – करके

सनेह – स्नेह, प्रेम  

सखी – सहेली

सबै – सब

ढिग – पास, नज़दीक

जाति – जाते हैं।

व्याख्या –

अतिशयोक्ति करना रीतिकालीन शृंगार-वर्णन का एक तरीका है, अर्थात् बढ़ा-चढ़ा कर बखान करना। यहाँ नायिका की विरह-ज्वाला का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। नायिका प्रिय के वियोग से तापित है। उसका उत्ताप इतना अधिक है कि सखियाँ उसके पास जाने से डरती हैं। लेकिन क्या करें? स्नेहभाव के कारण जाना ही पड़ता है। इसलिए जाड़े की रात में भी गोपियाँ कहीं उत्ताप से भस्म न हो जाएँ इसलिए गीले वस्त्र पहन कर साहस करके स्नेह हेतु वे सखी नायिका के पास जाती हैं।

दोहा – 09

अधर धरत हरि कैं परत ओठ-डीठि-पट-जोति।

हरित बाँस की बाँसुरी इंद्र धनुष रंग होति॥

शब्दार्थ –

अधर – होंठ  

धरत – रखना

हरि – कृष्ण

कैं – को

परत – पड़ना

ओठ – होंठ

डीठि – दृष्टि

पट – कपड़ा

जोति – चमक

हरित – हरे रंग का

होति – होना

व्याख्या –

इस दोहे में रंग की आभा का सुंदर वर्णन है। जब कृष्ण मुरली को होंठों पर धारण करते हैं तब उस हरे रंग की बाँसुरी पर होंठ की लाली, आँख की नीलिमा, वस्त्र का पीलापन आदि आभाएँ पड़ती हैं तो बाँसुरी इन्द्रधनुष जैसे चमकदार दिखाई पड़ती है। यद्यपि इन्द्रधनुष में सात रंग होते हैं तथापि चार रंग ही प्रमुख माने जाते हैं जो साफ-साफ दीखते हैं। 

दोहा – 10

बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाइ।

सौंह करै भौंहनु हसै, दैन कहै नटिजाइ॥

शब्दार्थ –

बतरस –  बातचीत का आनंद

लालच – लोभ

लाल – कृष्ण

मुरली – वंशी

धरी – रखना

लुकाइ – छिपकर

सौंह – सपथ

करैं – करना

भौंहनु – भौंह से (Eyebrows)

हँसैं  – हँसना

दें – देना

कहैं – कहना

नटि – मुकर जाना

जाइ – जाना

व्याख्या –

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच मुरली के संदर्भ में हो रहे बातचीत का वर्णन किया है। गोपियाँ हर पल कृष्ण के समीप रह कर बातें करना चाहती हैं और इसी वजह से उन्होंने  श्रीकृष्ण की मुरली कहीं छिपा दी है। श्रीकृष्ण जब गोपियों से अपनी मुरली माँगते हैं तो गोपियाँ झूठी कसम खाती हैं कि उन्होंने मुरली नहीं ली है पर कसम खाते वक्त भौंहें हिलाकर हँसती हैं। उनके हाव-भाव से स्पष्ट हो जाता कि मुरली उन्होंने ही छिपाई है।     

दोहा – 11

कनक कनक तैं सौगुनि, मादकता अधिकाय।

या पाय बौराए जग, वा खाय बौराय॥

शब्दार्थ –

कनक – सोना

कनक – धतूरा – एक नशीला फल  

तैं – से

सौगुनि – सौ गुना

मादकता – नशा

अधिकाय – अधिक

या – यह

पाय – पाकर

बौराए – पागल होना

जग – दुनिया

वा – वह

खाय – खाकर

बौराय – पागल होना

व्याख्या –

इस दोहे में कनक के दो अर्थ हैं- सोना और धतूरा। कवि कहता है धतूरा खाने से आदमी बौरा जाता है अर्थात् पागल हो जाता है पर धतूरे से भी अधिक नशा तो कनक अर्थात् स्वर्ण में है। सोना पाने से मनुष्य धनी होने के गर्व से पागल हो जाता है। यहाँ यमक अलंकार है।

