Class +2 Second Year CHSE, BBSR Sahitya Sudha Solutions Tulsidas Ram-Vibhishan Milan तुलसीदास राम-विभीषण मिलन

इस पाठ को पढ़ने के बाद आप ये जान/बता पाएँगे

  • दोहा अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 13 मात्राएँ और द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 11 मात्राएँ होती हैं। चौपाई सम मात्रिक छंद है और इसके चारों चरणों में 16 मात्राएँ होती हैं।
  • गोस्वामी तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की जानकारी।
  • भक्तिकाल के सगुण काव्यधारा के रामभक्ति शाखा का प्रभाव। 
  • वर्तमान जीवन में रामचरितमानस की उपयोगिता।  
  • नीतिपरक सबक एवं सीखों का संक्षिप्त परंतु अद्भुत संकलन।  
  • पौराणिक चरित्रों का परिचय।   
  • अवधी भाषा की मधुरता एवं भाषा ज्ञान।  
  • अन्य जीवनोपयोगी जानकारियाँ।   

जीवन वृत्त

सामान्य परिचय

तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िले के राजापुर गाँव में सन् 1532 में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्मस्थान सोरों (ज़िला—एटा) भी मानते हैं। तुलसी का बचपन बहुत संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता—पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है कि गुरुकृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। वे मानव—मूल्यों के उपासक कवि थे। रामभक्ति परंपरा में तुलसी अतुलनीय हैं। रामचरितमानस कवि की अनन्य रामभक्ति और उनके सृजनात्मक कौशल का मनोरम उदाहरण है। उनके राम मानवीय मर्यादाओं और आदर्शों के प्रतीक हैं जिनके माध्यम से तुलसी ने नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग जैसे उदात्त आदर्शों को प्रतिष्ठित किया। रामचरितमानस उत्तरी भारत की जनता के बीच बहुत लोकप्रिय है। अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। सन् 1623 में काशी में उनका देहावसान हुआ।

विस्तृत परिचय 

तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 (1532 ईस्वी) को उत्तरप्रदेश राजापुर में हुआ और देहांत संवत् 1680 को श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन गंगा के तीर पर काशी के अस्सी घाट में हुआ। पिता का नाम आत्माराम और माता का हुलसी था। जन्म हुआ तो भाद्र शुक्ल एकादशी को था, लेकिन नक्षत्र था अभुक्त मूल। इस नक्षत्र में जन्म लेना अशुभ माना जाता था, तो माता पिता ने उन्हें त्याग दिया पालन एक धाय के द्वारा हुआ। बचपन बड़े कष्ट में बीता। बाद में गुरु नरहरि तीर्थ ने इस बुद्धिमान बालक को अपने पास रखा, वेदशास्त्र पढ़ाया, भक्ति की दीक्षा दी। इनके गुरु थे नरहरि दास। तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की कन्या सुंदरी रत्नावली से हुआ। एक बार रत्नावली अपने मायके गई। तुलसीदास भी उनके पीछे वहाँ चले गए। पत्नी को लज्जा हुई। उन्होंने कहा

“लाज न आई आपको दौरे आए हो साथ।

धिक् धिक् ऐसे प्रेम को कहा कहों में नाथ॥  

अस्थि चर्ममय देह मम तामें ऐसी प्रीति

होति जो श्रीराम महँ होति न भव भीति॥”  

तुलसीदास को बात लग गई। उनको वैराग्य ने अभिभूत कर लिया। वे संसार छोड़ राम की शरण में काशी चले आए और घर छोड़ दिया।

हिंदी में एक उक्ति प्रसिद्ध है- ‘सूर सूर तुलसी ससि’ अर्थात् सूरदास सूर्य के समान हैं तो तुलसीदास चंद्रमा के समान इन दोनों कवियों की रचनाओं के कारण ही भक्तिकाल को स्वर्णकाल कहा गया। सूरदास का बाल- किशोर – लीलावर्णन कृष्ण के प्रेम और भक्ति के गंभीर भावात्मक रूप को प्रस्तुत करता है। ‘सूरसागर’ जैसी भावपूर्ण काव्यात्मक रचना दुर्लभ है। लेकिन तुलसीदास की रचना मानवजीवन के पूर्ण रूप को समेटती है। तत्कालीन हताश जनजीवन को मर्यादा पुरुषोत्तम राम का आदर्श जीवन चरित द्वारा तुलसी ने बड़ा भरोसा प्रदान किया।

