Class +2 Second Year CHSE, BBSR Sahitya Sudha Solutions Baalkrishna Bhatt Aatmanirbharata बालकृष्ण भट्ट- आत्मनिर्भरता

इस पाठ को पढ़ने के बाद आप ये जान/बता पाएँगे

  • आत्मनिर्भरता के अनगिनत लाभ।
  • लेखक बालकृष्ण भट्ट के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की जानकारी
  • सभी प्रकार के बाहरी बलों से श्रेष्ठ है – ‘आत्मबल’
  • विकसित देशों की विकास यात्रा में आत्मनिर्भरता की भूमिका
  • अतीत में हुई या की गई गलतियों को न दोहराने की सीख
  • दार्शनिकों तथा महापुरुषों के सफलता का सूत्र
  • भाषा ज्ञान
  • अन्य जीवनोपयोगी जानकारियाँ

जीवन वृत्त

    पंडित बाल कृष्ण भट्ट के पिता का नाम पंडित वेणी प्रसाद था। स्कूल में दसवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद भट्ट जी ने घर पर ही संस्कृत का अध्ययन किया। संस्कृत के अतिरिक्त उन्हें हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। भट्ट जी स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्होंने व्यापार का कार्य किया तथा वे कुछ समय तक कायस्थ पाठशाला प्रयाग में संस्कृत के अध्यापक भी रहे किन्तु उनका मन किसी में नहीं रमा। भारतेंदु जी से प्रभावित होकर उन्होंने हिंदी-साहित्य सेवा का व्रत ले लिया। भट्ट जी ने हिंदी प्रदीप नामक मासिक पत्र निकाला। इस पत्र के वे स्वयं संपादक थे।

कृतित्व

    बालकृष्ण भट्ट का हिंदी के निबंधकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। निबंधों के प्रारंभिक युग को निःसंकोच भाव से भट्ट युग के नाम से अभिहित किया जा सकता है। व्यंग्य विनोद संपन्न शीर्षकों और लेखों द्वारा एक ओर तो भट्टजी प्रताप नारायण मिश्र के निकट हैं और गंभीर विवेचन एवं विचारात्मक निबंधों  के लिए वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निकट हैं। भट्टजी अपने युग के न केवल सर्वश्रेष्ठ निबंधकार थे, अपितु इन्हें संपूर्ण हिंदी साहित्य में प्रथम श्रेणी का निबंध लेखक माना जाता है। इन्होंने साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक, नैतिक और सामयिक आदि सभी विषयों पर विचार व्यक्त किये हैं। इन्होंने तीन सौ से अधिक निबंध लिखे हैं। इनके निबंधों का कलेवर अत्यंत संक्षिप्त है तथा तीन पृष्ठों में ही समाप्त हो जाते हैं। इनकी कृतियों की सूची कुछ इस प्रकार है –

निबंध संग्रह – साहित्य सुमन और भट्ट निबंधावली।

उपन्यास – नूतन ब्रह्मचारी तथा सौ अजान एक सुजान।

मौलिक नाटक – दमयंती, स्वयंवर, बाल-विवाह, चंद्रसेन, रेल का विकट खेल, आदि।

अनुवाद –  भट्ट जी ने बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के अनुवाद भी किए जिनमें वेणीसंहार, मृच्छकटिक, पद्मावती आदि प्रमुख हैं।

आत्मनिर्भरता के लाभ – पंडित बालकृष्ण भट्ट ने आत्मनिर्भरता से होने वाले अनेक लाभों का ज़िक्र यहाँ किया है। आत्मनिर्भरता हमें सामान्य से विशेष की कोटि में ला खड़ा करता है, ठीक वैसे ही जैसे जल में तूंबी। पाठ में आत्मनिर्भरता को सभी प्रकार से मुख्य गुण घोषित किया गया है। व्यक्ति भले ही सभी प्रकार के बलों से समृद्ध हो फिर भी निज बाहु बल ही उसका श्रेष्ठ बल होता है।

यूरोप के देशों की उन्नति का कारण – आज  यूरोप के देश, अमेरिका और जापान की आशातीत सफलता का कारण आत्मनिर्भरता और अपने देश के लिए प्रेम की भावना ही है। किसी भी देश की उन्नति रातों-रात नहीं होती बल्कि उन्नति के मार्ग पर अनेक पीढ़ियों के पदचिह्न होते हैं जो उन्नति को शिखर तक ले जाते हैं।

सरकारी कानून और आत्म-मंथन – आत्मनिर्भरता का गुण किसी भी सरकार द्वारा लागू किए गए नियम से लोगों में पैदा नहीं किया जा सकता बल्कि यह तो आत्म-मंथन और वैचारिक क्रांति से ही उपजता है। सरकारी नियम समाज के लिए उतने हितकारक नहीं होते जितना कि आत्मनिर्भरता का गुण। आत्मनिर्भरता से ही परिवार, समाज और राष्ट्र प्रगति की ओर उन्मुख होता है।

आलसी लोगों की मानसिकता – ऐसे लोग भाग्य के सहारे अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। उनके मन में यह बात पैर तोड़ कर बैठ चुकी है कि जो मेरे किस्मत में होगा वो मुझे मिलेगा ही मिलेगा। ईश्वर ने मुझे किस्मत देकर भेजा है और मेरे हिस्से का मुझसे कोई नहीं छीन सकता। ऐसे लोग समाज के लिए क्षतिकारक होते हैं। उन्हें इस बात का भी इल्म नहीं कि ईश्वर भी उन्हीं की मदद करते हैं जो अपनी मदद खुद करते हैं। ऐसे लोगों की सोहबत किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिव को मलिन कर सकती हैं और इनकी बातें चंडूखाने की गप जैसी होती हैं अर्थात् झूठी और बेतुकी बातें।

