Class X, Hindi Vallari, Third Language, Karnataka Board, KSEEB, Chapter Tulsi Ke Dohe, Tulsidas, The Best Solutions, 07 तुलसी के दोहे

गोस्वामी तुलसीदास

(सन् 1532-1623)

गोस्वामी तुलसीदास हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं। तुलसीदास का जन्म सन् 1532 में उत्तर प्रदेश के राजापुर में हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम और माता का हुलसी था। कहा जाता है कि जब तुलसीदास जी का जन्म हुआ, तब उन्होंने राम नाम का उच्चारण किया था। इसलिए उनके बचपन का नाम ‘रामबोला’ पड़ा। तुलसीदास भगवान राम के अनन्य भक्त थे।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं रामचरित मानस, विनय पत्रिका, गीतावली, दोहावली, कवितावली आदि। सन् 1623 को काशी में उनका देहांत हुआ।

तुलसीदास जी ने इन दोहों में मुखिया के लक्षण, संत का स्वभाव आदि पर प्रकाश डाला है। साथ ही उन्होंने दया- धर्म का महत्त्व, अभिमान, त्याग, विवेकयुत व्यवहार, राम पर विश्वास, राम नाम जाप इत्यादि का बखान करते हुए सुझाव दिया है कि इनसान को नीतियुत जीवन बिताना चाहिए।

इन दोहों के द्वारा छात्र अच्छे कर्म करने और नैतिकता से जीवन बिताने की सीख प्राप्त कर सकते हैं।

तुलसी के दोहे

  1. मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक।

पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥

  1. जड़ चेतन, गुण-दोषमय, विस्व कीन्ह करतार।

संत – हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार॥

  1. दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छाँडिये, जब लग घट में प्राण॥

  1. तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसो एक॥

  1. राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहसी उजियार॥

  1. मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक।

पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥

व्याख्या –

तुलसीदास जी इस दोहे में नेतृत्व और एकता का महत्त्व समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि मुखिया (नेता) को मुख के समान होना चाहिए, जिसका खान-पान (व्यवहार) एक समान हो। जैसे मुख पूरे शरीर के सभी अंगों का ध्यान रखता है, वैसे ही एक सच्चा नेता पूरे समाज या समूह का भली-भाँति पालन-पोषण करता है।

विस्तृत व्याख्या –

तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस तरह मुख भोजन को ग्रहण करता है और फिर शरीर के सभी अंगों तक पोषण पहुँचाता है, ठीक उसी तरह एक नेता को निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होना चाहिए। नेता को पक्षपात नहीं करना चाहिए और सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। नेता में विवेक (समझदारी) बहुत आवश्यक है, क्योंकि विवेक से ही सही निर्णय लिए जाते हैं और सभी को संतुष्ट रखा जाता है।

समकालीन संदर्भ –

यह दोहा आज के प्रशासन और नेतृत्व पर भी लागू होता है। यदि कोई नेता केवल अपने स्वार्थ की चिंता करेगा और दूसरों की उपेक्षा करेगा, तो समाज या संगठन में असंतुलन आ जाएगा। एक अच्छे नेता को निष्पक्षता और विवेक के साथ सभी का ध्यान रखना चाहिए।

शिक्षा –

सच्चे नेता को निष्पक्ष और सबका हितैषी होना चाहिए।

बुद्धिमान व्यक्ति वही है, जो सबको समान दृष्टि से देखे और सभी का भला सोचे।

नेता को संपूर्ण समाज के कल्याण की भावना रखनी चाहिए, न कि केवल अपने व्यक्तिगत लाभ की।

यह दोहा हमें सही नेतृत्व और समाज में संतुलन बनाए रखने की प्रेरणा देता है।

  1. जड़ चेतन, गुण-दोषमय, विस्व कीन्ह करतार।

संत – हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार॥

व्याख्या –

भगवान ने इस संपूर्ण विश्व को जड़ (अचेतन) और चेतन (सजीव) वस्तुओं से बनाया है, जिसमें गुण और दोष दोनों मौजूद हैं। लेकिन संतजन (सज्जन लोग) हंस के समान होते हैं, जो गुण रूपी दूध को ग्रहण कर लेते हैं और दोष रूपी पानी को त्याग देते हैं।

