Class +2 Second Year CHSE, BBSR Sahitya Sudha Solutions Sooryakant Tripathi Nirala Var De Veenavadini, Baadal Raag सूर्यकांत त्रिपाठी निराला – वीणावादिनि वर दे, बादल राग

(सन् 1897-1962)

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म माघ शुक्ल एकादशी को बंगाल के मेदिनपुर जिले के महिषादल रियासत में 1897 को हुआ। उनके पिता पंडित रामसहाय उन्नाव जिले के गढकोला के थे, महिषादल राज्य में नौकरी करते थे। बचपन में ही निराला की माता चल बसीं। हाईस्कूल में नौवीं कक्षा में थे तब उनका विवाह हुआ। 1918 में पत्नी भी चल बसीं। एक पुत्र और पुत्री सरोज थे। 1920 में निराला कलकत्ता आए। ‘मतवाला’ पत्रिका में उनकी कविताएँ छपीं और शीघ्र प्रसिद्ध हो गए। जीवन घोर आर्थिक संकट में गुजरा।

कवि का व्यक्तिगत तथा साहित्यिक जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा। उनको कष्ट भी मिला और लड़ने की प्रेरणा भी निराला के साहित्य में संघर्ष की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इसीलिए उनको ‘पौरुष के कवि’, ‘महाप्राण’ आदि भी कहा गया है। उनकी प्रख्यात रचनाओं में- अनामिका भाग 1 (1922), परिमल (1930), गीतिका (1836), अनामिका भाग- 2 (1938), तुलसीदास (खंडकाव्य – 1938), कुकुरमुता (1942), अपरा, आराधना (1953), अर्चना (1950), रामचरित मानस का खड़ीबोली में रूपांतर आदि। निराला ने उपन्यास, कहानी, निबंध, रेखाचित्र, आलोचना भी लिखे हैं, अनुवाद किया है। जीवनियाँ लिखी हैं।

विश्वम्भर मानव के शब्दों में- “छायावादी कवियों में निराला जीवन के सबसे अधिक निकट थे। उससे उनका घनिष्ठ परिचय था। जीवन अपनी पूर्ण विविधता के साथ ही नहीं, पूरी गहराई के साथ उनके काव्य में चित्रित हुआ। ओज और करुणा, विनय और विद्रोह, रोमांस और भक्ति, क्लासिक गंभीरता और हास्य-व्यंग्य सभी को समान शक्ति से सँभालते दिखाई देते हैं। वे एक साथ छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी और ब्रह्मवादी हैं…. वे मुक्त छंद के प्रवर्तक हैं, पर छंदबद्ध काव्य पर उनका असाधारण अधिकार है।” भाव, विचार, कल्पना और कला के क्षेत्र में विरोधी तत्त्वों के संपूर्ण सामंजस्य का दूसरा नाम उनका काव्य है। निराला अपने युग की सभी प्रवृत्तियों पर पूर्ण अधिकार से लिखते हैं। वे स्वयं एक युग हैं।

कविता परिचय

‘निराला’ ने जिन परिस्थितियों में लिखना शुरू किया तब देश परतंत्र था, अंग्रेजों का शासन चल रहा था। किसी को बोलने की स्वतंत्रता नहीं थी। शासन का अत्याचार हर क्षेत्र में था। राजनीति और प्रशासन में अंग्रेजों का दबदबा था। यह देश और यहाँ के लोग उनके अधीन थे। इसके लिए एक नई चेतना जगाने की जरूरत थी, जो हमें आजादी दिला सके। ऐसी बुद्धि, ऐसे चिंतन जो पुराने और रूढ़िग्रस्त न होकर नव्यता तथा प्रगतिशील हो, ताकि स्वतंत्र रूप से अपने विचार, अपनी आशा आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर सके। इसीलिए कवि विद्यादात्री वीणाहस्ता देवी सरस्वती से प्रार्थना करता है कि तुम हम भारतवासियों को नए विचार दो, नया स्वर दो, वे खुल कर अपनी बात कहें। इस प्रकार एक नव युग का निर्माण हो।

वर दे ! वीणा वादिनि वर दे !

