Class – X, Sanchayan, Chapter -1, Harihar Kaka, Mithileshwar, (NCERT Hindi  Course B) The Best Solutions

(1950)

मिथिलेश्वर का जन्म 31 दिसंबर 1950 को बिहार के भोजपुर ज़िले के वैसाडीह गाँव में हुआ। इन्होंने हिंदी में एम.ए. और पीएच.डी. करने के उपरांत व्यवसाय के रूप में अध्यापन कार्य को चुना। इन दिनों आरा के विश्वविद्यालय में रीडर के पद पर कार्यरत हैं।

मिथिलेश्वर ने अपनी कहानियों में ग्रामीण जीवन को बखूबी उकेरा है। इनकी कहानियाँ वर्तमान ग्रामीण जीवन के विभिन्न अंतर्विरोधों को उद्घाटित करती हैं, जिनसे पता चलता है कि आज़ादी के बाद ग्रामीण जीवन वास्तव में किस हद तक भयावह और जटिल हो गया है। बदलाव के नाम पर हुआ यह है कि आम लोगों के शोषण के तरीके बदल गए हैं।

मिथिलेश्वर की प्रमुख कृतियाँ हैं-बाबूजी, मेघना का निर्णय, हरिहर काका, चल खुसरो घर आपने (कहानी संग्रह); झुनिया, युद्धस्थल, प्रेम न बाड़ी ऊपजे और अंत नहीं (उपन्यास)। अपने लेखन के लिए इन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सहित अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।

घर वह जगह है जो अपनों के सुख-दुख में, आपद-विपद में, हारी-बीमारी में, हर्ष-उल्लास में एक-दूसरे के काम आना सिखाता है। एक-दूसरे की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने की सीख और अवसर देता है। धर्मस्थल इसी अपनेपन को, इसी सहृदयता को, सहयोग की इसी भावना को अपनों से कहीं आगे प्राणीमात्र तक विस्तार देने की समझ और संस्कार देता है।

यदि कभी किसी के मामले में घर और धर्मस्थल यानी परिवार और प्रभु दरबार दोनों ही अपनी भूमिका छोड़ अपने मूल स्वभाव को तिलांजलि दे दें, तो? तब जो अराजकता और अनाचार, अन्याय और आपाधापी मचेगी, वह वैसी ही होगी जैसी हरिहर काका के संग हुई।

कथाकार मिथिलेश्वर ने हरिहर काका कहानी के बहाने ग्रामीण पारिवारिक जीवन में ही नहीं हमारे आस्था के प्रतीक धर्मस्थानों और धर्मध्वजा धारकों में जो स्वार्थलोलुपता घर करती जा रही है उसे उजागर किया है। हरिहर काका एक वृद्ध और निःसंतान व्यक्ति हैं, वैसे उनका भरा-पूरा संयुक्त परिवार है। गाँव के लोग कुमार्ग पर न चलें यह सीख देने के लिए एक ठाकुरबाड़ी भी है, लेकिन हरिहर काका की विडंबना देखिए कि यही दोनों उनके लिए काल और विकराल बन जाते हैं। न तो परिवार को हरिहर काका की फिक्र है न मठाधीश को, दोनों उन्हें सुख नहीं दुख देने में, उनका हित नहीं अहित करने में ही मगन रहते हैं। दोनों का लक्ष्य एक ही है, हरिहर काका की जमीन हथियाना। इसके लिए उन्हें चाहे हरिहर काका के साथ छल, बल, कल का प्रयोग भी क्यों न करना पड़े। पारिवारिक संबंधों में भ्रातृभाव को बेदखल कर पाँव पसारती जा रही स्वार्थ लिप्सा और पग धर्म की आड़ में फलने-फूलने का अवसर पा रही हिंसा वृत्ति को बेनकाब करती यह कहानी आज के ग्रामीण ही नहीं शहरी जीवन का भी यथार्थ उजागर करती है।

