मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद
(जन्म: 31 जुलाई 1880- मृत्यु 8 अक्तूबर 1936)
मुंशी प्रेमचंद का जन्म बनारस के करीब लमही गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम अजायब राय तथा माता का नाम आनंदी देवी था। प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय था। परंतु उनके चाचा जी ने उन्हें प्यार से नवाब राय नाम दिया था, जिस नाम से उर्दू में लिखते थे। ‘सोज़ेवतन’ के जब्त हो जाने के बाद उनके लिखने पर पाबंदी लग गई तो अपने प्रकाशक मित्र मुंशी दया नारायण निगम के सुझाव पर उन्होंने अपना नाम प्रेमचंद रखा और तभी से उसी नाम से उर्दू और हिंदी दोनों में लिखना शुरू कर दिया। सात वर्ष की अवस्था में माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन बड़ा संघर्षमय रहा। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू और फारसी से हुआ। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही पढाई जारी रखी। 1910 में इंटरपास किया और 1919 में बी. ए. पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। आगे चलकर गाँधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी।
प्रेमचंद की रचना – दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, संस्मरण, आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से जाने और माने गए। प्रेमचंद का ‘गोदान’ उपन्यास न केवल हिंदी उपन्यास- साहित्य में बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य में मील का पत्थर है। उन्होंने हिंदी कथा साहित्य की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। उन्होंने हिंदी कथा लेखन की पुरानी परिपाटी को बदल डाला। कथा – साहित्य को कल्पना और मनोरंजन की दुनिया से निकालकर ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की ओर मोड़ा। उनकी रचनाओं में पहली बार समाज के पूरे परिवेश का यथार्थ चित्र देखने को मिला। उन्होंने आम आदमी के जीवन को निकटता से देखा और उसे अपनी रचनाओं का केंद्र बनाया। उनका लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा।
प्रमुख कृतियाँ:
उपन्यासः प्रतिज्ञा, वरदान, सेवा सदन, कर्मभूमि, रंगभूमि, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, निर्मला, गबन, गोदान, मंगलसूत्र (अधूरा)
कहानी: ढाई सौ कहानियाँ ‘मानसरोवर’ के आठ भागों में संकलित। इसके अलावा कई और कहानियाँ यत्र-तत्र प्रकाशित हैं।
नाटक: कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी
पत्रिका- संपादन: हंस, माधुरी, जागरण
कहानी परिचय
‘बूढ़ी काकी’ प्रेमचंद की एक उत्कृष्ट यथार्थवादी कहानी है। इस कहानी के जरिए मनुष्य के अमानवीय और स्वार्थांध चरित्र का खुलासा किया गया है। बूढ़ी काकी के जीवन में एकमात्र सहारे के रूप में भतीजा बुद्धिराम है जिसके नाम पर काकी ने अपनी सारी संपत्ति लिख दी है। जिह्वास्वाद के अतिरिक्त उसके जीवन में और कोई लालसा नहीं है। परंतु बुद्धिराम और उसकी पत्नी रूपा की स्वार्थपरता के कारण उसकी यह लालसा अपूर्ण बनी रहती है। बड़ी कठिनाई से पेट भर भोजन मिलता है। घर की छोटी लड़की लाडली को छोड़कर अन्य कोई सहानुभूति भी नहीं रखता। काकी का मन हरपल अच्छी-अच्छी खाने की चीजों के लिए तरसता रहता है। घर में तिलक उत्सव के अवसर पर तरह- तरह के पकवान, पूड़ियाँ – कचौड़ियाँ, मसालेदार तरकारियाँ आदि बनती हैं। इन चीजों की सुगंध से काकी की उत्कट क्षुधा जागने लगती हैं। देर तक इन चीजों के न मिलने पर पेट की ज्वाला से विवश होकर काकी रेंगते हुए कड़ाह के पास जा पहुँचती है। चीजें तो नहीं मिलतीं, उल्टे रूपा के व्यंग्य सहने पड़ते हैं। फिर कई घंटों के बाद काकी मेहमानों के पास आ बैठती है। इस बार बुद्धिराम काकी की भावना को बिना समझे उसे खींचते हुए कोठरी में पटक देता है। देर रात को काकी अपने पास लाडली को पाती है जो अपने हिस्से की चीजें छुपाकर काकी के लिए लाई थी। उतनी चीजों से जब काकी का मन नहीं भरता तो वह मेहमानों की जूठी पत्तलों को चाटने लगती है। यह देखकर रूपा को पछतावा होने लगता है और उसमें अपराधबोध पैदा होता है। वह बार-बार ईश्वर से अपनी गलती के लिए क्षमा याचना करती है। फिर प्रसन्नचित्त होकर सारी चीजों से सजी थाली चचेरी सास को परोसती है और उनसे क्षमा माँगती है। बूढ़ी काकी सब कुछ भुलाकर परम आनंद से चीजों का स्वाद लेने लगती है। इस प्रकार प्रेमचंद ने रूपा के हृदय परिवर्तन के जरिए समाज में बुजुर्गों पर हो रहे दुर्व्यवहार को रोकने तथा उनके प्रति कर्तव्य का ज्ञान कराने का प्रयास किया है।
बूढ़ी काकी
बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनः आगमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिहवा स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इंद्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना- सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़कर रोती थीं।
उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था। बेटे तरूण हो- होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी संपत्ति लिख दी। भतीजे ने सारी संपत्ति लिखाते समय खूब लंबे-चौड़े वादे किए, किंतु वे सब वादे केवल कुली – डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्जबाग थे। यद्यपि उस संपत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रूपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव से सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आए। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत।
बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी संपत्ति के कारण में इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ। यदि भौतिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो, उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परंतु विशेष व्यय का भय उनकी सुचेष्टा को दबाए रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगती तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते। लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख मारकर रोतीं परंतु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती। इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण को कदाचित् ही प्रयोग करती थी, यद्यपि उपद्रव – शांति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।
संपूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई – चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत महँगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से सुरक्षा कहीं सुलभ थी तो बस यहीं। इसी स्वार्थ अनुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।
रात का समय था। बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे। समीप खड़ा भाट विरुदावली सुना रहा था और कुछ भावज्ञ मेहमानों की ‘वाह, वाह’ पर ऐसा खुश हो रहा था मानो इस ‘वाह वाह’ का यथार्थ में वही अधिकारी है।
दो-एक अंग्रेजी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गँवार मंडली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थ।
आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ – कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं। यह स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, संभवत: मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगी। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परंतु अपशकुन के भय से वह रो न सकीं।
“आहा… कैसी सुगंधि है? अब मुझे कौन पूछता है। जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियाँ मिलें?” यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया।
बूढ़ी काकी देर तक इन्हीं दुखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर- भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकरे सदा दुख दिया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है।
बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल- लाल, फूली फूली, नरम-नरम होंगी। रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों से अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैहूँ। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परंतु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धेर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है।
रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास जाती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा, “महाराज ठंडई माँग रहे हैं।” ठंडई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा, “भाट आया है, उसे कुछ दे दो।” भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा, “अभी भोजन तैयार होने में कितना विलंब है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो।” बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुँझलाती थी, कुढ़ती थी, परंतु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ीं। प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फुँकी जाती थी, परंतु इतना अवकाश न था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीजों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगी। पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोली- “ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होती तो जाने किसकी हाँडी में मुँह डालती? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। डायन न मरे न माँचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूँसती है न जाने कहाँ भस्म हो जाता है। भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हें भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परंतु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए।”
बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोयीं न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। आवाज ऐसी कठोर थी कि हृदय और मस्तिष्क की संपूर्ण शक्तियाँ, संपूर्ण विचार और संपूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे। नदी में जब कगार का कोई वृहद् खंड कटकर गिरता है तो आस-पास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।
भोजन तैयार हो गया है। आँगन में पत्तलें पड़ गईं, मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार – गीत गाना आरंभ कर दिया। मेहमानों में नाई और सेवकगण भी उसी मंडली के साथ, किंतु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परंतु सभ्यतानुसार जब तक सब-के-सब खा न चुकें कोई उठ नहीं सकता था। दो- एक मेहमान जो कुछ पढ़े-लिखे थे सेवकों के दीर्घाहार पर झुँझला रहे थे। वे इस बंधन को व्यर्थ और बेकार की बात समझते थे।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थीं कि मैं कहाँ से कहाँ आ गई। उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाजी पर दुख था। सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घर वाले कैसे खाएँगे। मुझसे इतनी देर भी न रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने नहीं आएगा, न जाऊँगी।