तत्कालीन परिस्थितियाँ

गोस्वामी तुलसीदास ने तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल साहित्य- सर्जन किया। विषय भक्ति है, किंतु, उद्देश्य लोकसंग्रह और लोकमंगल है। उनकी सभी रचनाओं में विविध भाव और विचार मिलते हैं, जो जीवन के लिए उपयोगी है। उन्होंने जनता के मन में विश्वास पैदा कर दिया कि यह संसार नश्वर और मिथ्या नहीं है। रामभक्ति के द्वारा उन्होंने मनुष्य के मन मे प्रेम-भाव जगाया। राम कथा के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के आदर्शों को प्रस्तुत किया। तुलसी ने विशृंखल, अनुशासनहीन समाज के आगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम में शील, शक्ति, सौंदर्य संवलित अद्भुत रूप का गुणगान करके उसे नया संयम और संजीवनी से प्राणवंत किया। सभी मतवादों (शेव-वैष्णव, सगुण-निर्गुण, योग-भक्ति आदि) में समन्वय किया। विविध भावों के अनुसार विभिन्न शैलियों, छन्दों को अपनाकर काव्य का वैभव प्रस्तुत किया।

उन्होंने प्रबंध काव्य और गीतिकाव्य दोनों लिखे। उनका ‘रामचरितमानस’ आज भी अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है और देश-विदेशों में बराबर पढ़ा जाता है।

भाषा शैली  

तुलसीदास ने अवधी और ब्रजभाषा दोनों में समान अधिकार के साथ लिखा है। ‘रामचरितमानस’ अवधी में लिखा गया है, तो ‘कवितावली’ ‘गीतावली’, ‘विनयपत्रिका’ जैसे अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ सुंदर ब्रजभाषा में लिखे गए हैं। तुलसी की काव्य भाषा की एक अलग पहचान है। उसमें शब्दों के सहित संस्कृत के तत्सम ब्रजभाषा में तद्भव शब्दों का इतना सुंदर मेल हे कि भाषा अत्यंत सरल, बोधगम्य परंतु भावगर्भित हो उठी है। अभिधा, लक्षणा, व्यंजना जैसी शब्द- शक्तियों का सुचारु उपयोग हुआ है। अलंकारों का इस्तेमाल अत्यंत सहज और स्वाभाविक तरीके से किया गया है। इसलिए तुलसी की भाषा अत्यंत जीवंत लगती है। ‘रामचरितमानस’ को तो अन्य भाषी लोग पढ़कर समझते हैं और आनंद उठाते हैं।

कृतित्व

     रामचरितमानस के अलावा कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। तुलसी ने रामचरितमानस की रचना अवधी में और विनयपत्रिका तथा कवितावली की रचना ब्रजभाषा में की। उस समय प्रचलित सभी काव्य रूपों को तुलसी की रचनाओं में देखा जा सकता है। रामचरितमानस का मुख्य छंद चौपाई है तथा बीच—बीच में दोहे, सोरठे, हरिगीतिका तथा अन्य छंद पिरोए गए हैं। विनयपत्रिका की रचना गेय पदों में हुई है। कवितावली में सवैया और कवित्त छंद की छटा देखी जा सकती है। उनकी रचनाओं में प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार के काव्यों का उत्कृष्ट रूप है।

प्रसंग – यह अंश रामचरितमानस के सुंदर कांड (सुंदर कांड में हनुमान का लंका प्रस्थान, लंका दहन से लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं) से लिया गया है। विभीषण का रावण को समझाना और रावण द्वारा विभीषण का अपमान होना। रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया। विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले। विभीषण का भगवान श्रीरामजी की शरण के लिए प्रस्थान और शरण प्राप्ति की कथा इन दोहों और चौपाइयों में संकलित है।

