दुष्यंत कुमार – हो गई है पीर पर्वत-सी

दुष्यंत कुमार

(1931 – 1975)

उर्दू की लोकप्रिय विधा ‘गज़ल’ का हिंदी में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज यह तेजी से लोकप्रिय हो रही है और इसका श्रेय दुष्यंत कुमार को है। उन्होंने अपने ढंग से समकालीन जीवन पर गज़लों के माध्यम से टिप्पणी की है। शब्द-समूह और मुहावरा हिंदी का है। फलतः उनकी गज़ल का प्रभाव गहरा और स्थायी होता है। उनकी गज़ल में एक ओर मस्ती और जिंदादिली है, वहीं दूसरी ओर तीखापन लिए एक गहराई भी होती है।

श्री दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म 27 सितंबर सन् 1931 में उत्तर प्रदेश के ‘नवादा’ गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम श्री भगवत सहाय और माता का नाम श्रीमती रामकिशोरी था। इनका पारिवारिक व्यवसाय ‘कृषि’ रहा है। वे स्वभाव से बड़े निर्भीक, विद्रोही और अलमस्त थे। दुष्यंत जी पर हरिवंश राय बच्चन और राष्ट्रकवि दिनकर का प्रभाव था। साथ ही नई कविता के कवियों में गजानन माधव मुक्तिबोध से भी दुष्यंत जी प्रभावित थे। एम.ए. करते समय दुष्यंतजी ने अपने महाविद्यालय के जीवन में ‘बिहान’ नामक एक छोटी पत्रिका का संपादन भी किया था।

हिंदी गज़ल के क्षेत्र में दुष्यंत जी को युग निर्माता कहा जाता है। हिंदी गज़ल लिखने से पहले वे नयी कविता के समर्थ कवि के रूप में परिचित हैं। रामशेर बहादुर सिंह एवं त्रिलोचन शास्त्री की हिंदी गज़लों से उन्हें प्रेरणा मिली। ‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए वन का वसंत’ आदि उनकी चर्चित काव्य कृतियाँ हैं। नयी कविता में निहित कृत्रिमता, अति बौद्धिकता एवं शब्दों की काँट-छाँट से ऊबकर उन्होंने अपनी भावभूमि के लिए गज़ल जैसी नाजुक, सरस और समतल धरातल की तलाश की। अपनी अभिव्यक्ति को आम आदमी तक सीधे-सीधे पहुँचाने के लिए उन्होंने गज़ल जैसी विधा को अपनाया है।

‘साये में धूप’ उनका गज़ल संग्रह है जो 1975 में प्रकाशित हुआ। इसकी भाषा बोलचाल की है और यह हिंदी गज़ल क्षेत्र में अपना मूर्द्धन्य स्थान रखता है। अपनी दोहरी तकलीफ को आम आदमी तक आसानी से पहुँचाने के लिए उन्होंने आम बोली का उपयोग किया है ताकि अभिव्यक्ति सहज हो सके। ज्यादातर उर्दू के प्रचलित शब्दों को उन्होंने अपनाया है। अपनी गज़लों में उन्होंने सामाजिक एवं राजनीतिक संदर्भों को लिया है। साहित्य क्षेत्र में 1957 से कार्यरत इस सफल स्रष्टा का देहान्त 44 वर्ष की अल्पायु में 29 दिसम्बर 1975 को हुआ।

हो गई है पीर पर्वत सी

हो गई है पीर पर्वत – सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

‘हो गई है पीर पर्वत सी’ गज़ल में दुष्यंत कुमार वर्तमान शोषणपूर्ण व्यवस्था के प्रति विद्रोही चेतना को जगाना चाहते हैं। आज अन्याय- अत्याचार और शोषण की हद हो गई है, उसके खिलाफ असंतोष की आग भभक उठनी चाहिए। अब चुप नहीं रहना चाहिए। अचेत – बिखरी जन-चेतना की लाश में फिर से जान फूँकनी चाहिए। हरेक व्यक्ति के मन में इस भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति विरोध का सक्रिय भाव उत्तेजित होना चाहिए। “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं” यानी अब हड़ताल- मोर्चे आदि से काम नहीं चलेगा। व्यवस्था पूरी तरह से सड़-गल गई है; अतः उसे पूरी तरह बदलना जरूरी है। इसके लिए आवश्यकता है कि सबके दिलों में नवचेतना की अग्नि प्रज्वलित हो।   

पीर – पीड़ा,

बुनियाद – नींव, जड़,

हंगामा – शोर-शराबा

मकसद – उद्देश्य।

1. निम्नलिखित में से सही विकल्प चुनिए।

(क) ‘हो गई पीर पर्वत-सी कविता के रचयिता कौन हैं?

(i) मैथिलीशरण गुप्त

(ii) केदारनाथ सिंह

(iii) दुष्यंत कुमार

(iv) नागार्जुन

उत्तर – (iii) दुष्यंत कुमार

(ख) इस हिमालय से किसे निकलना चाहिए?

(i) गंगा को

(ii) यमुना को

(iii) गोदावरी को

(iv) महानदी को

उत्तर – (i) गंगा को

(ग) किसके हिलने की शर्त थी?

(i) दीवार

(ii) पेड़

(iii) बुनियाद

(iv) पर्वत

उत्तर – (iii) बुनियाद

(घ) कवि की कोशिश क्या है?

(i) प्रकृति बदलना चाहिए

(ii) जिंदगी बदलनी चाहिए

(iii) पोषाक बदलनी चाहिए

(iv) सूरत बदलनी चाहिए

उत्तर – (iv) सूरत बदलनी चाहिए

(ङ) आग कहाँ पर जलनी चाहिए?