विस्तृत व्याख्या –

कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि यह संसार मिश्रित है। इस दुनिया में हर चीज़ में अच्छाई और बुराई दोनों होती हैं। कोई भी पूरी तरह से निर्दोष या पूरी तरह से दोषयुक्त नहीं होता। यहाँ सज्जन लोग हंस की तरह होते हैं। हंस को पवित्रता और विवेक का प्रतीक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि हंस दूध और पानी को अलग करने की क्षमता रखता है – दूध को ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है। उसी तरह, संत और बुद्धिमान लोग भी अच्छाइयों को अपनाते हैं और बुराइयों को त्याग देते हैं। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें भी संतों की तरह सकारात्मक गुणों को अपनाना चाहिए और बुराइयों को छोड़ देना चाहिए। किसी की गलतियों को देखने के बजाय, उसके अच्छे गुणों को पहचानने की आदत डालनी चाहिए। समाज में अच्छाई और बुराई दोनों हैं, लेकिन हमें बुद्धिमानी से अच्छाइयों को चुनना चाहिए।

समकालीन संदर्भ –

यह दोहा आज के समाज पर भी लागू होता है।

सोशल मीडिया और जीवन में कई तरह की बातें सुनने और देखने को मिलती हैं – हमें चुनना होगा कि कौन-सी बातें ग्रहण करें और कौन-सी त्याग दें।

जो लोग सकारात्मक सोचते हैं और अच्छे विचारों को अपनाते हैं, वे ही जीवन में आगे बढ़ते हैं।

  1. दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छाँडिये, जब लग घट में प्राण॥

व्याख्या –

दया (करुणा) ही धर्म का मूल (आधार) है, जबकि अहंकार (अभिमान) ही सभी पापों का मूल कारण है। इसलिए तुलसीदास जी कहते हैं कि जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं, हमें दया को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

विस्तृत व्याख्या –

कवि तुलसीदास कहते हैं कि दया सभी धार्मिक और नैतिक मूल्यों की जड़ है। अगर किसी के अंदर दया भाव नहीं है, तो वह सच्चे धर्म के मार्ग पर नहीं चल सकता। दया से ही समाज में प्रेम, सद्भाव और शांति बनी रहती है। दूसरी तरफ अहंकार सभी पापों की जड़ है। अहंकार मनुष्य को अंधा बना देता है और उसे गलत कार्यों की ओर ले जाता है। रावण और कौरवों का नाश अहंकार के कारण ही हुआ था। जब कोई व्यक्ति अहंकारी बन जाता है, तो वह अपने कर्तव्यों और नैतिकता को भूल जाता है। इसलिए हमें हमेशा दयालु बने रहना चाहिए। दया से ही मनुष्य महान बनता है और समाज में उसकी प्रतिष्ठा बनी रहती है। दयालु व्यक्ति ही सच्चे धर्म का पालन करता है और ईश्वर का प्रिय बनता है।

समकालीन संदर्भ –

आज के समय में भी हमें दयालु और विनम्र रहना चाहिए।

समाज में बढ़ती हुई हिंसा, घृणा और ईर्ष्या का समाधान केवल दया और सहानुभूति से ही हो सकता है।

अहंकार के कारण व्यक्ति अपने परिवार, दोस्तों और समाज से दूर हो जाता है, जबकि दया से वह सबका प्रिय बनता है।

  1. तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसो एक॥

व्याख्या –

तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति (संकट) के समय सच्चे साथी ये होते हैं –