     विभीषण प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी।) आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने (श्रीरामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई आपसे मिलने आया है। यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँधकर रखा जाए। तब श्रीरामजी ने कहा, “हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना।”

     संपूर्ण दोहों और चौपाइयों में व्यंग्योक्तियाँ और व्यंजना शैली की सरस अभिव्यक्ति है।

दोहा – 1

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥1॥

शब्दार्थ

सरनागत – शरण में आया हुआ

कहुँ – कहना

जे  – जो

तजहिं  – त्याग करना

निज  – अपना

अनहित  – अहित

अनुमानि – अनुमान

ते  – वो

नर – आदमी

पावँर – क्षुद्र

पापमय – पापी

तिन्हहि – उन्हें

बिलोकत – देखने से

हानि – क्षति

भावार्थ:-श्रीरामजी फिर बोले – जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है) यहाँ श्रीराम के कृपासिन्धु होने का बोध होता है। ॥1॥

चौपाई :

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥

शब्दार्थ

कोटि – करोड़

बिप्र – ब्राह्मण

बध – हत्या

लागहिं – लगा हो

जाहू – जिसे

तजउँ – त्याग

नहिं – नहीं

ताहू – उसे

सनमुख – सम्मुख, सामने

होइ – होता है

मोहि – मुझे

जबहीं – जब

अघ – पाप

नासहिं – नष्ट होना

तबहीं – तब

भावार्थ:- यहाँ श्रीराम कहते हैं किजिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप लगा हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।  

पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥2॥

शब्दार्थ

पापवंत – पापी

सुभाऊ – स्वभाव

भजनु – भजन

मोर – मेरा

तेहि – उसे

भाव – भाता है

जौं – वह

सोइ – वह  

आव – आता  

भावार्थ:-पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

शब्दार्थ

निर्मल – स्वच्छ

मन – हृदय

जन – आदमी

सो – वह

मोहि – मुझे

पावा – पाता है  

कपट छल छिद्र – बुरी मानसिकता वाले
भेद – रहस्य

लेन – लेने

पठवा – भेजा है

दससीसा- रावण  

तबहुँ – फिर भी

कछु – कुछ

कपीसा – सुग्रीव

भावार्थ:- आगे प्रभु कहते हैं किजो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है।  

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥4॥

शब्दार्थ

जग – जगत

महुँ – में

सखा – मित्र

निसाचर – राक्षस

जेते – जीतने

लछिमनु – लक्ष्मण

हनइ – मारना

निमिष – क्षणभर
जौं – वह

सभीत – भयभीत

आवा – आया है

सरनाईं – शरण में

रखिहउँ रखूँगा

ताहि – उसे

प्रान – प्राण

की नाईं – की तरह

भावार्थ:- अपने कथनों को पुष्ट करते हुए प्रभु कहते हैं किक्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा।  

दोहा :

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत॥2॥

श्बदार्थ

उभय – दोनों

भाँति – की तरह  

तेहि – उसे

आनहु – ले आओ

हँसि – हँसकर  

कह – कहा

कृपानिकेत – श्रीराम

जय कृपाल कहि – राम जी की जय

कपि – सुग्रीव

अंगद – बालि का पुत्र

हनू – हनुमान

समेत – साथ

भावार्थ:- कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहते हुए चले।  

चौपाई :

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥

शब्दार्थ

सादर – आदर के साथ

तेहि – उसे

रघुपति करुनाकर – श्रीराम

दूरिहि – दूर से ही

द्वौ भ्राता – दोनों भाइयों को  

नयनानंद दान के दाता – आँखों को आनंद का दान देने वाले

भावार्थ:-विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने वाले (अत्यंत सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा।  

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

शब्दार्थ

बहुरि – फिर

छबिधाम – शोभा के धाम

बिलोकी – देखकर  

ठटुकि – ठिठककर

एकटक – निर्निमेष, बिना पालक गिराए

पल – क्षण

भुज – बाहु

प्रलंब – विशाल

कंजारुन – लाल कमल

लोचन – नेत्र  

स्यामल – साँवला

गात – शरीर

प्रनत – शरणागत

भय मोचन – भय का नाश

भावार्थ:-फिर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान की विशाल भुजाएँ हैं लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है।  

सघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

शब्दार्थ

सघ – सिंह

कंध – कंधे

आयत – चौड़ी

उर – छाती

सोहा – शोभित

आनन – मुख

अमित – असंख्य

मदन – कामदेव
नयन – नेत्र

नीर – जल

पुलकित – खुश  

अति – अत्यंत

गाता – शरीर

धरि धीर – धीरज धरकर  

मृदु बाता – कोमल वचन

भावार्थ:-आगे कहने लगे कि सिंह के से कंधे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) अत्यंत शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे।  

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

शब्दार्थ

नाथ – प्रभु

दसानन – रावण

भ्राता – भाई

निसिचर – राक्षस

बंस – कुल

जनम – जन्म

सुरत्राता – देवताओं के रक्षक

पापप्रिय – पाप प्रिय

तामस – राक्षसी

देहा – शरीर

जथा – जैसे

उलूकहि – उल्लू

तम – अंधकार

नेहा – स्नेह

भावार्थ:-हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है।  

दोहा :

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥3॥

शब्दार्थ

श्रवन – कान

सुजसु – सुयश

सुनि – सुनकर

आयउँ – आया हूँ

प्रभु – ईश्वर

भंजन – नाश

भव – संसार

भीर – भय
त्राहि – रक्षा

आरति – दुखी 

हरन – दूर करना  

सरन – शरण

सुखद – सुख देने वाला

रघुबीर – श्रीराम

भावार्थ:-मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।  

चौपाई :

अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥

शब्दार्थ

अस कहि – ऐसा कहकर

दंडवत – प्रणाम करना

तुरत – तुरंत

हरष – हर्षित होकर

बिसेषा – अत्यंत

दीन बचन – दुखी के कथन

सुनि – सुनकर

भावा – भाया  

भुज – बाहु  

बिसाल – विशाल

गहि – पकड़

हृदयँ लगावा – हृदय से लगा लिया

भावार्थ:-प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत्‌ करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया।  

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥

शब्दार्थ

अनुज – छोटा भाई

मिलि – मिलकर

ढिग – पास

बैठारी – बैठाकर

बचन – वचन

भगत – भक्त

भय – डर

हारी – हरने वाले

कहु – बोले

लंकेस – लंकेश 

कुसल – कुशल

कुठाहर – बुरी जगह

बास – निवास

भावार्थ:-छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है।  

खल मंडली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥

शब्दार्थ

खल मंडली – दुष्टों की मंडली

बसहु – बसता है

दिनु राती – दिन-रात

सखा – मित्र

धरम – धर्म

निबहइ – निभाना

केहि भाँती – किस प्रकार

मैं जानउँ – जानता हूँ

तुम्हारि – तुम्हारी

रीती – आचार-व्यवहार 

अति – अत्यंत

नय निपुन – नीतिनिपुण

भाव – भाना

अनीती – अनीति

भावार्थ:-दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यंत नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती।  

बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥

शब्दार्थ

बरु – वरन्‌

भल – अच्छा

बास – निवास

नरक – नर्क

ताता – भाई  

बिधाता – विधाता
पद – चरणों

देखि – दर्शन

कुसल – कुशल

रघुराया – श्रीराम

जौं – जो

तुम्ह – आपने

जानि – जानकर

जन – सेवक

दाया – दया

भावार्थ:-हे तात! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना जानकर मुझ पर दया की है।  

दोहा :

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥4॥

शब्दार्थ

कुसल – कुशल

न – नहीं

सपनेहुँ – स्वप्न में

बिश्राम – शांति
भजत – भजता है  

सोक – शोक

तजि – छोड़कर

काम – कामना

भावार्थ:-तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता।  

चौपाई :

