मुंशी प्रेमचंद
(31.07.1880 – 08.10.1936)
प्रेमचंद का जन्म बनारस से चार मील दूर लमही ग्राम में हुआ। प्रारंभिक पढ़ाई गाँव की पाठशाला में हुई। फिर आगे बनारस के मिशन स्कूल से मैट्रिक पास किया। बाद में प्राइवेट स्तर पर बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। अध्यापन से जीवकोपार्जन की शुरुआत। तत्पश्चात् गहन अध्ययन में जुट गए। सरकारी नौकरी की। स्कूलों के सब-डिप्टी इंस्पेक्टर रहे। 1920 में महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। लेखन के जरिए राष्ट्र सेवा को पूरी तरह समर्पित। उन्होंने हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं में कलम चलायी। उन्हें दोनों भाषाओं के पाठकों से अपार स्नेह मिला। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता की। कई पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
रचनाएँ- इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, प्रतिज्ञा, कर्मभूमि रंगभूमि, गोदान जैसे उपन्यास। इनकी लगभग तीन सौ कहानियाँ हैं।
पाठ परिचय –
इस पाठ में जीवन में साहित्य के महत्त्व पर चर्चा की गई है। साहित्य के माध्यम से हमारा संपूर्ण जीवन अभिव्यक्ति पाता है। साहित्य का आधार सुंदर और सत्य है। लेखक कहता है कि साहित्य सौंदर्य को खोज निकालता है।
साहित्य में कृत्रिमता के लिए स्थान नहीं है। लेखक का मानना है कि सत्य जब आनंद का स्रोत बन जाता है तब वह साहित्य कहलाता है। साहित्य केवल मात्र दिमाग की उपज नहीं है। वह तो हृदय-पक्ष से जुड़ा है। साहित्यकार मानव जीवन से अपनी आत्मा का मेल करता है और फिर साहित्य की सर्जना करता है। साहित्य स्थावर, जंगम सब में प्राण का संचार कर देता है। साहित्यकार अपने देश काल से प्रभावित होता है। जब देश में किसी भी प्रकार का परिवर्तन आता है तो साहित्यकार उससे स्वतः प्रभावित होता है। हम साहित्य में जीवन के शाश्वत मूल्यों को अनुभव करते हैं। साहित्य में अपने देशकाल की छवि हमेशा देखी जा सकती है। भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग है। साहित्यकार को साहित्य साधना के लिए चित्त की साधना, संयम, सौंदर्य तत्त्व के अनुभव की आवश्यकता है। साहित्य के उत्थान से ही राष्ट्र का विकास होता है। इसलिए हमें सच्चे साहित्यकारों की आवश्यकता है, जो- व्यास वाल्मिीकि की तरह सच्चे तपस्वी और आत्मज्ञानी हों।
जीवन में साहित्य का स्थान
जीवन में साहित्य का स्थान
साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है। उसकी अटारियाँ, मीनार और गुम्बद बनते हैं, लेकिन बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी पड़ी है। उसे देखने को भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि है, इसलिए अनंत है, अगम्य है। साहित्य मनुष्य की सृष्टि है, इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिमित है। जीवन परमात्मा के अपने कामों का जवाबदेह है या नहीं, हमें मालूम नहीं, लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह है। इसके लिए कानून हैं, जिनसे वह इधर-उधर नहीं हो सकता। जीवन का उद्देश्य ही आनंद है। मनुष्य जीवनपर्यंत आनंद ही की खोज में लगा रहता है। किसी को वह रत्न द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में किसी को लंबे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में, लेकिन साहित्य का आनंद इस आनंद से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुंदर और सत्य है। वास्तव में सच्चा आनंद सुंदर और सत्य से मिलता है, उसी आनंद को दर्शाना, वही आनंद उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य है। ऐश्वर्य या भोग के आनंद में ग्लानि छिपी होती है। उससे अरुचि भी हो सकती है, पश्चात्ताप भी हो सकता है, पर सुंदर से जो आनंद प्राप्त होता है, वह अखंड है, अमर है।
साहित्य के नौ रस कहे गए हैं। प्रश्न होगा, वीभत्स में भी कोई आनंद है? अगर ऐसा न होता, तो वह रसों में गिना ही क्यों जाता? हाँ, है। वीभत्स में सुंदर और सत्य मौजूद हैं। भारतेन्दु ने श्मशान का जो वर्णन किया है, वह कितना वीभत्स है! प्रेतों और पिशाचों का अधजले मांस के लोथड़े नोचना, हड्डियों को चटर चटर चबाना, वीभत्स की पराकाष्ठा है, लेकिन वह वीभत्स होते हुए भी सुंदर है, क्योंकि उसकी सृष्टि पीछे आनेवाले स्वर्गीय दृश्य के आनंद को तीव्र करने के लिए ही हुई है। साहित्य तो हर एक रस में सुंदरता खोजता है-राजा के महल में, रंक की झोंपड़ी के शिखर पर, गंदे नालों के अंदर, ऊषा की लाली में, सावन-भादों की अँधेरी रात में और यह आश्चर्य की बात है कि रंक की झोपड़ी में जितनी आसानी से सुंदर मूर्तिमान दिखाई देता है, महलों में नहीं। महलों में तो वह खोजने से मुश्किलों से मिलता है
