कवि परिचय
जयशंकर प्रसाद
छायावाद के अग्रदूत जयशंकर प्रसाद (1889-1936) का जन्म बनारस के प्रसिद्ध तम्बाकू व्यापारी सूंघनी साहु परिवार में हुआ। पिता देवीप्रसाद व्यवसायी थे और काव्य- कला के प्रेमी भी। परंतु जब जयशंकर सिर्फ तेरह साल के थे पिता की मृत्यु हो गई। परिवार का बोझ किशोर जयशंकर पर पड़ा। पढ़ाई छूट गई, व्यवसाय चलाना पड़ा, मगर मन ज्ञान – चर्चा में, साहित्य – साधना में लगा रहा। पिता से मिले संस्कार और अपनी प्रचेष्टा से जयशंकर प्रसाद का व्यक्तित्व सुशिक्षित, भव्य और परिष्कृत हो गया। प्रसाद मानव जीवन, प्रकृति और नारी के सौंदर्य के सफल और अद्वितीय कवि हैं।
कविता- रचना ब्रजभाषा में शुरू हुई, मगर जल्दी ही खड़ीबोली के क्षेत्र में आ गए। आरंभिक कविताओं में ही जीवन के प्रति असीम प्रेम, मस्ती और आनंद के भाव मिलते हैं। ‘झरना’ और ‘पल्लव’ में प्राकृतिक सौंदर्य का संभार है। यहाँ मनुष्य और प्रकृति अंतर और बाहर से घनिष्ठ भाव से मेलजोल में हैं। ‘लहर’ में प्रौढ़ चिंतन है। ‘आँसू’ विरह काव्य है, इसके मानवीय भावों, नारी-सौंदर्य, प्रकृति का समन्वित मानवी रूप ने तत्कालीन युवामानस को मंत्रमुग्ध कर लिया। ‘कामायनी’ महाकाव्य है। हिंदी की अनमोल रचना है। जीवन में गुण-दोष, सुख-दुख, भोग-त्याग, भौतिकता-आध्यात्मिकता संघर्ष दिखाकर ‘कामायनी’ तापित मनुष्य को समरसता की भूमि कैलाश पर ले जाती है। इसमें भारतीय दर्शन और काव्यत्मकता का समन्वय पाया जाता है। सूक्ष्म भावों का सजीव चित्रण प्रसाद की विशेषता है। वे जागरण के कवि माने जाते हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद ने अनेक ऐतिहासिक नाटक लिखकर मानवीय संस्कृति, सभ्यता, दर्शन, चिंतन और समृद्ध जीवन का रसात्मक संस्करण प्रस्तुत किया है। ‘राज्यश्री’, ‘विशाखा’, ‘अजातशत्रु’, ‘जन्मेजय का नागयज्ञ आदि अनेक नाटक है। ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी जैसे अमर नाटकों के चरित्र और जीवन – कथा मार्मिक हैं।
उपन्यास तीन हैं – तितली, कंकाल और इरावती (असंपूर्ण)। ‘कंकाल’ में जयशंकर प्रसाद का कोमल कवि मन कठोर यथार्थ- जीवन में उतर पड़ा है।
कहानियाँ जीवन के विविध मानवीय मूल्यबोधों को उद्घाटित करती हैं। मधूलिका, चंपा, ममता, देवसेना, विजया, कल्याणी जैसी नारियाँ मानवीय मूल्यों अथवा दुर्बलताओं को उद्घाटित करके हमारी अत्यंत प्रिय बन जाती हैं।
जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में छायावादी कविता का वैभव आदर्श पूर्णता के साथ मिलता है। संस्कृत निर्मित भाषा – शैली, आदर्श विचार, रसात्मकता, जीवन- प्रेम, चित्रात्मक दर्शन- क्षमता, प्रतीक विधान, लाक्षणिकता आदि अनेक विशेषताएँ मिलकर उनके साहित्य को अद्भुत भव्यता और गौरव प्रदान करती हैं। प्रसाद तो प्रसाद ही हैं, अतुलनीय, अप्रतिम हैं।
प्रसाद का रचना-संसार :
काव्य – कानन कुसुम, महाराणा का महत्त्व, चित्राधार, प्रेमपथिक, झरना, आँसू, लहर, कामायनी।
नाटक – राज्यश्री, विशाख, अजातशत्रु, जन्मेजय का नागयज्ञ, कामना,
स्कंदगुप्त, एक घूँट, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
उपन्यास – कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)
कहानी संग्रह – काव्य, कला तथा अन्य निबंध।
कविता – ले चल वहाँ
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक ! धीरे धीरे !
