रामधारी सिंह ‘दिनकर’
(23.09.1908-25.4.1974)
दिनकर जी का जन्म बिहार के बेगुसराय जिले में हुआ था। वे कई भाषाओं के जानकार थे। हिंदी, अंग्रेजी, बंगला, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाएँ वे अच्छी तरह लिख पढ़ लेते थे। इन्हें बिहार के शिक्षा विभाग में सहायक रजिस्ट्रार के रूप में नियुक्ति मिली थी। कुछ दिनों बाद वे बिहार सरकार के प्रचार विभाग में आ गए फिर जनसंपर्क विभाग में निर्देशक बने। कई दिनों तक तो वे महाविद्यालय में अध्यापन का काम करते रहे और विभागाध्यक्ष भी बने। 1952 में राज्यसभा के सदस्य चुने गए। सन् 1964 में भागलपुर विश्व विद्यालय में कुलपति भी बने। दिनकर जी भारत सरकार के हिंदी परामर्शदाता नियुक्त हुए। जीवन भर इनकी साहित्यिक सेवा चलती रही। इनकी काव्य-भाषा ओजस्विनी एवं प्रवाहमयी थी।
दिनकर की प्रमुख कृतियाँ- कुरुक्षेत्र, हुँकार, रेणुका, रश्मिरथी, नील कुसुम, परशुराम की प्रतीक्षा, उर्वशी, हारे को हरिनाम, संस्कृति के चार अध्याय, अर्द्धनारीश्वर, रेती के फूल, मिट्टी की ओर, शुद्ध कविता की खोज, वेणुवन आदि हैं।
पाठ परिचय –
प्रस्तुत निबंध के निबंधकार हैं रामधारी सिंह ‘दिनकर’। इस निबंध में निबंधकार ने ईर्ष्या की उत्पत्ति और उसके प्रभाव से मन में उपजनेवाले विकारों पर चर्चा की है। अपने इस निबंध में ईर्ष्या भाव को समझाने के लिए एक वकील और एक बीमा एजेंट का उदाहरण देते हुए निबंध को आगे बढ़ाया। वे कहते हैं कि वकील के पास मीठा बोलनेवाली पत्नी है। सुख देनेवाला नौकर है। उनका भरापूरा परिवार है, फिर भी वे सुखी नहीं हैं क्योंकि वकील की बगल में रहनेवाले बीमा एजेंट के पास अधिक सुविधाएँ हैं। मोटरकार, अधिक पैसा। सबकुछ अधिक है। वकील बीमा एजेंट की खुशियों को देखकर दुखी होते हैं। वे अपने सुखों से आनंद नहीं उठा पाते। हमेशा अपनी तुलना बीमा एजेंट से करके दुखी होते हैं। ऐसी स्थिति केवल वकील और बीमा एजेंट के साथ नहीं है, यह तो एक उदाहरण मात्र है। ईर्ष्या करनेवाले हर व्यक्ति की ऐसी दयनीय स्थिति होती है। व्यक्ति अपनी तुलना हमेशा दूसरों से करता है और अकारण दुखी होता है। इसलिए इस लेखन ने इस भाव को ईश्वर का अनोखा वरदान कहा है।
निबंधकार यह भी कहते हैं कि इस ईर्ष्या भाव के कारण हमारा मन संकुचित हो जाता है। हमें ईश्वर ने एक सुंदर बगीचे के समान जो खुशियाँ दी हैं, हम उसके लिए आनंदित नहीं होते। ईश्वर के प्रति कृतज्ञ नहीं होते, वरन् जितना है उससे अधिक खुशियाँ क्यों नहीं मिल रही हैं उसके लिए हमेशा परेशान रहते हैं। जिससे मनुष्य के चरित्र का पतन होता है। रात-दिन वह वही सोचता है। संसार विकास का रास्ता छोड़ कभी-कभी गुमराह हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह निरंतर दूसरे को हानि पहुँचाता रहता है। और उससे उसे आनंद भी मिलता रहता है।
लेखक ने कहा है कि ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निंदा है। ईर्ष्या करनेवाला व्यक्ति दूसरे की निंदा करने से नहीं हिचकिचाता। वह दूसरे की निंदा इसलिए करता है कि लोग उसे अच्छा समझें और जिसकी निंदा की जा रही है उसे बुरा समझें। पर सामान्यतः ऐसा नहीं होता। लेखक इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हम किसी दूसरे की निंदा कर, उसे समाज की आँखों में नीचे गिराकर अपने को अच्छा या श्रेष्ठ साबित नहीं कर सकते। वरन् इससे निंदा करनेवाले का ही नुकसान अधिक होता है। मनुष्य अपना विकास तो तभी कर सकता है जब वह अपने में सद्गुणों को विकसित करें।
निबंधकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि ईर्ष्या सबसे पहले ईर्ष्या करनेवाले व्यक्ति को ही जलाती है। ईर्ष्या करनेवाला व्यक्ति मानो ईर्ष्या की साक्षात् प्रतिमूर्ति होकर खड़ा होता है। वह जन कल्याण को छोड़कर अपनी सारी शक्ति दूसरे की निंदा में लगा देता है। ईर्ष्या करनेवाला व्यक्ति कभी आनंदित नहीं हो पाता। दूसरे को कष्ट पहुँचाकर ईर्ष्यालु व्यक्ति प्रसन्न होता है। उसकी उस खुशी और हँसी की तुलना लेखक ने राक्षस से की है। ईर्ष्या हमारे लिए लाभदायक तभी है जब हम किसी से ईर्ष्या कर कोई अच्छा काम करें। अपना और समाज का भला करें। ईर्ष्या भाव पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर तथा नीत्से के विचारों को भी लेखक ने उदाहरण के तौर पर दिया है। नीत्से ने निंदा करने वाले की तुलना सड़क पर भिनभिनाने वाली मक्खी से की है। वे कहते
हैं हममें जो सद्गुण है वह निंदा करने वाले के पास नहीं है। इसलिए वह हमारी निंदा करके हमें उसकी सजा देता है। निंदा करनेवाले तो ऐसे हैं कि अगर हम उदार बनकर उन्हें माफ कर देते हैं तो भी वे सोचते हैं कि हम उनसे नफरत करते हैं और यदि चुप रहते हैं तो वे यह सोचते हैं कि हम घमंडी हैं। ईर्ष्या से बचने के लिए लेखक ने मानसिक अनुशासन पर बल दिया है। इसका अर्थ है यदि हमारे पास कोई चीज नहीं है तो हम किसी से ईर्ष्या न करें, उसे प्राप्त करने की रचनात्मक चेष्टा करें इस प्रकार ईर्ष्या से बचें।
ईर्ष्या : तू न गयी मेरे मन से
ईर्ष्या : तू न गयी मेरे मन से
मेरे घर के दाहिने एक वकील रहते हैं, जो खाने-पीने में अच्छे हैं, दोस्तों को खिलाते हैं और सभा-सोसाइटियों में भी काफी भाग लेते हैं। बाल- बच्चों से पूरा परिवार। नौकर भी सुख देनेवाले और पत्नी भी अत्यंत मृदुभाषिणी। भला एक सुखी मनुष्य को और क्या चाहिए?
मगर, वे सुखी नहीं हैं। उनके भीतर कौन-सा दाह है, इसे मैं भली भाँति जानता हूँ। दरअसल उनकी बगल में जो बीमा एजेंट हैं, उनके विभव की वृद्धि से वकील साहब का कलेजा जलता रहता है। वकील साहब को भगवान ने जो कुछ दे रखा है, वह उनके लिए काफी नहीं दीखता। वह इस चिंता में भुने जा रहे हैं कि काश, एजेंट की मोटर, उसकी मासिक आय और उसकी तड़क-भड़क भी मेरी हुई होती।
ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनंद नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।
एक उपवन को पाकर भगवान् को धन्यवाद देते हुए उसका आनंद नहीं लेना, और बराबर इस चिंता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन
क्यों नहीं मिला, एक ऐसा दोष है जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते-सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।
ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निंदा है। जो व्यक्ति ईष्यालु होता है, वहीं व्यक्ति बुरे किस्म का निंदक भी होता है। दूसरों की निंदा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे और तब जो स्थान होगा, उस पर अनायास में ही बिठा दिया जाऊँगा।
मगर, ऐसा न आज तक हुआ है और न आगे होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निंदा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण अपने ही भीतर के सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निंदा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करे।
ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर, सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में ही रहते हैं कि कहाँ सुननेवाले मिलें कि अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक कांड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो, विश्व- कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। मगर, जरा उनके अपने इतिहास को भी देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरंभ किया है, तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि अगर वे निंदा करने के समय और शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज उनका स्थान कहाँ होता। ‘चिंता’ को लोग ‘चिता’ कहते हैं। जिसे किसी प्रचंड चिंता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की ज़िंदगी ही खराब हो जाती है। किंतु ईर्ष्या शायद चिंता से भी बढ़तर चीज है, क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालती है। मृत्यु, शायद, फिर भी श्रेष्ठ है बनिस्पत इसके कि हमें अपने गुणों को कुंठित बनाकर जीना पड़े। चिंता – दग्ध मनुष्य समाज की दया का पात्र है। किंतु ईर्ष्या से जला भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।
ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्युत, इससे मनुष्य के आनंद में भी बाधा पड़ती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सूर्य उसे मद्धिम-सा दीखने लगता है, पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो, वे देखने के योग्य नहीं हों।
आप कहेंगे कि निंदा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बेधकर हँसने में एक आनंद है और यह आनंद ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर यह हँसी मनुष्य की नहीं, राक्षस की हँसी होती है और यह आनंद भी दैत्यों का आनंद होता है।
ईर्ष्या का संबंध प्रतिद्वंद्विता से होता है, क्योंकि भिखमंगा करोड़पति से ईर्ष्या नहीं करता। वह एक ऐसी बात है जो ईर्ष्या के पक्ष में भी पड़ सकती है, क्योंकि प्रतिद्वंद्विता से भी मनुष्य का विकास होता है। किंतु, अगर आप संसार – व्यापी सुयश चाहते हैं तो आप, रसेल के मतानुसार, शायद, नेपोलियन से स्पर्धा करेंगे। मगर याद रखिए कि नेपोलियन भी सीजर से स्पर्धा करता था और सीजर सिकंदर से तथा सिकंदर हरकूलस से, जिस हरकूलस के बारे में इतिहासकारों का यह मत है कि वह कभी पैदा ही नहीं हुआ।
ईर्ष्या का एक पक्ष, सचमुच ही, लाभदायक हो सकता है, जिसके अधीन हर आदमी, हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वंद्वी का समकक्ष बनाना चाहता है। किंतु वह तभी संभव है, जब कि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो। अक्सर तो ऐसा ही होता कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करते हैं कि कोई चीज है, जो उनके भीतर नहीं है, कोई वस्तु है, दूसरों के पास है। किंतु वह यह नहीं समझ पाता है कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी, मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है, जबकि वे लोग भी अपने-आपसे, शायद, वैसे ही असंतुष्ट हों।
आपने यह भी देखा होगा कि शरीफ लोग, अक्सर, यह सोचते हुए अपना सिर खुजलाया करते हैं कि फलाँ आदमी मुझसे क्यों जलता है, मैंने तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ा और अमुक व्यक्ति इस कदर मेरी निंदा में क्यों लगा हुआ है? सच तो यह है कि मैंने सबसे अधिक भलाई उसी की की है।
वे सोचते हैं- मैं तो पाक-साफ हूँ, मुझमें किसी भी व्यक्ति के लिए दुर्भावना नहीं है, बल्कि अपने दुश्मनों की भी में भलाई ही सोचा करता हूँ। फिर ये लोग मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हैं? मुझमें कौन-सा वह ऐब है, जिसे दूर करके में इन दोस्तों को चुप कर सकता हूँ?