विद्या (ज्ञान) – संकट में सही मार्गदर्शन और समाधान प्रदान करता है।

विनय (नम्रता) – कठिन समय में भी व्यक्ति को संयमित और सम्मानजनक बनाए रखता है।

विवेक (सही-गलत की पहचान) – कठिन परिस्थिति में सही निर्णय लेने में मदद करता है।

साहस (हिम्मत) – विपत्ति का डटकर सामना करने की शक्ति देता है।

सुकृति (अच्छे कर्म) – अच्छे कर्म जीवनभर साथ देते हैं और कठिन समय में भी सहायक होते हैं।

सुसत्यव्रत (सत्य पर अडिग रहना) – सत्य का पालन करने से आत्मबल और आत्मविश्वास बना रहता है।

राम भरोसो (भगवान राम पर विश्वास) – संकट के समय ईश्वर पर भरोसा रखना सबसे बड़ी शक्ति है।

समकालीन संदर्भ –

आज के समय में भी कठिन परिस्थितियों में धन-दौलत या बाहरी लोग साथ नहीं देते, बल्कि हमारा ज्ञान, साहस, सत्यनिष्ठा और ईश्वर पर विश्वास ही हमें बाहर निकालते हैं।

यह दोहा हमें आत्मनिर्भरता, अच्छे आचरण और आध्यात्मिकता की सीख देता है।

यदि हम इन गुणों को अपनाएँ, तो जीवन में किसी भी विपत्ति का सामना कर सकते हैं।

  1. राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहसी उजियार॥

व्याख्या –

इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि राम के नाम को मणि (बहुमूल्य रत्न) और दीपक (प्रकाश देने वाला) की तरह अपने जीभ रूपी देहरी (द्वार) पर रखो। यदि तुम भीतर (अंतरात्मा) और बाहर (संसार) में प्रकाश चाहते हो, तो राम नाम का स्मरण करो।

विस्तृत व्याख्या –

कविश्रेष्ठ तुलसीदास जी कहते हैं कि राम नाम एक अमूल्य दीपक है। यह दीपक हमारी अज्ञानता (अंधकार) को दूर करता है और ज्ञान का प्रकाश फैलाता है। राम नाम का जप करने से आत्मिक और मानसिक शांति प्राप्त होती है। यहाँ जीभ की भूमिका पर विचार करते हुए जीभ को घर के द्वार की तरह माना गया है, जहाँ से शब्द और विचार बाहर निकलते हैं। यदि जीभ से हमेशा राम नाम का जाप किया जाए, तो जीवन में सकारात्मकता और शुद्धता बनी रहती है। फलस्वरूप राम नाम जपने से मन और आत्मा शुद्ध होती है जो अंदरूनी उजाला होता है और बाहरी उजाले के रूप में राम नाम के प्रभाव से व्यक्ति के आचरण और कर्म भी सुधर जाते हैं, जिससे समाज में भी सकारात्मकता फैलती है।

समकालीन संदर्भ –

आज के समय में, जब लोग मानसिक तनाव, निराशा और नकारात्मकता से घिरे हुए हैं, राम नाम का स्मरण आत्मिक शांति प्रदान कर सकता है।

राम नाम का जाप करने से व्यक्ति के विचार शुद्ध होते हैं, जिससे उसका जीवन और आचरण उज्ज्वल हो जाता है।

यह दोहा भक्ति, सद्भाव और सकारात्मकता का संदेश देता है।

 

शब्दार्थ :