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी ….
निश्छल प्रेम कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढो ले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो,
ताराओं की पाँति घनी रे
जिस गम्भीर मधुर छाया में….
विश्व-चित्र-पट चल माया में…
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख-सुख वाली सत्य बनी रे।
श्रम – विश्राम क्षितिज – बेला से…
जहाँ सृजन करते मेला से…
अमर जागरण उषा – नयन से…
बिखराती हो ज्योति घनी रे…।
शब्दार्थ :
भुलावा देकर – बहला फुसला कर समझा-बुझाकर
नाविक – नावचालक कर्णधार
निर्जन – जहाँ भीड़ नहीं है
अम्बर – आकाश
निश्छल – बिना किसी कपट या दुराव के
अवनी – पृथ्वी, संसार
कोलाहल – शोरगुल
काया – तन, शरीर
उषा – सुबह
ढोना – उठाना
घनी – काफी संख्या में
मधुर छाया – मोहक सुखकर स्थान
पाँति – पंक्ति, कतार
विभुता – ज्योतिर्मय वैभव
श्रम – विश्राम – मेहनत और आराम
क्षितिज-बेला – दिगंत व्यापी समुद्रतट, सूरज के ढलने का समय
ज्योति – लौ, उजाला
संदर्भ और प्रसंग
प्रस्तुत कविता : गीत ‘लहर’ (1935 ई.) काव्य संग्रह में संगृहीत है। इस गीत की रचना 19 दिसंबरर 1931 ई. को जगन्नाथपुरी में हुई थी। इसका प्रथम प्रकाशन 11 फरवरी, 1932 ई. को साप्ताहिक पत्र ‘जागरण’ (बनारस) में हुआ था। जयशंकर प्रसाद की यह कविता ‘पलायनवादी’ होने के आरोप से जुड़ी रही है। इस कविता में प्रसाद नाविक (नियति, प्रारब्ध आदि के अर्थ में) को संबोधित करके कह रहे हैं कि मुझे एक ऐसी जगह पर ले चलो जहाँ सांसारिक झगड़े न हों। जहाँ मैं प्रकृति के मूल रूप को अपनी आँखों से देख सकूँ अपने कानों से सुन सकूँ और अपने हृदय की गहराइयों से महसूस कर सकूँ। इस कविता में ‘वहाँ’ से तात्पर्य वैसी दुनिया से है, जहाँ मनुष्य के संघर्षमय माहौल को स्थगित किया जा सके।
एक तरह से प्रसाद का यह कल्पित लोक है, जहाँ प्रकृति अपने अनुभूतिमय रूप में उपस्थित है और मनुष्य का हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं है।
व्याख्या
जयशंकर प्रसाद इस कविता में एक ऐसे लोक की कल्पना करते हैं, जहाँ धरती का कोलाहल बिल्कुल न हो और प्रकृति अपने मूल रूप में दिखाई पड़ रही हो। प्रकृति का यह रूप हमारी अनुभूतियों को विस्तार देता हो, ताकि हम अपने स्वाभाविक रूप के नजदीक पहुँच सकें। मगर, यह जगह होगी कहाँ? प्रसाद ने वह जगह तो ठीक-ठीक नहीं बताई है, मगर उस जगह के लक्षणों के बारे में बताया है और नाविक से आत्मीयतापूर्वक कहा कि उस जगह पर ले चलो। यह नाविक कौन है? प्रसाद उससे अपनापन प्रकट करते हुए कहते हैं- ‘मेरे नाविक।’