महाकवि एवं दार्शनिक के विचार – पाठ में महाकवि भारवि के विचार “तेज़ और प्रताप से संसार भर को अपने नीचे करते हुए ऊँची उमंग वाले दूसरों के द्वारा अपना वैभव नहीं बढ़ाना चाहते” और पाश्चात्य दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का सिद्धांत “राजा का भयानक से भयानक अत्याचार देश पर कभी कोई असर पैदा नहीं कर सकता जब तक उस देश के एक-एक व्यक्ति में अपने सुधार की अटल वासना दृढ़ता के साथ बद्धमूल है” ये कथन और सिद्धांत आत्मनिर्भरता के संदर्भ में शत-प्रतिशत सही है क्योंकि आत्मनिर्भरता बाहरी तत्त्व न होकर भीतरी तत्त्व है जिसे व्यक्ति स्वयं ही नियमित करता है।

शिक्षा का उद्देश्य –  व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए। किताबी ज्ञान को व्यावहारिक और क्रियात्मक रूप में प्रयोग करना ही वास्तविक शिक्षा का ध्येय है। इस प्रकार की शिक्षा हमें किसान, मज़दूर, दुकानदार, बढ़ई, लोहार आदि से मिल सकती है।  

महापुरुषों की जीवनियाँ –  महापुरुषों की जीवनियाँ हमारे लिए प्रेरणा स्रोत बन सकती है लेकिन उनकी जीवनियों को पढ़ लेने मात्र से नहीं बल्कि उनके कर्मों का अनुकरण करके। उनकी जीवनियों से हम यह जान पाते हैं कि बड़प्पन, कर्मठता, भलमनसाहत किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं होती है। जाति, वर्ग और जन्म के परे कोई भी बड़ा काम करे जिससे सर्वसाधारण का उपकार हो वही सज्जन और सत्पुरुषों की कोटि में आ सकते हैं। और उनके जन्म देने वाली जननी वीर-प्रसू कहलाती हैं। 

आत्मनिर्भरता (अपने भरोसे पर रहना) ऐसा श्रेष्ठ गुण है कि जिसके न होने से पुरुष में पौरुषेयत्व का अभाव कहना अनुचित नहीं मालूम होता। जिनको अपने भरोसे का बल है, वे जहाँ हांगे, जल में तूंबी के समान सब के ऊपर रहेंगे। ऐसा ही के चरित्र पर लक्ष्य कर महाकवि भारवि ने कहा है कि तेज और प्रताप से संसार भर को अपने नीचे करते हुए ऊँची उमंग वाले दूसरों के द्वारा अपना वैभव नहीं बढ़ाना चाहते। शारीरिक बल, चतुरंगिनी सेना का बल, प्रभुता का बल, ऊँचे कुल में पैदा होने का बल, मित्रता का बल, मंत्र-तंत्र का बल इत्यादि जितने बल हैं, निज बाहुबल के आगे सब क्षीण बल हैं। आत्मनिर्भरता की बुनियाद यह बाहु-बल सब तरह के बलों को सहारा देने वाला और उभारने वाला है।

यूरोप के देशों की जो इतनी उन्नति है तथा अमेरिका, जापान आदि जो इस समय मनुष्य जाति के सरताज हो रहे हैं, इसका यही कारण है कि उन देशों में लोग अपने भरोसे पर रहना या कोई काम करना अच्छी तरह जानते हैं। हिन्दुस्तान का जो सत्यानाश है, इसका यही कारण है कि यहाँ के लोग अपने भरोसे पर रहना भूल ही गए। इसी से सेवकाई करना यहाँ के लोगों से जैसी खूबसूरती के साथ बन पड़ता है, वैसा स्वामित्व नहीं। अपने भरोसे पर रहना जब हमारा गुण नहीं, तब क्यों कर संभव है कि हमारे में प्रभुत्व- शक्ति को अवकाश मिले।

निरी किस्मत और भाग्य पर वे ही लोग रहते हैं जो आलसी हैं। किसी ने अच्छा कहा है- “देव देव आलसी पुकारा”।

ईश्वर भी सानुकूल और सहायक उन्हीं का होता है, जो अपनी सहायता अपने आप कर सकते है। अपने आप अपनी सहायता करने की वासना आदमी में सच्ची तरक्की की बुनियाद है। अनेक सुप्रसिद्ध सत्पुरूषां की

जीवनियाँ इसके उदाहरण तो हैं ही, वरन् प्रत्येक देश या जाति के लोगों में बल और ओज तथा गौरव और महत्व के आने का सच्चा द्वार आत्मनिर्भरता है। बहुधा देखने में आता है कि किसी काम के करने में बाहरी सहायता इतना लाभ नहीं पहुँचा सकती, जितनी आत्मनिर्भरता।

समाज के बंधन में भी देखिये, तो बहुत तरह के संशोधन सरकारी कानूनों के द्वारा वैसे नहीं हो सकते, जैसे समाज के एक-एक मनुष्य के अलग-अलग अपने संशोधन अपने आप करने से हो सकते हैं।

कड़े से कड़े नियम आलसी समाज को परिश्रमी, अतिव्ययी को परिमित व्ययशील, शराबी को संयमी, क्रोधी को शांत या सहनशील, क्रूर को उदार, लोभी को संतोषी, मूर्ख को विद्वान्, दर्पान्ध को नम्र, दुराचारी को सदाचारी, कदर्य को उन्नतमना, दरिद्र भिखारी को धनाढ्य, भीरू – डरपोक को वीर धुरीण, झूठे गपोड़िये को सच्चा, चोर को सहनशील, व्यभिचारी को एक -पत्नी व्रतधारी इत्यादि नहीं बना सकता किन्तु ये सब बातें हम अपने ही प्रयत्न और चेष्टा से अपने में ला सकते हैं।

सच पूछो जो जाति भी ऐसे ही सुधरे एक-एक अलग-अलग अपने को सुधारे, तो जाति की जाति या समाज का समाज सुधर जाए।