मन-ही-मन इस प्रकार का विचार कर वह बुलाने की प्रतीक्षा करने लगीं। परंतु घी की रुचिकर सुवास बड़ी धैर्य-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक- एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गई होगी। अब मेहमान आ गए होंगे। लोग हाथ पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है लोग खाने बैठ गए। जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गई। धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गई। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे। किसी की आवाज सुनाई नहीं देती। अवश्य ही लोग खा- पीकर चले गए। मुझे कोई बुलाने नहीं आया है। रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाए। सोचती हो कि आप ही आएँगी, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊँ। बूढ़ी काकी चलने को तैयार हुई। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियाँ सामने आएँगी, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बाँधे-पहले तरकारी से पूड़ियाँ खाऊँगी, फिर दही और शक्कर से कचौरियाँ रायते के साथ मजेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो माँग- माँगकर खाऊँगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं? कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह जूठा करके थोड़े ही उठ जाऊँगी।
वह उकड़ू बैठकर सरकते हुए आँगन में आई। परंतु हाय दुर्भाग्य ! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी। मेहमान – मंडली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उँगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर चटकारता था, परंतु दूसरा दोना माँगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे-अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे।
पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए। पूड़ियाँ का थाल लिए खड़े थे। थाल को जमीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्जदार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अँधेरी कोठरी में धम से पटक दिया। आशारूपी वटिका लू के एक झोंके में विनष्ट हो गई।
मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया। बाजे वाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परंतु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने का निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता, पर, हत्ज्ञान पर किसी को करुणा न आई थी। अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही
थी।
लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थीं। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाडली का हृदय धक् रह गया। वह झुँझला रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान सब की सब खा जाएँगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परंतु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाई थी। अपनी गुड़िया की पिटारी में बंद कर रखी थीं। उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था। बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगी! मुझे खूब प्यार करेंगी।
रात को ग्यारह बज गए थे। रूपा आँगन में पड़ी सो रही थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ। चारों ओर अँधेरा था। केवल चूल्हों में आग चमक रही थी और चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था। लाडली की दृष्टि सामने वाले नीम पर गई। उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं। उनकी पूँछ, उनकी गदा, वह स्पष्ट दिखलाई दे रही है। मारे भय के उसने आँखें बंद कर लीं इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढ़स हुआ। कई सोए हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठाई और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली।
बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाए लिए जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराए तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूच्छित हो गईं।
जब वे सचेत हुई तो किसी की जरा भी आहट न मिलती थीं। समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो
गई। रात कैसे कटेगी?
राम ! क्या खाऊँ? पेट में अग्नि धधक रही है। हा! किसी ने मेरी सुधि न ली। क्या मेरा पेट काटने से धन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाए? उसका जी क्यों
दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल। मैं अंधी, अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ, न बूझँ। यदि आँगन में चली गई तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खाना खा रहे हैं फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गई। ग्लानि से गला भर-भर आता था, परंतु मेहमानों के भय से रोती न थीं। सहसा कानों में आवाज आई- “काकी उठो, मैं पूड़ियाँ लायी हूँ।” काकी ने लाडली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठी। दोनों हाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बिठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं।
काकी ने पूछा- “क्या तुम्हारी अम्मा ने दी है?”
लाडली ने कहा- “नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं।”
काकी पूड़ियाँ पर टूट पड़ीं। पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई। लाडली ने पूछा- “काकी पेट भर गया?”
जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उस भाँति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इच्छा को और उत्तेजित कर दिया था। बोलीं- “नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और माँग लाओ।”
लाडली ने कहा, “अम्मा सोती हैं, जगाऊँगी तो मारेंगी।”
काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुरचन गिरी थी। बार- बार होंठ चाटती थीं, चटखारे भरती थीं।
हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ। संतोष सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छाओं के प्रबल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोलीं- “मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है।”
लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठी पत्तलों के पास बिठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हत्ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओह…. दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, खस्ता कितने सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की जूठी पत्तलें चाट रही हूँ। परंतु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएँ एक ही केंद्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केंद्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी।