। छायावाद की प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए प्रायः यही निष्कर्ष निकाला गया है कि यह नाविक हम सब की ‘नियति’ है या ‘प्रारब्ध है। इसे हम ‘भाग्य’ या ‘तकदीर’ भी कह सकते हैं। प्रसाद ‘नियतिवादी’ भी कहे गए हैं। सारांश यह कि प्रसाद चाहते हैं कि काश मैं संयोग से (नियति के सहारे) ऐसी जगह पहुँच पाता, जहाँ धरती के संघर्ष नहीं होते और प्रकृति अपने मूल रूप में अनुभूतिमयी बनकर हमारे सामने होती।
प्रसाद कहते हैं कि हे मेरे नाविक। मुझे भुलावा देकर धीरे-धीरे ‘वहाँ’ ले चलो। मुझसे बताने की जरूरत नहीं है कि उस जगह पर तुम किस रास्ते से ले कर चलोगे। मुझे अनजान ही रहने दो। मैं इस उलझन / बहस में भी पड़ना नहीं चाहता कि कौन-सा रास्ता मुझे ‘वहाँ’ पहुँचा पाएगा। तुम सहज भाव से धीमे-धीमे ले चलते हुए उस जगह तक पहुँचा दो। वह मेरी अभीष्ट जगह है। मैं वहाँ पहुँचकर उन तमाम आवरणों को फेंक देना चाहता हूँ, जो धरती के संघर्षों के कारण हमारे ऊपर चढ़ जाते हैं।
अगली पंक्तियों में वे उस जगह के लक्षणों के बारे में बताते हैं। उस जगह की पहचान बताते हुए वे कहते हैं कि मुझे उस निर्जन जगह पर ले चलो, जहाँ सागर की लहरी, अंबर के कानों में निश्छल प्रेम की गहरी कथा कहती हो और वहाँ पर धरती का कोलाहल बिल्कुल न हो। धरती के संघर्षों से दूर अपने प्राकृतिक स्वभाव में प्रेम को देखने की अभिलाषा कवि ने प्रकट की है।
मैं उस जगह पर ढलती हुई शाम के रूप को देखना चाहता हूँ, और महसूस करना चाहता हूँ कि शाम में, कैसे जीवन अपनी कोमल काया को विश्राम के लिए ढीला छोड़ देता है। जो जीवन दिन भर सक्रिय रहता है, वह शाम में विश्राम के लिए अपने शरीर को निष्क्रिय कर देता है। मैं इस दृश्य को देखना चाहता हूँ। मैं उस गहराती हुई शाम में तारों की पंक्तियों को निकलते हुए देखना चाहता हूँ और महसूस करना चाहता हूँ कि ये तारे ‘जीवन छाया’ के ढुलकते आँसुओं की तरह हैं। प्रकृति के ये दृश्य जीवन की छाया (प्रतिरूप / प्रतीक) के रूप में मेरे सामने घटित होते दिखाई पड़ें, ताकि मैं जान सकूँ कि मनुष्य का जीवन अपने प्राकृतिक रूप में किस तरह का है। यह भी समझ सकूँ की सांसारिक संघर्षों ने जीवन को कितना अस्वाभाविक बना दिया है।
यह सृष्टि विराट और गंभीर है। वह अपनी मधुरता और गंभीरता की छाया में अनेक चित्रों को समेटे हुए है। ये चित्र स्थिर चित्रों की तरह नहीं हैं, बल्कि गतिशील हैं। ये चित्र वास्तविक होते हुए भी चंचल माया की तरह अनेक रूप धारण करने की क्षमता रखते हैं। मैं सृष्टि के चित्रों के बीच प्रकृति की विराटता के प्रत्यक्ष रूप को देखना चाहता हूँ। ठीक वैसे ही, जैसे विराट को सीधे देखकर उसकी विराटता को महसूस करना। विभु की विभुता को अप्रत्यक्ष रूप से महसूस करने के कई