मुखिया – नेता,

सकल – संपूर्ण,

विस्व-संसार,

कीन्ह-किया,

करतार-सृष्टिकर्ता,

पय-दूध,

परिहरि-त्यागना,

वारि- पानी,

घट-शरीर,

विपत्ति-संकट,

सुकृति – अच्छे कार्य,

जीह-जीभ,

चाहसी – चारों ओर।

भावार्थ :-

  1. प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास मुख अर्थात् मुँह और मुखिया दोनों के स्वभाव की समानता दर्शाते हुए लिखते हैं कि मुखिया को मुँह के समान होना चाहिए। मुँह खाने-पीने का काम अकेला करता है, लेकिन वह जो खाता- पीता है उससे शरीर के सारे अंगों का पालन-पोषण करता है। तुलसी की राय में मुखिया को भी ऐसे ही विवेकवान होना चाहिए कि वह काम अपनी तरह से करें लेकिन उसका फल सभी में बाँटे।
  2. प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास हंस पक्षी के साथ संत की तुलना करते हुए उसके स्वभाव का परिचय देते हैं सृष्टिकर्ता ने इस संसार को जड़-चेतन और गुण-दोष मिलाकर बनाया है। अर्थात्, इस संसार में अच्छे- बुरे (सार – निस्सार), समझ – नासमझ के रूप में अनेक गुण-दोष भरे हुए हैं, लेकिन हंस रूपी साधु लोग विकारों को छोड़कर अच्छे गुणों को अपनाते हैं।
  3. प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास ने स्पष्टतः बताया है कि दया धर्म का मूल है और अभिमान पाप का। इसलिए कवि कहते हैं कि जब तक शरीर में प्राण हैं, तब तक मानव को अपना अभिमान छोड़कर दयालु बने रहना चाहिए।
  4. प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि मनुष्य पर जब विपत्ति पड़ती है तब विद्या, विनय तथा विवेक ही उसका साथ निभाते हैं। जो राम पर भरोसा करता है, वह साहसी, सत्यव्रती और सुकृतवान बनता है।
  5. प्रस्तुत दोहे के द्वारा तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस तरह देहरी पर दिया रखने से घर के भीतर तथा आँगन में प्रकाश फैलता है, उसी तरह राम-नाम जपने से मानव की आंतरिक और बाह्य शुद्धि होती है।

I. एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-

  1. तुलसीदास मुख को क्या मानते हैं?

उत्तर – तुलसीदास मुख को मुखिया या नेता के समान मानते हैं।

  1. मुखिया को किसके समान रहना चाहिए?

उत्तर – मुखिया को मुख के समान रहना चाहिए और मुख की तरह ही सभी जनों की भली-भाँति देखभाल करनी चाहिए।

  1. हंस का गुण कैसा होता है?

उत्तर – हंस में नीर-क्षीर का विवेक होता है अर्थात् हंस दूध पीकर उसमें मिलावट पानी को छोड़ देता है।

  1. मुख किसका पालन-पोषण करता है?

उत्तर – मुख शरीर के सभी अंगों का पालन-पोषण करता है.

  1. दया किसका मूल है?

उत्तर – दया धर्म अर्थात् मानवता का मूल है।

  1. तुलसीदास किस शाखा के कवि हैं?

उत्तर – तुलसीदास राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।

  1. तुलसीदास के माता-पिता का नाम क्या था?

उत्तर – तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था।

  1. तुलसीदास के बचपन का नाम क्या था?

उत्तर – तुलसीदास के बचपन का नाम ‘रामबोला’ था।

  1. पाप का मूल क्या है?

उत्तर – पाप का मूल अभिमान है।

  1. तुलसीदास के अनुसार विपत्ति के साथी कौन हैं?

उत्तर – तुलसीदास के अनुसार विपत्ति के साथी विद्या, विनय, विवेक, साहस, सुकृति, सत्यव्रत और रामनाम का जाप है।

II. दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए :-

  1. मुखिया को मुख के समान होना चाहिए। कैसे?

उत्तर – मुखिया को मुख के समान होना चाहिए, जैसे मुख शरीर के सभी अंगों का ध्यान रखता है, वैसे ही एक सच्चा नेता पूरे समाज या समूह का भली-भाँति पालन-पोषण करता है।

  1. मनुष्य को हंस की तरह क्या करना चाहिए?

उत्तर – हंस को पवित्रता और विवेक का प्रतीक माना जाता है। ऐसा विश्वास है कि हंस दूध को ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है। उसी तरह मनुष्यों को भी अच्छाइयों को अपनाना चाहिए और बुराइयों को त्याग देना चाहिए।

  1. मनुष्य के जीवन में प्रकाश कब फैलता है?