प्रिय स्वतंत्र – रव

अमृत-मन्त्र नव

भारत में भर दे।

काट अन्ध-उर के बन्धन -स्तर

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,

कलुष भेद-तम उर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे।

नव गति, नव लय, ताल- छंद नव,

नवल कंठ, नव जलद – मन्द्र रव,

नव नभ के नव विहग – वृन्द को

नव पर, नव स्वर दे !

शब्दार्थ –

वीणावादिनि- वीणा बजानेवाली माता सरस्वती

स्वतंत्र – रव

अमृत – जो मरा हुआ न हो

नव – नया

अन्ध – अंधकार

उर – हृदय

बन्धन – जकड़

स्तर – Level

जननि – माँ

ज्योतिर्मय – प्रकाश पुंज

निर्झर – झरना

कलुष – मेल, पाप

भेद – अंतर

तम – अंधकार

गति – Speed  

लय – Rhythm  

छंद – Rhyme  

नवल – नया

जलद – बादल

मन्द्र – गर्जन, गंभीर ध्वनि  

रव – आवाज़, शोर-गुल  

नभ – आकाश  

विहग-वृन्द – पक्षियों का समूह  

वीणावादिनि- हे वीणा बजानेवाली माता सरस्वती, (संबोधन होने से वादिनी ‘वादिनि’ हुआ है।) आप हम भारतवासियों को विद्या का वरदान दें! हमारे कठों को प्रिय लगनेवाले स्वतंत्रता के मंत्र, नए स्वर, नए गीत, अमृत धारा से भर दे।

हे माता, भारतीयों के हृदय में जो रूढ़ियों का, जड़ता का, अज्ञानता का, रक्षणशीलता का बंधन है, उनके सभी प्रकार के बंधनों को काट दें। उनके भीतर अज्ञान का जो अंधकार है। उसे दूर कर दें एवं ज्योतिर्मय अर्थात् ज्ञान रूपी ज्योति या प्रकाश का अविरल स्रोत बहा दें। आप ज्ञानरूपी ज्योति का झरना बहा दें, ताकि उस ज्ञान की गंगा से अज्ञान, अंधकार, पाप सब दूर मिट जाएँ और यह संसार जगमगा उठे, उद्भासित हो उठे।

हे माता, अब सारी पुरानी जीर्ण वस्तुओं को त्याग कर हमें नए छंद दे जिनमें नई गति हो नया ताल और छंद सब नए हो। पुराने छंद, पुरानी कविता नहीं। हमारे कंठ को नया बनाएँ, उसमें नए मेघ का गर्जन भर दें, वह मन्द्र या गंभीर हो। युवा भारतीय रूपी नए पक्षियों को नई उड़ान भरने केलिए नए पर दें, नया स्वर और संगीत दें। यह संगीत नया हो अर्थात् स्वतंत्रता स्वच्छंदता को ले आए। ऊपर पराधीनता के बंधन को काटकर फेंक दे। यह यह व्यंजना है कि विदेशी शासन की परतंत्रता से मुक्त होने के लिए हमें नया ज्ञान नया कौशल प्रदान करें।

सरस्वती की वंदना के बहाने कवि देशवासियों को नए ज्ञान और कौशल को प्राप्त करके देश को स्वतंत्र करने की शक्ति आहरण करने की प्रेरणा देता है।