सभ्यता और है क्या? यही कि सभ्य जाति के एक-एक मनुष्य आबाल, वृद्ध, वनिता सब में सभ्यता के सब लक्षण पाये जाएँ। जिसमें आधे या तिहाई सभ्य हैं, वही जाति अर्द्धशिक्षित कहलाती है। जातीय उन्नति भी अलग-अलग एक-एक आदमी के परिश्रम, योग्यता- सुचाल और सौजन्य का मानो जोड़ है। उसी तरह जाति की अवनति एक-एक आदमी की सुस्ती, कमीनापन, नीची प्रकृति, स्वार्थपरता और भाँति-भाँति की बुराइयों का बड़ा जोड़ है। इन्हीं गुणों और अवगुणों को जाति-धर्म के नाम से भी पुकारते हैं, जैसे सिक्खों में वीरता और जंगली जातियों में लुटेरापन।

जातीय गुणों को सरकार कानून के द्वारा रोक या जड़ मूल से नष्ट- भ्रष्ट नहीं कर सकती, वे किसी दूसरी शक्ल में न सिर्फ फिर से उभर आएँगे वरन् पहले से ज्यादा तरोताजगी और हरियाली की हालत में हो जाएँगे। जब तक किसी जाति के हर एक व्यक्ति के चरित्र में आदि से मौलिक सुधार न किया जाए, तब तक पहले दर्जे का देशानुराग और सर्वसाधारण के हित की वांछा सिर्फ कानून के अदलने-बदलने से, या नए कानून के जारी करने से, नहीं पैदा हो सकती।

जालिम से  जालिम बादशाह की हुकूमत में रहकर कोई जाति गुलाम नहीं कही जा सकती, वरन् गुलाम वही जाति है, जिसमें एक-एक व्यक्ति सब भाँति कदर्य, स्वार्थपरायण और जातीयता के भाव से रहित है। ऐसी जाति जिसकी नस-नस में दास्य भाव समाया हुआ है, कभी उन्नति नहीं करेगी, चाहे केसे ही उदार शासन से वह शासित क्यों न की जाए। तो निश्चय हुआ कि देश की स्वतंत्रता की गहरी और मजबूत नींव उस देश के एक-एक आदमी के आत्मानिर्भरता आदि गुणों पर स्थित है।

ऊँचे-से-ऊँचे दर्ज की शिक्षा बिलकुल बेफायदा है, यदि हम अपने ही सहारे अपनी भलाई न कर सकें। जॉन स्टुअर्ट मिल का सिद्धांत है कि “राजा का भयानक से भयानक अत्याचर देश पर कभी कोई असर नहीं पैदा कर सकता जब तक उस देश के एक-एक व्यक्ति में अपने सुधार की अटल वासना दृढता के साथ बद्धमूल है।”

पुराने लोगों से जो चूक और गलती बन पड़ी है, उसी का परिणाम वर्तमान समय में हम लोग भुगत रहे हैं। उसी को चाहे जिस नाम से पुकारिए, यथा जातीयता का भाव जाता रहा, रुका नहीं है, आपस की सहानूभूति नहीं है, इत्यादि। तब पुराने क्रम को अच्छा मानना और उस पर श्रद्धा जमाए रखना हम क्यों कर अपने लिये उपकारी और उत्तम मानें। हम तो इसे निरी चंडूखाने की गप समझते हैं कि हमारा धर्म हमें आगे नहीं बढ़ने देता अथवा विदेशी राज से शासित हैं इसी से हम उन्नति नहीं कर सकते।

वास्तव में सच पूछो तो आत्मनिर्भरता अर्थात् अपनी सहायता अपने आप करने का भाव हमारे बीच है ही नहीं। यह सब हमारी वर्त्तमान दुर्गति उसी का परिणाम है। बुद्धिमानों का अनुभव हमें यही कहता है कि मनुष्य मं पूर्णता विद्या से नहीं वरन् काम से होती है। प्रसिद्ध पुरुषों की जीवनियों के पढ़ने से ही नहीं, वरन् उन प्रसिद्ध पुरुषार्थी पुरुषों के चरित्र का अनुकरण करने से मनुष्य में पूर्णता आती है।

यूरोप की सभ्यता, जो आजकल हमारे लिये प्रत्येक उन्नति की बातों में उदाहरण स्वरूप मानी जाती है, एक दिन या एक आदमी के काम का परिणाम नहीं है। जब कई पीढ़ी तक देश का देश ऊँचे काम, ऊँचे विचार और ऊँची वासनाओं की ओर प्रबल चित्त रहा, तब वे इस अवस्था को पहुँचे हैं। वहाँ के हर एक संप्रदाय, जाति या वर्ण के लोग धैर्य के साथ धुन बाँध के बराबर अपनी-अपनी उन्नति में लगे हैं। नीचे-से-नीचे दर्ज के मनुष्य- किसान, कुली, कारीगर, आदि-और ऊँचे-से ऊँचे दर्ज वाले कवि, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ सबों ने मिलकर जातीय उन्नति को इस सीमा तक पहुँचाया है। एक ने एक बात को आरम्भ कर उसका ढाँचा खड़ा कर दिया, दूसरे ने उसी ढाँचे पर आरुढ़ रहकर दर्जा बढ़ाया, इसी तरह क्रम क्रम से कई पीढ़ी के उपरांत वह बात जिसका केवल ढाँचा खड़ा कर दिया, दूसरे ने उसी ढाँचे पर आरुढ़ रहकर दर्जा बढ़ाया, इसी तरह क्रम क्रम से कई पीढ़ी के उपरांत वह बात जिसका केवल ढाँचा मात्र पड़ा था, पूर्णता और सिद्धि की अवस्था तक पहुँच गई।

ये अनेक शिल्प और विज्ञान, जिनकी दुनिया भर में धूम मची है, इसी तरह शुरू किए गए थे और ढाँचा छोड़ने वाले पूर्व पुरुष अपनी भाग्यवान् भावी संतान को उस शिल्प कौशल और विज्ञान की बड़ी भारी बपौती का उत्तराधिकारी बना गए थे।

