जैनेंद्र कुमार – बाजार दर्शन

जैनेन्द्र कुमार

जन्म  : सन् 1905, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

प्रमुख रचनाएँ : परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवर्द्धन, मुक्तिबोध (उपन्यास); वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाज़ेब (कहानी—संग्रह); प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच—विचार, समय और हम (विचार—प्रधान निबंध—संग्रह)

प्रमुख पुरस्कार : साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारत—भारती सम्मान। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित

निधन  :     सन् 1990 में

यथार्थ को अंतिम सत्य के रूप में ओढ़कर जो अपने

को विवश मान बैठ सकता है, वही तो असमर्थ है।

पर जिसने स्वप्न के सत्य के दर्शन किए वह

यथार्थ की विकटता से कैसे निरुत्साहित हो सकता है?

हिंदी में प्रेमचंद के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित जैनेंद्र कुमार का अवदान बहुत व्यापक और वैविध्यपूर्ण है। अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से उन्होंने हिंदी में एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा—धारा का प्रवर्तन किया। परख और सुनीता के बाद 1937 में प्रकाशित त्यागपत्र ने इन्हें मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार के रूप में प्रभूत प्रतिष्ठा दिलाई। इसी तरह खेल, पाज़ेब, नीलम देश की राजकन्या, अपना—अपना भाग्य, तत्सत जैसी कहानियों को भी कालजयी रचनाओं के रूप में मान्यता मिली है।

कथाकार होने के साथ—साथ जैनेंद्र की पहचान अत्यंत गंभीर चिंतक के रूप में रही। बहुत सरल एवं अनौपचारिक—सी दिखनेवाली शैली में उन्होंने समाज, राजनीति, अर्थनीति एवं दर्शन से संबंधित गहन प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश की है। अपनी गांधीवादी चिंतन—दृष्टि का जितना सुष्ठु एवं सहज उपयोग वे जीवन—जगत से जुडे़ प्रश्नों के संदर्भ में करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है और वह इस बात का सबूत पेश करता है कि गांधीवाद को उन्होंने कितनी गहराई से हृदयंगम किया है।

बाज़ार दर्शन जैनेंद्र का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है, जिसमें गहरी वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का दुर्लभ संयोग देखा जा सकता है। हिंदी में उपभोक्तावाद एवं बाज़ारवाद पर व्यापक चर्चा पिछले एक—डेढ़ दशक पहले ही शुरू हुई है, पर कई दशक पहले लिखा गया जैनेंद्र का लेख आज भी इनकी मूल अंतर्वस्तु को समझाने के मामले में बेजोड़ है। वे अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाज़ार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। अगर हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक—ठीक समझकर बाज़ार का उपयोग करें, तो उसका लाभ उठा सकते हैं। लेकिन अगर हम ज़रूरत को तय कर बाज़ार में जाने के बजाय उसकी चमक—दमक में फँस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता है। इस मूलभाव को जैनेंद्र कुमार ने भाँति—भाँति से समझाने की कोशिश की है। कहीं दार्शनिक अंदाज़ में, तो कहीं किस्सागो की तरह। इसी क्रम में केवल बाज़ार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को उन्होंने अनीतिशास्त्र बताया है।

एक बार की बात कहता हूँ। मित्र बाज़ार गए तो थे कोई एक मामूली चीज़ लेने पर लौटे तो एकदम बहुत—से बंडल पास थे।

मैंने कहा – यह क्या?

बोले – यह जो साथ थीं।

उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ूँ ? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी।

पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस—पास माल—टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक—हिसाब देखिए, पर माल—असबाब मकान—कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेज़िंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है।

लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।

मैंने कहा – यह कितना सामान ले आए!

मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया, कहा – यह देखिए। सब उड़ गया, अब जो रेल—टिकट के लिए भी बचा हो!