दोहा – 12

कहलाने एकत बसत अहि, मयूर मृग, बाघ।

जगतु तपोवन सो कियौ दीरघ-दाघ निदाघ॥

शब्दार्थ –

एकत – एक साथ

बसत – निवास करना

अहि – साँप

मयूर – मोर

मृग – हिरन

जगतु – संसार

तपोबन – तपोवन पवित्र अंचल

सौ – जैसा

कियौ – करना

दीरघ – दीर्घ

दाघ – गर्मी

निदाघ – ग्रीष्म ऋतु

व्याख्या –

प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी प्रचंड गर्मी के कारण पशुओं के व्यवहार में आए बदलाव के बारे में बतलाते हुए कह रहे हैं कि साँप और मोर तथा हिरण और बाघ एक दूसरे के परम शत्रु हैं पर प्रचंड गर्मी के कारण ये आपसी शत्रुता भूलकर एक ही स्थान पर बस गए हैं। ऐसे दृश्य को देखकर बिहारी जी को यह सम्पूर्ण जगत तपोवन की तरह प्रतीत हो रहा है जहाँ सब मिल-जुल कर रहते हैं। उनका मानना है कि सभी अवस्था सकारात्मक पक्ष होते हैं। प्रचंड गर्मी के कारण वन में भाईचारे और मानवीय गुणों का संचार हो गया है।

दोहा – 13

कर लै, चूमि चढ़ाई सिर, उर लगाइ, भुज भेटि।

लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥

शब्दार्थ –

कर – हाथ

लै – लेकर

चूमि – चूमना

चढ़ाई सिर – सिर से लगाना

उर – हृदय

लगाइ – लगाना  

भुज – बाँह

भेटि – भरना

लहि – लेकर

पिय – प्रिय

लखति – देखकर

बाँचति – पढ़कर

धरति – पकड़ती

समेटि – समेटना

व्याख्या –

इस दोहे में प्रेम पत्र के महत्त्व और उपयोगिता का सुंदर वर्णन किया गया है। पत्र आया तो नायिका ने उसे आदरपूर्वक हाथ में लिया, उसे चूमा, फिर उसे सिर पर लगाया अर्थात् सम्मान किया, फिर उसे छाती से लगाया अर्थात् अपनी विरह – ज्वाला को मिटाया फिर बाँहों में भर लिया। नायिका उसे देखती रही फिर प्यार से पढ़ने लगी फिर अपनी अमूल्य संपत्ति मानकर समेट-सहेजकर रख दिया।

दोहा – 14

इन दुखिया अँखियान कौ सुख सिरज्योई नाहिं।

देखें बने न देखतै, अनदेखै अकुलाँहि॥

शब्दार्थ –

अँखियान – आँखों

कौ – को

सिरज्योई – रचना की, बनाया

नाहिं – नहीं  

देखें – देखना

न – नहीं

अनदेखै – बिना देखे

अकुलाँहि – व्याकुल होना  

व्याख्या –

प्रस्तुत दोहे में आँखों की दीन-दशा का मार्मिक व करुणापूर्ण वर्णन किया गया है। नववधू अपनी सखी से कह रही है कि सच में, विधाता ने मेरे आँखों के भाग्य में सुख ही नहीं लिखा है। प्रिय के रूप-माधुरी को मैं लज्जावश देख नहीं पाती और देखे बिना भी रहा नहीं जाता। नहीं देख पाने से विरह के कारण मैं आकुल हो उठती हूँ।

दोहा – 15

सघन कुंज- छाया सुखद, सीतल सुरभि – समीर।

मनु है जात अज वहै, उहि जमुना के तीर॥

शब्दार्थ –

सघन – घना

कुंज – वन

सुखद – सुख देने वाला

सीतल – शीतल

सुरभि – सुगंधित

समीर – हवा  

मनु – मन

जात – जाना

अज – अब भी

वहै – वहीं

उहि – उसी

जमुना – यमुना  

तीर – किनारा

व्याख्या –

प्रस्तुत दोहे में कृष्ण की वृंदावन की स्मृति का वर्णन है। वृंदावन की प्रकृति कितनी सुखद थी। कृष्ण के मन में उसकी सुख-स्मृति जागृत हो रही है। यमुना का सुंदर किनारा, घने कुंजों की छाया जो अत्यंत सुखकर थी, शीतल, सुगंधित, धीर हवा के झोंके यहाँ मथुरा में कहाँ, मन उस वृंदावन को सदा याद करता है। प्रेम की स्मृति सर्वदा जाग्रत अवस्था में ही रहती है।