उपाय हैं। हम लघु रूपों में भी विराटता को महसूस कर सकते हैं। मगर यह सब अप्रत्यक्ष ही रहता है। मैं प्रत्यक्ष रूप से विराट को देखकर उसकी विराटता को जानना चाहता हूँ। यह विराट सुख से बना है या दुख से? कवि का ख्याल है कि यह विराट सुख-दुख के सापेक्ष नहीं होता है। वह सत्य की तरह होता है, वह आनंद की तरह होता है, वह रस की तरह होता है। रामचंद्र गुणचंद्र ने रस के बारे में लिखा है, ‘सुखदुखात्मको रसः’। अर्थात् रस सुखात्मक भी होता है और दुखात्मक भी। रस मूलतः आनंद है, सुख-दुख की परिधि को तोड़कर मिलनेवाली तन्मयता और तल्लीनता। कवि उस विराट को देखना चाहता है जिसमें सुख भी है और दुख भी, मगर उसकी कसौटी है- सत्य।
हे नाविक। मुझे उस जगह पर पहुँचकर एक और दृश्य देखना और महसूस करना है। मैं रात के उस रूप को देखना चाहता हूँ जिसमें श्रम से थकी सृष्टि विश्राम कर रही हो। श्रम-विश्राम के मिलन-बिंदु की तरह बनी हुई उस रात को देखना चाहता हूँ। रात मानो ढल रही हो और क्षितिज के तट पर प्रभात अँगड़ाइयाँ ले रहा हो। रात के विश्राम के बाद पुनः सृष्टि के विभिन्न घटक सृजन के कामों में लगते हुए ऐसे दिखाई पड़ें मानो सुबह होते ही सृजन का मेला-सा लग गया हो। मैं सुबह के उस दृश्य को देखना चाहता हूँ कि कैसे उषा की आँखों से बरसती अखंड ज्योति, अमरण जागरण का संदेश लेकर आती है। हे नाविक। मुझे तुम ऐसी ही जगह पर ले चलो।
काव्य सौष्ठव / विशेष
यह पलायन का गीत नहीं है।
इसमें जीवन की आसक्ति से मुक्त होकर जीवन को समझने की कामना है। सांसारिक संघर्षो ने जीवन को वेदनामय बना दिया है।
कवि का विचार है कि यह जीवन अपने मूल रूप में आनंदमूलक है।
इसमें कवि की आकांक्षाओं का संसार व्यक्त हुआ है।
इस कविता की प्रत्येक पंक्ति में 16-16 मात्राएँ हैं। पहली पंक्ति को छोड़कर प्रत्येक पंक्ति के अंत में दीर्घ की मात्रा है।
प्रश्नोत्तर अभ्यास :
1. निम्नलिखित प्रश्नों से सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए:
(i) नाविक का विशेष अर्थ है –
(क) नाव चलानेवाला
(ख) मार्गदर्शक
(ग) जीवन साथी
(घ) नेता
उत्तर – (ख) मार्गदर्शक
2. एक / दो वाक्यों में उत्तर दीजिए :
(i) कवि कहाँ जाना चाहता है?
उत्तर – कवि सांसारिक बंधनों और उलझनों से दूर एक ऐसे स्थान पर जाना चाहता है जहाँ धरती का कोलाहल बिलकुल न हो।
(ii) कवि क्यों कोलाहलमय जीवन को छोड़ना चाहता है?
उत्तर – कवि धरती के बनावटी, दिखावटी, छल-प्रपंच से भरे वातावरण को छोड़कर धरती के संघर्षों से दूर अपने प्राकृतिक स्वभाव में प्रेम को देखने की अभिलाषा के कारण ही पृथ्वी कोलाहलमय जीवन को छोड़ना चाहता है।
(ii) कवि ने संध्या की क्या-क्या विशेषताएँ बताई हैं?