मैंने तब तय माना कि और पैसा होता और सामान आता। वह सामान ज़रूरत की तरफ़ देखकर नहीं आया, अपनी ‘पर्चेज़िंग पावर’ के अनुपात में आया है।

लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक और भी महत्त्व का तत्त्व है, जिसे नहीं भूलना चाहिए। उसका भी इस करतब में बहुत—कुछ हाथ है। वह महत्त्व है, बाज़ार। मैंने कहा – यह इतना कुछ नाहक ले आए!   मित्र बोले – कुछ न पूछो। बाज़ार है कि शैतान का जाल है? ऐसा सजा—सजाकर माल रखते हैं कि बेहया ही हो जो न फँसे।

मैंने मन में कहा, ठीक। बाज़ार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़ है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाज़ार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!

कोई अपने को न जाने तो बाज़ार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।       

एक और मित्र की बात है। यह दोपहर के पहले के गए—गए बाज़ार से कहीं शाम को वापिस आए। आए तो खाली हाथ!

मैंने पूछा – कहाँ रहे?

बोले – बाज़ार देखते रहे।

मैंने कहा – बाज़ार को देखते क्या रहे?

बोले – क्यों?

बाज़ार! तब मैंने कहा – लाए तो कुछ नहीं!

बोले – हाँ पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या? सभी कुछ तो लेने को जी होता था। कुछ लेने का मतलब था शेष सब—कुछ को छोड़ देना। पर मैं कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता था। इससे मैं कुछ भी नहीं ले सका।

मैंने कहा – खूब!

पर मित्र की बात ठीक थी। अगर ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हो तो सब ओर की चाह तुम्हें घेर लेगी। और तब परिणाम त्रास ही होगा, गति नहीं होगी, न कर्म।

बाज़ार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुंबक  का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाज़ार की अनेकानेक चीज़ों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान ज़रूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फ़ैंसी चीज़ों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को ज़रूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान की गिल्टी की और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी?

पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा—सा उपाय है। वह यह कि बाज़ार जाओ तो खाली मन न हो। मन खाली हो, तब बाज़ार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाज़ार भी फैला—का—फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाज़ार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ—न—कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाज़ार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना।

यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत ज़रूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ट्टइच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दीखना बंद हो जाएगा? क्या आँख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन—भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठवाला योग है। शायद हठ—ही—हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम—रोम मूँदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हममें पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हममें गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई वही हो सकता है जो बलात् मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, खुद कुल नहीं है।

पड़ोस में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगत जी कहते हैं। चूरन बेचते हैं। यह काम करते, जाने उन्हें कितने बरस हो गए हैं। लेकिन किसी एक भी दिन चूरन से उन्होंने छः आने पैसे से ज़्यादा नहीं कमाए। चूरन उनका आस—पास सरनाम है। और खुद खूब लोकप्रिय हैं। कहीं व्यवसाय का गुर पकड़ लेते और उस पर चलते तो आज खुशहाल क्या मालामाल होते! क्या कुछ उनके पास न होता! इधर दस वर्षों से मैं देख रहा हूँ, उनका चूरन हाथों—हाथ बिक जाता है। पर वह न उसे थोक देते हैं, न व्यापारियों को बेचते हैं। पेशगी आर्डर कोई नहीं लेते। बँधे वक्त पर अपनी चूरन की पेटी लेकर घर से बाहर हुए नहीं कि देखते—देखते छह आने की कमाई उनकी हो जाती है। लोग उनका चूरन लेने को उत्सुक जो रहते हैं। चूरन से भी अधिक शायद वह भगत जी के प्रति अपनी सद्भावना का देय देने को उत्सुक रहते हैं। पर छह आने पूरे हुए नहीं कि भगतजी बाकी चूरन बालकों को मुफ़्त बाँट देते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी दे सके। कभी चूरन में लापरवाही नहीं हुई है, और कभी रोग होता भी मैंने उन्हें नहीं देखा है।

और तो नहीं, लेकिन इतना मुझे निश्चय मालूम होता है कि इन चूरनवाले भगत जी पर बाज़ार का जादू नहीं चल सकता।