हरिहर काका के यहाँ से मैं अभी-अभी लौटा हूँ। कल भी उनके यहाँ गया था, लेकिन न तो वह कल ही कुछ कह सके और न आज ही। दोनों दिन उनके पास मैं देर तक बैठा रहा, लेकिन उन्होंने कोई बातचीत नहीं की। जब उनकी तबीयत के बारे में पूछा तब उन्होंने सिर उठाकर एक बार मुझे देखा। फिर सिर झुकाया तो दुबारा मेरी ओर नहीं देखा। हालाँकि उनकी एक ही नज़र बहुत कुछ कह गई। जिन यंत्रणाओं के बीच वह घिरे थे और जिस मनःस्थिति में जी रहे थे, उसमें आँखें ही बहुत कुछ कह देती हैं, मुँह खोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

हरिहर काका की ज़िंदगी से मैं बहुत गहरे में जुड़ा हूँ। अपने गाँव में जिन चंद लोगों को मैं सम्मान देता हूँ, उनमें हरिहर काका भी एक हैं। हरिहर काका के प्रति मेरी आसक्ति के अनेक व्यावहारिक और वैचारिक कारण हैं। उनमें प्रमुख कारण दो हैं। एक तो यह कि हरिहर काका मेरे पड़ोस में रहते हैं और दूसरा कारण यह कि मेरी माँ बताती है, हरिहर काका बचपन में मुझे बहुत दुलार करते थे। अपने कंधे पर बैठाकर घुमाया करते थे। एक पिता अपने बच्चे को जितना प्यार करता है उससे कहीं ज़्यादा प्यार हरिहर काका मुझे करते थे। और जब मैं सयाना हुआ तब मेरी पहली दोस्ती हरिहर काका के साथ ही हुई। हरिहर काका ने भी जैसे मुझसे दोस्ती के लिए ही इतनी उम्र तक प्रतीक्षा की थी।

माँ बताती है कि मुझसे पहले गाँव में किसी अन्य से उनकी इतनी गहरी दोस्ती नहीं हुई थी। वह मुझसे कुछ भी नहीं छिपाते थे। खूब खुलकर बातें करते थे। लेकिन फिलहाल मुझसे भी कुछ कहना उन्होंने बंद कर दिया है। उनकी इस स्थिति ने मुझे चिंतित कर दिया है। जैसे कोई नाव बीच मझधार में फँसी हो और उस पर सवार लोग चिल्लाकर भी अपनी रक्षा न कर सकते हों, क्योंकि उनकी चिल्लाहट दूर तक फैले सागर के बीच उठती – गिरती लहरों में विलीन हो जाने के अतिरिक्त कर ही क्या सकती है? मौन होकर जल – समाधि लेने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं। लेकिन मन इसे मानने को कतई तैयार नहीं। जीने की लालसा की वजह से बेचैनी और छटपटाहट बढ़ गई हो, कुछ ऐसी ही स्थिति के बीच हरिहर काका घिर गए हैं।

हरिहर काका के बारे में मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि वह यह समझ नहीं पा रहे हैं कि कहें तो क्या कहें? अब कोई ऐसी बात नहीं जिसे कहकर वह हलका हो सकें। कोई ऐसी उक्ति नहीं जिसे कहकर वे मुक्ति पा सकें। हरिहर काका की स्थिति में मैं भी होता तो निश्चय ही इस गूँगेपन का शिकार हो जाता।

हरिहर काका इस स्थिति में कैसे आ फँसे? यह कौन-सी स्थिति है? इसके लिए कौन ज़िम्मेवार है? यह सब बताने से पहले अपने गाँव का और खासकर अपने गाँव की ठाकुरबारी का संक्षिप्त परिचय मैं आपको दे देना उचित समझता हूँ क्योंकि उसके बिना तो यह कहानी अधूरी ही रह जाएगी।

मेरा गाँव कस्बाई शहर आरा से चालीस किलोमीटर की दूरी पर है। हसनबाज़ार बस स्टैंड के पास। गाँव की कुल आबादी ढाई-तीन हज़ार होगी। गाँव में तीन प्रमुख स्थान हैं। गाँव के पश्चिम किनारे का बड़ा-सा तालाब। गाँव के मध्य स्थित बरगद का पुराना वृक्ष और गाँव के पूरब में ठाकुरजी का विशाल मंदिर, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी कहते हैं।