आत्मनिर्भरता के सम्बन्ध में जो शिक्षा हमें खेतिहर, दूकानदार, बढ़ई, लोहार आदि कारीगरों से मिलती है, उसके मुकाबले में स्कूल और कालेजों

की शिक्षा कुछ नहीं है, और यह शिक्षा हमें पुस्तकों या किताबों से नहीं मिलती, वरन् एक-एक मनुष्य के चरित्र, आत्म-दमन, दृढ़ता, धैर्य, परिश्रम, स्थिर अध्यवसाय पर दृष्टि रखने से मिलती है। इन सब गुणों से हमारे जीवन की सफलता है। ये गुण मनुष्य जाति की उन्नति के छोर हैं और हमें जन्म में क्या करना चाहिये, इसके सारांश हैं।

बहुतेरे सत्पुरुषों के जीवन चरित्र धर्म-ग्रन्थों के समान हैं, जिनके पढ़ने से हमें कुछ न कुछ उपदेश जरूर मिलता है। बड़प्पन किसी जाति विशेष या खास दर्जे के आदमियों के हिस्से में नहीं पड़ा। जो कोई बड़ा काम करे या जिससे सर्वसाधारण का उपकार हो, वहीं बड़े लोगों की कोटि में आ सकता है। वह चाहे गरीब से गरीब या छोटे दर्जे का क्यों न हो, बड़े-से बड़ा है। वह मनुष्य के तन में साक्षात देवता है।

हमारे यहाँ अवतार ऐसे ही लोग हो गए हैं। सबेरे उठकर जिनका नाम ले लेने से दिन भर के लिए मगंल का होना पक्का समझा जाता है, ऐसे महा महिमाशाली जिस कुल में जन्मते हैं, वह कुल उजागर और पुनीत हो जाता है। ऐसी ही की जननी वीर प्रसू कही जाती है। पुरुष सिंह ऐसा एक पुत्र अच्छा, गीदड़ों की विशेषता वाले सौ पुत्र भी किस काम के।

  1. आत्मनिर्भरता – अपने भरोसे रहना (Self-dependent)
  2. श्रेष्ठ – अति उत्तम, उत्कृष्ट 
  3. पौरुषेयत्व – पुरुष कर्म, वीरता
  4. अनुचित – अन् (नहीं) + उचित – जो सही नहीं है
  5. जल में तूंबी – सामान्य में श्रेष्ठ (प्रतीकार्थ)
  6. तूंबी – कद्दू के बाहरी आवरण से बना एक पात्र
  7. उमंग – उल्लास, मौज
  8. प्रभुता – स्वामित्व, हुकूमत
  9. वैभव – धन-दौलत, सुख, ऐश्वर्य
  10. चतुरंगिनी सेना – चार वर्गों मे बँटी सेना जिसमें रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना होती है।  
  11. क्षीण – कमज़ोर
  12. बुनियाद – नींव, Foundation
  13. मनुष्य जाति के सरताज – मनुष्यों में श्रेष्ठ
  14. सरताज – राजा
  15. सत्यानास – बरबड़ी, सर्वनाश
  16. सेवकाई – सेवा करना, दासता, परिचर्या
  17. स्वामित्व – मालिकपन
  18. प्रभुत्व – वर्चस्व, दबदबा
  19. अवकाश – छुट्टी
  20. निरी – केवल
  21. दैव-दैव आलसी पुकारा – आलसी लोग भाग्य का सहारा लेते हैं।
  22. सानुकूल – स (साथ) + अनुकूल – उचित समय, Favorable
  23. वासना – इच्छा, चाह, आकांक्षा, Desire
  24. ओज – जोश, उत्साह, सजीवता, चुस्ती, Passion 
  25. बहुधा – बार-बार, अक्सर , Frequently
  26. संशोधन – सुधार, Amendment
  27. अतिव्ययी – बहुत धन खर्च करने वाला
  28. परिमित – जो अधिक हो न कम, संतुलित, Balanced
  29. संयमी – जो संयम में रहे, निरोध करने वाला
  30. क्रूर – निष्ठुर, Brutal
  31. उदार – दानशील, Liberal
  32. दर्पान्ध – दर्प (घमंड)+ अंध (अंधा) – घमंड में अंधा 
  33. दुराचारी – दुर् (बुरा)+आचारी – जिसका आचरण बुरा हो
  34. सदाचारी – सद् (अच्छा)+आचारी – जिसका आचरण अच्छा हो
  35. कदर्य – कृपण, कंजूस, तुच्छ
  36. धनाढ्य – अमीर
  37. व्यभिचारी – दूसरी स्त्री से संबंध रखने वाला
  38. व्रतधारी – प्रण का पालन करने वाला
  39. सभ्यता – Civilization
  40. आबाल – बालकों से लेकर
  41. वनिता – स्त्री
  42. लक्षण – चिह्न, Symptoms
  43. अर्द्धशिक्षित – Half Literate
  44. योग्यता – काबिलियत
  45. सुचाल – सही चाल-चलन
  46. सौजन्य – कुलीनता, Good-nature
  47. भाँति-भाँति – तरह-तरह के
  48. शक्ल – रूप, चेहरा
  49. मौलिक – प्रारंभिक, Fundamental
  50. दर्जा – श्रेणी, पंक्ति, Class, Rank
  51. देशानुराग – देश+अनुराग- देश के लिए प्रेम
  52. वांछा – इच्छा, चाहत
  53. जालिम – निर्दयी
  54. हुकूमत – शासन
  55. गुलाम – दास, Slave
  56. नस – शिरा, Vein
  57. दास्य – गुलामी
  58. बेफायदा – बे+फायदा – जिसमें फायदा न हो
  59. सिद्धांत – नीति-वाक्य, Principle
  60. अत्याचार – जुल्म, Atrocity
  61. बद्धमूल – आधारित, Rooted
  62. चूक – त्रुटि, Mistake
  63. चंडू – अफ़ीम का रस, Opium’s Juice  
  64. चंडूखाने – चंडू पीने का स्थान
  65. चंडूखाने की गप – मुहावरा – झूठी तथा बेतुकी बातें
  66. दुर्गति – दुर् (बुरा) + गति (स्थिति) बुरी स्थिति
  67. पूर्णता – Completeness
  68. अनुकरण – किसी की देखा-देखी करना
  69. पीढ़ी – वंश परंपरा, Generation
  70. प्रबल-चित्त – Strong Will
  71. संप्रदाय – Community
  72. धैर्य – धीरज, Patience
  73. दार्शनिक – Scholar
  74. ढाँचा – रचना या बनावट का आरंभिक रूप
  75. आरूढ़ – चढ़ा हुआ, सवार
  76. शिल्प – कला
  77. बपौती – विरासत, पुश्तैनी, Ancestral
  78. उत्तराधिकारी – Successor
  79. खेतिहर – किसान
  80. अध्यवसाय – उद्यम, यत्न, उत्साह
  81. छोर – किनारा
  82. बहुतेरे – अनेक, बहुत-से
  83. साक्षात – प्रत्यक्ष, आँखों के सामने
  84. पुनीत – पवित्र