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥

शब्दार्थ

हृदयँ – हृदय में

बसत – बसते हैं

खल – दुष्ट

मच्छर – ईर्ष्या डाह

मद – अभिमान
उर – हृदय

धरें – धारण

चाप सायक – धनुष-बाण

कटि – कमर

भाथा – तरकस

भावार्थ:-लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते।  

ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥2॥

शब्दार्थ

ममता तरुन – ममता रूपी

तमी – अँधेरी

अँधिआरी – रात

उलूक – उल्लू  

सुखकारी – सुख देने वाली
तब लगि – तभी तक

बसति – बसती है

जब लगि – जब तक

रबि – सूर्य

भावार्थ:-ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह (ममता रूपी रात्रि) तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता।  

अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥3॥

शब्दार्थ

मिटे – मिट गए

भय – डर

भारे – भारी

पद  कमल – चरणारविन्द
कृपाल – कृपालु

अनुकूला – अनुकूल

ताहि – उसे

ब्याप – व्यापना

त्रिबिध – तीनों प्रकार के

भव सूला – भवशूल(आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुख)

भावार्थ:-हे श्री रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूँ, मेरे भारी भय मिट गए। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते।  

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥4॥

शब्दार्थ

निसिचर – राक्षस

अति – अत्यंत

अधम – नीच

सुभाऊ – स्वभाव

सुभ – शुभ

आचरनु – आचरण

कीन्ह – किया

नहिं – नहीं

काऊ – कोई

जासु – जिनका

हरषि – हर्षित

हृदयँ – हृदय से

मोहि – मुझे

भावार्थ:-मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया।  

दोहा :

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥5॥

शब्दार्थ

अहोभाग्य – सौभाग्य

मम – मेरा

अमित – असीम

अति – अत्यंत

देखेउँ – देखा

नयन – नेत्र

बिरंचि – ब्रह्मा

सिव – शिवजी

सेब्य – सेवित

जुगल – युगल

पद कंज – चरण कमलों

भावार्थ:-हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा।  

चौपाई :

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

शब्दार्थ

सुनहु – सुनो

सखा – मित्र  

निज – अपना

कहउँ – कहता हूँ

सुभाऊ – स्वभाव

भुसुंडि – काकभुशुण्डि

संभु – शिवजी

गिरिजाऊ – पार्वतीजी
चराचर – जड़-चेतन

द्रोही – विद्रोही

आवै – आ जाए

सभय – भयभीत

सरन – शरण

मोही मेरी

भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए।  

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥

शब्दार्थ

तजि – त्याग

मद – अभिमान

सद्य – शीघ्र

तेहि  – उसे

साधु समाना – साधु के समान

जननी – माता

जनक – पिता

बंधु – भाई

सुत – पुत्र

दारा स्त्री

तनु – शरीर

धनु – धन

भवन – घर

सुहृद – मित्र

परिवारा – परिवार

भावार्थ:-और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार।

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

शब्दार्थ

सब कै – इन सबके

ममता – ममत्व

ताग – धागा

बटोरी – बटोरकर

मम – मेरे

पद – चरणों

मनहि – मन को

बरि – एक
समदरसी – समदर्शी

कछु – कुछ

नाहीं – नहीं

हरष – हर्ष

सोक – शोक

मन माहीं – मन में

भावार्थ:-इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है।

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥

शब्दार्थ

अस – ऐसा

मम – मेरे

उर – हृदय

हृदयँ – हृदय में

बसइ – बसा

धनु – धन
तुम्ह – तुम

सारिखे – सरीखे, की तरह

मोरें – मुझे

धरउँ – धारण

आन – और कोई

निहोरें – कृतज्ञता

भावार्थ:-ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता।

दोहा :

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥6॥

शब्दार्थ

सगुन – साकार

परहित – दूसरे के हित

निरत – हमेशा

नेम – नियमों

ते – वे

नर – मनुष्य

प्रान – प्राण

मम  – मेरे

जिन्ह – जिन्हें

द्विज – ब्राह्मणों

पद – चरणों

भावार्थ:-जो सगुण (साकार) भगवान के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं।

चौपाई :