बादल राग कविता अनामिका में छह खंडों में प्रकाशित है। यहाँ उसका छठा खंड लिया गया है। लघुमानव (आम आदमी) के दुख से त्रस्त कवि यहाँ बादल का आह्वान क्रांति के रूप में कर रहा है क्योंकि विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते। किसान मज़दूर की आकांक्षाएँ बादल को नव—निर्माण के राग के रूप पुकार रही हैं। क्रांति हमेशा वंचितों का प्रतिनिधित्व करती है – इस अर्थ में भी छोटे को देखा जा सकता है। अट्टालिका नहीं है रे में भी वंचितों की पक्षधरता की अनुगूँज स्पष्ट है। बादलों के अंग—अंग में बिजलियाँ सोई हैं, वज्रपात से उनके शरीर आहत भी हों तो भी हिम्मत नहीं हारते, बार—बार गिरकर उठते हैं। गगन स्पर्शी, स्पर्धा—धीर ये बादल दरअसल वीरों का एक प्रमत्त दल दिखाई देते हैं। चूँकि ये विप्लव के बादल हैं, इसलिए गर्जन—तर्जन अमोघ हैं। गरमी से तपी—झुलसी धरती पर क्रांति के संदेश की तरह बादल आए हैं। हर तरफ़ सब कुछ रूखा—सूखा और मुरझाया—सा है। अकाल की चिंता से व्याकुल किसान ‘हाड़—मात्र’ ही रह गए हैं – जीर्ण शरीर, त्रस्त नयनमुख। पूरी धरती का हृदय दग्ध है –  ऐसे में बादल का प्रकट होना, प्रकृति में और जगत में, कैसे परिवर्तन घटित कर रहा है –  कविता इन बिंबों के माध्यम से इसका अत्यंत सजल और व्यंजक संकेत करती है। धरती के भीतर सोए अंकुर नवजीवन की आशा में सिर ऊँचा करके बादल की उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं। क्रांति जो हरियाली लाएगी, उसके सबसे उत्फुल्ल धारक नए पौधे, छोटे बच्चे ही होंगे। समीर—सागर के विराट बिंब से निराला की कविता शुरू होती है। यह इकलौता बिंब इतना विराट और व्यंजक है कि निराला का पूरा काव्य—व्यक्तित्व इसमें उमड़ता—घुमड़ता दिखाई देता है। इस तरह यह कविता लघुमानव की खुशहाली का राग बन गई है। इसीलिए बादल राग एक ओर जीवन निर्माण के नए राग का सूचक है तो दूसरी ओर उस भैरव संगीत का, जो नव निर्माण का कारण बनता है।

तिरती है समीर—सागर पर

अस्थिर सुख पर दुख की छाया –

जग के दग्ध हृदय पर

निर्दय विप्लव की प्लावित माया –

यह तेरी रण—तरी

भरी आकांक्षाओं से,

घन, भेरी—गर्जन से सजग सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के, आशाओं से

नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,

ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!

फिर—फिर

बार—बार गर्जन

वर्षण है मूसलधार,

हृदय थाम लेता संसार,

सुन—सुन घोर वज्र—हुंकार।

अशनि—पात से शापित उन्नत शत—शत वीर,

क्षत—विक्षत हत अचल—शरीर,

गगन—स्पर्शी स्पर्द्धा धीर।

हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार –

शस्य अपार,

हिल—हिल

खिल—खिल,

हाथ हिलाते,

तुझे बुलाते,

विप्लव—रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।

अट्टालिका नहीं है रे

आतंक—भवन

सदा पंक पर ही होता

जल—विप्लव—प्लावन,

क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से

सदा छलकता नीर,

रोग—शोक में भी हँसता है

शैशव का सुकुमार शरीर।

रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष

अंगना—अंग से लिपटे भी

आतंक अंक पर काँप रहे हैं।

धनी, वज्र—गर्जन से बादल!

त्रस्त –  नयन मुख ढाँप रहे हैं।

जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,

तुझे बुलाता कृषक अधीर,

ऐ विप्लव के वीर!

चूस लिया है उसका सार,

हाड़—मात्र ही है आधार,

ऐ जीवन के पारावार!!