कहीं आप भूल न कर बैठिएगा। इन पंक्तियों को लिखने वाला मैं चूरन नहीं बेचता हूँ। जी नहीं, ऐसी हलकी बात भी न सोचिएगा। यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरन वाले को श्रेष्ठ बताने की मैं हिम्मत कर सकता हूँ। क्या जाने उस भोले आदमी को अक्षर—ज्ञान तक भी है या नहीं । और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम—आप न जाने कितनी बड़ी—बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला भगत हम लोगों के सामने एकदम नाचीज़ आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाज़ार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग रहता है। पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य—शक्ति कुछ भी चलती होगी? क्या वह शक्ति कुंठित रहकर सलज्ज ही न हो जाती होगी?

पैसे की व्यंग्य—शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर—से—पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ—बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि ज़रा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है।

लेकिन क्या लोकवैभव की यह व्यंग्य—शक्ति उस चूरन वाले अकिंचित्कर मनुष्य के आगे चूर—चूर होकर ही नहीं रह जाती? चूर—चूर क्यों, कहो पानी—पानी।

तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय ही नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की क्रूरता को ही पिघला देता है?

उस बल को नाम जो दो पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता—फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।

एक बार चूरन वाले भगत जी बाज़ार चौक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय—जयराम किया। मैंने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाज़ार को किसी भाँति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक—बाज़ार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं। लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए—से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति—भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख, तुष्ट और मग्न, वह चौक—बाज़ार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े—बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो—चार अपने काम की चीज़ लीं, और चले आते हैं। बाज़ार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक—बाज़ार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। ज़रूरत—भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ—बाएँ भूखी—की—भूखी फैली रह जाती है क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस—पास अगर चाँदनी बिछी रहती है तो बड़ी खुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं।

यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ट्टपर्चेंजिग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति – शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी। इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई—भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक—दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाज़ार का, बल्कि इतिहास का; सत्य माना जाता है ऐसे बाज़ार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान—प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाज़ार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाज़ार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति—शास्त्र है।

आशय– मतलब

महिमा– महत्ता

माया– आकर्षण

ओट– सहारा

करतब– कला

बेहया– बेशर्म

हरज़– नुकसान

आग्रह– खुशामद

तिरस्कार– अपमान

मूक– मौन

परिमित– सीमित

अतुलित– अपार

विकल– व्याकुल

तृष्णा– प्यास

त्रास– दुख

ईर्ष्या– जलन

अनेकानेक– बहुत अधिक

बहुतायत– अधिक आयात (Import)