वीर-प्रसू – वीरों को पैदा करने वाली माता

(क) आत्मनिर्भरता कितना आवश्यक है?

उत्तर – एक व्यक्ति के जीवन में आत्मनिर्भरता उतना ही आवश्यक होता है जितना दीपक की लौ के लिए तेल। आत्मनिर्भरता व्यक्ति के जीवन में स्वावलंबन, संयम, सदाचारिता, शांतचित्त, सहनशीलता, उत्साह, नम्रता आदि गुणों का बीजवपन करता है और महामानव बनने के पथ को प्रशस्त करता है। आज तक  जितने भी महापुरुषों का नाम इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है उन सभी में आत्मनिर्भरता का गुण सर्वोपरि था। आत्मनिर्भरता ही हमें हमारी सुप्त शक्तियों का भान कराती है, हममें उमंग और उत्साह के अक्षय स्रोत का संचार करती है और परिणामस्वरूप आत्मनिर्भरता हमें सामान्य से विशिष्ट की कोटि में ला खड़ा करता है। आत्मनिर्भरता की उपयोगिता केवल व्यक्ति-विशेष तक सीमित न रहकर सामान्य वर्गों में भी नवचेतना का मंत्र फूँकती है क्योंकि  आत्मनिर्भरता से लबरेज़ (भरा हुआ) व्यक्ति समाज को नए मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है। उसका व्यक्तित्व समय की सीमा को लाँघकर हर पीढ़ी के लिए अनुकरणीय होता है। निष्कर्षत:, यह कहा जाना कि आत्मनिर्भरता परम आवश्यक है, संपूर्ण सत्य है।     

(ख) सभ्यता क्या है?

उत्तर – सभ्यता मानव के भौतिक (Materialistic) विचारधारा का सूचक है। मनुष्य के भौतिक क्षेत्र में की गई उन्नति का नाम ही सभ्यता है। सभ्यता समाज में रहन-सहन, वेश-भूषा और व्यवहार का भी पर्याय है। दार्शनिक मैथ्यू आर्नोर्ल्ड ने सभ्यता के संबंध में लिखा है- “मनुष्य का समाज में समाजीकरण ही सभ्यता है” “Civilization is the humanization of a man in the society.” इस परिभाषा के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति प्रदत्त पदार्थों, तत्त्वों और शक्तियों का उपयोग कर भौतिक क्षेत्र में जो प्रगति की है वही सभ्यता है। सभ्यता बाह्य होती है और इसका अनुकरण सरलता से किया जा सकता है। सभ्यता सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से भी बँधी हुई होती है। सभ्यता मनुष्य को प्रगतिवाद की ओर बढ़ने का संकेत देती है। यही कारण है कि जिस देश के नागरिक कर्त्तव्यनिष्ठ हुआ करते थे और अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करते गए वे आज मनुष्य जाति के सरताज बने हुए हैं। दूसरी तरफ़ भारत जैसा देश जिसे सेवकाई करना ही अच्छा लगता आया है, आज की पीढ़ी भारत की इस सेवकाई सभ्यता का अनुकरण करते हुए सेवकाई के उद्देश्य से विदेशों तक पहुँच गए हैं। स्वामित्व की भावना का भारतीय जनमानस में नितांत अभाव है।

(क) निरी किस्मत पर कौन रहते हैं?

उत्तर – जिनका आत्म-गौरव आलस्य के अधीन हो चुका हो, पुरुषार्थ शून्य तक पहुँच गया हो तथा आत्म-विश्वास को शंका के बादलों ने ढक लिया हो, ऐसे अधम कोटि के लोग निरी किस्मत के भरोसे रहते हैं।

(ख) क्या कड़े नियमों से मनुष्य कर्मठ बनता है?

उत्तर – नहीं, मनुष्य कड़े नियमों से कर्मठ नहीं बनता है क्योंकि कड़े नियम मनुष्य के बाह्य आचरण और क्रियाओं पर लागू होते हैं, जबकि मनुष्य को कर्मठ बनाने वाले गुण भीतरी होते हैं। व्यक्ति अपने प्रयत्न, पुरुषार्थ और आत्ममंथन से कर्मठ बनता है।

