उदय प्रकाश – अपराध

जन्म 1 जनवरी 1952

उदय प्रकाश का जन्म मध्यप्रदेश के शहडोल (अब अनूपपुर) जिले के सीतापुर गाँव में हुआ। उन्होंने 1974 में सागर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी) तथा 1976 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की डिग्री हासिल की। 1978 में जे. एन. यू में अध्यापन किया। फिर 1980 में मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अधिकारी बने। आगे चलकर ‘दिनमान’ और ‘संडे मेल’ पत्रिकाओं के सह-संपादक बने। 1990 में दूरदर्शन में भी काम किया। 1993 से वे पूर्ण रूप से साहित्य सृजन में समर्पित रहे हैं।  

उदय प्रकाश एक कवि और कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित तो हैं ही, साथ ही एक कुशल संपादक, प्रशासक, अनुवादक, टी.वी. निर्देशक, शोधकर्ता भी हैं। अपनी रचनाओं के लिए उन्हें कई पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा मेमोरियल एवार्ड (1990) हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान। (1999) आदि मिल चुके हैं।

प्रमुख कृतियाँ

कविता-संग्रह: अबूतर – कबूतर, रात में हारमोनियम, एक भाषा हुआ करती है।

कहानी-संग्रहः दरियाई घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉल गोमरा का स्कूटर, पीली छतरी वाली लड़की, दत्तात्रेय के दुख, मोहनदास, अरेबा परेबा, मैंगोसिल

निबंध, समालोचना और साक्षात्कारः ईश्वर की आँख, नई सदी का पंचतंत्र, अपनी उनकी बात

‘अपराध’ उदय प्रकाश की एक अच्छी कहानी है। इसमें एक बच्चे के बचपन की एक अविस्मरणीय घटना का वर्णन है। बड़ा भाई पोलियो का शिकार है जो अपने छोटे और कमजोर भाई से बहुत प्यार करता है और उसका बड़ा ख्याल भी रखता है। हार की परवाह किए बिना उसे अपने खेलों में शामिल करता है। परंतु एक दिन बिना पाली वाले खड़ब्बल खेल में उसकी अनदेखी किए जाने का गुस्सा छोटा भाई अपने बड़े भाई पर उतारता है। छोटे भाई में अपने बड़े भाई के प्रति ईर्ष्या और प्रतिशोध की भावना पैदा होती है। जब वह गुस्से से खड़ब्बल को एक पत्थर पर पटकता है, तब अचानक खड़ब्बल चट्टान से टकराकर उछलता है और उसके माथे पर लगता है। माथे से खून बहता है। इससे उसे अपने भाई को अपनी उपेक्षा करने का दंड देने का मौका मिल जाता है। पिता-माता से भाई की झूठी शिकायत करता है कि बड़े भाई ने ही मुझे खड़ब्बल से सिर पर मारा है और पिताजी के हाथों निर्दोष भाई को पिटवाता है। भाई के निर्दोष होने की बात नहीं सुनी जाती। मार खाते समय बच्चे की ओर भाई की कातर आँखें बचाव की याचना करती हैं। यह घटना वर्षों पुरानी हो जाती है। बच्चे के पिता-माता अब नहीं रहते। बच्चा अब बड़ा हो जाता है, परंतु उसकी स्मृति में बीती हुई यह घटना आती रहती है। बार- बार भाई की वे कातर आँखें उसे बेचैन कर डालती हैं। उसमें अपराधबोध पैदा होता है। अपनी गलती की सजा हर पल झेलता रहता है।

कहानीकार इस कथा के जरिए पाठकों से यह आग्रह करते हैं कि जीवन में इस प्रकार का अपराध नहीं होना चाहिए जिससे कि ज़िंदगी भर पछतावे की आग में जलना पड़े।

मेरे भाई मुझसे छह साल बड़े थे। आश्चर्य था कि पूरे गाँव में सभी लड़के मुझसे छह वर्ष बड़े थे। मैं इसीलिए सबसे छोटा था और अकेला था। सब खेलते तो उनके पीछे मैं लग जाता।

मेरे भाई बचपन से अपाहिज थे। उनके एक पैर को पोलियो हो गया था। लेकिन वे बहुत सुंदर थे। देवताओं की तरह। वे आसपास के कई गाँवों में सबसे अच्छे तैराक थे और उनको हाथ के पंजों की लड़ाई में कोई नहीं हरा सकता था। घूँसे से नारियल और ईंटे तोड़ देते थे।