जहाँ मनुष्य अपने मौलिक, यथार्थ, अकृत्रिम रूप में है, वहीं आनंद है। आनंद कृत्रिमता और आडंबर से कोसों भागता है। सत्य का कृत्रिम से क्या संबंध? अतएव हमारा विचार है कि साहित्य में केवल एक रस है और वह शृंगार है। कोई रस साहित्यिक दृष्टि से रस नहीं रहता और न उस रचना की गणना साहित्य में की जा सकती है, जो शृंगारविहीन और असुंदर हो, जो रचना केवल वासना-प्रधान हो, जिसका उद्देश्य कुत्सित भावों को जगाना हो, जो केवल बाह्य जगत् से संबंध रखे, वह साहित्य नहीं है। जासूसी उपन्यास अद्भुत होता है। लेकिन हम उसे साहित्य उसी वक्त कहेंगे, जब उसमें सुंदर का समावेश हो। खुनी का पता लगाने के लिए सतत उद्योग, नाना प्रकार के कष्टों का झेलना, न्याय-मर्यादा की रक्षा करना, ये भाव हैं, जो इस अद्भुत रस की रचना को सुंदर बना देते हैं।
सत्य से आत्मा का संबंध तीन प्रकार का है। एक जिज्ञासा का संबंध है, दूसरा प्रयोजन का संबंध है और तीसरा आनंद का। जिज्ञासा का संबंध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का संबंध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनंद का संबंध है। सत्य जहाँ आनंद का स्त्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। जिज्ञासा का संबंध विचार से है, प्रयोजन का संबंध स्वार्थ बुद्धि से। आनंद का संबंध मनोभावों से है। साहित्य का विकास मनोभावों द्वारा ही होता है। एक ही दृश्य या घटना या कांड को हम तीनों ही भिन्न-भिन्न नजरों से देख सकते हैं। हिम से ढँके हुए पर्वत पर ऊषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसंधान की और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का आत्म-समर्पण है। यहाँ हम पृथकता का अनुभव नहीं करते। यहाँ ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाता। श्रीरामचंद्र शबरी के जूठे बेर क्यों प्रेम से खाते हैं, कृष्ण भगवान् विदूर के शाक को क्यों नाना व्यंजनों से रुचिकर समझते हैं, इसलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को मिटा दिया है। उनकी आत्मा विशाल है। उसमें समस्त जगत् के लिए स्थान है। आत्मा आत्मा से मिल गई है। जिसकी आत्मा जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महापुरुष है। यहाँ तक कि ऐसे महान पुरुष भी हो गए हैं, जो जड़ जगत् से भी अपनी आत्मा का मेल कर सके हैं।
आइए देखें, जीवन क्या है? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है। यह तो पशुओं का जीवन है। पर इनके उपरांत कुछ और भी होता है। उसमें कुछ ऐसी मनोवृत्तियाँ होती हैं, जो प्रकृति के साथ हमारे मेल में बाधक होती हैं, कुछ ऐसी होती हैं, जो इस मेल में सहायक बन जाती हैं। जिन प्रवृतियों में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता है, वह वांछनीय होती है, जिनसे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित हैं। अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हैं। यदि हम इनको बेरोक टोक चलने दें, तो निस्संदेह वह हमें नाश और पतन की ओर ले जायेंगी। इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिसमें वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकें। हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता है।
किंतु नटखट लड़कों से डाँटकर कहना – तुम बड़े बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड़ लेंगे-अक्सर व्यर्थ ही होता है, बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता है। जरूरत यह होती है कि बालक में जो सद्वृत्तियाँ हैं, उन्हें उत्तेजित किया जाए कि दूषित वृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से शांत हो जाएँ। साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। सत्य को रसों द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार- चुमकारकर बच्चों को जितनी सफलता से वश में किया जा सकता है, डाँट- फटकार से संभव नहीं। कौन नहीं जानता कि प्रेम से कठोर से कठोर प्रकृति को नरम किया जा सकता है। साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है। जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है। यही कारण है कि हम उपनिषदों और अन्य धर्म ग्रंथों को साहित्य की सहायता लेते देखते हैं। हमारे धर्माचार्यों ने देखा कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव-जीवन के दुख-सुख के वर्णन से ही हो सकता है और उन्होंने मानव-जीवन की वे कथाएँ रचीं, जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु हैं। बौद्धों की जातक कथाएँ, तौरेह, कुरान, इंजील ये सभी मानवी कथाओं के संग्रह- मात्र हैं। उन्हीं कथाओं पर हमारे बड़े-बड़े धर्म स्थिर हैं। वही कथाएँ धर्मों की आत्मा हैं। उन कथाओं को निकाल दीजिए तो उस धर्म का अस्तित्व मिट जाएगा। क्या उन धर्म-प्रवर्तकों ने अकारण ही मानवी जीवन की कथाओं का आश्रय लिया? नहीं, उन्होंने देखा कि हृदय द्वारा ही जनता की आत्मा तक अपना संदेश पहुँचाया जा सकता है। वे स्वयं विशाल हृदय के मनुष्य थे। उन्होंने मानव-जीवन से अपनी आत्मा का मेल कर लिया था। समस्त मानव- जाति से उनके जीवन का सामंजस्य था, फिर वे मानव-चरित्र की उपेक्षा कैसे करते?