बिहारी रीतियुग के सर्वाधिक लेकप्रिय कवि हैं। बिहारी केवल ‘दोहा’ जैसे अत्यंत छोटे छंद में पूरे प्रसंग का निष्पादन कर देते हैं। सूक्ष्म अनुभूति, भाव-निरुपण में वे अद्वितीय हैं। संयमित और चमत्कारपूर्ण शब्द-संयोजन में भी अतुलनीय हैं। इसीलिए कहते हैं कि बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।” यह भी प्रसिद्ध है “नावक के तीर” की भाँति उनके दोहे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। बिहारी की प्रशंसा करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है- “मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह तो बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा, इसमें कोई संदेह नहीं। मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भुला हुआ पाठक मग्न हो जाता है। इसमें तो रस के छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदय- कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबंध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसीलिए सभा-समाज के लिए वह अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित संपूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खंड दृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध – सा हो जाता

है। इसके लिए कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा-सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अतः जिस कवि में कल्पना की समाहार- शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा, यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से विद्यमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके।”

बिहारी के प्रत्येक दोहे का प्रसंग स्वतंत्र है। एक दोहे का दूसरे से कोई संपर्क नहीं है। यह मुक्तक काव्य है। इसलिए प्रत्येक दोहे का विषय भी अपने आप में पूर्ण होता है। अधिकांश दोहे शृंगार-वर्णन करते हैं। नीति तथा भक्ति पर भी कुछ दोहे लिखे गए हैं।

इसी से प्रत्येक दोहे में अनुभूति, भाव-संवेदन तीव्र होता है संक्षिप्त वर्णन होने के कारण शब्दों में अर्थ का गांभीर्य होता है। शैली लाक्षणिक होती है- अर्थात् शब्द का सीधे अर्थ के अलावा लक्षणा तथा व्यंजना शब्द-शक्तियों का ज्यादा उपयोग होता है। सच में बिहारी का वाग्वैदग्ध्य (वाणी की अभिव्यंजना शक्ति की परिपक्वता) अनुपम है। भाव कविता में प्रधान होता है, पर व्यक्त करने की शैली भी उत्तम होनी चाहिए। बिहारी की रचना में दोनों बराबर हैं। इसीलिए उनकी कविता सर्वाधिक लोकप्रिय है। उनकी कविता अत्यंत प्रभावशाली है।

बिहारी दरबारी कवि थे। शृंगार उनका मुख्य विषय है। नीति, भक्ति, आदि के दोहे भी मिल जाते हैं। उनको दरबार में पढ़े हर दोहे के लिए एक अशर्फी मिलती थी। राजा लोग शृंगारिक कविता सुनना पसंद करते थे।

बिहारी नारी के रूप सौंदर्य वर्णन में पारंगत थे। नर- नारी के जीवन में आनेवाले मनोभावों के, प्रेम-व्यापारों के चित्रवत् वर्णन करते थे। वे संस्कृत, प्राकृत के साथ उर्दू-फारसी के अच्छे विद्वान थे। जनभाषा हिंदी के पारखी थे। इसलिए उनकी भाषा विषयानुकूल थी और भावाभिव्यक्ति में सक्षम। कवि को बहुत ज्ञानी होना चाहिए, बिहारी वैसे ही थे। उनमें चमत्कार प्रदर्शन कम, रसात्मक संप्रेषण अधिक है। ऐसे कवि दुर्लभ होते हैं।

दीर्घ उत्तर मूलक प्रश्नः

1. राधा के तन की द्युति पड़ने से क्या होता है?

उत्तर – राधा के तन की द्युति साँवले कृष्ण पर पड़ने से कृष्ण का साँवला रंग हरे रंग में परिवर्तित हो जाता है। यहाँ हरा रंग प्रसन्नता का सूचक है। कृष्ण राधा से इतना स्नेह करते हैं कि उन्हें उनसे मिलने की प्रबल इच्छा बनी रहती है।

2. स्याम रंग में बूड़ने से उज्ज्वल कैसे होता है?