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

शब्दार्थ

सुनु – सुनो

लंकेस – लंकापति

सकल – सब

गुन – गुण

तोरें – तुम्हारे

तातें – इससे

तुम्ह – तुम

अतिसय – अत्यंत

मोरें – मुझे

बचन – वचन

बानर – वानर

जूथा – समूह

बरूथा – समूह

भावार्थ:-हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्रीरामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो।

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

शब्दार्थ

सुनत – सुनते हुए

बिभीषनु – विभीषणजी

कै – की

बानी – वाणी

अघात – अघाते नहीं हैं

जानी – जानकर
पद अंबुज – चरण कमलों

गहि – पकड़

बारहिं बारा – बार-बार

हृदयँ – हृदय में

समात – अटना

प्रेमु अपारा – अपार प्रेम

भावार्थ:-प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्रीराम के चरण कमलों को पकड़ते हैं जिसमें अपार प्रेम है, जो हृदय में समाता नहीं है।  

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

शब्दार्थ

सुनहु – सुनिए

सचराचर – चराचर जगत्‌

प्रनतपाल – शरणागत के रक्षक

उर अंतरजामी – हृदय के भीतर की बात जानने वाले

बासना – वासना

सरित-  नदी

सो – वह

बही – बह गई

भावार्थ:-(विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई।  

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥

शब्दार्थ

कृपाल – कृपालु

निज – अपनी

भगति – भक्ति

पावनी – पवित्र

देहु – दीजिए

सदा – सदैव

सिव – शिवजी

मन भावनी – प्रिय लगने वाली
एवमस्तु – ऐसा ही हो

कहि – कहकर

प्रभु – रामजी

तुरत – तुरंत

सिंधु – समुद्र

नीरा – जल

भावार्थ:-अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा।  

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

शब्दार्थ

जदपि – यद्यपि

तव – तुम्हारी

मोर – मेरा

दरसु – दर्शन

अमोघ – जो निष्फल नहीं जाता

जग माहीं – जगत्‌ में
अस – ऐसा

कहि – कहकर

सुमन – पुष्प

बृष्टि – वृष्टि

नभ – आकाश

भई – हुई

अपारा – अपार

भावार्थ:-(और कहा-) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई।  

दोहा :

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥7॥

शब्दार्थ

अनल – अग्नि

निज – अपनी

स्वास – श्वास

समीर – पवन

जरत – जलते हुए

बिभीषनु – विभीषण

राखेउ – बचाया  

दीन्हेउ – दिया

राजु – राज्य

भावार्थ:-श्री रामजी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचंड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया।  

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथा।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथा॥8॥

शब्दार्थ

सिव – शिवजी

दिएँ दस माथा – दसों सिरों की बलि देने पर
सोइ – वही

संपदा – संपत्ति

बिभीषनहि – विभीषण को

सकुचि – संकोच भावार्थ:-शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते (संकोच करते हुए) हुए दी।

1. अपना अहित होगा- ऐसा अनुमान कर शरणागत को त्याग करने वाला क्या है?

क. पंडित             

ख. पाँवर                                 

ग. प्राज्ञ        

घ. प्रमत्त

उत्तर –  ख. पाँवर

2. अगर विभीषण सभीत शरण में आए हों तो श्रीराम उन्हें कैसे रखेंगे?

क.सखा जैसे                

ख. अतिथि जैसे                            

ग. प्राण जैसे               

घ. नेत्र जैसे

उत्तर –  ग. प्राण जैसे

3. विभीषण ने प्रभु का सुयश सुना है कि वे –

क. भवभीर भंजन           

ख. पापहरण                                

ग. शरणरक्षण              

घ. मनोरंजन

उत्तर –  क. भवभीर भंजन

4. विभीषण के प्रति राम के वचन कैसे थे?

क. अत्यंत मधुर            

ख. भगत भयहारी                                   

ग. मनोहारी                

घ. सुखकारी

उत्तर –  घ. सुखकारी

5. विभीषण ने राम की आश्वासन–वाणी सुनकर उनके पाँव पकड़े और उनके हृदय से अपार      _______ उमड़ा।  

क. क्रोध                   

ख. घृणा                                     

ग. प्रेम                    

घ. कुछ नहीं 

उत्तर –  ग. प्रेम

(क) राम को क्या अच्छा नहीं लगता?