ईश्वरचंद्र विद्यासागर जब इस तजरुबे से होकर गुजरे तब उन्होंने एक सूत्र कहा, “तुम्हारी निंदा वही करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है।” और नीत्से जब इस कूचे से होकर निकला, तब उसने जोरों का एक ठहाका लगाया और कहा कि यार, ये तो बाजार की मक्खियाँ है, जो अकारण हमारे चारों ओर भिनभिनाया करती हैं। ये सामने प्रशंसा और पीछे-पीछे निंदा किया करती हैं। हम इनके दिमाग पर बैठे हुए हैं, ये मक्खियाँ हमें भूल नहीं सकती और चूँकि ये हमारे बारे में बहुत सोचा करती हैं इसलिए, ये हमसे डरती हैं और हम पर शंका भी करती हैं। ये मक्खियाँ हमें सजा देती हैं हमारे गुणों के लिए। ऐब को तो ये माफ कर देंगी, क्योंकि बड़ों के ऐब को माफ करने में भी एक शान है, जिस शान का स्वाद लेने को ये मक्खियाँ तरस रही हैं जिनका चरित्र उन्नत है, जिनका हृदय निर्मल और विशाल है, वे कहते हैं, ‘इन बेचारों की बातों से क्या चिढ़ना? ये तो खुद ही छोटे हैं।’ मगर, जिनका दिल छोटा और दृष्टि संकीर्ण है, वे मानते हैं कि जितनी भी बड़ी हस्तियाँ हैं, उनकी निंदा ही ठीक है और जब हम इनके प्रति उदारता और भलमनसाहत का बर्ताव करते हैं, तब भी वे यही समझते हैं कि हम उनसे घृणा कर रहे हैं और हम चाहे उनका जितना उपकार करें, बदले में हमें अपकार ही मिलेगा।
दरअसल, हम जो उनकी निंदा का जवाब नहीं देकर चुप्पी साधे रहते हैं, इसे भी वे हमारा अहंकार समझते हैं। खुशी तो उन्हें तभी हो सकती है, जब उनके धरातल पर उतरकर उनके छोटेपन के भागीदार बन जाएँ।
सारे अनुभवों को निचोड़कर नीत्से ने एक दूसरा सूत्र कहा, ‘आदमी में जो गुण महान् समझे जाते हैं, उन्हीं के चलते लोग उससे जलते भी हैं।’
तो इर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है? नीत्से कहता है कि “बाजार की मक्खियों को छोड़कर एकांत की ओर भागो। जो कुछ भी अमर तथा महान् है, उसकी रचना और निर्माण बाजार तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है। जो लोग नए मूल्यों का निर्माण करनेवाले हैं, वे बाजारों में नहीं बसते, वे शोहरत के पास भी नहीं रहते हैं। जहाँ बाजार की मक्खियाँ नहीं भिनकतीं, वह जगह एकांत है।”
यह तो हुआ ईष्यालु लोगों से बचने का उपाय। किंतु ईर्ष्या से आदमी कैसे बच सकता है? ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारें में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है? जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा जगेगी उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।
शब्दार्थ
1. ईर्ष्या – जलन/ दाह/ Jealous
2. सभा – Meeting
3. मृदुभाषिणी – मधुर बोलने वाली
4. दरअसल – वास्तव में / Actually
5. बीमा – Insurance
6. विभव – ऐश्वर्य
7. कलेजा हृदय –
8. मासिक – Monthly
9. अनोखा – विचित्र
10. वरदान – Boon
11. मौजूद – उपस्थित
12. पक्ष – Favour
13. दंश – डसना
14. लाचार – बेबस
15. वेदना – कष्ट
16. अभाव – कमी
17. निमग्न – सोचते रहना
18. दोष – कसूर
19. चरित्र – Character
20. उन्नति – तरक्की
21. सृष्टि – उत्पत्ति
22. प्रक्रिया – Process
23. उद्यम – कोशिश
24. हानि – क्षति
25. कर्तव्य – फ़र्ज़
26. निंदा – शिकायत
27. अनायास – बिना प्रयास के
28. रिक्त – खाली
29. रिक्थ – संपत्ति
30. ह्रास – कमी
31. निर्मल – स्वच्छ
32. द्वेष – क्लेश
33. मूर्ति – प्रतिमा
34. फिक्र – ज़रूरत
35. गुबार – भड़ास
36. ध्येय – उद्देश्य
37. बदतर – खराब
38. मौलिक – वास्तविक
39. कुंठित – Depressed
40. बनिस्पत – बजाय
41. मद्धिम – कम चमकदार
42. दैत्य – राक्षस
43. सुयश – कीर्ति
44. समकक्ष – बराबर
45. पाक – पवित्र
46. शरीफ़ – भद्र
47. दुर्भावना – बुरी भावना
48. सूत्र – Formula