उत्तर – स्याम रंग कृष्ण का रंग है और जो भी कृष्ण से प्रेम करते हैं उनके हृदय में निहित मलिनता, ईर्ष्या, द्वेष, क्लेश, दुर्भावना, व्यभिचार आदि दुर्गुण कृष्ण की भक्ति के कारण सदा-सर्वदा के लिए दूर हो जाते हैं और वह उज्ज्वल हो जाता है।  

3. कुंज का पग पग प्रयाग बन गया है, कैसे?

उत्तर – बिहारी कहते हैं कि जिस प्रकार प्रयाग में गंगा का उज्जवल जल, यमुना का श्याम वर्णीय जल और सरस्वती का लाल वर्णीय जल मिलकर त्रिवेणी की संरचना करता है और विश्वप्रसिद्ध प्रयाग के रूप में जाना जाता है। उसी प्रकार ब्रज में राधा का उज्ज्वल वर्ण, कृष्ण का श्याम वर्ण और भक्तों की भक्ति को लाल वर्ण माना जाता है और इन तीनों वर्णों के मेल के कारण ब्रज का प्रत्येक कुंज और पग-पग प्रयाग के समान ही पवित्र और पूजनीय है।  

4. हरि का छबि – जल नैन पर पड़ने से उसकी क्या दशा हुई?

उत्तर – हरि का छबि – जल अर्थात् कृष्ण के रूप माधुर्य का प्रभाव जब भक्तों के नैनों में समाता है तो भक्त कृष्ण के भक्ति से सराबोर हो उठते हैं। कृष्ण की भक्ति में डूबते हैं, तैरते हैं, प्रसन्नता के कारण उनकी आँखों से कभी-कभी आँसू छलक पड़ते हैं।   

5. ‘दृग उरझत’ की परिणति क्या होती है?

उत्तर – यौवनावस्था में प्रेम प्रभाव के कारण जब युगलों की आँखें चार होती हैं तब यह चौतरफा चोट करता है। पहले तो प्रेम भाव की सृष्टि होती है, दूसरा कुटुंबों से रिश्ता टूट जाता है, तीसरा ईर्ष्यालु व्यक्तियों के हृदय में साँप लोटने लगता है। चौथा अनेक उलझनें शुरू होने लगती हैं।  

6. ‘नैननु हीं सब बात’ कैसे होती है?

उत्तर – बिहारी कहते हैं कि जो प्रेमी हृदय प्रेम में होते हैं वे भरी महफिल में अनेक लोगों की उपस्थिति में भी आँखों की भाषा में ही अनेक बातें कर लेते हैं और दूसरों को पता भी नहीं चलता है। इसलिए कहा गया है ‘नैननु हीं सब बात’ अर्थात् नैनों से ही सारी बातें हो जाती हैं।

7. ‘बतरस के लालच’ से राधा ने क्या किया?

उत्तर – राधा तथा अन्य गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में पागल हो चुकी थीं। वे तो किसी भी तरह केवल कृष्ण के समीप रहकर उनसे बातें करना चाहती थीं। इसीलिए उन्होंने कृष्ण की बाँसुरी छिपा दी है ताकि कृष्ण अपने बाँसुरी वापस लेने के लिए उनसे बातें करें।

8. ‘दाघ निदाघ’ में क्या हुआ?

उत्तर – बिहारी कहते हैं कि जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो लोग आपसी शत्रुता को भुला देते हैं। गर्मी के मौसम में जब प्रचंड गर्मी पड़ रही थी तो एक दूसरे के परम शत्रु मोर और साँप तथा हिरण और शेर एक ही पेड़ की छाया के नीचे अपनी शत्रुता भुलाकर मित्रवत् बैठे हुए थे।     

9. ‘पिय की पाती’ को पाकर नायिका ने क्या किया?

उत्तर – ‘पिय की पाती’ अर्थात् प्रिय का पत्र पाकर पहले तो नायिका बहुत ही ज़्यादा खुश हो जाती है। जब पत्र आया तो नायिका ने उसे आदरपूर्वक हाथ में ले लिया, उसे चूमा, फिर उसे सिर पर लगाया अर्थात् सम्मान किया, फिर उसे छाती से लगाया अर्थात् अपनी विरह – ज्वाला को मिटाया फिर बाँहों में भर लिया। नायिका उसे देखती रही फिर प्यार से पढ़ने लगी फिर अपनी अमूल्य संपत्ति मानकर समेट-सहेजकर रख दिया। 

10. कृष्ण का मन आज भी यमुना के तीर पर क्यों जाता है?

