Class +2 Second Year CHSE, BBSR Sahitya Sudha Solutions Muktibodh Poonjiwaadi Samaj Ke Prati मुक्तिबोध पूँजीवादी समाज के प्रति

(1917 – 1964)

हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा के एक मूर्धन्य कवि के रूप में मुक्तिबोध ख्यात रहे हैं। मुक्तिबोध का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में श्योपुर कस्बे के एक मराठी परिवार में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई। सन् 1940 में उन्होंने एम.ए. किया और राजनंद गाँव के दिग्विजय कॉलेज में प्रवक्ता हो गए।

मुक्तिबोध ने सन् 1935 में लिखना शुरू किया। सन् 1943 में प्रकाशित ‘तार सप्तक’ में उनकी कविता संकलित थी। लेकिन अज्ञेय की व्यक्तिवादी विचारधारा से वे बँध नहीं पाए। मूलतः मुक्तिबोध मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। वे ज़िंदगी भर लड़ते रहे हैं। डॉ. हरिचरण शर्मा ने ठीक ही लिखा है- ‘उन्होंने कितनी ही लड़ाइयाँ लड़ीं समाज से- इतिहास से जीवन से और सब से ज्यादा अपने आप से। उनकी इन तमाम भीतरी – बाहरी लड़ाइयों को उनकी कविताओं में देखा जा सकता है। उनकी कविताएँ उनकी ज़िंदगी का ‘एक्सरे’ हैं और उनकी ज़िंदगी कविताओं की अविस्मरणीय संदर्भ-संकेतिका। वे ज़िंदगी से कविता और कविता से ज़िंदगी को जोड़कर प्रस्तुत करने वाले प्रतिबद्ध कलाकार थे।”

मुक्तिबोध का पहला काव्य संकलन, ‘चाँद का मुह टेढ़ा है’ जो उनके अंतिम दिनों में प्रकाशित हुआ। एक अन्य काव्य संकलन- ‘भूरी-भूरी खाक’ भी मृत्यु के उपरान्त प्रकाशित हुआ। इधर उनकी ग्रंथावली प्रकाशित हुई है, जिसके प्रथम दो खण्डों में उनकी सभी कविताएँ संकलित हैं।

पूँजीवादी समाज के प्रति

इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि

इतना ज्ञान, संस्कृति और अन्तः शुद्धि

इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति

यह सौन्दर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर भक्ति,

इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छन्द

जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बन्ध

इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुन्दर जाल

केवल एक जलता सत्य देने टाल।

छोड़ो हाय, केवल घृणा औ’ दुर्गन्ध

तेरी रेशमी वह शब्द – संस्कृति अन्ध

देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध

तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध

तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र

तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र

तेरे हास में भी रोग – कृमि हैं उग्र

तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।

मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक

अपनी उष्णता से धो चलें अविवेक

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ।

तू तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

अंतः शुद्धि – हृदय की पवित्रता,

दिव्य – अलौकिक,

भव्य – विशाल

वैचित्र्य – विचित्रता,

छंद – तुक, लय आदि का बंधन,

निर्बंध – बाधाहीन,

गूढ़ – गुप्त

अवरोध – बाधा,

मितली – उलटी आना,

हास – हँसी

रोग- कृमि – रोग के कीड़े,

उष्णता – गर्मी

व्यग्र – बेचैन,

ज्वाल – ज्वाला,

रिक्त – खाली।

‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता ‘तार सप्तक’ में प्रकाशित हुई थी। यह कविता मुक्तिबोध के प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचायक है। कवि यहाँ पूँजीवादी समाज की शोषण-सभ्यता की आलोचना करते हैं।

कवि पूँजीवादी समाज का बाह्य चित्र उपस्थित करता हुआ कहता है कि इसमें बहुत सारे व्यक्ति हैं, जो जीवंत हैं तथा प्राण धारण किए हुए हैं। उनके हाथ कर्मशील दिखाई देते हैं। इतने लोगों की बुद्धि का यहाँ समूह दिखाई देता है। यहाँ ज्ञान, संस्कृति तथा अंत शुद्धि के भी दर्शन होते हैं।