आदिकाल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य है। हम जिसके सुख-दुख, हँसने- रोने का मर्म समझ सकते हैं, उसी से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता है। विद्यार्थी को विद्यार्थी जीवन से, कृषक को कृषक जीवन से जितनी रुचि है, उतनी अन्य जातियों से नहीं, लेकिन साहित्य जगत् में प्रवेश पाते ही यह भेद, यह पार्थक्य मिट जाता है। हमारी मानवता जैसे विशाल और विराट् होकर समस्त मानव जाति पर अधिकार पा जाती है। मानव जाति ही नहीं, चर और अचर, जड़ और चेतन सभी उसके अधिकार में आ जाते हैं। उसे मानो विश्व की आत्मा पर साम्राज्य प्राप्त हो जाता है। श्री रामचंद्र राजा थे, पर आज रंक भी उनके दुख से उतना ही प्रभावित होता है, जितना कोई राजा हो सकता है।
साहित्य वह जादू की लकड़ी है, जो पशुओं में, ईंट-पत्थरों में, पेड़- पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है। मानव हृदय का जगत्, इस प्रत्यक्ष जगत् जैसा नहीं है। हम मनुष्य होने के कारण मानव जगत् के प्राणियों में अपने को अधिक पाते हैं, उसके सुख-दुख, हर्ष और विषाद से ज्यादा विचलित होते हैं। हम अपने निकटतम बंधु-बांधवों से अपने को इतना निकट नहीं पाते, इसलिए कि हम उसके एक-एक विचार, एक-एक उद्गार को जानते हैं। उसका मन हमारी नजरों के सामने आईने की तरह खुला हुआ है। जीवन में ऐसे प्राणी हमें कहाँ मिलते हैं, जिनके अंत:करण में हम इतनी स्वाधीनता से विचार सकें? सच्चे साहित्यकार का यही लक्षण है कि उसके भावों में व्यापकता हो, उसने विश्व की आत्मा से ऐसी ‘हारमनी’ प्राप्त कर ली हो कि उसके भाव प्रत्येक प्राणी को अपने ही भाव मालूम हों।
साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश -बंधुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रूदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है। ‘टाम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है।
पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें वह व्यापकता है कि हम लोग उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते हैं, पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय में तबदीलियाँ नहीं होतीं। हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, आशा और भय, आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदिकवि वाल्मीकि के समय में थे और कदाचित् अनंत तक रहेंगे। रामायण के समय का समय अब नहीं है, महाभारत का समय भी अतीत हो गया, पर ये ग्रंथ अभी तक नए हैं। साहित्य ही सच्चा इतिहास है, क्योंकि उसमें अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है, वैसा कोरे इतिहास में नहीं हो सकता। घटनाओं की तालिका इतिहास नहीं है, और न राजाओं की लड़ाइयाँ ही इतिहास है। इतिहास जीवन के विभिन्न अंगों की प्रगति का नाम है, जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है, क्योंकि साहित्य अपने देशकाल का प्रतिबिंब होता है।
जीवन में साहित्य की उपयोगिता के विषय में कभी-कभी संदेह किया जाता है। कहा जाता है, जो स्वभाव से अच्छे हैं, वह अच्छे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़ें। जो स्वभाव से बुरे हैं, वह बुरे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़े। इस कथन में सत्य की मात्रा बहुत कम है। इसे सत्य मान लेना मानव – चरित्र को बदल देना होगा। जो सुंदर है, उसकी ओर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। हम कितने ही पतित हो जाएँ, पर असुंदर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकता। हम कर्म चाहे कितने ही बुरे करें, पर यह असंभव है कि करुणा और दया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलों पर असर न हो। नादिरशाह से ज्यादा निर्दयी मनुष्य और कौन हो सकता है-हमारा आशय दिल्ली में कतले आम करानेवाले नादिरशाह से है। अगर दिल्ली का कतले आम सत्य घटना है, तो नादिरशाह के निर्दय होने में कोई संदेह नहीं रहता। उस समय आपको मालूम है, किस बात से प्रभावित होकर उसने कतले आम बंद करने का हुक्म दिया था? दिल्ली के बादशाह का वज़ीर एक रसिक मनुष्य था। जब उसने देखा कि नादिरशाह का क्रोध किसी तरह नहीं शांत होता और दिल्ली वालों के खून की नदी बहती चली जाती है, यहाँ तक कि खुद नादिरशाह के मुँहलगे अफसर भी उसके सामने आने का साहस नहीं करते, तो वह हथेलियों पर जान रखकर नादिरशाह के पास पहुँचा और यह शेर पढ़ा-