1. ‘आत्मनिर्भरता’ निबंध के लेखक हैं –

क. रामचंद्र शुक्ल

ख. बालकृष्ण भट्ट     

ग. शरद जोशी   

घ. मोहन राकेश

उत्तर – ख. बालकृष्ण भट्ट

2. ‘जल में तूंबी’ का प्रतीकार्थ है –

क. सामान्य में विशिष्ट

ख. मेहनत करने वाले  

ग. सामान्य का समूह

घ. इनमें से कोई नहीं

उत्तर – क. सामान्य में विशिष्ट

3. ‘दैव–दैव आलसी पुकारा’ ये किन लोगों का तकियाकलाम है –

क. उद्यमी    

ख. आलसी           

ग. झूठे        

घ. भीरू

उत्तर – ख. आलसी

4. जिस सभ्यता में आधे या तिहाई सभ्य हैं, वही जाति _______________कहलाती है।

क. पूर्ण शिक्षित  

ख. सभ्य     

ग. अर्द्ध शिक्षित  

घ. आत्मनिर्भर

उत्तर – ग. अर्द्ध शिक्षित

5. ‘आबाल’ शब्द का अर्थ है –

क. अबला-नारी   

ख. बाल-बच्चे      

ग. लंबे केश     

घ. बच्चों के साथ

उत्तर – घ. बच्चों के साथ

6. “तेज़ और प्रताप से संसार भर को अपने नीचे करते हुए ऊँची उमंग वाले दूसरों के द्वारा अपना वैभव नहीं बढ़ाना चाहते” यह किसका कथन है –

क. महाकवि कालिदास  

ख. अभिनव गुप्त      

ग. महाकवि भारवि  

घ. वाचस्पति मिश्र

उत्तर – ग. महाकवि भारवि

7. “राजा का भयानक से भयानक अत्याचार देश पर कभी कोई असर पैदा नहीं कर सकता जब तक उस देश के एक-एक व्यक्ति में अपने सुधार की अटल वासना दृढ़ता के साथ बद्धमूल है” ये किस दार्शनिक का सिद्धान्त है –

क. अरस्तू     

ख. रूसो  

ग. जॉन स्टुअर्ट मिल   

घ. कार्ल मार्क्स

उत्तर –  ग. जॉन स्टुअर्ट मिल

8. ‘वांछा’ शब्द का अर्थ है –

क. चुनना       

ख. सुंदर    

ग. इच्छा             

घ. सेवा

उत्तर –  ग. इच्छा

9. कहाँ की सभ्यता आज हमारे लिए उन्नति की बातों का उदाहरण बनती जा रही है-

क. एशिया       

ख. यूरोप        

ग. अफ्रीका            

घ. ऑस्ट्रेलिया

उत्तर –  ख. यूरोप

9. सत्पुरुषों का जीवन-चरित्र _____________ के समान है।

क. रात में दिन   

ख. जल में तूंबी   

ग. धर्म-ग्रन्थों          

घ. ईश्वर

उत्तर –  ग. धर्म-ग्रन्थों

10. पश्चिम के देशों की प्रगति का कारण है, वहाँ के नागरिकों में __________ की भावना का प्राबल्य।

क. भाईचारे         

ख. आत्मनिर्भरता  

ग. धर्म परायणता       

घ. आदर्शवादिता

उत्तर –  ख. आत्मनिर्भरता

11. किस बल को श्रेष्ठ बल माना गया है –

क. सेना का बल     

ख. प्रभुता का बल    

ग. निज बाहु बल       

घ. मंत्र-तंत्र का बल

उत्तर –  ग. निज बाहु बल

1. आत्मनिर्भरता क्यों आवश्यक है?

उत्तर – आत्मनिर्भरता आवश्यक है क्योंकि आत्मनिर्भरता से ही हमारा चहुँमुखी विकास होता है।

2. भारतीय जनमानस सेवकाई सभ्यता से क्यों ग्रस्त है?

उत्तर – भारतीय जनमानस सेवकाई सभ्यता से ग्रस्त है क्योंकि हममें स्वामित्व की भावना का अभाव है।

3. शिक्षा का मूल उद्देश्य क्या होना चाहिए?

उत्तर – व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए।

4. सरकारी नियमों का आरोपण व्यक्ति के जीवन में किस सीमा तक काम कर सकती हैं?

उत्तर – सरकारी नियमों का आरोपण व्यक्ति के व्यावहारिक पक्ष तक ही काम कर सकती हैं।

5. सभ्यता और संस्कृति का संबंध किससे होता है?

उत्तर – सभ्यता का संबंध समाज से होता है और संस्कृति का संबंध धर्म से होता है।

6. ‘चंडूखाने की गप’ से आप क्या समझते हैं?

उत्तर – ‘चंडूखाने की गप’ अर्थात् कुछ चंद अकर्मण्य लोगों का बैठकर झूठी और बेतुकी बातें करना।

7. कैसी जाति कभी भी उन्नति नहीं कर सकती?

उत्तर – दास्य भाव से ग्रसित जाति कभी भी उन्नति नहीं कर सकती है?

8. ‘दैव-दैव आलसी पुकारा’ की लोकोक्ति समाज के किन वर्गों के लिए है?

उत्तर – ‘दैव-दैव आलसी पुकारा’ की लोकोक्ति समाज के उन वर्गों के लिए है जो भाग्य के सहारे जीवन निर्वाह करते हैं।

9. ईश्वर किनकी मदद करते हैं?

उत्तर – ईश्वर उनकी मदद करते हैं जो अपनी मदद खुद करते हैं।

1. कैसी जाति अर्द्धशिक्षित कहलाती है और इसका उज्ज्वल पक्ष क्या हो सकता है?

उत्तर – जिस जाति में आधे या तिहाई सभ्य हैं वही जाति अर्द्धशिक्षित कहलाती है। इसका उज्ज्वल पक्ष इस सभ्यता का भविष्य में पूर्णशिक्षित होना हो सकता है।

2. पाठ में किन-किन बलों का ज़िक्र हुआ है? उनमें से श्रेष्ठ बल क्या है?

उत्तर – पाठ में शारीरिक बल, चतुरंगिनी सेना का बल, प्रभुता का बल, मंत्र-तंत्र का बल, मित्रता का बल, ऊँचे कुल में पैदा होने का बल और निज बाहु बल का ज़िक्र हुआ है। इनमें से निज बाहु बल श्रेष्ठ बल है।

3. हिंदुस्तान का जो आज सत्यानास है, उसका मूल कारण क्या है?