यह पूँजीवादी समाज है जो बड़ा दिव्य तथा भव्य दिखाई देता है। उसके साथ-साथ यहाँ शक्ति भी मौजूद है। यह समाज सौंदर्यवान है तथा विचित्रता से भरा हुआ है। यहाँ के लोगों में ईश्वर भक्ति की कमी नहीं है। वे दिव्य शक्ति के प्रति आस्थावान हैं।

यहाँ लोगों का कथन काव्य सत्य वहन करता है जहाँ शब्द मार्मिक होने के साथ-साथ छंदयुक्त होते हैं। मगर उसके भीतर ढोंग ही ढोंग है; और यहाँ पूँजीवादी समाज निर्बंध होकर भोग में डूबा हुआ है।

पूँजीवाद का यह स्वरूप बड़ा ही गूढ़ है, रहस्यों से भरा हुआ। यह इतना गाढ़ा है कि यहाँ धोखा छिपा हुआ है। बाहर से इसका रूप सुंदर है। उसके सौंदर्य जाल में समाज के भोले भाले व्यक्ति फँस जाते हैं। यह सौंदर्य जाल एक ज्वलंत सत्य को टालने की तथा उसे छिपाने की कोशिश में निरंतर लगा हुआ है। यह सत्य और वह दरिद्र समाज जो शोषण की चक्की में शोषक समाज के द्वारा निरंतर पिस रहा है।

कवि स्पष्ट कर रहे हैं कि पूँजीवादी समाज की सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्य, साहित्य आदि बाहरी रूप से भले ही सुंदर भव्य और उदात्त दिखाई देते हैं, पर वे सभी शोषण के हथियार होते हैं। इसीलिए इस दोगली सभ्यता के प्रति कवि के मन में क्रोध है, घृणा है।

कवि फिर कहता है कि ऐसे पूँजीवादी समाज से उन्हें घृणा है, क्योंकि यह दुर्गंध युक्त है। यहाँ की जो शब्द ‘संस्कृति’ है, उसे कवि ‘रेशमी संस्कृति’ कहता है। यह भोगवादी दिखावटी संस्कृति है जो अंधी है। ऐसी संस्कृति को देखकर कवि क्रोधित हो उठता है। उसका क्रोध उबलने लगता है। पूँजीवादी मनुष्य सच्चा नहीं है। अतः कवि आक्षेप करके कहता है कि उसके बहते हुए रक्त में सत्य का अवरोध दिखाई देता है। और कवि ऐसे रक्त से घृणा करता है। कवि की नफरत इस तरह बढ़ जाती है कि पूँजीवादी मनुष्य को देखकर तुरंत मितली उमड़ आती है। कारण पूँजीवाद घृणा के योग्य है।

पूँजीवादी की हँसी भी कवि को पसंद नहीं आती है। अतः कवि कहता है तेरी हँसी में रोग के कीटाणु हैं जो इतने उग्र हैं कि शोषित समाज को ग्रास कर रहे हैं।

कवि शोषणमुक्त स्वस्थ समाज की कल्पना करते हैं, इसलिए वह विषमता और शोषण की नींव पर खड़े पूँजीवादी समाज का नाश चाहते हैं। यह तभी संभव है जब कवि की ज्वाला जन समाज की ज्वाला बने। मैं जैसी विषमता महसूस कर रहा हूँ वैसा दूसरे भी महसूस करें। लोगों का विवेक जाग्रत हो और अपनी उष्णता से, दूरदर्शिता से अविवेकिकता का सफाया हो। जब जनमानस की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो उठेगी तो जनमानस से अज्ञान, अविवेक जल जाएँगे और उन्हें अपने शोषण का अहसास होगा।

कवि को विश्वास है कि पूँजीवादी व्यवस्था एक न एक दिन जर्जर होगी। जब जनता जाग जाएगी उसका एक ही उद्देश्य होगा पूँजीवाद का ध्वंस। यह व्यवस्था वास्तव में रिक्त और व्यर्थ है, क्योंकि इससे जनता का नुकसान होता है। अतः एक न एक दिन इसका अंत होगा।

i) ‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता कहाँ प्रकाशित हुई थी?