उत्तर – कवि ने संध्या की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं –
– शाम में, दिन भर सक्रिय जीवन अपनी कोमल काया को विश्राम के लिए ढीला छोड़ देता है।
– शाम में विश्राम के लिए शाम अपने शरीर को निष्क्रिय कर देता है।
– शाम में तारों की पंक्तियों को निकलती हैं।
3. इन प्रश्नों के उत्तर चार-पाँच वाक्यों में दीजिए
(i) कवि कहाँ और क्यों जाना चाहता है?
उत्तर – जयशंकर प्रसाद इस कविता में एक ऐसे लोक में जाने की कल्पना करते हैं, जहाँ धरती का कोलाहल बिल्कुल न हो और प्रकृति अपने मूल रूप में दिखाई पड़ रही हो। प्रकृति का यह रूप हमारी अनुभूतियों को विस्तार देता हो, ताकि हम अपने स्वाभाविक रूप के नजदीक पहुँच सकें। कवि वहाँ पहुँचकर उन तमाम आवरणों को फेंक देना चाहता है, जो धरती के संघर्षों के कारण उनके ऊपर चढ़ चुके हैं।
(ii) ‘नील गगन में ढुलकाती हो ताराओं की पाँत घनी रे’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर – ‘नील गगन में ढुलकाती हो ताराओं की पाँत घनी रे’ का अर्थ यह है कि कवि ऐसे दृश्य को देखना चाहता है जब गहराती हुई शाम में तारों की पंक्तियाँ निकल रही हों और कवि यह महसूस करना चाहते हैं कि ये तारे ‘जीवन छाया’ के ढुलकते आँसुओं की तरह हैं। प्रकृति के ये दृश्य जीवन की छाया प्रतीक के रूप में मेरे सामने घटित होते दिखाई पड़ें, ताकि मैं जान सकूँ कि मनुष्य का जीवन अपने प्राकृतिक रूप में किस तरह का है। यह भी समझ सकूँ की सांसारिक संघर्षों ने जीवन को कितना अस्वाभाविक बना दिया है।
(ii) विभु की विभुता सी छटाएँ कैसे दिखाई देती हैं?
उत्तर – विभु अर्थात् ईश्वर की विभुता को अप्रत्यक्ष रूप से महसूस करने के कई उपाय हैं। हम लघु रूपों में भी विराटता को महसूस कर सकते हैं। मगर यह सब अप्रत्यक्ष ही रहता है। कवि प्रत्यक्ष रूप से विराट को देखकर उसकी विराटता को जानना चाहता है। यह विराट सुख से बना है या दुख से? कवि का ख्याल है कि यह विराट सुख-दुख के सापेक्ष नहीं होता है। वह सत्य की तरह होता है, वह आनंद की तरह होता है, वह रस की तरह होता है। अर्थात् रस सुखात्मक भी होता है और दुखात्मक भी। रस मूलतः आनंद है, सुख-दुख की परिधि को तोड़कर मिलनेवाली तन्मयता और तल्लीनता। कवि उस विराट को देखना चाहता है जिसमें सुख भी है और दुख भी, मगर उसकी कसौटी है- सत्य।
4. निम्न प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए :
(i) कवि हमें क्या संदेश देता है? और क्यों?