“कसे न माँद कि दीगर ब तेगे नाज कुशी।
मगर कि जिंदा कुनी खल्क स व बाज कुशी।”
इसका अर्थ यह हुआ कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को जिंदा न छोड़ा। अब तो तेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि तू मुर्दों को फिर जिला दे और फिर उन्हें मारना शुरू करे। यह फारसी के एक प्रसिद्ध कवि का शृंगार विषयक शेर है, पर इसे सुनकर कातिल के दिल में मनुष्य जाग उठा। इस शेर ने उसके हृदय के कोमल भाग को स्पर्श कर दिया और कतले आम तुरंत बंद कर दिया गया।
नेपोलियन के जीवन की वह घटना भी प्रसिद्ध है, जब उसने एक अँगरेज मल्लाह को झाऊँ की नाव पर केले का समुद्र पार करते देखा। जब फ्रांसीसी अपराधी मल्लाह को पकड़कर नेपोलियन के सामने लाये और उसने पूछा- तू इस भंगुर नौका पर क्यों समुद्र पार कर रहा था, तो अपराधी ने कहा – इसलिए कि मेरी वृद्धा माता घर पर अकेली है, में उसे एक बार देखना चाहता था। नेपोलियन की आँखों में आँसू छलछला आये। मनुष्य का कोमल भाव स्पंदित हो उठा। उसने उस सैनिक को फ्रांसीसी नौका पर इंगलैंड भेज दिया।
मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। जमाने के छल-प्रपंच या और परिस्थितियों के वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है-उपदेशों से नहीं, नसीहतों से नहीं, भावों को स्पंदित करके, मन के कोमल तारों पर चोट लगाकर प्रकृति से सामंजस्य उत्पन्न करके। हमारी सभ्यता साहित्य पर ही आधारित है। हम जो कुछ हैं, साहित्य के ही बनाए हैं। विश्व की आत्मा के अंतर्गत भी राष्ट्र या देश की एक आत्मा होती है। इसी आत्मा की प्रतिध्वनि है- साहित्य।
यूरोप का साहित्य उठा लीजिए। आप वहाँ संघर्ष पाएँगे। कहीं खूनी कांडों का प्रदर्शन है, कहीं जासूसी कमाल का। जैसे सारी संस्कृति उन्मत्त होकर मरू में जल खोज रही है। उस साहित्य का परिणाम यही है कि वैयक्तिक स्वार्थपरायणता दिन-दिन बढ़ती जाती है, अर्थ-लोलुपता की कहीं सीमा नहीं, नित्य दंगे, नित्य लड़ाइयाँ। प्रत्येक वस्तु स्वार्थ के काँटे पर तौली जा रही है। यहाँ तक कि अब किसी यूरोपियन महात्मा का उपदेश सुनकर भी संदेह होता है कि इसके परदे में स्वार्थ न हो।
साहित्य सामाजिक आदर्शों का स्रष्टा है। जब आदर्श ही भ्रष्ट हो गया, तो समाज के पतन में बहुत दिन नहीं लगते। नई सभ्यता का जीवन 150 साल से अधिक नहीं, पर अभी से संसार उससे तंग आ गया है, पर इसके बदले में उसे कोई ऐसी वस्तु नहीं मिल रही है, जिसे वहाँ स्थापित कर सके। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी है, जो यह तो समझ रहा है कि वह जिस रास्ते पर जा रहा है, वह ठीक रास्ता नहीं है, पर वह इतनी दूर जा चुका है कि अब लौटने की उसमें सामर्थ्य नहीं है। वह आगे ही जाएगा – चाहे उधर कोई समुद्र ही क्यों न लहरें मार रहा हो। उसमें नैराश्य का हिंसक बल है, आशा की उदार शक्ति नहीं।
भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग है। यूरोप का कोई व्यक्ति लखपती होकर, जायदाद खरीदकर, कम्पनियों में हिस्से लेकर और ऊँची सोसाइटी में मिलकर अपने को कृतकार्य समझता है। भारत अपने को उस समय कृतकार्य समझता है, जब वह इस माया-बंधन से मुक्त हो जाता है, जब उसमें भोग और अधिकार का मोह नहीं रहता। किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और वाल्मीकि ने जो आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किए हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे में न ढलते, तो राम न रहते। सीता भी उसी साँचे में ढलकर सीता हुईं। यह सत्य है कि हम सब ऐसे चरित्रों का निर्माण नहीं कर सकते, पर धन्वंतरि के एक होने पर भी संसार में वैद्यों की आवश्यकता है और रहेगी।