(क) तारसप्तक

(ख) रामचरितमानस

(ग) इतिहास

(घ) दूसरा सप्तक

उत्तर – (क) तारसप्तक

ii) कवि किस समाज की शोषण-सभ्यता की आलोचना करते हैं?

(क) जमींदारी

(ख) पूँजीवादी

(ग) अमीर

(घ) कुलीन

उत्तर – (ख) पूँजीवादी

iii) किसके हाथ कर्मशील दिखाई देते हैं?

(क) साहूकार समाज

(ग) पूँजीवादी समाज

(ख) ग्रामीण समाज

(घ) कर्मठ समाज

उत्तर – (ग) पूँजीवादी समाज

iv) मुक्तिबोध का जन्म किस परिवार में हुआ?

(क) पंजाबी

(ख) मराठी

(ग) ओड़िआ

(घ) बंगाली

उत्तर – (ख) मराठी

v) पूँजीवादी समाज कैसा दिखाई देता है?

(क) दिव्य तथा भव्य

(ख) धुँधला

(ग) चमकीला

(घ) फीका

उत्तर – (क) दिव्य तथा भव्य

vi) पूँजीवादी समाज के सौंदर्यजाल में समाज के कौन व्यक्ति फँस

जाते हैं?

(क) धूर्त

(ख) चालाक

(ग) भोले-भाले

(घ) सीधे सरल

उत्तर – (ग) भोले-भाले

vi) शोषण की चक्की में कौन पिस रहा है?

(क) धनी

(ख) संभ्रांत

(ग) शोषक

(घ) जन साधारण

उत्तर – (घ) जन साधारण

(क) पूँजीवादी समाज किसे कहते हैं?

उत्तर – पूँजीवादी समाज उस आर्थिक प्रणाली या व्यवस्था को कहते हैं जिसमें उत्पादन या उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व होता है। 

(ख) पूँजीवादी समाज का चेहरा कैसा है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज के दो चेहरे हैं, दिखावटी चेहरा तो बहुत ही खूबसूरत है पर वास्तविक चेहरा बुराइयों से भरा हुआ है।

(ग) पूँजीवादी समाज किस तरह सौंदर्यवान है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज अपनी दिव्यता, भव्यता और शक्ति के कारण सौंदर्यवान है।

(घ) पूँजीवादी समाज में लोगों का कथन कैसा होता है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज में लोगों का कथन काव्य सत्य वहन करता है और इनके शब्द मार्मिक होने के साथ-साथ छंदयुक्त होते हैं।

(ङ) पूँजीवादी समाज के शोषक रूप का वर्णन कीजिए।

उत्तर – पूँजीवादी समाज सत्य और दरिद्र समाज का निरंतर शोषण करता आ रहा है।

(च) पूँजीवादी समाज किस प्रकार विचित्रता से भरा हुआ है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज विचित्रता से भरा हुआ है क्योंकि पूँजीवाद का स्वरूप बड़ा ही गूढ़ है, रहस्यों से भरा हुआ है। यह इतना गाढ़ा है कि यहाँ धोखा छिपा हुआ होता है।

i) मुक्तिबोध की किन्हीं दो साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर – मुक्तिबोध मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। वे ज़िंदगी से कविता और कविता से ज़िंदगी को जोड़कर प्रस्तुत करने वाले एक प्रतिबद्ध कलाकार थे।

ii) पूँजीवादी समाज की शोषण सभ्यता कैसी होती है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज की सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्य, साहित्य आदि बाहरी रूप से भले ही सुंदर, भव्य और उदात्त दिखाई देते हैं, पर ये सभी शोषण के हथियार होते हैं।

iii) किसे देखकर कवि को मितली आती है और क्यों?

उत्तर – पूँजीवादियों को देखकर कवि को मितली आने लगती है क्योंकि कवि इन्हें अत्यंत घृणित मानता है। ये जोंक की तरह गरीबों का खून चूसते हैं।

iv) किसकी ज्वाल जन की ज्वाल बने और क्यों?

उत्तर – कवि की ज्वाला जन समाज की ज्वाला बने क्योंकि कवि जैसी विषमता महसूस करते हैं, वे चाहते हैं, वैसा दूसरे भी महसूस करें। लोगों का विवेक जाग्रत हो और अपनी उष्णता से, दूरदर्शिता से पूँजीवाद का नाश हो।

i) पूँजीवादी सभ्यता की कौन-सी बात कवि को पसंद नहीं?