गाँव में इस ठाकुरबारी की स्थापना कब हुई, इसकी ठीक-ठीक जानकारी किसी को नहीं। इस संबंध में गाँव में जो कहानी प्रचलित है वह यह कि वर्षों पहले जब यह गाँव पूरी तरह बसा भी नहीं था, कहीं से एक संत आकर इस स्थान पर झोंपड़ी बना रहने लगे थे। वह सुबह-शाम यहाँ ठाकुरजी की पूजा करते थे। लोगों से माँगकर खा लेते थे और पूजा-पाठ की भावना जाग्रत करते थे। बाद में लोगों ने चंदा करके यहाँ ठाकुरजी का एक छोटा-सा मंदिर बनवा दिया। फिर जैसे-जैसे गाँव बसता गया और आबादी बढ़ती गई, मंदिर के कलेवर में भी विस्तार होता गया। लोग ठाकुरजी को मनौती मनाते कि पुत्र हो, मुकदमे में विजय हो, लड़की की शादी अच्छे घर में तय हो, लड़के को नौकरी मिल जाए। फिर इसमें जिनको सफलता मिलती, वह खुशी में ठाकुरजी पर रुपये, ज़ेवर, अनाज चढ़ाते। अधिक खुशी होती तो ठाकुरजी के नाम अपने खेत का एक छोटा-सा टुकड़ा लिख देते। यह परंपरा आज तक जारी है। अधिकांश लोगों को विश्वास है कि उन्हें अच्छी फसल होती है तो ठाकुरजी की कृपा से। मुकदमे में उनकी जीत हुई तो ठाकुरजी के चलते। लड़की की शादी इसीलिए जल्दी तय हो गई, क्योंकि ठाकुरजी को मनौती मनाई गई थी। लोगों के इस विश्वास का ही यह परिणाम है कि गाँव की अन्य चीज़ों की तुलना में ठाकुरबारी का विकास हज़ार गुना अधिक हुआ है। अब तो यह गाँव ठाकुरबारी से ही पहचाना जाता है। यह ठाकुरबारी न सिर्फ़ मेरे गाँव की एक बड़ी और विशाल ठाकुरबारी है बल्कि पूरे इलाके में इसकी जोड़ की दूसरी ठाकुरबारी नहीं।

ठाकुरबारी के नाम पर बीस बीघे खेत हैं। धार्मिक लोगों की एक समिति है, जो ठाकुरबारी की देख-रेख और संचालन के लिए प्रत्येक तीन साल पर एक महंत और एक पुजारी की नियुक्ति करती है।

ठाकुरबारी का काम लोगों के अंदर ठाकुरजी के प्रति भक्ति-भावना पैदा करना तथा धर्म से विमुख हो रहे लोगों को रास्ते पर लाना है। ठाकुरबारी में भजन-कीर्तन की आवाज़ बराबर गूँजती रहती है। गाँव जब भी बाढ़ या सूखे की चपेट में आता है, ठाकुरबारी के अहाते में तंबू लग जाता है। लोग और ठाकुरबारी के साधु-संत अखंड हरिकीर्तन शुरू कर देते हैं। इसके अतिरिक्त गाँव में किसी भी पर्व-त्योहार की शुरूआत ठाकुरबारी से ही होती है। होली में सबसे पहले गुलाल ठाकुरजी को ही चढ़ाया जाता है। दीवाली का पहला दीप ठाकुरबारी में ही जलता है। जन्म, शादी और जनेऊ के अवसर पर अन्न-वस्त्र की पहली भेंट ठाकुरजी के नाम की जाती है। ठाकुरबारी के ब्राह्मण-साधु व्रत – कथाओं के दिन घर-घर घूमकर कथावाचन करते हैं। लोगों के खलिहान में जब फसल की दवनी होकर अनाज की ‘ढेरी’ तैयार हो जाती है, तब ठाकुरजी के नाम ‘अगउम’ निकालकर ही लोग अनाज अपने घर ले जाते हैं।