उत्तर – वृंदावन चले जाने के बाद भी उन्हें यमुना के तीर की याद आती है क्योंकि वहाँ की प्रकृति बहुत सुखद थी। यहीं पर वे संध्या बेला में बाँसुरी वादन किया करते थे। राधा से मिला करते थे। कृष्ण के मन में उसकी सुख-स्मृति जागृत हो रही है। यमुना का सुंदर किनारा, घने कुंजों की छाया जो अत्यंत सुखकर थी, शीतल, सुगंधित, धीर हवा के झोंकों को वे सदा याद करते हैं। प्रेम की स्मृति सर्वदा जाग्रत अवस्था में ही रहती है।

1. अनुरागासक्त चित्त की गति कैसी होती है?

उत्तर – कृष्ण के अनुराग से अनुरागासक्त चित्त जैसे-जैसे कृष्ण की भक्ति में डूबता जाता है वैसे-वैसे यह उज्ज्वल होता जाता है। 

2. बिहारीलाल की कौन-सी छबि कवि अपने मन में बिठाये रखना चाहता है?

उत्तर – कवि बिहारी श्रीकृष्ण के उस रूप को अपने मन में बिठाना चाहते हैं जब कृष्ण के सिर पर मोर के पंखों से बना मुकुट शोभा पा रहा है, कमर पर पीले वस्त्र धरण किए हैं। हाथ में मुरली है। उर या छाती में वैजयंती माला झूल रही है। बिहारीलाल विनती करते हैं कि हे बाँके बिहारी श्रीकृष्ण आपका यह सुंदर मनोहर रूप, मेरे मन में सदा-सर्वदा बैठा रहे।

3. हरि की छबि देखन के बाद नयन की क्या गति होती है?

उत्तर – जिस प्रकार आँखों में नमी हमेशा बनी रहती है उसी प्रकार बिहारी कहते हैं कि जब से वह कृष्ण के सौंदर्य जल से सराबोर हो गए हैं, तभी से एक क्षण के लिए भी वह इनसे अलग नहीं हो सके हैं। अर्थात् उनकी आँखों में अब कृष्ण की भक्ति का जल समा चुका है। उनकी आँखें प्रेम भक्ति से भरती हैं और कभी उसी में डूब जाती हैं। कभी आँसू छलक जाते हैं। अर्थात् कृष्ण के शोभाजल में ही डूबती, तैरती रहती हैं।

4. जाड़े की रात में सखियाँ विरहिणी के पास कैसे जाती हैं?

उत्तर – यहाँ नायिका प्रिय के वियोग से तापित है। उसका उत्ताप इतना अधिक है कि सखियाँ उसके पास जाने से डरती हैं। लेकिन क्या करें? स्नेहभाव के कारण जाना ही पड़ता है। इसलिए जाड़े की रात में भी कहीं गोपियाँ उत्ताप से भस्म न हो जाएँ इसलिए गीले वस्त्र पहन कर साहस करके स्नेह हेतु वे सखी नायिका के पास जाती हैं।  

5. आँखें सर्वदा दुखी ही हैं, क्यों?

उत्तर – नववधू अपनी सखी से कहती हैं कि मेरी आँखें सर्वदा दुखी ही रहती हैं क्योंकि सच में, विधाता ने मेरे आँखों के भाग्य में सुख ही नहीं लिखा है। प्रिय के रूप-माधुरी को मैं लज्जावश मैं देख नहीं पाती और देखे बिना भी रहा नहीं जाता। नहीं देख पाने से विरह के कारण मैं आकुल हो उठती हूँ।

1. राधा कृष्ण की मुरली क्यों छिपा देती है?

(क) बात करने के लोभ से

(ख) खुद बजाने की इच्छा से

(ग) मजाक करने के लिए

(घ) भौंहों से हँसने के लिए

उत्तर – (क) बात करने के लोभ से

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