उत्तर – हिंदुस्तान का जो आज सत्यानास है, उसका मूल कारण यह है कि यहाँ के लोग अपने भरोसे पर रहना भूल ही गए हैं। इन्हें तो खूबसूरती से सेवकाई करना ही अच्छा लगता है। 

4. महापुरुषों की जीवनियाँ हमारे लिए लाभदायक साबित हो सकती हैं, कैसे?

उत्तर – जब हम महापुरुषों की जीवनियों को पढ़ने के साथ-साथ उनके कर्म और आचरण को भी अपने प्रतिदिन के जीवन में क्रियात्मक रूप दें तब महापुरुषों की जीवनियाँ हमारे लिए लाभदायक साबित हो सकती हैं।

5. जॉन स्टुअर्ट मिल का सिद्धांत आत्मनिर्भरता के संदर्भ में किस प्रकार से सही है?

उत्तर – “राजा का भयानक से भयानक अत्याचार देश पर कभी कोई असर पैदा नहीं कर सकता जब तक उस देश के एक-एक व्यक्ति में अपने सुधार की अटल वासना दृढ़ता के साथ बद्धमूल है” जॉन स्टुअर्ट मिल का ये सिद्धांत आत्मनिर्भरता के संदर्भ में सही है क्योंकि आत्मनिर्भरता बाहरी तत्त्व न होकर भीतरी तत्त्व है जिसे व्यक्ति स्वयं ही नियमित करता है।

6. महाकवि भारवि ने आत्मनिर्भरता की व्याख्या किस प्रकार की है?

उत्तर – महाकवि भारवि ने आत्मनिर्भरता की व्याख्या करते हुए कहा है कि आत्मनिर्भर व्यक्ति अपने पौरुष बल पर ही अपने कीर्तिमान स्थापित करता है। उसे अपना वैभव बढ़ाने के लिए दूसरों की आवश्यता नहीं होती है। 

7. व्यक्ति के चरित्र में मौलिक सुधार की आवश्यकता क्यों महसूस की जा रही है?

उत्तर – व्यक्ति के चरित्र में मौलिक सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि उनका व्यक्तित्व और चरित्र परनिर्भरता तथा आलस्य से धूमिल हो चुका है जिसमें नए सिरे से आत्मनिर्भरता का बीजवपन करना होगा।

1. सभ्यता और असभ्यता का मूल्यांकन जाति-विशेष के गुणों-अवगुणों के आधार पर किया जाता है, कैसे?

उत्तर – सभ्यता और असभ्यता का मूल्यांकन जाति-विशेष के गुणों-अवगुणों के आधार पर किया जाता है क्योंकि आज के युग में जो भी देश सामरिक, आर्थिक और तकनीकी के क्षेत्र में बहुत आगे निकल चुके हैं और विकसित देशों की श्रेणी में स्थापित हो चुके हैं, वहाँ की सभ्यता में आत्मनिर्भरता शीर्ष पर होता है जबकि अविकसित और विकासशील देशों की सभ्यता में आत्मनिर्भरता का नितांत अभाव पाया जाता है।

2. दास्य मनोवृत्ति वाले कभी उन्नति नहीं कर पाते जबकि स्वाभिमानी जाति को कोई भी दास नहीं बना सकता। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर – दास्य मनोवृत्ति वाले अपने मनानुसार कार्य नहीं कर सकते हैं। वे तो अपने मालिक के आदेशों का पालन करना ही अपना धर्म समझते हैं इसलिए उनकी उन्नति संभव नहीं है जबकि स्वाभिमानी जाति को कोई भी दास नहीं बना सकता है क्योंकि अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए पूरी जाति अपने प्राणों की आहुति देने को तत्पर रहती है।

3. हमें अपने पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों से सीख लेनी चाहिए। लेखक ने ऐसा क्यों कहा है?

उत्तर – हमें अपने पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों से सीख लेनी चाहिए। लेखक ने ऐसा कहा है क्योंकि इतिहास ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है जब व्यक्तिगत लाभ या रंजीश के लिए अपनी ही जाति का सर्वनाश किया गया हो। इसका परिणाम इतना भयानक था कि आज तक हम उनकी गलतियों का खामियाज़ा भुगत रहे हैं। 

4. स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आत्मनिर्भर होना क्यों आवश्यक है?

उत्तर – स्वतंत्र होने की पहली शर्त होती है – आत्मनिर्भर होना। स्वतंत्रता का अर्थ किसी शासन से मुक्ति नहीं वरन् कर्म और आचरण की स्वतंत्रता से है। सामाजिक और सांस्कृतिक मर्यादाओं की सीमा में रहते हुए अपनी मर्ज़ी से जीना ही वास्तविक स्वतंत्रता है जिसे केवल और केवल आत्मनिर्भरता से ही प्राप्त किया जा सकता है।

5. आत्मनिर्भरता मनुष्य को कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अविचलित बनाए रखता है, कैसे?

उत्तर – आत्मनिर्भरता मनुष्य को अंदर से मज़बूत बनाता है। आत्मनिर्भर व्यक्तियों को कठिन परिस्थितियों में अपने को श्रेष्ठ साबित करने का अवसर दिखाई पड़ता है। वे यह भली-भाँति जानते हैं कि जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ उनके गौरव-गाथा के स्वर को पुष्ट करेंगे। कठिन परिस्थितियों में आलसी और परनिर्भर व्यक्ति बिखरते जाते हैं जबकि आत्मनिर्भर व्यक्ति निखरते जाते हैं।

6. सद्गुणों से युक्त जाति के हृदय में देशानुराग होने के कौन-कौन से कारण हैं?