उत्तर – कवि हमें यह संदेश देना चाहते हैं कि जीवन की विविध चुनौतियों का सामना अरते-करते हम मशीन की तरह होते जाते हैं। भावनाएँ एवं कोमल संचार की भावना का हममें दिन-प्रतिदिन ह्रास होता जा रहा है। ऐसे में हम उस परम शक्ति के प्रभाव से बिलकुल अंजान हो जाते हैं। इसलिए ही कवि हमें यह संदेश देना चाहते हैं कि भले ही हम आज के युग-प्रभाव के कारण व्यस्ततम दिनचर्या में जी रहे हैं पर उस शक्ति की कल्पना और उसके प्रति नम्र भाव से विनीत रहना भी परम आवश्यक है।
(ii) कविता का सार मर्म लिखिए।
उत्तर – दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है प्रकृति के विविध तत्त्वों से परिचित होना। स्वयं कवि भी इस तत्त्व को भली-भाँति जान नहीं पाए हैं। वे एक तरफ तो इस रहस्य से पर्दा हटाने के लिए अपने भाग्य को नाविक कहकर संबोधित करते हुए निवेदन कर रहे हैं कि उसे ऐसे लोक में ले जाया जाए जहाँ प्रकृति अपने वास्तविक रूप में सामने आती हो। कवि पृथ्वी के कृत्रिमता से भरे आचरण और व्यवहार से तंग आ चुके हैं और अपने जीवन को सही दशा और दिशा देने के लिए ऐसी कल्पना करने पर विवश हो चुके हैं। कवि के अनुसार हमें भी चाहिए कि हम अपने स्तर पर ईश्वरीय और प्रकृतिक तत्त्वों का भेदन करने के लिए चेष्टित रहे।
(iii) उषा अपने नयनों से घनी ज्योति बिखराती है तो क्या होता है?
उत्तर – रात के विश्राम के बाद पुनः सृष्टि के विभिन्न घटक सृजन के कामों में लगते हुए ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानो सुबह होते ही सृजन का मेला-सा लग गया हो। कवि सुबह के उस दृश्य को देखना चाहता है कि कैसे उषा की आँखों से बरसती अखंड ज्योति, अमरण जागरण का संदेश लेकर आती है और पूरे चराचर जगत में फिर से हलचल फैल जाती है।
बोध प्रश्न- 2
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दें।
1. ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ कविता में ‘नाविक’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ कविता में ‘नाविक’ से अभिप्राय है, कवि के ‘भाग्य’, ‘प्रारब्ध’, ‘नियति’ से। कवि ‘भाग्य’ रूपी ‘नाविक’ से अनुरोध करता है कि उन्हें एक ऐसे जगत में ले जाए जो दुनिया के कोलाहल से बिलकुल शांत हो।
2.‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ कविता पर ‘पलायनवाद का आरोप किस हद तक सही है?
उत्तर – ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ कविता पर ‘पलायनवाद का आरोप कदाचित सही है नहीं है क्योंकि आप और मैं जिस स्वभाव के हैं कवि भी उसी स्वभाव के हैं। इस पृथ्वी लोक पर शायद ही कोई ऐसा हो जिसके जीवन में दुखों की गहरी छाया न छाई हो। जब कवि भी इस दुनिया के जंजालों में खुद को जकड़ा हुआ पाते हैं तो राहत के क्षण व्यतीत करने के लिए कुछ समय का विराम चाहते हैं और एक ऐसे स्थान की खोज करते हैं जहाँ जीवन का कोलाहल पहुँच भी न सके।
3. नीचे प्रश्न के साथ कुछ विकल्प दिए जा रहे है। उत्तर के लिए सही विकल्प को चिह्नित कीजिए।
i. ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर शीर्षक कविता पर किस तरह की कविता होने के आरोप लगे हैं ?
क) अध्यात्मवादी
ख) रहस्यवादी
ग) पलायनवादी
घ) हालावादी
ii. ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर कविता में ‘नाविक’ शब्द से क्या आशय है?
क) नाव चलानेवाला
ख) नियति
ग) प्रकृति
घ) प्रेमिका
iii. सागर की लहरी, अंबर के कानों में, क्या कह रही है?
क) रहस्यात्मक बातें
ख) उलाहना भरी बातें
ग) आध्यात्मिक कथा
घ) निश्छल प्रेम कथा
iv. ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर कविता का प्रथम प्रकाशन कब हुआ था?
क) 1932
ख) 1935
ग) 1933
घ) 1934