(i) जमीन में

(ii) समुद्र में

(iii) सीने में

(iv) कपड़ों में

उत्तर – (iii) सीने में

(i) पीर को क्यों पिघलनी चाहिए?

उत्तर – पीर पर्वत-सी हो जाने के कारण पिघलनी चाहिए।

(ii) गंगा कहाँ से निकलनी चाहिए?

उत्तर – हिमालय से गंगा निकलनी चाहिए।

(iii) दीवार किस तरह हिलने लगी है?

उत्तर – दीवार परदे की तरह हिलने लगी है।

(iv) लाश कैसे चलनी चाहिए?

उत्तर – हाथ हिलाते हुए लाश को चलना चाहिए।

(v) आग कहाँ होती है?

उत्तर – आग को हर सीने में होना चाहिए।

(i) हर लाश को कहाँ और क्यों चलने की बात कही गई हैं?

उत्तर – हर लाश अर्थात् ऐसे व्यक्ति जो जीवन को यथारूप जीना ही अपनी नियति मान चुके हैं उनको क्रांति की राह पर चलने की बात कही गई है क्योंकि शोषकों के विरुद्ध आंदोलन करके उनकी सत्ता उखाड़ फेंकनी है।  

(ii) प्रस्तुत कविता में कवि का मकसद क्या है?

उत्तर – प्रस्तुत कविता में कवि दुष्यंत कुमार का यह मकसद स्पष्ट होता है कि वह समाज में समाजवाद स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए सभी शोषितों का आवाहन करते हुए कहते हैं कि हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। हमारी समस्या के समाधान के लिए हमारे अलावा कोई आगे नहीं आएगा।   

(i) दुष्यंत कुमार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर – दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के ‘नवादा’ गाँव में सन् 1931 को हुआ। प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन एवं दिनकर जी का प्रभाव ग्रहण करके उन्होंने अपनी रचनाएँ शुरू कर दीं। हिंदी गजल के क्षेत्र में इन्हें युग-निर्माता माना जाता है।

‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए बन का वसन्त’ और ‘साये में धूप’ उनके काव्य-संग्रह हैं। उर्दू के प्रचलित शब्द, बोलचाल की भाषा के कारण उनकी कविताएँ आदृत हुई हैं।

(ii) आज की स्थिति के बारे में दुष्यंत क्या कहते हैं?

उत्तर – दुष्यंत कुमार समकालीन समाज की अधोगति एवं विसंगतियों के बारे में बताते हैं कि समाज में दुख-दर्द बढ़ गया है, छोटी-मोटी समस्याओं का निराकरण न करके पूरी तरह जड़ से उसे सुधारना चाहिए। इसके लिए लोगों में जोश और जिन्दादिली होनी चाहिए। हँगामा और हड़ताल से काम नहीं चलेगा, क्रांतिकारी भावनाओं के साथ हमें सख्त रवैया अपनाना पड़ेगा तभी जाकर परिवर्तन लाया जा सकता है।

(iii) कविता के अंत में दुष्यंत जी क्या अपेक्षा रखते हैं?

उत्तर – कविता के अंत में दुष्यंत जी अपेक्षा रखते हैं कि हरेक व्यक्ति के मन में इस भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति विरोध का सक्रिय भाव उत्तेजित होनी चाहिए। “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं” यानी अब हड़ताल- मोर्चे आदि से काम नहीं चलेगा। व्यवस्था पूरी तरह से सड़-गल गई है; अतः उसे पूरी तरह बदलना जरूरी है। इसके लिए आवश्यकता है कि सबके दिलों में नवचेतना की अग्नि प्रज्वलित हो।    

(i) कवि के रूप में दुष्यंत कुमार का परिचय दीजिए।

उत्तर – हिंदी गज़ल के क्षेत्र में दुष्यंत जी को युग निर्माता कहा जाता है। हिंदी गज़ल लिखने से पहले वे नयी कविता के समर्थ कवि के रूप में परिचित हैं। रामशेर बहादुर सिंह एवं त्रिलोचन शास्त्री की हिंदी गज़लों से उन्हें प्रेरणा मिली। ‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए वन का वसंत’ आदि उनकी चर्चित काव्य कृतियाँ हैं। नयी कविता में निहित कृत्रिमता, अति बौद्धिकता एवं शब्दों की काँट-छाँट से ऊबकर उन्होंने अपनी भावभूमि के लिए गज़ल जैसी नाजुक, सरस और समतल धरातल की तलाश की। अपनी अभिव्यक्ति को आम आदमी तक सीधे-सीधे पहुँचाने के लिए उन्होंने गज़ल जैसी विधा को अपनाया है।

(ii) प्रस्तुत कविता का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – दुष्यंत कुमार वर्तमान शोषणपूर्ण व्यवस्था के प्रति विद्रोही चेतना को जगाना चाहते हैं। आज अन्याय- अत्याचार और शोषण की हद हो गई है, उसके खिलाफ असंतोष की आग भभक उठनी चाहिए। अब चुप नहीं रहना चाहिए। अचेत – बिखरी जन-चेतना की लाश में फिर से जान फूँकनी चाहिए। हरेक व्यक्ति के मन में इस भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति विरोध का सक्रिय भाव उत्तेजित होना चाहिए। “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं” यानी अब हड़ताल- मोर्चे आदि से काम नहीं चलेगा। व्यवस्था पूरी तरह से सड़-गल गई है; अतः, उसे पूरी तरह बदलना जरूरी है। इसके लिए आवश्यकता है कि सबके दिलों में नवचेतना की अग्नि प्रज्वलित हो।

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