शब्दार्थ

1.    तिरती– तैरती

2.    समीर– वायु

3.    अस्थिर– क्षणिक

4.    दग्ध– जला हुआ

5.    निर्दय– कठोर

6.    विप्लव– विनाश

7.    प्लावित– डूबा हुआ

8.    रण– युद्ध

9.    तरी– नाव

10.   भेरी– नगाड़ा

11.   सुप्त– सोया हुआ

12.   अंकुर– बीज

13.   उर– ह्रदय

14.   ताकना– देखना

15.   वर्षण– बारिश होना

16.   मूसलधार– ज़ोरों की बारिश

17.   शापित– जिसे अभिशाप दिया गया हो

18.   घोर– भयंकर

19.  उन्नत– विकसित

20.  लघुभार– हलके

21.  अपार– बहुत अधिक

22.  शस्य–फसल

23.  स्पर्धा– आगे बढ़ने की होड़

24.  क्षत-विक्षत– घायल

25.  अचल– अडिग, पहाड़

26.  अशनि-पात– बिजली का गिरना

27.  अट्टालिका– महल

28.  आतंक-भवन– भय का निवास स्थान

29.  पंक– कीचड़

30.  प्लावन– बाढ़

31.  क्षुद्र– लघु, छोटा

32.  प्रफुल्ल– प्रसन्न

33.  जलज– कमल

34.  नीर– पानी

35.  शोक– दुख

36.  शैशव– बचपन

37.  रुद्ध– रुकहुआ

38.  त्रस्त– भयभीत, वंचित

39.  अंगना– पत्नी

40.  अंक– गोद, संख्या

41.  कोष– खज़ाना

42.  तोष– संतोष

43.  वज्र– बिजली

44.  सुकुमार– कोमल

45.  जीर्ण–पुराण, फटा हुआ

46.  बाहु– भुजा

47.  शीर्ण– कमज़ोर

48.  कृषक– किसान

49.  अधीर– व्याकुल

50.  सार– प्राण

51.  हाड़-मात्र– हड्डियों का ढाँचा

52.  पारावार– समुद्र

कवि ‘निराला’ देखते हैं कि देश की सामान्य जनता अत्यंत दीन, दुखी हैं। बीमारी, भूखभरी, गरीबी और लाचारी से अधिकांश जनता परेशान है। जनजीवन तो मरुभूमि बन गया है। ग्रीष्मकाल में जैसे सब कुछ सूख जाता, ताप से जल जाता है, वैसी हालत है। ग्रीष्म के बाद वर्षा आती है। बादल आते हैं। वे बरसाते हैं तो धरती हरी-भरी शस्यश्यामला होती है। जब धमाकेदार मूसलाधार वर्षा होती है, जब झड़ी लगती है, तूफान चलता है तब जो घमंड के साथ सिर उठाकर खड़े हैं, जो तथाकथित बड़े हैं- बड़े वृक्ष, बड़े घर, अट्टालिका आदि उनको काफी नुकसान पहुँचता है लेकिन घास, दूब, छोटे पौधे फिर से जाग उठते हैं। हरे भरे होते हैं। उनमें जीने की नई शक्ति आती है। बादल मानो सूखी, सुप्त, अवसन्न, विषण्ण धरती को सामान्य जन के जीवन को जगा देता है। इसलिए बादल आंदोलन, क्रांति का प्रतीक है। कवि उससे आग्रह करता है कि हे बादल, तुम एक बार फिर जागो, नई चेतना, नई शक्ति, नई प्रेरणा दो। भारतवर्ष फिर से जाग उठे।

कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी बादलों को विप्लव और क्रांति का प्रतीक मानकर उनका आहवान करते हैं। वे मानते हैं कि क्रांति द्वारा ही  अन्याय और शोषण का अंत किया जा सकता है ।