49. शंका – Doubt
50. ऐब – कमी
51. तरस – Desperate
52. संकीर्ण – तंग / Narrow
53. हस्तियाँ – Personality
54. शोहरत – Fame
55. मानसिक – Mental
56. अनुशासन – Discipline
57. जिज्ञासा – जानने की कोशिश / Curiosity
58. चुप्पी साधना – मौन धारण करना
59. एकांत – अकेला
60. धरातल – Surface
पर्यायवाची
1. ईर्ष्या – जलन, डाह, द्वेष
2. कलेजा – हृदय, दिल
3. लाचार – बेबस, मजबूर
4. वेदना – कष्ट, पीड़ा, मलाल
5. उन्नति – तरक्की, प्रगति, विकास
6. उद्यम – कोशिश, प्रयास, प्रयत्न
7. निर्मल – स्वच्छ, साफ़
8. ध्येय – उद्देश्य, लक्ष्य, अभीष्ट
9. दैत्य – राक्षस, असुर, निशाचर
विलोम
1. वरदान # अभिशाप
2. पक्ष # विपक्ष
3. दोष # निर्दोष
4. चरित्र # दुश्चरित्र
5. उन्नति # अवनति
6. हानि # लाभ
7. कर्तव्य # अधिकार
8. निंदा # प्रशंसा
9. अनायास # सायास
10. रिक्त # पूर्ण
11. ह्रास # बढ़ोतरी
12. निर्मल # मल
13. दैत्य # देव
14. सुयश #अपयश
15. दुर्भावना # भावना
16. उपकार # अपकार
उपसर्ग / प्रत्यय
1. दरअसल – दर + असल
2. प्रक्रिया – प्र + क्रिया
3. निर्मल – निर्+ मल
4. अनुशासन – अनु+ शासन
5. सुयश – सु + यश
प्रत्यय
1. मासिक – मास + इक
2. मौलिक – मूल + इक
3. मानसिक – मानस + इक।
प्रश्न और अभ्यास :
1. सही विकल्प चुनिए।
(i) मेरे घर के दाहिने कौन रहते हैं?
(A) साहब
(B) क्लर्क
(C) वकील
(D) नेता
उत्तर – (C) वकील
(ii) किसकी पत्नी मृदुभाषिणी है?
(A) लेखक की
(B) वकील की
(C) बीमा एजेंट की
(D) सबकी
उत्तर – (B) वकील की
(iii) किसकी विभव – वृद्धि से वकील साहब का कलेजा जलता है?
(A) बीमा एजेंट
(C) लेखक
(B) वकील
(D) पड़ोसी
उत्तर – (A) बीमा एजेंट
(iv) ईर्ष्यालु व्यक्ति अपनी तुलना किससे करता है?
(A) अपने से
(B) घर के लोगों से
(C) माता-पिता से
(D) दूसरों से
उत्तर – (D) दूसरों से
(v) ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम क्या है?
(A) आक्रोश
(B) क्रोध
(C) निंदा
(D) निराशा
उत्तर – (C) निंदा
(vi) संसार में कोई भी मनुष्य किससे नहीं गिरता?
(A) लोभ
(C) हिंसा
(B) निंदा
(D) ईर्ष्या
उत्तर – (B) निंदा
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दीजिए।
(i) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निंदा क्यों करता है?
उत्तर – ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निंदा अपने को बड़ा और सही साबित करने के लिए करता है।
(ii) कौन सभा – सोसाइटी में काफी भाग लेते हैं?
उत्तर – वकील साहब सभा-सोसाइटियों में भी काफी भाग लेते हैं।
(iii) वकील साहब किस चिंता में भुने जा रहे हैं?
उत्तर – वकील साहब के बगल में जो बीमा एजेंट हैं, उनके विभव की वृद्धि से वकील साहब चिंता में भुने जा रहे हैं।
(iv) ईश्वर का दिया उपवन पाकर भी ईर्ष्यालु व्यक्ति किस चिंता में
निमग्न रहता है?
उत्तर – ईश्वर का दिया उपवन पाकर भी ईर्ष्यालु व्यक्ति बराबर इस चिंता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन उसे क्यों नहीं मिला।
(v) ईर्ष्या को लेखक ने दोष क्यों माना है?
उत्तर – लेखक ने ईर्ष्या को एक ऐसा दोष है जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते-सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।
(vi) ईर्ष्या से मनुष्य की किस चीज में बाधा पड़ती है?
उत्तर – ईर्ष्या से मनुष्य के आनंद में बाधा पड़ती है।
(vii) ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार क्या है?
उत्तर – निंदा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बेधकर हँसने में एक आनंद है और यह आनंद ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है।
(viii) जब ईश्वरचंद्र विद्यासागर इस तजरुबे से होकर गुजरे तो उन्होंने
क्या कहा?