ऐसा महान् दायित्व जिस वस्तु पर है, उसके निर्माताओं का पद कुछ कम जिम्मेदारी का नहीं है। कलम हाथ में लेते ही हमारे सिर पर बड़ी भारी जिम्मेदारी आ जाती है। साधारण: युवावस्था में हमारी निगाह पहले विध्वंस करने की ओर उठ जाती है। हम सुधार करने की धुन में अंधाधुंध शर चलाना शुरू करते हैं। खुदाई फौजदार बन जाते हैं। तुरंत आँखें काले धब्बों की ओर पहुँच जाती हैं। यथार्थवाद के प्रवाह में बहने लगते हैं। बुराइयों के नग्न चित्र खींचने में कला की कृतकार्यता समझते हैं। यह सत्य है कि कोई मकान गिराकर ही उसकी जगह नया मकान बनाया जाता है। पुराने ढकोसलों और बंधनों को तोड़ने की जरूरत है, पर इसे साहित्य नहीं कह सकते। साहित्य तो वही है, जो साहित्य की मर्यादाओं का पालन करे।
हम अक्सर साहित्य का मर्म समझे बिना ही लिखना शुरू कर देते हैं। शायद हम समझते हैं कि मजेदार, चटपटी और ओजपूर्ण भाषा में लिखना ही साहित्य है। भाषा भी साहित्य का अंग है, पर स्थायी साहित्य विध्वंस नहीं करता, निर्माण करता है। वह मानव-चरित्र की कालिमाएँ नहीं दिखाता, उसकी उज्ज्वलताएँ दिखाता है। मकान गिराने वाला इंजीनियर नहीं कहलाता। इंजीनियर तो निर्माण ही करता है। हममें जो युवक साहित्य को अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहते हैं, उन्हें बहुत आत्मसंयम की आवश्यकता है, क्योंकि वह अपने को एक महान पद के लिए तैयार कर रहे हैं, जो अदालतों में बहस करने या कुरसी पर बैठकर मुकद्दमे का फैसला करने से कहीं ऊँचा है। उसके लिए केवल डिग्रियाँ और ऊँची शिक्षा काफी नहीं। चित्त की साधना, संयम, सौंदर्य-तत्त्व का ज्ञान, इसकी कहीं ज्यादा जरूरत है।
साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए। भावों का परिमार्जन भी उतना ही वांछनीय है। जब तक हमारे साहित्य सेवी इस आदर्श तक न पहुँचेंगे, तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नहीं की जा सकती। अमर साहित्य के निर्माता विलासी प्रवृत्ति के मनुष्य नहीं थे। वाल्मीकि और व्यास दोनों तपस्वी थे। सूर और तुलसी भी विलासिता के उपासक न थे। कबीर भी तपस्वी ही थे। हमारा साहित्य अगर आज उन्नति नहीं करता, तो इसका कारण यही है कि हमने साहित्य-रचना के लिए कोई तैयारी नहीं की। दो-चार नुस्खे याद करके हकीम बन बैठे। साहित्य का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है और हमारी ईश्वर से यही याचना है कि हममें सच्चे साहित्य सेवी उत्पन्न हों, सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी।
शब्दार्थ :
अगम्य- जहाँ न पहुँचा जा सके,
जवाबदेह – उत्तर दायी होना,
जिज्ञासा- जानने की इच्छा,
मनोवृत्ति – मन के भाव,
तबदीलियाँ – परिवर्तन,
स्रष्टा – सृजन करने वाला।
प्रश्न और अभ्यास :
1. सही विकल्प चुनकर रिक्त स्थान भरिए।
(i) साहित्य का आधार ________ है।
(A) प्रेम
(B) जीवन
(C) सबकुछ
(D) क्रोध
उत्तर – (B) जीवन
(ii) मनुष्य की सृष्टि है।
(A) समाज
(B) व्यक्ति
(C) साहित्य
(D) जीवन
उत्तर – (C) साहित्य
(iii) जीवन का उद्देश्य ________ है।
(A) स्नेह
(B) जीवन
(C) घृणा
(D) आनंद
उत्तर – (D) आनंद
(iv) साहित्य में ________ रस कहे गए हैं?
(A) पाँच
(B) चार
(C) आठ
(D) नौ
उत्तर – (D) नौ
(v) सत्य से आत्मा का संबंध ________ प्रकार से है।
(A) आठ
(B) तीन
(C) एक
(D) चार
उत्तर – (B) तीन
(vi) ‘आनंद का संबंध ________ से है।
(A) पुस्तक
(B) मनोभावों
(C) समाज
(D) व्यक्ति
उत्तर – (B) मनोभावों
(vii) एक प्रकार का आत्म समर्पण है?
(A) क्रोध
(C) स्नेह
(B) विह्वलता
(D) घृणा
उत्तर – (B) विह्वलता
(viii) ________ के लिए संयम की आवश्यकता होती है।
(A) आत्मविकास
(B) स्वच्छता
(C) व्यवहार कुशलता
(D) खेल
उत्तर – (A) आत्मविकास
(ix) मनुष्य स्वभाव से ________ है।
(A) प्रेममय
(B) देवतुल्य
(C) स्नेहानुभाजन
(D) सर्वप्रिय
उत्तर – (B) देवतुल्य
(x) साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग है।
(A) पाश्चात्य
(C) प्रान्तीय
(B) देशीय
(D) भारतीय
उत्तर – (D) भारतीय
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक- दो वाक्यों में दीजिए।
(i) जीवन क्यों अनंत और अगम्य है?
उत्तर – जीवन परमात्मा की सृष्टि है, इसलिए अनंत है, अगम्य है।
(ii) साहित्य किसके सामने जवाबदेह है?