ठीक उसी समय रूपा की आँख खुली। उसे मालूम हुआ कि लाडली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाडली जूठी पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है। रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की जूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निकृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता मानो जमीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई आपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा- “परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।”
रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दिख पड़े थे। वह सोचने लगी हाय! कितनी निर्दय हूँ। जिसकी संपत्ति से मुझे दो सौ रुपया आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति। और मेरे कारण। हे दयामय भगवान ! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था। सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन किया। मैं उनके इशारों की दासी बनी रही। अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपये व्यय कर दिए, परंतु जिसकी बदौलत हजारों रुपये आए, उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है।
रूपा ने दीया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में संपूर्ण सामग्रियाँ सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली।
आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परंतु उसमें किसी को वह परमानंद प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ। रूपा ने कंठरुद्ध स्वर में कहा- “काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें।”
भोले-भाले बच्चे की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थीं। उनके एक-एक रोयें से सच्ची सद्इच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनंद लेने में निमग्न थी।
शब्दार्थ
जवाब दे चुकना – शिथिल हो जाना, कमजोर हो जाना।
कालान्तर – बहुत समय पहले।
सब्जबाग दिखाना – (मुहावरा) अपना काम साधने या निकालने के लिए बड़ी- बड़ी आशाएँ दिलाना।
अर्धांगिनी – पत्नी
भलमनसाहत – शिष्टता
स्वर्ग सिधारे – मृत्यु को प्राप्त हुए
विद्वेष – ईर्ष्या
जिह्वा कृपाण – जीभ रूपी तलवार (कटु वचन)
नाई – नापित, बाल काटने का काम करने वाला
विरुदावली – प्रशंसा के वाक्य
भाट – चारण, प्रशंसा गायक, खुशामदी।
अपशकुन – अशुभ
भट्टियाँ – चूल्हा
ठंडई – शरबत
कगार – किनारा, तट
जेवनार – गीत, भोजगीत
मंसूबे – इरादे
टेंटुआ – गला, गर्दन
ढाढस – धैर्य, धीरज
तकदीर – भाग्य
पेट की अग्नि – भूख, क्षुधा
अपाहिज – पंगु
दुर्गति – दुर्दशा, बुरी हालत
खुरचन – खुरच कर निकाली गई वस्तु
स्वादेन्द्रिय – जीभ, रसना
मद – नशा
प्रश्न- अभ्यास
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए।
(क) “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनः आगमन हुआ करता है।” इस बात की पुष्टि कीजिए।
उत्तर – “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनः आगमन हुआ करता है।” प्रेमचंद ने ऐसा कहा है क्योंकि पाठ में अनेक ऐसे स्थल आए हैं जो इस कथन को सत्य साबित करते हैं। बुढ़ापे में ज्ञानेंद्रियाँ क्षीण और कर्मेन्द्रियाँ शिथिल पड़ जाती हैं। इसी तरह की स्थिति बचपन में भी होती है। बच्चों की शारीरिक स्थिति और मानसिक स्थिति प्राय: पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई होती है। जिस प्रकार बच्चे भूख से रोते हैं इस पाठ में भी बूढ़ी काकी खाने के लिए रोती हैं। बच्चों को डाँट पड़ने पर वो नाराज़ हो जाते हैं और फिर प्यार करने से मान जाते हैं उसी तरह रूपा और बुद्धिराम द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर भी वह बुरा नहीं मानती है।
(ख) बूढ़ी काकी के प्रति बुद्धिराम और रूपा का व्यवहार कैसा था?
उत्तर – बूढ़ी काकी के प्रति बुद्धिराम और रूपा का व्यवहार बहुत अंशों में अमानवीय और रूखा था। बूढ़ी काकी की संपत्ति से सालाना डेढ़ सौ- से दो सौ रुपए तक की उनकी आमदनी हो जाया करती थी। बावजूद इसके वे बूढ़ी काकी का अच्छे से ख्याल नहीं रखते थे। बुद्धिराम के बेटे मुखराम के तिलक के दिन बुढ़िया का भरी महफ़िल में रूपा और बुद्धिराम द्वारा दो बार अपमान किया जाना उनके क्रूर व्यवहार को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है।
(ग) “लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है।” ऐसा क्यों?
उत्तर – “लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है।” ऐसा प्राय: देखा जाता है क्योंकि लड़के शारीरिक रूप से सबल और समर्थ होते हैं। उनके जीवन में अनेक ज़रूरी और गैर-ज़रूरी काम होते हैं जिस कारण वे व्यस्त रहते हैं। लड़कपन की अवस्था ऐसी होती है कि वे अपने आपको ही सही और सबसे बेहतर मानते हैं। इसके ठीक विपरीत स्थिति बूढ़ों की होती है। इसलिए लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है।
(घ) बूढ़ी काकी के साथ लाडली का कैसा संबंध था?
उत्तर – पूरे घर भर में बूढ़ी काकी का दुख दर्द अगर कोई समझता था तो वह बुद्धिराम की बेटी लाडली ही थी। इस दृष्टि से बूढ़ी काकी के साथ लाडली का संबंध आत्मीयता से परिपूर्ण था। जब भी लाडली को मिठाई – चबेना खाने को मिलता तो अपने दोनों भाइयों के भय से वह बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था। तिलक वाले दिन भी बूढ़ी काकी की दुर्गति देखकर लाडली ने उन्हें खिलाने के लिए अपने हिस्से की पूड़ियाँ बचाकर रख ली थी। छोटी उम्र की होते हुए भी वह यह समझ सकने में समर्थ थी कि माता-पिता बूढ़ी काकी के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं।
(ङ) बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमग्न क्यों बैठी थी?