जबकि मैं दुबला-पतला था। कमजोर और चिड़चिड़ा। मुझे अपने भाई से ईर्ष्या होती थी क्योंकि उनके बहुत सारे दोस्त थे।

मैं सबसे छोटा था इसीलिए मैं भाई के लिए एक उत्तरदायित्व की तरह था। वे मुझसे प्यार करते थे और मेरे प्रति उनका रूख एक संरक्षक की जिम्मेदारी जैसा था।

सब खेलते और मैं छोटा होने के कारण अकेला पड़ जाता तो भाई आकर मेरी मदद करते। जोड़ी और पालीवाले कई खेलों में वे मुझे अपनी पाली में शामिल कर लेते थे। कोई दूसरा लड़का अपनी पाली में मुझे शामिल करके हार का खतरा नहीं उठाना चाहता था। अकसर भाई मेरी वजह से ही हारते। फिर भी वे मुझसे कभी कुछ नहीं कहते थे। मैं उनकी जिम्मेदारी था और वह उसे निभाना चाहते थे। जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने कभी मुझे नहीं मारा।

जो कुछ मैं बताने जा रहा हूँ उसका सम्बन्ध भाई और मुझसे ही है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण घटना है। ऐसी घटना जो जीवन भर आपका साथ

नहीं छोड़ती और अक्सर स्मृति में, बीच-बीच में, कहीं अचानक सुलगने लगती है। किसी अँगारे की तरह।

हुआ उस दिन यह कि मैं भाई के साथ खेलने गया। उस दिन बारिश हो चुकी थी और शाम की ऐसी धूप फैली हुई थी जो शरीर में उल्लास भरा करती है। ऐसे में कोई भी खेल बहुत तेज गतिमय और सम्मोहक हो जाता है।

सभी लड़के खड़ब्बल खेल रहे थे। लकड़ी की छोटी-छोटी डण्डियाँ हर लड़के के पास थीं। पूरी ताकत से खडब्बल को जमीन पर, आगे की ओर गति देते हुए, सीधे मारा जा रहा था। ताकत और संवेग से नम धरती पर गिरा हुआ खडब्बल गुलाटियाँ खाते हुए बहुत दूर तक जाता था।

मुझमें न इतनी ताकत थी, न मैं इतना बड़ा था कि खड़ब्बल उतनी दूर तक पहुँचाता, जबकि वहाँ एक होड, एक प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो चुकी थी। कोई भी हारना नहीं चाहता था। यह एक ऐसा खेल था जिसमें कोई पाली नहीं होती, कोई किसी का जोड़ीदार नहीं होता। हर कोई अपनी अकेली क्षमता से लड़ता है।

भाई भी उस खेल में डूब गए थे। वे कई बार पिछड़ रहे थे, इसलिए गुस्से और तनाव में और ज्यादा ताकत से खड़ब्बल फेंक रहे थे।

वे मुझे भुला चुके थे। और मैं अकेला छूट गया था। छह वर्ष पीछे। कमजोर। उस दिन, उस खेल में शामिल होने के लिए मुझे छह वर्षों की दूरी पार करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकता था।

भाई जीतने लगे थे। उनका चेहरा खुशी और उत्तेजना में दहक रहा था। उन्होंने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा। वे मुझे पूरी तरह भूल चुके

मुझे पहली बार यह लगा कि मैं वहाँ कहीं नहीं हूँ।

मुझे रोना आ रहा था और भाई के प्रति मेरे भीतर एक बहुत जबर्दस्त प्रतिकार पैदा हो रहा था। मैं अपने खड़ब्बल को, अकेला अलग खड़ा हुआ एक पत्थर पर पटक रहा था। मैं ईर्ष्या, आत्महीनता, उपेक्षा और नगण्यता की आँच में झुलस रहा था।

तभी अचानक मेरा खड़ब्बल चट्टान से टकराकर उछला और सीधे मेरे माथे पर आकर लगा। माथा फूट गया और खून बहने लगा। मैं चीखा तो भाई मेरी ओर दौड़े। खेल बीच में ही रुक गया था।

“क्या हुआ? क्या हुआ?” भाई घबरा गए थे और मेरे माथे को अपनी हथेली से दबा रहे थे। मेरा गुस्सा मिटा नहीं था। मैं भाई को अपनी उपेक्षा का दंड देना चाहता था।