उत्तर – मनुष्य जब राम नाम का स्मरण करने लगता है तो राम नाम के जाप की अद्भुत अनुकंपा से आत्मा शुद्ध होती है और राम नाम के प्रभाव से व्यक्ति के आचरण और कर्म भी सुधर जाते हैं, जिससे मनुष्य के जीवन में प्रकाश फैल जाता है।  

III. अनुरूपता :-

  1. दया : धर्म का मूल :: पाप : मूल अभिमान
  2. परिहरि : त्यागना :: करतार : सृष्टिकर्ता
  3. जीह : जीभ :: देहरी : दहलीज

IV. भावार्थ लिखिए :-

  1. मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक।

पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥

उत्तर – तुलसीदास जी इस दोहे में नेतृत्व और एकता का महत्त्व समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि मुखिया (नेता) को मुख (मुख्य) के समान होना चाहिए, जिसका खान-पान (व्यवहार) एक समान हो। जैसे मुख पूरे शरीर के सभी अंगों का ध्यान रखता है, वैसे ही एक सच्चा नेता पूरे समाज या समूह का भली-भाँति पालन-पोषण करता है।

  1. तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसो एक॥

उत्तर – तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से हमें सिखा रहे हैं कि संकट के समय बाहरी लोग या भौतिक चीज़ें साथ नहीं देतीं, बल्कि ये सात गुण ही सच्चे साथी होते हैं।

ज्ञान (विद्या) से हम समस्या का हल ढूँढ सकते हैं।

नम्रता (विनय) हमें संयम बनाए रखने में मदद करती है।

विवेक हमें सही और गलत में भेद करने की शक्ति देता है।

साहस हमें विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला देता है।

अच्छे कर्म (सुकृति) हमें विपत्ति में भी सम्मान और सहायता दिलाते हैं।

सत्य पर अडिग रहना (सुसत्यव्रत) हमें नैतिक रूप से मजबूत बनाए रखता है।

ईश्वर में विश्वास (राम भरोसा) मानसिक और आत्मिक शांति प्रदान करता है।

V.दोहे कंठस्थ कीजिए।  :- 

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।

 

VI. जोड़कर लिखिए :- 

अ                   ब

  1. विश्व कीन्ह विकार
  2. परिहरि वारि करतार
  3. जब लग घट राम भरोसो एक
  4. सुसत्यव्रत में प्राण

उत्तर –

  1. विश्व कीन्ह करतार
  2. परिहरि वारि विकार
  3. जब लग घट में प्राण
  4. सुसत्यव्रत राम भरोसो एक

VII. पूर्ण कीजिए :-

  1. मुखिया मुख सों चाहिए,

उत्तर – खान पान को एक।

  1. पालै पोसै सकल अंग,

उत्तर – तुलसी सहित विवेक॥

  1. राम नाम मनि दीप धरु,

उत्तर – जीह देहरी द्वार

  1. तुलसी भीतर बाहिरौ,

उत्तर – जो चाहसी उजियार

VIII. उचित विलोम शब्द पर सही () का निशान लगाइए :-  

  1. विवेक सेवक अविवेक (P)
  2. दया निर्दया (P) शुभोदया
  3. धर्म मर्म अधर्म (P)
  4. विकार अविकार (P) संस्कार
  5. विनय सविनय अविनय (P)

रहीम के दोहे पढ़कर उनमें निहित नीति तत्त्व की कक्षा में चर्चा कीजिए।

उत्तर – रहीम (अब्दुर्रहीम खानखाना) हिंदी साहित्य के महान कवि थे, जिन्होंने अपने दोहों में जीवन, नैतिकता, भक्ति, प्रेम और व्यवहारिक ज्ञान को समाहित किया। उनके दोहे गहरी नीति और जीवन के व्यावहारिक पक्ष को दर्शाते हैं।