उत्तर – पूँजीवादी सभ्यता दुमुखिया जोंक की तरह होती है। इसका एक चेहरा तो भव्य, दिव्य और सुंदर होता है परंतु दूसरा चेहरा बड़ा ही अमानवीय होता है। पूँजीवादी सभ्यता जोंक की तरह बेबस, लाचार और दरिद्रों का खून चूसते रहते हैं और उन मजबूरों को इसका पता तक नहीं चल पाता।   

ii) पूँजीवादी समाज का बाह्य चित्र कैसा है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज का बाह्य चित्र सुंदर है। उसके सौंदर्य जाल में समाज के भोले-भाले व्यक्ति फँस जाते हैं। यह सौंदर्य जाल इस  ज्वलंत सत्य को टालने की तथा उसे छिपाने की कोशिश में निरंतर लगा हुआ है कि पूँजीवादी समाज दरिद्रों को शोषण की चक्की में निरंतर पिस रहा है।

iii) पूँजीवादी सभ्यता का अंत कैसे हो सकता है?

उत्तर – कवि शोषणमुक्त स्वस्थ समाज की कल्पना करते हैं, इसलिए वह विषमता और शोषण की नींव पर खड़े पूँजीवादी समाज का नाश चाहते हैं। यह तभी संभव है जब कवि की क्रांतिकारी सोच जन समाज की क्रांतिकारी सोच बने। तब लोगों का विवेक जाग्रत होगा और अपनी दूरदर्शिता से जनमानस का अज्ञान, अविवेक जल जाएगा और उन्हें अपने शोषण का अहसास होगा। तब जाकर पूँजीवादी सभ्यता का अंत होगा।

iv) ज्वलंत सत्य को कौन टालता है और कैसे?

उत्तर – ज्वलंत सत्य को पूँजीवादी सभ्यता अपने दिव्य, भव्य और सुंदर रूप के माध्यम से, अपने आपको कर्मशील, ईश्वर के प्रति आस्थावान दिखाकर टालता है। वह शोषित वर्गों को इस बात का अहसास ही नहीं होने देता कि निरंतर उनका शोषण हुआ जा रहा है।   

i) मुक्तिबोध का साहित्यिक परिचय दीजिए।

उत्तर – हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा के एक मूर्धन्य कवि के रूप में मुक्तिबोध ख्यात रहे हैं। मुक्तिबोध ने सन् 1935 में लिखना शुरू किया। सन् 1943 में प्रकाशित ‘तार सप्तक’ में उनकी कविता संकलित थी। लेकिन अज्ञेय की व्यक्तिवादी विचारधारा से वे बँध नहीं पाए। मूलतः मुक्तिबोध मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। वे ज़िंदगी भर लड़ते रहे हैं। डॉ. हरिचरण शर्मा ने ठीक ही लिखा है- ‘उन्होंने कितनी ही लड़ाइयाँ लड़ीं समाज से- इतिहास से जीवन से और सब से ज्यादा अपने आप से। उनकी इन तमाम भीतरी – बाहरी लड़ाइयों को उनकी कविताओं में देखा जा सकता है। उनकी कविताएँ उनकी ज़िंदगी का ‘एक्सरे’ हैं और उनकी ज़िंदगी कविताओं की अविस्मरणीय संदर्भ-संकेतिका। वे ज़िंदगी से कविता और कविता से ज़िंदगी को जोड़कर प्रस्तुत करने वाले प्रतिबद्ध कलाकार थे।”

ii) कवि को पूँजीवादी समाज से घृणा क्यों है?