उत्तर – तिलक वाले दिन स्वादिष्ट व्यंजन बड़े-बड़े कड़ाहों में पक रहे थे। बूढ़ी काकी के जीवन में खाने के अलावा और कोई इच्छा शेष न रह गई थी। स्वादिष्ट भोजन की सुगंधि बूढ़ी काकी को बार-बार परेशान कर रही थी। वह यह सोच-सोच कर व्याकुल हो रही थी कि उन्हें खाने को मिलेगा भी या नहीं। इसी कशमकश में वह रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठी। उन्हें कड़ाह के पास बैठा देख रूपा ने कर्कश स्वर में उनकी खूब बेइज़्ज़ती की। दिल मसोस कर वह अपनी कोठरी में चली गई। दूसरी बार जब बूढ़ी को भूख ज़ोरों से लगने लगी तो वह पुनः मेहमानों के खाने की जगह चली गई और इस बार रौद्र रूप धारण किए बुद्धिराम ने उन्हें घसीटते हुए उनकी कोठरी में पटक दिया। इन्हीं कारणों की वजह से बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमग्न बैठी थी।
(च) कड़ाह के पास जा बैठी बूढ़ी काकी के साथ रूपा ने कैसा आचरण दिखाया?
उत्तर – कड़ाह के पास जा बैठी बूढ़ी काकी के साथ रूपा ने जो आचरण दिखाया वह दिनभर के सभी नोंक-झोंक, मनमुटाव और थकान का मिला-जुला रूप कर्कश स्वर में कुछ इस प्रकार निकला – “ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूँसती है न जाने कहाँ भस्म हो जाता है।” इस तरीके से रूपा ने न बूढ़ी काकी उम्र का लिहाज किया और न ही उनकी बेबसी को समझ सकी।
(छ) लाडली किस बात को लेकर झुँझला रही थी और क्यों?
उत्तर – तिलक के दिन जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा, उनके साथ अभद्र व्यवहार किया तो लाडली का हृदय धक् रह गया। वह अपने माता-पिता के निंदनीय कृत्य पर झुँझला रही थी। वह सोच रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान सब की सब खा जाएँगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? हालाँकि, वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परंतु माता के भय से न जाती थी।
(ज) रूपा ने परमात्मा से क्यों प्रार्थना की?
उत्तर – रूपा ईश्वरभीरु और धर्मभीरु थी। जब उसने देखा कि उसकी बूढ़ी काकी ब्राह्मणी होते हुए मेहमानों के जूठे पत्तलों से पूड़ियाँ चुन-चुनकर खा रही है तो उसे असीम आत्मग्लानि हुई। उसे इस बात का एहसास हुआ कि इनकी संपत्ति की बदौलत हजारों रुपए इस घर में आ चुके हैं और हम इन्हें ढंग से खाना तक नहीं खिला रहे हैं। बाहर के लोग हमारे घर आकर खाना खाकर चले गए और घर का ही एक सदस्य भूखा रह जाए। उसे लगने लगा कि यह अनर्थ है। ईश्वर कुपित होकर उनके परिवार का अनिष्ट करेंगे। इसी डर से उसने परमात्मा से प्रार्थना की और अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगी।
(झ) हमारे समाज में बुजुर्गों पर हो रहे दुर्व्यवहार का चित्र ‘बूढ़ी काकी’ कहानी दिखाती है? क्या ऐसा व्यवहार सही है? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर – हमारे समाज में बुजुर्गों पर हो रहे दुर्व्यवहार का चित्र ‘बूढ़ी काकी’ कहानी बखूबी दिखाती है। बुजुर्गों के प्रति ऐसा व्यवहार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। मनुष्य जीवन में बुढ़ापा आना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। इस अवस्था में आप, हम सब एक न एक दिन पहुँचेंगे ही फिर न जाने लोग क्यों बूढ़ों को बेकार वस्तु की तरह समझते हैं। उन बूढ़ों की वजह सी ही हमारा अस्तित्व है। वे बूढ़े भले ही कागरे का वृक्ष हो चुके हैं जो कभी भी गिर सकते हैं लेकिन उनका तिरस्कार या अवहेलना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं। बूढ़ों के प्रति हमारा नज़रिया या रवैया वास्तव में हमारी मानसकिता का प्रतिफलन है। हमें यह बार-बार विचार कर लेना चाहिए कि कर्मों का फल आज नहीं तो कल मिलता ही है।