मैंने भाई को झटक दिया और खुद को छुड़ाकर घर की ओर भागा। भाई डर गए थे और दौड़कर मुझे मनाना चाहते थे। लेकिन उनका दायाँ पैर पोलियो का शिकार था इसलिए वे मेरे साथ दौड़ नहीं सकते थे। उन्होंने लँगड़ाकर दौड़ने की कोशिश भी की लेकिन वे गिर गए।

मेरी कमीज खून से भीग गई थी। सिर के बाल खून से लिथड़ गए थे। माँ मुझे देखकर डर गई और रोने लगी। पिताजी घबराए हुए घाव पर पावडर डालने लगे।

मैंने रोते हुए माँ को बताया कि मुझे भाई ने खड़ब्बल से मारा है। तभी मैंने देखा कि भाई लँगड़ाते हुए चले आ रहे थे। अकेले। उनको आशंका हो गई होगी। वे डरे हुए रहे होंगे।

भाई बार-बार कहते रहे कि मैंने इसे नहीं मारा, लेकिन पिताजी उन्हें

पीटे जा रहे थे। भाई रो रहे थे। वे सच बोल रहे थे। लेकिन उन्हें सजा मिल रही थी।

मैंने भाई का चेहरा देखा। वे मेरी ओर देख रहे थे। उनकी आँखें लाल थीं और उनमें करुणा और कातरता थी, जैसे वे मुझसे याचना कर रहे हों कि मैं सच बोल दूँ। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। उन्हें सजा मिल चुकी थी। फिर इतनी जल्द बात को बिल्कुल बदलना मुझे संभव भी नहीं लग रहा था। क्या पता, पिताजी फिर मुझे ही मारने लगते। मैं डर गया था।

यह घटना वर्षों पुरानी है। लेकिन भाई की वे कातर आँखें अब भी मुझे कभी-कभी घूरने लगती हैं। याचना करती हुई, सच बोलने की भीख माँगती हुई। मेरी स्मृति में जब भी वे आँखें जाग उठती हैं, मेरी पूरी चेतना ग्लानि, बेचैनी और अपराध-बोध से भर उठती है।

मैं अपने इस अपराध के लिए क्षमा माँगना चाहता हूँ। इस अपराध की सजा पाना चाहता हूँ। लेकिन अब तो माँ और पिताजी भी नहीं हैं, जिनसे मैं यह बताऊँ कि उस दिन ठीक-ठीक क्या हुआ था।

भाई ही मुझे क्षमा कर सकते हैं, जिन्हें मेरे झूठ का दंड भोगना पड़ा। उनसे मैंने इस घटना का जिक्र भी करना चाहा, लेकिन उन्हें वह घटना याद ही नहीं। वे इसे बिल्कुल, पूरी तरह भूल चुके हैं।

तो इस अपराध के लिए मुझे क्षमा कौन कर सकता है? क्या यह ऐसा अपराध नहीं है जिसके बारे में लिया गया जो निर्णय था, वह गलत और अन्यायपूर्ण था, लेकिन जिसे अब बदला नहीं जा सकता?

और क्या यह ऐसा अपराध नहीं है, जिसे कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता? क्योंकि इससे मुक्ति अब असंभव हो चुकी है।

अपाहिज – काम न करने योग्य, लूला-लंगड़ा, पंगु।

उत्तरदायित्व – जिम्मेदारी।

संरक्षक – अभिभावक, देखभाल करनेवाला।

रूख – मनोभाव।

सम्मोहक – लुभावना, आकर्षक।

पाली – पारी, बारी।

प्रतिकार – बदले की भावना।

नगण्यता – नीचता, हीनता।

उपेक्षा – अनादर सजा दंड।

कातरता – दीनता।

याचना – माँगना।

ग्लानि – पछतावा

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए।

(क) लेखक के बड़े भाई का स्वभाव कैसा था?

उत्तर – लेखक के बड़े भाई का स्वभाव बड़ा नम्र और उदार था। वे देवताओं की तरह बहुत सुंदर थे। वे आस-पास के कई गाँवों में सबसे अच्छे तैराक थे और बाहुबल उनमें बहुत था तभी तो गाँव का कोई भी लड़का उनसे पंजेबाजी में जीत नहीं पाता था। घूँसे से नारियल और ईंटे तोड़ देते थे। पोलियो से ग्रसित होने के बाद भी उसमें आत्मविश्वास की तनिक भी कमी न थी। हर खेल में प्राय: वे जीता ही करते थे। अपने छोटे भाई से बहुत स्नेह करते थे। एक तरह से वे अपने छोटे भाई के संरक्षक ही थे।

(ख) बड़े भाई लेखक के साथ अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाते थे?