उत्तर – साहित्य मनुष्य के सामने जवाबदेह है।
(iii) मनुष्य जीवनपर्यन्त किसकी खोज में लगा रहता है?
उत्तर – मनुष्य जीवनपर्यंत आनंद ही की खोज में लगा रहता है।
(iv) ऐश्वर्य के भोग में क्या छिपा रहता है?
उत्तर – ऐश्वर्य या भोग के आनंद में ग्लानि छिपी होती है।
(v) साहित्य हर एक रस में क्या खोजता है?
उत्तर – साहित्य हर एक रस में सुंदरता खोजता है।
(vi) आत्मा के साथ सत्य के कौन-कौन से तीन संबंध हैं?
उत्तर – आत्मा के साथ सत्य का संबंध तीन प्रकार का है। एक जिज्ञासा का संबंध है, दूसरा प्रयोजन का संबंध है और तीसरा आनंद का।
(vii) जिज्ञासा का संबंध किससे है?
उत्तर – जिज्ञासा का संबंध विचार से है।
(viii) जिसकी आत्मा विशाल है वह कैसा व्यक्ति है?
उत्तर – जिसकी आत्मा विशाल है वह महापुरुष व्यक्ति है।
(ix) कौन-सी प्रवृत्तियाँ दूषित हैं?
उत्तर – अहंकार, क्रोध या द्वेष प्रवृत्तियाँ दूषित हैं।
(x) साहित्य मनोविकारों के रहस्य को खोजकर क्या करता है?
उत्तर – साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर हमारी सद्वृत्तियों को जगाता है।
(xi) किस पर हमारे बड़े-बड़े धर्म स्थिर हैं?
उत्तर – बौद्धों की जातक कथाएँ, तौरेह, कुरान, इंजील ये सभी मानवी कथाओं पर हमारे बड़े-बड़े धर्म स्थिर हैं।
(xii) कौन विशाल हृदय के मनुष्य थे?
उत्तर – धर्म-प्रवर्तक ही विशाल हृदय के मनुष्य थे।
(xiii) मनुष्य कब अपने देवत्व को खो बैठता है?
उत्तर – आज के जमाने के छल-प्रपंच या और परिस्थितियों के वशीभूत होकर मनुष्य अपना देवत्व खो बैठता है।
(xiv) साहित्य किसका स्रष्टा है?
उत्तर – साहित्य सामाजिक आदर्शों का स्रष्टा है।
(xv) व्यास और वाल्मीकि के आदर्शों ने क्या किया है?
उत्तर – व्यास और वाल्मीकि ने जो आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किए हुए हैं।
(xvi) किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति क्या है?
उत्तर – किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं।
(xvii) साहित्यकार को कैसा होना चाहिए?
उत्तर – साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए।
(xviii) साहित्य का उत्थान किसका उत्थान है?
उत्तर – साहित्य का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है।
(xix) अमर साहित्य के रचनाकार वाल्मीकि और व्यास किस प्रकार के
व्यक्ति थे?
उत्तर – अमर साहित्य के रचनाकार वाल्मीकि और व्यास दोनों तपस्वी थे।
(XX) निबंधकार की ईश्वर से क्या प्रार्थना है?
उत्तर – निबंधकार की ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हममें सच्चे साहित्य सेवी उत्पन्न हों, सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी।
3. दो-तीन वाक्यों में उत्तर दीजिए?
(i) साहित्य मनुष्य के सामने क्यों जवाबदेह है?
उत्तर – साहित्य मनुष्य के सामने जवाबदेह है क्योंकि मनुष्य साहित्य को सजींदगी से लेता है। साहित्य की बातें उसे अंदर तक प्रभावित करती हैं। मनुष्य को सच्चा आनंद सुंदर और सत्य से मिलता है, उसी आनंद को दर्शाना, वही आनंद उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य है।
(ii) ऐश्वर्य या भोग के आनंद में ग्लानि क्यों छिपी रहती है?
उत्तर – ऐश्वर्य या भोग के आनंद में ग्लानि छिपी रहती है क्योंकि जब हम भौतिक सुखों को प्रधानता देने लगते हैं तो वह हमारे शरीर को तो सुख दे देती हैं पर मन और आत्मा विक्षिप्त हो जाते हैं। वास्तव में आध्यात्मिक सुख ही सभी सुखों से बड़ा होता है पर अज्ञानता के कारण हम ऐश्वर्य या भोग के आनंद को सर्वोपरि मान बैठते हैं।
(iii) हम ‘कैसी रचना को साहित्य नहीं कहेंगे?
उत्तर – हम उन रचनाओं को साहित्य नहीं कह सकते जिनमें मर्यादाओं का पालन न हुआ हो, जिनमें यथार्थवाद को सही मानकर उसके अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित किया गया हो, जिनमें पुराने ढकोसलों और बंधनों को तोड़ने की जरूरत पर ज़ोर न दिया गया हो, जिनमें बुराइयों के नग्न चित्र खींचने में लेखक ने कृतकार्यता समझी हो।
(iv) पशुओं का जीवन कैसा होता है?