उत्तर – अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देना राम को अच्छा नहीं लगता हैं।     

(ख) विभीषण भेद लेने आए हों तो भी क्या नहीं है?

उत्तर – विभीषण भेद लेने आए हों तो भी किसी प्रकार की भय या हानि नहीं है।

(ग) सुग्रीव विभीषण को राम के पास कैसे लाए?

उत्तर – सुग्रीव ने विभीषणजी को आदर सहित आगे करके श्रीराम के पास लाए।

(घ) असुर को पाप से प्रेम होता है, कैसे?

उत्तर – असुर को स्वभाव से ही पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है।

(ङ) विभीषण कने कहा कि प्रभु, पहले कुछ वासनाएँ थीं लेकिन अब …. ?

उत्तर – मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी वह आपके चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई।

1. दुष्ट हृदय श्रीराम को समझाने (की शरण में) नहीं आएगा, क्यों?

उत्तर – पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि उसे राम का भजन कभी नहीं सुहाता है। जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही राम को पाता है। कपट और छल-छिद्र वाले मनुष्य राम के पास आते ही नहीं हैं।

2. राम को देख विभीषण की क्या दशा हुई?

उत्तर – भगवान के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। उनका मन आनन्द के सागर में गोते लगाने लगा। 

3. विभीषण ने राम से क्या कहा?

उत्तर – राम को देखकर विभीषण ने कहा, “हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं। 

4. राम को कौन प्राणों के समान प्रिय होते हैं?

उत्तर – जो साकार भगवान के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम दिखाता है, वे मनुष्य राम को प्राणों के समान प्रिय हैं।

5. क्रोधानल में जलते विभीषण को राम ने क्या दिया?

उत्तर – क्रोधानल में जलते विभीषण को श्रीराम जी ने उनका राजतिलक कर दिया और उन्हें  अखंड राज्य दिया।    

1. जीव को विश्राम कब तक नहीं मिलता?

उत्तर – जीव को उस समय तक विश्राम नहीं और ना ही स्वप्न में उसके मन को शांति मिलती है जब तक वह शोक के घर, काम-वासना, छल-कपट आदि को सदा-सर्वदा के लिए छोड़कर श्रीरामजी को नहीं भजता।  

2. विभीषण ने अपना कुशल किसमें माना?

उत्तर – विभीषण ने श्रीराम के चरणारविन्द के दर्शन में ही अपना कुशल माना है क्योंकि इससे उनका भारी भय मिट गया है। उन्हें ज्ञात हो गया है कि राम जिस पर भी अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप नहीं व्यापते। 

3. राम का स्वभाव कैसा है जिसे शंभु भुशुंडि भी नहीं जानते हैं?

उत्तर – कोई भी मनुष्य यदि वह संपूर्ण जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर श्रीराम की शरण में आ जाए तो भी श्रीराम उनका कल्याण करते हैं।  श्रीरामजी के ऐसे स्वभाव के बारे में शिवजी और काकभुशुण्डि भी नहीं जानते हैं।   

4. सगुण उपासक का क्या मतलब है?

उत्तर – जो उपासक ईश्वर के साकार रूप की आराधना करते हैं, उन्हें सगुण उपासक कहते हैं। भक्तिकालीन काव्यधारा में भी सगुण उपासक का वर्णन मिलता है जिसमें रामभक्ति शाखा में तुलसीदास श्रेष्ठ माने जाते हैं और कृष्ण भक्ति शाखा में सूरदास पुरोधा माने जाते हैं।

5. राम ने विभीषण को लंका का राज्य किस प्रकार दिया?

उत्तर – शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही अखंड राज्य श्री रघुनाथजी ने विभीषण को उनका राजतिलक करने के पश्चात बहुत संकोच करते हुए दिया।

(क) श्रीराम ने क्या-क्या समझाकर सुग्रीव को विभीषण को उनके सामने लाने के लिए कहा?