उत्तर – बड़े भाई लेखक अर्थात् अपने छोटे भाई का सदा ध्यान रखा करते थे। यह जानते हुए भी कि उनका छोटा भाई कमजोर है और उसे अपने दल में रखने से वे हार जाएँगे बिना इसकी परवाह किए वे खेला करते थे और हार जाने के बाद कभी भी अपने छोटे भाई को एक शब्द भी नहीं कहा करते थे। यहाँ तक कि अपने छोटे भाई द्वारा झूठे आरोप के कारण मार खाने पर भी वह अपने भाई के प्रति पूर्ववत् व्यवहार ही रखते हैं।  

(ग) लेखक का माथा कैसे फूटा?

उत्तर – एक दिन खड़ब्बल के खेल में जिसमें कोई दल नहीं होता और  सबको अलग-अलग खेलना होता है। लेखक इस खेल में बहुत पीछे रह गए और उसके बड़े भाई खेल में पूरे डूब गए क्योंकि वे भी दूसरे खिलाड़ियों से पीछे हो चुके थे। गुस्से और तनाव के कारण वे खड़ब्बल दूर फेंकने की कोशिश कर रहे थे और उन्हें सफलता भी मिल रही थी। इसी दौरान उन्होंने अपने भाई की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इधर छोटा भाई अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगा और क्रोध के कारण अपने खड़ब्बल क पत्थर पर पटकने लगा। तभी उनका खड़ब्बल उछलकर उनके सिर से जा टकराया और उनका माथा फूट गया।

(घ) लेखक ने अपने माथा फूटने का दोष भाई पर क्यों लगाया? क्या ऐसा करना उचित था? तर्क सहित उत्तर दीजिए।

उत्तर – लेखक ने अपने माथा फूटने का दोष अपने बड़े भाई पर लगाया क्योंकि वह अपने बड़े भाई से उनकी उपेक्षा और उनका ध्यान नहीं रखने का बदला लेना चाहता था। ऐसा करना सर्वथा अनुचित है क्योंकि कोई भी व्यक्ति इस दुनिया में आज तक नहीं जन्मा जिससे कभी कोई गलती न हुई हो। उसका बड़ा भाई खड़ब्बल के खेल में पीछे रह जाने के कारण खुद ही तनाव में था। इसी क्रम में वह अपने भाई की ओर ध्यान नहीं दे पाया। लेकिन जब उसे अपने भाई के सिर फूटने का पता चला तो वह बहुत परेशान हो उठा था और लंगड़ाते-लंगड़ाते अपने भाई के पीछे घर तक पहुँच गया। इससे यह पता चलता है कि उसे अपने छोटे भाई से बहुत स्नेह है।  

(ङ) “भाई की वे कातर आँखें अब भी मुझे कभी – कभी घूरने लगती हैं।” – इस कथन का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – लेखक ने माथा फूटने का सारा आरोप बड़े भाई पर लगा दिया। इस बात पर क्रोधित पिताजी ने जब बड़े भाई की पिटाई शुरू की तब बड़ा भाई छोटे भाई की तरफ कातर आँखों से देख रहा था। मानो वे कह रहे हों कि सबको सच बता दो। मेरी कोई गलती नहीं है। मैंने कोई भी अपराध नहीं किया है। इस घटना के कई दिन बीत जाने के बाद भी लेखक को अपने बड़े भाई की आँखों में वही निवेदन और निरपराध होने का भाव नज़र आता है। लेखक को अब भी अपने कृत्य पर घृणा आती है और वह पश्चात्ताप के आँसू बहता है।

(च) लेखक के लिए अपने अपराध से मुक्ति पाना क्यों असंभव हो चुका है?

उत्तर – कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिसकी सज़ा के लिए कानून विधान है। लेकिन कुछ अपराध ऐसे भी होते हैं जिसकी सज़ा के लिए कानून विधान नहीं होता है। इसे हम पाप की श्रेणी में रखते हैं। लेखक ने बड़े भाई से अपना प्रतिशोध लेने के लिए उन पर झूठा आरोप लगा दिया। बाद में उन्हें इस बात का बहुत पछतावा भी हुआ और अपने इस पाप का वे प्रायश्चित भी करना चाहते थे लेकिन अब उनके माता-पिता इस दुनिया में रहे ही नहीं। अब वे सच बताए भी तो किसे? यही पीड़ा उन्हें जीवन भर सालती रहेगी कि वे अपने पाप का प्रायश्चित कभी भी नहीं कर सकते।

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