उत्तर – पशुओं का जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना होता है। उनमें जीवन होते हुए भी रचनात्मकता का अभाव है। अपने समुदाय से बाहर वे न तो फिट बैठते हैं और न ही उनका कोई स्वतंत्र वजूद रह जाता है।
(v) धर्माचार्यों ने मानव जीवन की कथाएँ क्यों रचीं?
उत्तर – हमारे धर्माचार्यों ने देखा कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव-जीवन के दुख-सुख के वर्णन से ही हो सकता है इसलिए उन्होंने मानव-जीवन की वे कथाएँ रचीं, जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु हैं। बौद्धों की जातक कथाएँ, तौरेह, कुरान, इंजील ये सभी मानवी कथाओं के संग्रह- मात्र हैं। उन्हीं कथाओं पर हमारे बड़े-बड़े धर्म स्थिर हैं।
(vi) सच्चे साहित्यकार को कैसा होना चाहिए?
उत्तर – सच्चे साहित्यकार को साहित्य उत्थान का परम हितैषी और राष्ट्र उत्थान का परम समर्थक होना चाहिए। उनमें सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी और सच्चे मानव होने के गुण भी अवश्य विद्यमान होने चाहिए।
(vii) यूरोप का साहित्य कैसा है?
उत्तर – यूरोप का साहित्य वहाँ की परिस्थितियों का द्योतक है। हम उस साहित्य में संघर्ष पाएँगे तो कहीं खूनी कांडों का प्रदर्शन, तो कहीं जासूसी कमाल। ऐसा लगता है मानो जैसे सारी संस्कृति उन्मत्त होकर मरू में जल खोज रही है।
4. निम्न प्रश्नों के उत्तर लगभग दस-बारह वाक्यों में दीजिए।
(i) जीवन अगम्य और साहित्य सुगम क्यों है?
उत्तर – जीवन परमात्मा की सृष्टि है, इसलिए अनंत है, अगम्य है। साहित्य मनुष्य की सृष्टि है, इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिमित है। जीवन परमात्मा के अपने कामों का जवाबदेह हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह है। साहित्यकार अपने साहित्य को इस तरह से पाठकों के समक्ष उपस्थित करता है जिससे पाठक उस पाठ का रसास्वादन करते हुए खुद को और समाज को बेहतर बनाते हुए दिखता है।
(ii) मनुष्य को आनंद कहाँ-कहाँ मिलता है:
उत्तर – जीवन का उद्देश्य ही आनंद है। मनुष्य जीवनपर्यंत आनंद की खोज में लगा रहता है। किसी को आनंद रत्न द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लंबे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में, किसी को भोग-विलास में, किसी को हिंसात्मक गतिविधियों में। लेकिन साहित्य का आनंद सभी प्रकार के आनंद से ऊँचा है, पवित्र है क्योंकि इसका आधार सुंदर और सत्य होता है। वास्तव में सच्चा आनंद सुंदर और सत्य से ही मिलता है, यह आनंद अखंड और अमर होता है।
(iii) साहित्य हर एक रस में सुंदर को कैसे खोजता है?
उत्तर – साहित्य हर एक रस में सुंदरता खोज लेता है, जैसे- राजा के महल में, रंक की झोंपड़ी के शिखर पर, गंदे नालों के अंदर, ऊषा की लाली में, सावन-भादों की अँधेरी रात में और यह आश्चर्य की बात है कि रंक की झोपड़ी में जितनी आसानी से सुंदर मूर्तिमान दिखाई देता है, महलों में नहीं। महलों में तो वह खोजने से मुश्किलों से मिलता है। यहाँ लेखक यह कहना चाहते हैं कि आनंद हृदय की वस्तु होती है। साकारात्मकता और उत्तम दृष्टिकोण से आनंद की प्राप्ति सहज ही की जा सकती है।
(iv) लेखक ने साहित्य में शृंगार रस को ही एक मात्र रस क्यों माना है?
उत्तर – लेखक ने साहित्य में शृंगार रस को ही एक मात्र रस माना है क्योंकि शृंगारविहीन और असुंदर रचना में साहित्यिक दृष्टि से कोई रस नहीं रहता और न उस रचना की गणना साहित्य में की जा सकती है। ऐसी रचनाएँ केवल वासना-प्रधान होती है जिसका उद्देश्य कुत्सित भावों को जगाना होता है। दूसरी तरफ़ ऐसी रचनाएँ केवल बाह्य जगत् से संबंध रखती है और मानव को समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्वों से विछिन्न कर देती है।
(v) सत्य से आत्मा के तीन संबंधों को समझाइए।
उत्तर – सत्य से आत्मा का संबंध तीन प्रकार का है। एक जिज्ञासा का संबंध है, दूसरा प्रयोजन का संबंध है और तीसरा आनंद का। जिज्ञासा का संबंध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का संबंध विज्ञान का विषय है और साहित्य का संबंध केवल आनंद से है। उदाहरण के लिए हिम से ढँके हुए पर्वत पर ऊषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसंधान की और साहित्यिक के लिए विह्वलता की।
(vi) हमें बाधक प्रवृत्तियों पर रोक लगाने की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर – हमें इस विश्वास और उद्देश्य के साथ अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहिए कि अपने जीवन को हम अनुकरणीय बनाएँगे। लेकिन जिससे हमारे विश्वास और उद्देश्य के साथ सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित हैं। अहंकार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हैं। यदि हम इनको बेरोक टोक चलने दें, तो निस्संदेह वह हमें नाश और हमें पतन की ओर ले जाएँगी। इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिसमें वे अपनी सीमा से बाहर न जा सकें। हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हैं, उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता है।
(vii) साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं हृदय की वस्तु है। ऐसा लेखक ने क्यों कहा है?