उत्तर – ईश्वरचंद्र विद्यासागर जब इस तजरुबे से होकर गुजरे तब उन्होंने एक सूत्र कहा, “तुम्हारी निंदा वही करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है।”
(ix) ये तो बाजार की मक्खियाँ हैं ऐसा नीत्से ने किसके लिए कहा है?
उत्तर – ये तो बाजार की मक्खियाँ हैं ऐसा नीत्से ने ईर्ष्यालु व्यक्तियों के लिए कहा है।
(x) नीत्से ईर्ष्यालु व्यक्तियों से बचने का क्या उपाय बताते हैं?
उत्तर – नीत्से ईर्ष्यालु व्यक्तियों से बचने का उपाय बताते हैं कि “बाजार की मक्खियों को छोड़कर एकांत की ओर भागो। जो कुछ भी अमर तथा महान् है, उसकी रचना और निर्माण बाजार तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है।
(xi) ईर्ष्या से बचने का क्या उपाय है?
उत्तर – ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारें में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए।
3. तीन वाक्यों में उत्तर दीजिए
(i) ईर्ष्या सबसे पहले किसे जलाती है और कैसे?
उत्तर – ईर्ष्या सबसे पहले उसे जलाती है जिसके हृदय में इसका जन्म होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति द्वेष की साकार मूर्ति हैं और वे बराबर इस फिक्र में ही रहते हैं कि कहाँ सुननेवाले मिलें कि अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले ताकि अपने को सही और महान तथा दूसरों को नीचा तथा तुच्छ गिना सके।
(ii) चिंता को लोग चिता क्यों कहते हैं?
उत्तर – ‘चिंता’ को लोग ‘चिता’ कहते हैं क्योंकि जिसे किसी प्रचंड चिंता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की ज़िंदगी ही खराब हो जाती है। किंतु अगर यह चिंता ईर्ष्या से उत्पन्न होती है तो वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालती है।
(iii) ईर्ष्या से जला भुना आदमी जहर की एक चलती फिरती गठरी के समान है, कैसे?
उत्तर – ईर्ष्या से जला भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है। ऐसे व्यक्ति न तो खुद ही जीवन का आनंद ले पाते हैं और न ही अपने आस-पास के लोगों को लेने देते हैं। जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सूर्य उसे मद्धिम-सा दीखने लगता है, पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो, वे देखने के योग्य नहीं हों।
4. निम्न प्रश्नों के उत्तर लगभग दस-बारह वाक्यों में दीजिए।
(i) ईर्ष्या का अनोखा वरदान क्या है?
उत्तर – ईर्ष्या का अनोखा वरदान यह है कि जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनंद नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।
(ii) कोई सुनने वाला मिल जाए तो ईर्ष्यालु व्यक्ति क्या करता है?
उत्तर – कोई सुनने वाला मिल जाए तो ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने दिल का गुबार निकालने का मौका पा जाते हैं। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक कांड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो, विश्व- कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। वे खुद को श्रेष्ठ और सही साबित करते हैं तथा जिसकी निंदा कर रहे हैं उसे निकृष्ट और नीच। वास्तव में ऐसे लोग कभी भी आत्म-चिंतन करते ही नहीं हैं।
(iii) ईर्ष्या का संबंध प्रतिद्वंद्विता से कैसे है?
उत्तर – ईर्ष्या का संबंध प्रतिद्वंद्विता से होता है, क्योंकि भिखमंगा करोड़पति से ईर्ष्या नहीं करता। बल्कि वह तो किसी ऐसे भिखमंगे से ईर्ष्या करता है जो उससे ज़्यादा भीख एकत्रित कर लेता हो। दूसरी तरफ़ प्रतिद्वंद्विता से भी मनुष्य का विकास होता है। रसेल के मतानुसार जो संसार व्यापी सुयश चाहते हैं वे शायद, नेपोलियन से स्पर्धा करेंगे। मगर याद रखिए कि नेपोलियन भी सीजर से स्पर्धा करता था और सीजर सिकंदर से तथा सिकंदर हरकूलस से, जिस हरकूलस के बारे में इतिहासकारों का यह मत है कि वह कभी पैदा ही नहीं हुआ।
(iv) ईर्ष्या का कौन-सा पक्ष लाभदायक है?