सेंक– तपन

खुराक– भोजन

कृतार्थ– अनुगृहीत

सनातन– जो हमेशा रहे

अकारथ– व्यर्थ, बेकार

संकीर्ण– तंग, Narrow

बलात्– बलपूर्वक

अखिल– संपूर्ण

अप्रयोजनीय – बिना मतलब का

सरनाम– प्रसिद्ध

पेशगी– अग्रिम राशि, Advance

नाचीज़– तुच्छ, छोटा

अपदार्थ– महत्त्वहीन

दारुण– भयंकर

लीक– रेखा

कृतघ्न– एहसान न मानने वाला

अपर– दूसरा

प्रतिपादन– वर्णन

सरोकार– मतलब

स्पृहा– इच्छा

अबलता– कमज़ोरी

कोसना– गाली देना

अभिवादन– नमस्कार

गाहक– ग्राहक, Customer

1. सही शब्द छाँट कर खाली स्थान भरिए-

(i) उनका _______ था कि यह पत्नी की महिमा है।

(A) आशय

(B) उद्देश्य

(C) सोच

(D) विचार

उत्तर –  (A) आशय

(ii) _______ पावर है।

(A) घर

(B) बच्चे

(C) सोना

(D) पैसा

उत्तर – (D) पैसा

(iii) वे _______ सामान को फिजूल समझते हैं।

(A) घर के

(B) अपने

(C) फिजूल

(D) पराये

उत्तर – (C) फिजूल

(iv) बाज़ार  _______ करता है।

(A) अमान्त्रित

(B) खेल

(C) सजा

(D) प्रताड़ित

उत्तर – (A) अमान्त्रित

(v) बाज़ार में एक _______ है।

(A) आकर्षण

(B) जादू

(C) लोभ

(D) लगाव

उत्तर – (A) आकर्षण

(vi) यहाँ एक अंतर _______ लेना जरूरी है।

(A) देख

(B) परख

(C) चीह्न

(D) समझ

उत्तर – (C) चीह्न

(vii) देखते-देखते उनकी _______ आने की कमाई होजाती थी।

(A) पाँच

(B) आठ

(C) दो

(D) छह

उत्तर – (D) छह

(viii) पैसा उसके आगे होकर _______ तक माँगता है।

(A) भीख

(B) प्राण

(C) दया

(D) जीवन

उत्तर – (A) भीख

(ix) चाँदनी चौक का _______ उन पर व्यर्थ होकर बिखर रहता है।

(A) ग्रहण

(B) आमंत्रण

(C) प्रवर्तन

(D) सम्बोधन

उत्तर – (B) आमंत्रण

(x) चूरनवाले भगत जी पर _______ जादू नहीं चल सकता।

(A) अपनों का

(B) घर का

(C) पत्नी का

(D) बाज़ार का

उत्तर – (D) बाज़ार का

(i) पावर का रस किसमें है?

उत्तर – ‘पर्चेज़िंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है।

(ii) बाज़ार आमन्त्रित कर क्या कहता है?

उत्तर – बाज़ार आमन्त्रित करके यह कहता है कि मेरा रूप देखो अर्थात् मुझे देखो और मेरे मोह जाल में फँसकर मुझे खरीदो। 

(iii) ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण कैसे होता है?

उत्तर – ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है।

(iv) अपने को न जानने पर बाज़ार मनुष्य को कैसा बना देता है?

उत्तर – कोई अपने को न जाने तो बाज़ार उसे कामना से विकल, पागल, असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर सदा के लिए बेकार बना देता है।       

(v) बाज़ार का जादू किस राह से काम करता है?

उत्तर – बाज़ार का जादू आँखों की राह से काम करता है।

(vi) बाज़ार रूप का जादू क्यों है?  

उत्तर – बाज़ार रूप का जादू है क्योंकि बाज़ार अपने आपको इस तरह से सजा-धजा कर रखता है कि प्राय: लोग इसके आकर्षण के मोह जाल में फँस जाते हैं।

(vii) बाज़ार की जादू की जकड़ से बचने का सीधा उपाय क्या है?

उत्तर – बाज़ार की जादू की जकड़ से बचने का सीधा उपाय यह है कि हम जब भी बाज़ार जाएँ लक्ष्य से भरे मन के साथ बाज़ार जाएँ।

(viii) शून्य होने का अधिकार किसका है?

उत्तर – शून्य होने का अधिकार उनके पास है जिन्होंने अपना मन बंद कर लिया है। ऐसे लोग केवल साधु और महात्मा ही होते हैं।

(ix) सच्चा ज्ञान क्या करता है?

उत्तर – सच्चा ज्ञान हमें हमारी अपूर्णता के बोध को हममें गहरा करता है। अर्थात् हमें यह बताता है कि हम साधारण मनुष्य हैं और हम पूर्ण नहीं है हमें किसी न किसी पर किसी न किसी काम के लिए आश्रित रहना ही पड़ेगा। 

(x) मनमानेपन की छूट मन को क्यों नहीं होना चाहिए।

उत्तर – मनमानेपन की छूट मन को नहीं होनी चाहिए क्योंकि मन सदा नीचे की ओर जाता है और हमें यह बाज़ार से अनर्गल, अनावश्यक चीज़ें खरीदवा देता है।

(xi) बाज़ार को सार्थकता कौन देता है?