उत्तर – देखिए, यदि हम नटखट लड़कों को डाँटकर कहें – “तुम बड़े बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड़ लेंगे” यह अक्सर व्यर्थ ही होता है, बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता है। जरूरत यह होती है कि बालक में जो सद्वृत्तियाँ हैं, उन्हें उत्तेजित किया जाए ताकि दूषित वृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से शांत हो जाएँ। साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। सत्य को रसों द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार- पुचकारकर बच्चों को जितनी सफलता से वश में किया जा सकता है, डाँट- फटकार से संभव नहीं। इसलिए लेखक ने कहा है कि साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है।
(viii) हमारे धर्माचार्यों ने मानव जीवन की कथाएँ क्यों रचीं?
उत्तर – हमारे धर्माचार्यों ने यह महसूस किया कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव-जीवन के दुख-सुख के वर्णन से ही हो सकता है और उन्होंने मानव-जीवन की वे कथाएँ रचीं, जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु हैं। बौद्धों की जातक कथाएँ, तौरेह, कुरान, इंजील ये सभी मानवी कथाओं के संग्रह हैं। उन्हीं कथाओं पर हमारे बड़े-बड़े धर्म स्थिर हैं। वही कथाएँ धर्मों की आत्मा है। उन कथाओं पर हमारे धर्म का अस्तित्व टिका है। उन धर्म-प्रवर्तकों ने मानवी जीवन की कथाओं का आश्रय लिया ताकि सभी के हृदय तक मानवता का संदेश पहुँचाया जा सके।
(ix) साहित्य को निबंधकार जादू की लकड़ी क्यों मानते हैं?
उत्तर – साहित्य को निबंधकार जादू की लकड़ी मानते हैं क्योंकि साहित्य पशुओं में, ईंट-पत्थरों में, पेड़- पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है। साहित्य मानव मन में उत्तम परिवर्तन ला सकती है। जब नादिरशाह दिल्ली में कत्ले आम कर रहा था तो साहित्य रचना के माध्यम से ही उसे रोका जा सका और आमेर के राजा जयसिंह जब नवविवाहिता के प्रेम में पड़कर राजकार्य से विमुख हो गए थे तो बिहारी का दोहा ही उन्हें उनके कर्तव्यों की याद दिलाने में सक्षम हुआ था।
(x) साहित्य अपने देश काल से कैसे प्रभावित होता है?
उत्तर – साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है तदनुसार साहित्य भी प्रभावित होता है। जब देश में कोई आपदा आती है, या ऊँचे पदों पर आसीन अधिकारी कोई घोटाला करते हैं, या सत्ता या निज़ाम जन अवहेलना करते हैं, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बंधुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रूदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है और साहित्य की रचना करता है। ऐसा साहित्य अपने देश काल से प्रभावित होता है। ‘टॉम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है।
(xi) जीवन में साहित्य की उपयोगिता के विषय में कभी-कभी संदेह क्यों किया जाता है?
उत्तर – जीवन में साहित्य की उपयोगिता के विषय में कभी-कभी संदेह किया जाता है और ऐसा कहा जाता है, जो स्वभाव से अच्छे हैं, वह अच्छे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़ें। जो स्वभाव से बुरे हैं, वह बुरे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़े। इसे सत्य मान लेना मानव – चरित्र को बदल देने जैसा होगा। जो सुंदर है, उसकी ओर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। हम कितने ही पतित हो जाएँ, पर असुंदर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकता। हम कर्म चाहे कितने ही बुरे करें, पर यह असंभव है कि करुणा और दया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलों पर असर न हो। निर्दयी नादिरशाह ने भी साहित्य की बदौलत दिल्ली के कत्ले आम को रुकवा दिया था।
(xii) साहित्यकारों को क्यों आदर्शवादी होना चाहिए?
उत्तर – साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए क्योंकि जब तक साहित्य सेवी आदर्शवादिता तक नहीं पहुँचेंगे, तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नहीं की जा सकती। अमर साहित्य के निर्माता विलासी प्रवृत्ति के कवि नहीं हुआ करते थे। वाल्मीकि और व्यास दोनों तपस्वी थे। सूर और तुलसी भी विलासिता के उपासक न थे। कबीर भी तपस्वी ही थे। इन सबमें एक चीज़ जो सामान्य थी वह था ‘आदर्शवाद’। आदर्शवाद के कारण ही इनका साहित्य कालजयी साबित हुआ है।