उत्तर – ईर्ष्या का एक पक्ष, सचमुच ही, लाभदायक हो सकता है, जिससे हर आदमी, हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वंद्वी का समकक्ष बनाना चाहता है। और यह तभी संभव है, जब कि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो। ईर्ष्या करने वाले व्यक्ति अगर यह सोचे कि मुझे अपने अंदर गुणों का समावेश करके अपनी एक विशिष्ट पहचान बनानी है तो वह आत्म-उत्थान के बारे में सोचता है न कि जिससे ईर्ष्या करता है उसके पतन के बारे में। इसके विपरीत अक्सर तो ऐसा ही होता कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करते हैं कि कोई चीज है, जो उनके भीतर नहीं है, कोई वस्तु है, दूसरों के पास है। किंतु वह यह नहीं समझ पाता है कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी, मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है।
(v) ईर्ष्यालु व्यक्तियों के बारे में नीत्से ने क्या प्रतिक्रिया रखी है?
उत्तर – ईर्ष्यालु व्यक्तियों के बारे में नीत्से ने यह प्रतिक्रिया रखी है कि ये बाजार की मक्खियाँ है, जो अकारण हमारे चारों ओर भिनभिनाया करती हैं। ये सामने प्रशंसा और पीछे-पीछे निंदा किया करती हैं। हम इनके दिमाग पर बैठे हुए हैं, ये मक्खियाँ हमें भूल नहीं सकती और चूँकि ये हमारे बारे में बहुत सोचा करती हैं इसलिए, ये हमसे डरती हैं और हम पर शंका भी करती हैं। ये मक्खियाँ हमें हमारे गुणों के लिए सजा देती हैं।
(vi) जिनका चरित्र उज्ज्वल है वे क्या कहते हैं?
उत्तर – जिनका चरित्र उज्ज्वल और उन्नत है, जिनका हृदय निर्मल और विशाल है, वे ईर्ष्यालु व्यक्तियों के प्रति कहते हैं, “इन बेचारों की बातों से क्या चिढ़ना? ये तो खुद ही छोटे हैं।” यहाँ छोटे से तात्पर्य चिंतन शक्ति से है क्योंकि समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें अपने घर में क्या क्या चल रहा है ये तो पता नहीं होता पर पड़ोसी के घर की पल-पल की खबर रखने में ही अपनी शान समझते हैं।
(vii) हम निंदा का जवाब न देकर जब चुप्पी साधते हैं तो क्या होता है?
उत्तर – हम जब ईर्ष्यालु व्यक्तियों को उनकी निंदा का जवाब नहीं देकर चुप्पी साधे रहते हैं, इसे भी वे हमारा अहंकार समझते हैं। वास्तव में वे यह चाहते हैं कि हम उनके धरातल पर उतरकर उनके छोटेपन के भागीदार बन जाएँ। जब हम ऐसा नहीं करते हैं तो वे और क्रोधित हो जाते हैं और अबकी बार भारी मात्रा में हमारी निंदा करने लगते हैं।
इन सारे अनुभवों को निचोड़कर नीत्से ने एक सूत्र कहा, “आदमी में जो गुण महान् समझे जाते हैं, उन्हीं के चलते लोग उससे जलते भी हैं।”
(viii) ईर्ष्यालु व्यक्ति को अपने स्वभाव में परिवर्तन के लिए क्या
करना चाहिए?
उत्तर – ईर्ष्यालु व्यक्ति को अपने स्वभाव में परिवर्तन के लिए निम्नलिखित कार्य करने चाहिए –
उन्हें मानसिक अनुशासन का पालन करना चाहिए।
जो व्यक्ति ईष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारें में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए।
उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है?
इन प्रक्रियाओं का अनुकरण करते हुए उसके भीतर यह जिज्ञासा जगेगी कि उसे अपने स्तर पर भी बड़ा काम करना है और उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।
(ix) उपवन को पाकर भी ईष्यालु व्यक्ति क्या करता है?
उत्तर – एक उपवन को पाकर भी ईष्यालु व्यक्ति भगवान् को धन्यवाद देते हुए उसका आनंद नहीं लेता, और बराबर इस चिंता में निमग्न रहता है कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला। वास्तव में यह एक ऐसा दोष है जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते-सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।