रहीम के दोहों में निहित नीति तत्त्व

  1. विनम्रता और सज्जनता

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।

टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय॥

नीति तत्त्व-

यह दोहा बताता है कि प्रेम और रिश्ते बहुत नाजुक होते हैं। इन्हें स्नेह और संयम से संभालना चाहिए। यदि एक बार रिश्तों में दरार आ जाए, तो उसे सुधारना मुश्किल होता है।

  1. उदारता और दानशीलता

रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जाहिं।

उनसे पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥

नीति तत्त्व-

इस दोहे में दान की महत्ता को बताया गया है। रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति देने में संकोच करता है, वह पहले ही मृत समान है, जबकि जो मांगने को मजबूर हो जाते हैं, वे भी मृतप्राय हैं। अतः उदारता और परोपकार सर्वोत्तम गुण हैं।

  1. धैर्य और सहनशीलता

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥

नीति तत्त्व –

इस दोहे में धैर्य और समय की महत्ता बताई गई है। किसी भी कार्य को करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर चीज़ अपने समय पर ही फल देती है।

  1. ज्ञान और विवेक का महत्त्व

रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय।

हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥

नीति तत्त्व –

यह दोहा विपत्ति के महत्त्व को दर्शाता है। रहीम कहते हैं कि छोटी-मोटी विपत्तियाँ भी कभी-कभी अच्छी होती हैं क्योंकि वे हमें यह सिखाती हैं कि कौन हमारा सच्चा मित्र है और कौन केवल स्वार्थी।

  1. सत्संगति का महत्त्व

रहिमन संगत साधु की, हरे और गुण दोष।

काँच कुचैलो जगत में, कंचन करै न कोस॥

नीति तत्त्व –

यह दोहा बताता है कि संतों और सज्जनों की संगति व्यक्ति को सुधार सकती है। जिस तरह पारस पत्थर लोहा को सोना बना देता है, उसी तरह सत्संग से मनुष्य के दोष समाप्त हो जाते हैं और उसमें अच्छे गुण आ जाते हैं।

  1. अहंकार का नुकसान

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥

नीति तत्त्व –

यह दोहा अहंकार के नकारात्मक प्रभाव को दर्शाता है। रहीम कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति बड़ा और शक्तिशाली है, लेकिन दूसरों के काम नहीं आता, तो उसकी महानता व्यर्थ है।

  1. समय और अवसर की पहचान

जब चाहो तब पाइये, चाहो तब हरि नाम।

जब दुरगत हो जायगी, फिर का करैगा राम॥

नीति तत्त्व –

यह दोहा बताता है कि जीवन में अच्छे कर्म और भक्ति का सही समय अभी है। यदि समय निकल गया और तब पछताया, तो कोई लाभ नहीं होगा।

  1. संयम और सहनशीलता

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियत न पान।

कह रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान॥

नीति तत्त्व –

इस दोहे में त्याग और परोपकार की भावना बताई गई है। जिस तरह पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाता और नदी अपना पानी स्वयं नहीं पीती, उसी तरह सच्चा बुद्धिमान व्यक्ति अपनी संपत्ति दूसरों के हित में लगाता है।

  1. मित्रता का महत्त्व

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥

नीति तत्त्व –

यह दोहा बताता है कि छोटे लोगों को भी कम नहीं आंकना चाहिए। जिस तरह बड़ी तलवार की तुलना में छोटी सुई का भी महत्त्व होता है, वैसे ही हर व्यक्ति की अपनी उपयोगिता होती है।

  1. कठोर वाणी का प्रभाव

एरी सिर सोने धरै, और मुँह साँपिनु होय।

रहिमन ऐसे नर को, दूर ही से भलो खोय॥

नीति तत्त्व –

यह दोहा बताता है कि कुछ लोग ऊपर से मधुर लगते हैं लेकिन अंदर से विषैले होते हैं। ऐसे लोगों से दूर रहना ही अच्छा होता है।

निष्कर्ष

रहीम के दोहे जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन करते हैं। इनमें प्रेम, धैर्य, परोपकार, सत्य, समय की महत्ता, मित्रता और अहंकार से बचने की शिक्षा दी गई है। उनकी नीति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके समय में थी।