उत्तर – बाज़ार को सार्थकता भगत जी जैसे लोग देते हैं जो लक्ष्य से भरे मन के साथ बाज़ार जाते हैं और केवल जरूरी चीज़ें खरीद कर वापस लौट आते हैं।

(xii) लेखक के मित्र ने बाज़ार को शैतान का जाल क्यों कहा?

उत्तर – लेखक के मित्र ने बाज़ार को शैतान का जाल कहा है क्योंकि बाज़ार में सामानों को इतने अच्छे तरीके से सजाया जाता है कि मन ललच जाता है और उस सामान को खरीद ही लिया जाता है। 

(i) लेखक पत्नी की महिमा के कायल क्यों है?

उत्तर – लेखक पत्नी की महिमा के कायल है क्योंकि महिला माया जोड़ती हैं। पत्नी के आगे पति की एक न चलती हैं और न ही चलेगी।  आदिकाल से इस खरीद-फरोख्त में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है।

(ii) संयमी व्यक्ति को लेखक बुद्धिमान क्यों मानते हैं?

उत्तर – संयमी व्यक्ति को लेखक बुद्धिमान मानते हैं क्योंकि संयमी व्यक्ति सोच-समझकर काम करते हैं। वे लक्ष्य से भरे मन के साथ बाज़ार जाते हैं और उन्हीं चीजों को खरीदते हैं ज उनके काम की हो।

(iii) बाज़ार के आमंत्रण पर चौक में आदमी को कैसा लगता है?

उत्तर – बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाज़ार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। उस  आदमी को लगने लगता है कि मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है।

(iv) यदि हमें बाज़ार की चाह घेर लेगी तो क्या होगा?

उत्तर – यदि हमें बाज़ार की चाह घेर लेगी तो बात ठीक नहीं होगी। अगर हमें ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हैं तो सब ओर की चाह हमें घेर लेगी। और तब परिणाम त्रास ही होगा, गति नहीं होगी, न कर्म होगा।

(v) जादू की सवारी से उतरते ही कैसा लगने लगता है?

उत्तर – जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फ़ैंसी चीज़ों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को ज़रूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान के पछतावे को और खुराक मिलती है। हमें यह भी पता चलता है कि हमने फिजूल के चीजों में अपने पैसे खर्च कर दिए।

(i) बाज़ार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या- क्या असर पड़ता है?

उत्तर – बाज़ार का जादू चढ़ने पर मनुष्य बाज़ार की आकर्षक वस्तुओं के मोहजाल में फँस जाता है। बाज़ार के इसी आकर्षण के कारण ग्राहक सजी-धजी चीज़ों को आवश्यकता न होने पर भी खरीदने को विवश हो जाता है। इस मोहजाल में फँसकर वह गैरज़रूरी वस्तुएँ भी खरीद लेता है। परंतु जब यह जादू उतरता है तो उसे ज्ञान होता है कि जो वस्तुएँ उसने आराम के लिए खरीदी थीं उल्टा वे तो उसके आराम में खलल डाल रही हैं।

(ii)बाज़ार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभर कर आता है?

उत्तर – बाज़ार में भगत जी के व्यक्तित्व का निम्नलिखित सशक्त पहलू उभरकर सामने आता है-

– उनका अपने मन के ऊपर नियंत्रण

-बाज़ार उन्हें कभी भी आकर्षित नहीं कर पाता वे केवल अपनी ज़रुरत भर सामान के लिए बाज़ार का उपयोग करते हैं।

-भगत जी जैसे व्यक्ति समाज में शांति लाते हैं क्योंकि इस प्रकार के व्यक्तियों की दिनचर्या संतुलित होती है और ये न ही बाज़ार के आकर्षण में फँसकर अधिक से अधिक वस्तुओं का संग्रह और संचय करते हैं जिसके फलस्वरूप मनुष्यों में न अशांति बढ़ती और न ही महँगाई। अत: समाज में भी शांति बनी रहती है।

(iii) ऊँचे बाज़ार के आमंत्रण से क्यों चाह जगती है?