जब धरती पर ग्रीष्म ऋतु अपने भीषण और चरम रूप में होती है तब पौधों वनस्पतियों के साथ-साथ जीव जंतुओं के प्राणों पर संकट छा जाता है । पानी की कमी से वे त्राहि-त्राहि करने लगते हैं। ऐसे में क्रांति के प्रतीक बादलों का आगमन होता है जो उनके जीवन के साथ-साथ प्रकृति में भी एक नया बदलाव लाता है । बादल किसी क्रांतिकारी की भाँति आकर धरती से शोषण समाप्त करता है और सभी को नवजीवन प्रदान करता हैं। जब भीषण गर्मी पूरी धरती को अपने ताप से झुलसाने लगती है तब अनजान दिशाओं से बादल किसी योद्धा की भाँति आकर पूरे आकाश में छा जाते हैं, उनकी कड़कदार आवाज भेरी गर्जना जैसी लगती है। उनके इस रूप को देखकर धरती के नन्हें-नन्हें पौधे और गरीब किसान राहत की साँस लेते हैं। वे आशा भरी दृष्टि से बादलों की ओर देखने लगते हैं।

एक ओर बादलों का आगमन जहाँ भीषण गर्मी की मार झेल रहे शोषितों और वंचितों को न्याय दिलाता है तो वहीं दूसरी तरफ वह गर्मी के मौसम के लिए विनाश का रूप लेकर आता है। गरीब और कमजोर वर्ग के लिए बादलों का आगमन किसी मंगल उत्सव से कम नहीं। इसलिए वह सदा इन बादलों की प्रतीक्षा करता है।

‘बादलराग’ कविता एक ओर प्रकृति में बदलाव की बात करती है तो दूसरी ओर सामाजिक बदलाव के लिए क्रांति को आवश्यक मानती है। वर्षों से शोषण की मार झेल रहे पीड़ितों को राहत मिलती है । वे खुलकर अपने अधिकारों के साथ जी पाते हैं।

कविता में आए प्रतीकात्मक शब्द –

बादल – क्रांतिकारी

अंकुर, छोटे पौधे, जलज, नन्हें शिशु – समाज का दबा-कुचला, वंचित(सर्वहारा) वर्ग

अचल – समाज का ताकतवर वर्ग (पूँजीपति)

पंक – सामाजिक बुराई

विप्लव – क्रान्ति

इस कविता में राष्ट्रीय भावना मूल प्रेरणा है। बादल, बरसात, बिजली, गर्जन आदि क्रांति के साधन हैं। इनके बल पर हमारा देश, हमलोग फिर से जाग उठेंगे।

(i) वीणावादिनी कौन है?

(क) दुर्गा

(ख) सरस्वती

(ग) लक्ष्मी

(घ) वीणा बजानेवाली

उत्तर – (ख) सरस्वती

(ii) उर के बंधन को काटने से कवि का क्या अभिप्राय है?

(क) बंधन

(ख) परतंत्रता

(ग) रूढ़ियाँ

(घ) निर्झर

उत्तर – (ग) रूढ़ियाँ  

(iii) समीर सागर पर कौन तैर रहा था?

(क) अस्थिर सुख

(ख) विप्लवी बादल

(ग) माया

(घ) पृथ्वी

उत्तर – (क) अस्थिर सुख

(iv) मूसलाधारा वर्षा होती है तो कौन हँसता है?

(क) छोटे पौधे

(ख) शत शतवीर

(ग) वज्र हुंकार

(घ) हृदय

उत्तर – (क) छोटे पौधे

(i) बादल को कवि क्या करने को कहता है?

उत्तर – बादल को कवि मूसलाधार बारिश के साथ साथ वज्राघात करने का आग्रह करता है।  

(ii) मूसलाधार बरसता है तो संसार क्या करता है?

उत्तर – जब मूसलाधार बारिश होती है तो संसार के शोषक वर्ग क्रांति से भयभीत हो जाते हैं और लघु पौधे खुशी से पुलकित हो उठते हैं।

1. “अस्थिर सुख पर दुख की छाया” पंक्ति में दुख की छाया किसे कहा गया है और क्यों?

उत्तर –  “अस्थिर सुख पर दुख की छाया” पंक्ति में दुख की छाया क्रांति या विनाश की आशंका को कहा गया है। इस क्राति की हुंकार से पूँजीपति या अमीर लोग घबरा जाते हैं, वे अपनी सुख-सुविधा खो देने के डर से दिल थाम कर रह जाते हैं। उनका सुख अस्थिर है और  उन्हें क्रांति में दुख की छाया दिखाई देती हैं।

2. “अशनि—पात से शापित उन्नत शत—शत वीर” पंक्ति में किसकी ओर संकेत किया गया है?