उत्तर – श्रीराम ने सुग्रीव को समझाते हुए कहा कि जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे क्षुद्र हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है।  जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप लगा हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि विभीषण निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आता? जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र प्रवृत्ति वाले व्यक्ति नहीं सुहाते हैं। यदि उसे रावण ने भेद लेने के लिए  भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है क्योंकि, हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा। ये सारी बातें कृपा के धाम श्रीराम ने सुग्रीव से मृदु वाणी में कहते हुआ विभीषण को उनके सामने लाने के लिए कहा।         

(ख) विभीषण ने परिचय किन शब्दों में दिया और उसका तात्पर्य क्या था?

उत्तर – अतुलनीय और दर्शनीय राम को देखते ही विभीषण ने अपना परिचय देते हुए श्रीराम से कहा, “हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा राक्षसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, ठीक वैसे ही जैसे उल्लू को अंधकार पर स्नेह होता है। मैं अपने कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए। विभीषणजी के दीन वचन प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया।

     विभीषण की दीनतापूर्ण वचनों का तात्पर्य यह था कि श्रीराम उन्हें हृदय से लगा लें और लंकापति नरेश रावण से उसकी रक्षा करें।    

(ग) राम ने विभीषण को कैसे आश्वस्त किया?

उत्तर – श्रीराम ने विभीषण को आश्वस्त करने हेतु विभीषण के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। मैं जनता हूँ कि तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है। दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। ऐसी दशा में हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारा सब आचार-व्यवहार जानता हूँ। तुम अत्यंत नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती है। तुम धर्म की स्थापना के लिए ही मेरी शरण में आए हो। हे तात! मेरा तो यह मानना है कि नरक में रहना अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग कभी न दे। श्रीराम के प्रेमपूर्ण वचनों को सुनकर  विभीषण पूर्णत: भयमुक्त आश्वस्त हो गए।

 (घ) राम के स्वभाव की क्या-क्या विशेषताएँ है?

उत्तर – राम के स्वभाव में अनेक विशेषताएँ हैं जिन्हें बिंदुओं से विस्तारित रूप दे सकते हैं, जैसे

आदर्श पुत्र – राम एक आदर्श पुत्र हैं तभी तो अपने पिता दशरथ के वचन का सम्मान रखने के लिए 14 वर्षों का बनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपनी माता कैकयी के प्रति भी उन्हें तनिक भी रोष ना था। बस वे इस बात से दुखी हो रहे थे कि माता कैकयी ने स्वयं मुझसे भरत को राजा बनाने की बात क्यों नहीं की?

स्थिरचित्त – राम स्थिरचित्त हैं। विपत्ति के समय भी वे कभी विचलित नहीं होते हैं। अपनी पूरी सूझ-बूझ से ही समस्या का निदान करते हैं।

भौतिक निर्लिप्तता – राम ने जब बालि का वध किया तो वहाँ का शासन सुग्रीव को सौंप दिया यहाँ तक कि लंका विजय के बाद भी विभीषण को लंका का अधिपति बनाया। स्वयं वे 14 वर्षों तक सादा जीवन व्यतीत करते रहे। 

उदार – इनकी उदारता अमित है। ये अपने शत्रुओं को भी स्नेह की दृष्टि से देखते थे। तभी तो जब विभीषण इनके पास आए तो बिना संशय के इन्होने उसे गले लगा लिया।

पुरुषार्थ – पुरुषार्थ इनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है तभी तो जब माता सीता का अपहरण हो गया फिर भी सहायता हेतु ना तो ये सीता के पिता जनक के पास गए और ना ही भरत के पास। वानरों की सेना तैयार की और लंका पर विजय प्राप्त की।     

(ङ) विभीषण ने आश्वस्त होकर श्रीराम से क्या माँगा?

उत्तर – विभीषण प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकड़ते हैं, उनमें अपार प्रेम है जो उनके हृदय में समा नहीं पाता है। विभीषण ने विनीत भाव से प्रभु श्रीराम से कहा, हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासनाएँ थीं। वह आपके चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई है। अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। मैं पूर्णरूपेण आपका कृपापात्र हूँ।

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