उत्तर – कवि गजानन माधव मुक्तिबोध को पूँजीवादी समाज से घृणा है क्योंकि पूँजीवादी समाज ने आर्थिक रूप से उत्पादन पर या उत्पादन के साधनों पर अपना एकल स्वामित्व स्थापित कर लिया है। यह नीति समाज के हित के लिए होती ही नहीं है। इसमें समाज के दबे-कुचलों के श्रम को सस्ते कीमतों पर खरीद ये पूँजीवादी समाज अपने महल खड़े करते हैं। अपने खजाने को समृद्ध करते हैं। ऐसी अनीति करने पर भी ये समाज में तथाकथित रूप में कर्मशील, सभ्य और सुंदर बने हुए ही दिख पड़ते हैं और समाज के भोले-भले लोग इनके झाँसे में आकर इनका विरोध करने की बजाए इनकी गुलामी और इनके मुरीद हो जाते हैं। 

iii) पूँजीवादी समाज के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – पूँजीवादी समाज के स्वरूप को आज के दौर में आदर्श माना जाने लगा है और हर तीसरे आदमी की यही इच्छा होती है कि वह भी पूँजीवादी समाज के स्वरूप में ढल जाए। कहते हैं हर चमकती चीज सोना नहीं होती। पूँजीवादी समाज के स्वरूप में भी यही उक्ति सटीक बैठती है। यह स्वरूप दूर से जितना भव्य, दिव्य, कर्मशील, सुंदर, ईश्वर के प्रति आस्थावान प्रतीत होता है वास्तव में वह इन सबसे कोसों दूर है। ये समाज तो निरंतर गरीबों का शोषण करता आ रहा है। इन्हीं की वजह से ही समाज में गरीबी का स्तर दिन पर दिन शोचनीय होता  जा रहा है। ये समाज के वे वर्ग हैं जो जोंक की तरह निम्न समाज के लोगों का खून चूसते रहते हैं। 

iv) पूँजीवादी समाज को कवि क्यों दुर्गंधयुक्त मानता है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज को कवि दुर्गंधयुक्त मानता है क्योंकि यह समाज जबसे अपने अस्तित्व में आया है अपने सुख-सुविधा और अपने अरमानों की पूर्ति के लिए अनीति करता आया है। ये गरीबों को मनुष्यों की तरह नहीं वरन् वस्तु की तरह समझते हैं। शोषितों की भावनाओं से इन्हें कोई सरोकार नहीं। इन्हें तो बस अपने महल खड़े करने और कोष भरने भर से मतलब है। समाज में ये अपने आपको आदर्श रूप में प्रस्तुत करने भी पीछे नहीं हटते, ये अपने आपको कर्मशील, भव्य, दिव्य और सुंदर जताते हैं। ये आम लोगों को ये भी अहसास करा देते हैं कि ईश्वर के प्रति आस्थावान होने के कारण ही ये इतने समृद्ध हुए हैं। इन्हीं सभी एक से बढ़कर एक अवगुणों के होने के कारण ही कवि इन्हें दुर्गंधयुक्त मानता है।

v) पूँजीवादी समाज को कवि क्यों घातक मानता है?

उत्तर – पूँजीवादी समाज वास्तव में राष्ट्र और समाज के लिए घातक है क्योंकि इस समाज में जहाँ कहीं भी उन्नत शिक्षा व्यवस्था है, उन्नत चिकित्सा व्यवस्था है, उन्नत निवास स्थान है, या जो कुछ भी उन्नत है, वहाँ पूँजीवादी समाज का आधिपत्य है। दूसरी तरफ़ जो इस पूँजीवादी समाज के अधीन आ जाता है वह मनुष्य मनुष्य न रहकर मशीन बन जाता है। यह तो सत्य है कि आज के दौर में जीने के लिए पैसे चाहिए मगर पूँजीवादी समाज ने इस पैसे को इतना महत्त्वपूर्ण सिद्ध कर दिया है कि अब सबसे ज़रूरी पैसा ही बन गया है। मानवीय संवेदनाओं का कहीं कोई स्थान नहीं रहा। अगर आज मध्य वर्गी परिवार का कोई छात्र यह कहे कि मैं बाँसुरी बजाना चाहता हूँ या साहित्य के क्षेत्र में अपना हाथ आज़माना चाहता हूँ तो प्रत्युत्तर में उसे यही कहा जाता है कि फिर खाने का प्रबंध कैसे होगा? आज के जीवन में सृजनात्मकता या अपने मन की करने के लिए कोई ठोस व्यवस्था दिखती ही नहीं। इन सबका जिम्मेदार कहीं न कहीं पूँजीवादी समाज ही है।  

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