उत्तर – वैश्विक स्तर पर किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके देश से होती है। पूरे विश्व में उसके देश का नाम श्रद्धा और सम्मान से लिया जाए ये भावना ही जाति-विशेष के हृदय में देशानुराग पैदा करती है। देश के प्रति प्रेम की भावना का संबंध भी आत्मनिर्भरता से है क्योंकि जब तक हम अपने देश को आर्थिक, सामरिक और तकनीकी रूप से सक्षम नहीं बनाएँगे तब तक हमें इन सबके लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहना होगा और जो दूसरों पर निर्भर रहते हैं, वे कभी भी अपने देश के प्रति देशानुराग नहीं रख पाते हैं।

1. पाठ का केंद्रीय भाव लिखिए।

अथवा

‘आत्मनिर्भरता’ निबंध का सार लिखिए।

उत्तर – पंडित बालकृष्ण भट्ट द्वारा रचित निबंध ‘आत्मनिर्भरता’ मनुष्य को जीवन में अपने भरोसे रहने की शिक्षा देता है। अपने भरोसे पर रहने वाले व्यक्ति संसार में सदा उन्नति करते हैं और जल में तूंबी के समान सदैव ऊपर रहते हैं। किसी व्यक्ति के पास भले ही सभी प्रकार के बल हों परंतु सभी बलों में निज बाहु बल ही श्रेष्ठ बल माना गया है क्योंकि इसका संबंध आत्मनिर्भरता से है। आत्मनिर्भरता और देशानुराग के कारण ही यूरोप देशों की जाति तथा अमेरिका और जापान आज मनुष्य जाति के सरताज हो रहे हैं।

दूसरी तरफ़ आज जो भारत की दुर्दशा हो रही है, इसका कारण यहाँ के जनमानस में आत्मनिर्भरता का नितांत अभाव ही है। यहाँ के लोगों को सेवकाई करना ही पसंद है। स्वामित्व की भावना उनके मस्तिष्क में उपजती ही नहीं है। लेखक ने ऐसे लोगों को आलसियों की श्रेणी में रखा है जो अपने मस्तिष्क का उपयोग केवल अपने मालिक की जी हुज़ूरी और हुक्म बजाने में करते हैं।

आत्मनिर्भरता का अमूल्य गुण किसी सरकार द्वारा लागू किए गए कानून को मानने से कदाचित नहीं आ सकता वरन् आत्म-मंथन से आता है। जहाँ की सभ्यता में आत्मनिर्भरता और अपने देश के लिए प्रेम की भावना होती है, वास्तव में ऐसी ही जाति विश्व पटल पर अपना नाम अंकित कर पाती है।

आत्मनिर्भरता के सपक्ष में महाकवि भारवि और पाश्चात्य दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी अपने विचार रखे हैं। इनके मतानुसार शिक्षा भी ऐसी ही होनी चाहिए जो हमें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करे और प्रतिदिन के जीवन में क्रियात्मक रूप से व्यवहार में लाई जा सके। हमें अपने पूर्वजों की गलती से भी सीख लेने की आवश्यकता है और किसी भी स्थिति में उनकी भूलों को नहीं दोहराना है।  

ये विश्व कर्म प्रधान है। यहाँ जाति, वर्ग और जन्म के आधार पर किसी की उन्नति या अवनति निर्धारित नहीं होती वरन् कर्म से होती है।

2. लेखक ने जाति, वर्ग और जन्म को गौण माना है और कर्म को महान। ऐसा क्यों? तर्कसहित उत्तर दीजिए।

उत्तर – लेखक के अनुसार व्यक्ति की जाति, वर्ग और जन्म उसके भाग्य का निर्धारण नहीं कर सकती बल्कि उसके कर्म ही उसके भाग्य का विधाता होता है। दूसरी बात ये कि अब वे दिन लद गए हैं जब  जाति, वर्ग और जन्म के आधार पर लोगों को पेशे का चयन करना पड़ता था। आज की इस पूँजीवादी सभ्यता को कर्म प्रधान लोगों को ही वरीयता देने में अपने व्यवसाय का फ़ायदा दीखता है। जाति, वर्ग और जन्म से उन्हें कोई सरोकार नहीं। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बड़प्पन, कर्मठता, भलमनसाहत किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं होती है। कोई भी बड़ा काम करे जिससे सर्वसाधारण का उपकार हो वही सज्जन और सत्पुरुषों की कोटि में आ सकते हैं। हम सभी ने बाबा साहब डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर के बारे में ज़रूर पढ़ा है। कुशाग्र बुद्धि के आंबेडकर जी माहार जाति के थे परंतु अपनी प्रतिभा के बल पर अर्थनीति में डॉक्ट्रेट की डिग्री प्राप्त करने वाले पहले भारतीय होने का गौरव इन्हें ही प्राप्त है। दलितों के मसीहा आंबेडकर जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और इसीलिए भारत का संविधान तैयार करने का सुयश भी इन्हें ही अर्जित है। उपरोक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि कर्म ही महान है। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा भी है- “कर्म प्रधान विश्व रचि राखा”

  • निबंध के निबंधकार का नाम बालकृष्ण भट्ट है।
  • इस निबंध में आत्मनिर्भरता के उज्ज्वल पक्षों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • प्रयोगात्मक शिक्षा पर बल दिया गया है।
  • विकसित देशों की आत्मनिर्भर सभ्यता के बारे में बताया गया है।
  • महाकवि भारवि और दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल के आत्मनिर्भरता संबंधी विचारों को भी लोकहित और देशहित का मूल बताया गया है।
  • आलसी लोगों को दीमक के समान बताया गया है जो किसी भी देश को जड़ों से खोखला कर देते हैं।
  • सभ्यता व्यक्ति-विशेष के आत्मनिर्भर होने से नहीं बल्कि पूरे समुदाय के आत्मनिर्भर होने से ही प्रगति के पथ पर अग्रसर होती है।
  • महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ने के साथ-साथ उनके कर्मों का अनुकरण ही हमें महामानव बनाता है।
  • सत्पुरुषों की कोटि में आने के लिए केवल कर्म विशिष्ट होने चाहिए न कि जाति, वर्ग और जन्म।   

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