उत्तर – “अशनि-पात से शापित उन्नत शत-शत वीर” पंक्ति में क्रांति का विरोध करने वाले गर्वीले वीरों अर्थात् शोषकवर्ग और पूँजीपति की ओर संकेत करती है जो क्रांति के वज्राघात से घायल होकर क्षत-विक्षत हो जाते हैं। बादलों की गर्जना और मूसलधार वर्षा में बड़े-बड़े पर्वत,वृक्ष क्षत-विक्षत हो जाते हैं। उसी प्रकार क्रांति की हुंकार से पूँजीपति का घन, संपत्ति तथा वैभव आदि का विनाश हो जाता है।  

3. विप्लव—रव से छोटे ही हैं शोभा पाते पंक्ति में विप्लव—रव से क्या तात्पर्य है? छोटे ही हैं शोभा पाते ऐसा क्यों कहा गया है?

उत्तर – “विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते” पंक्ति में विप्लव-रव से तात्पर्य है – क्रांति का स्वर। क्रांति जब आती है तब गरीब वर्ग आशा से भर उठता है एवं धनी वर्ग अपने विनाश की आशंका से भयभीत हो उठता है। शोषितों और छोटे लोगों के पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं। अतः, उन्हें इस क्रांति से सिर्फ़ लाभ ही होगा। इसलिए कहा गया है कि “छोटे ही हैं शोभा पाते।”

4. बादलों के आगमन से प्रकृति में होने वाले किन—किन परिवर्तनों को कविता रेखांकित करती है?

उत्तर –  बादलों के आगमन से प्रकृति में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं- 

• हवा बहने लगती है।

• बादल ज़ोर-ज़ोर से गरजने लगते हैं। 

• मूसलधार बारिश होती है। 

• बिजली चमकने लगती है। 

• छोटे-छोटे पौधे खिल उठते हैं। 

• गर्मी के कारण दुखी प्राणी बादलों को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं।

1. तिरती है समीर—सागर पर

अस्थिर सुख पर दुख की छाया –

जग के दग्ध हृदय पर

निर्दय विप्लव की प्लावित माया –

व्याख्या –

कवि बादल को संबोधित करते हुए कहते हैं कि – हे क्रांति के दूत रूपी बादल। तुम आकाश में ऐसे मँडराते रहते हो जैसे पवन रूपी सागर पर नौका तैर रही हो। उसी प्रकार पूँजीपतियों के धन-वैभव पर क्रांति की छाया मँडरा रही है इसलिए कहा गया है “अस्थिर सुख पर दुख की छाया”

कवि ने बादलों को विप्लवकारी योद्धा, उसके विशाल रूप को रण-नौका तथा गर्जन-तर्जन को रणभेरी के रूप में दिखाया है। कवि कहते हैं कि हे बादल! तेरी भारी-भरकम गर्जना से धरती के गर्भ में सोए हुए अंकुर सजग हो उठे हैं अर्थात् कमजोर व निष्क्रिय व्यक्ति भी संघर्ष के लिए तैयार हो चुके हैं।

2. अट्टालिका नहीं है रे

आतंक—भवन

सदा पंक पर ही होता

जल—विप्लव—प्लावन

व्याख्या –

कवि कहते हैं कि पूँजीपतियों के ऊँचे-ऊँचे भवन मात्र भवन नहीं हैं अपितु ये गरीबों को आतंकित करने वाले भवन हैं। इन भवनों का निर्माण उनका ही शोषण करके हुआ है। इसमें रहनेवाले लोग बिलकुल  महान नहीं हैं। ये तो भयग्रस्त हैं। जल की विनाशलीला तो सदा पंक को ही डुबोती है। उसी प्रकार क्रांति की ज्वाला में धनी लोग ही जलते है, गरीबों को कुछ खोने का डर ही नहीं होता है।

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