उत्तर – ऊँचे बाज़ार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। बाज़ार के चौक में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। उसके यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है। उसे अपनी लघुता का अहसास होता है। दूसरों की तरह उसमें भी अधिकाधिक सामान बटोरने की स्पृहा जाग उठती है।

(iv) बाज़ार को लेखक ने जादू क्यों कहा है?

उत्तर – बाज़ार को लेखक ने जादू कहा है क्योंकि बाज़ार अपने-आप को कुछ इस तरह से सजा-धजा कर रखता है कि लोग उसके मोहजाल में फँस ही जाते हैं। फलस्वरूप अपने क्रय शक्ति का दुरुपयोग करते हुए अनावश्यक चीज़ें भी खरीद लेते हैं। दूसरी ओर अगर क्रय-शक्ति का अभाव हुआ तो अपने मन में उस चीज़ को खरीदने की चाह बना लेते हैं।  

(v) खाली मन पर बाज़ार का प्रभाव अधिक क्यों होता है?

उत्तर – खाली मन पर बाज़ार का प्रभाव अधिक होता है क्योंकि खाली मन और भरी जेब के साथ जब कोई बाज़ार जाता है तो बाज़ार की सारी चीज़ें उसी आवश्यक और सुख देने वाली प्रतीत होती हैं। इसी विश्वास के साथ वह अनर्गल चीजों को भी खरीद लेता है। इस तरह से दोतरफ़ा नुकसान होता है पहले तो पैसे का दूसरा समय का।   

(vi) बाज़ार के जादू की जकड़ से बचने का क्या उपाय है?

उत्तर – बाज़ार के जादू की जकड़ से बचने का सीधा उपाय यह है कि हम जब भी बाज़ार जाएँ तो लक्ष्य से भरे मन के साथ बाज़ार जाएँ और उन्हीं चीज़ों को खरीदे जो हमारे लिए आवश्यक है।

(vii) लेखक ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति को दारुण क्यों कहा है?

उत्तर – पैसे की व्यंग्य—शक्ति दारुण है। लेखक ने ऐसा कहा है क्योंकि पैदल चल रहे व्यक्ति के पास ही धूल उड़ाती मोटर निकलती है तो उस व्यक्ति को भी मोटर का स्वामी बनने की चाहत हो जाती है। लोग तो यहाँ तक सोच लेते हैं कि काश! मैं किसी अमीर घर में पैदा हुआ होता। इस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि ज़रा में अपने को अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है।

(viii) निर्बल ही धन की ओर क्यों झुकता है?

उत्तर – ‘निर्बल’ ही धन की ओर झुकता है। इस कथन में ‘निर्बल’ शब्द का अर्थ शरीर से कमजोर नहीं वरन् मन से कमजोर व्यक्तियों के लिए हुआ है। जो मन से कमजोर होते हैं और पैसे को ही सबकुछ मानते हैं वे पैसे को पाने के लिए किसी भी प्रकार का घृणित कार्य करने को तैयार हो जाते हैं।  

(ix) वह कौन-सा बल है जो व्यंग्य की क्रूरता को पिघला देता है?

उत्तर – वह स्पिरिचुअल, आत्मिक, धार्मिक, नैतिक बल है जो व्यंग्य की क्रूरता को पिघला देता है। इस कथन का प्रयोग वास्तव में भगत जी के लिए आया है जो अपने पास आए धन को भी ठुकरा देते हैं। भगत जी चूरन बेचते हैं और छह आने पूरे होने पर भगतजी बाकी चूरन बालकों को मुफ़्त बाँट देते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी दे सके।  

(x) अपने ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में मनुष्य क्या कर डालता है?

उत्तर – ‘पर्चेज़िंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। अपने पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में मनुष्य स्वाभिमान को सेंक देने के लिए अनाप-शनाप चीज़ें खरीद लेता है। कोठी-बँगला बना लेता है ताकि लोग उसे वैभवशाली माने। इसके अलावा वह ऐसे बहुत-से गैरज़रूरी चीज़ें भी करता है जिससे दूसरे उसकी रईसी का लोहा माने और वह अपनी प्रभुता इस दिखावटी जगत में कायम रख सके।    

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