बिहारी के दस दोहों का संग्रह कीजिए।

उत्तर – बिहारी लाल भारतीय काव्य परंपरा के महान कवि थे, जिनकी प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ है। इसमें 700 से अधिक दोहे संकलित हैं, जो प्रेम, भक्ति और नीति पर आधारित हैं। नीचे बिहारी के 10 प्रसिद्ध दोहों का संग्रह दिया गया है –

  1. प्रेम का महत्त्व

सरस बसंत अजहुँ न बिरवा, न दारुन, न दाम।

मनसिज रोप्यो पंथ में, लुटि गए नव ग्राम॥

अर्थ: प्रेम के बिना जीवन रसहीन होता है। यह दोहा प्रेम की शक्ति को दर्शाता है, जहाँ प्रेम मार्ग में बाधा डालने वालों को भी मोहित कर लेता है।

  1. प्रेम की तीव्रता

नवीन नीच मध्यान्ह तनु, तऊ बिरह बिष तात।

तासों बिरह विहाल की, गति गति स्याम समात॥

अर्थ: प्रेम में विरह की वेदना इतनी तीव्र होती है कि वह शरीर को भी कमजोर कर देती है।

  1. सावन और प्रेम

सावन के दिन चारि रे, रहैं न संग सजन।

बूढ़ि भई जब चितवनि, तौ कस करै किसन॥

अर्थ: सावन के चार दिन ही साथ बिताने को मिले, लेकिन अब जब चितवन की जवानी ढल गई, तो प्रियतम कैसे आकर्षित होंगे?

  1. प्रेम में त्याग

जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान।

जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्रान॥

अर्थ: जिस हृदय में प्रेम नहीं, वह श्मशान के समान है, जैसे लोहार की धौंकनी जो सांस तो लेती है, पर उसमें जीवन नहीं होता।

  1. सच्चे प्रेम का प्रभाव

कहत नटत रीझत खिजत, मिलत खिलत लजियात।

भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात॥

अर्थ: सच्चे प्रेमी बिना शब्दों के ही आँखों के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कर लेते हैं।

  1. विरह की पीड़ा

बिन देखे नहिं चैन, यह देखे पीर अधिकाय।

बिहारी गरिबनिवाज, ऐसी प्रीति न जाय॥

अर्थ: प्रेम में प्रिय के बिना चैन नहीं, लेकिन देखने पर विरह की पीड़ा और अधिक बढ़ जाती है।

  1. सावन और प्रेमिका

निसि अंधियारी मैं फिरौं, दीप लिये कर हाथ।

दीपक को दीपक मिलै, तब उजियारों साथ॥

अर्थ: प्रेमिका अंधेरी रात में दीपक लेकर प्रियतम को ढूंढ रही है, क्योंकि प्रेम में सच्चा प्रकाश प्रिय की उपस्थिति ही है।

  1. चतुराई से काम लेना

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।

टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय॥

अर्थ: प्रेम का धागा नाजुक होता है, उसे झटके से मत तोड़ो, क्योंकि टूटने पर जोड़ने की कोशिश भी की जाए, तो गांठ पड़ जाती है।

  1. मधुर वाणी की महिमा

मीठे वचन जादू भरे, मूरख बनैं सयाने।

बिहारी ऐसे कहिए, झगड़ा नहिं ठाने॥

अर्थ: मधुर वाणी में इतनी शक्ति होती है कि मूर्ख भी बुद्धिमान बन सकता है। हमें ऐसे शब्दों का चयन करना चाहिए जो झगड़े को न बढ़ाएं।

  1. प्रेम में प्रतीक्षा

चातक दीनदयाल को, जदपि न मृगनयनी।

खोलि चतुर चकोर गति, छाँह चाँद की गिनी॥

अर्थ: प्रेमी प्रतीक्षा करता है, जैसे चातक पपीहा केवल स्वाति नक्षत्र की बूँद के लिए और चकोर चाँदनी रात का इंतजार करता है।

 

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