ठाकुरबारी के साथ अधिकांश लोगों का संबंध बहुत ही घनिष्ठ है – मन और तन दोनों स्तर पर। कृषि-कार्य से अपना बचा हुआ समय वे ठाकुरबारी में ही बिताते हैं। ठाकुरबारी में साधु-संतो का प्रवचन सुन और ठाकुरजी का दर्शन कर वे अपना यह जीवन सार्थक मानने लगते हैं। उन्हें यह महसूस होता है कि ठाकुरबारी में प्रवेश करते ही वे पवित्र हो जाते हैं। उनके पिछले सारे पाप अपने आप खत्म हो जाते हैं।

परिस्थितिवश इधर हरिहर काका ने ठाकुरबारी में जाना बंद कर दिया है। पहले वह अकसर ही ठाकुरबारी में जाते थे। मन बहलाने के लिए कभी-कभी मैं भी ठाकुरबारी में जाता हूँ। लेकिन वहाँ के साधु-संत मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते। काम-धाम करने में उनकी कोई रुचि नहीं। ठाकुरजी को भोग लगाने के नाम पर दोनों जून हलवा-पूड़ी खाते हैं और आराम से पड़े रहते हैं। उन्हें अगर कुछ आता है तो सिर्फ़ बात बनाना आता है।

हरिहर काका चार भाई हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के अलावा सबके बाल-बच्चे हैं। बड़े और छोटे भाई के लड़के काफ़ी सयाने हो गए हैं। दो की शादियाँ हो गई हैं। उनमें से एक पढ़-लिखकर शहर के किसी दफ़् तर में क्लर्की करने लगा है। लेकिन हरिहर काका की अपनी देह से कोई औलाद नहीं। भाइयों में हरिहर काका का नंबर दूसरा है। औलाद के लिए उन्होंने दो शादियाँ कीं। लंबे समय तक प्रतीक्षारत रहे। लेकिन बिना बच्चा जने उनकी दोनों पत्नियाँ स्वर्ग सिधार गईं। लोगों ने तीसरी शादी करने की सलाह दी लेकिन अपनी गिरती हुई उम्र और धार्मिक संस्कारों की वजह से हरिहर काका ने इंकार कर दिया। वह इत्मीनान और प्रेम से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे।

हरिहर काका के परिवार के पास कुल साठ बीघे खेत हैं। प्रत्येक भाई के हिस्से पंद्रह बीघे पड़ेंगे। कृषि-कार्य पर ये लोग निर्भर हैं। शायद इसीलिए अब तक संयुक्त परिवार के रूप में ही रहते आ रहे हैं।

हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी पत्नियों को यह सीख दी थी कि हरिहर काका की अच्छी तरह सेवा करें। समय पर उन्हें नाश्ता-खाना दें। किसी बात की तकलीफ़ न होने दें। कुछ दिनों तक वे हरिहर काका की खोज-खबर लेती रहीं। फिर उन्हें कौन पूछने वाला? ‘ठहर-चौका’ लगाकर पंखा झलते हुए अपने मर्दों को अच्छे-अच्छे व्यंजन खिलातीं। हरिहर काका के आगे तो बची-खुची चीज़ें आतीं। कभी-कभी तो हरिहर काका को रूखा-सूखा खाकर ही संतोष करना पड़ता।   अगर कभी हरिहर काका की तबीयत खराब हो जाती तो वह मुसीबत में पड़ जाते। इतने बड़े परिवार के रहते हुए भी कोई उन्हें पानी देने वाला तक नहीं। सभी अपने कामों में मशगूल। बच्चे या तो पढ़-लिख रहे होते या धमाचौकड़ी मचाते। मर्द खेतों पर गए रहते। औरतें हाल पूछने भी नहीं आतीं। दालान के कमरे में अकेले पड़े हरिहर काका को स्वयं उठकर अपनी ज़रूरतों की पूर्ति करनी पड़ती। ऐसे वक्त अपनी पत्नियों को याद कर-करके हरिहर काका की आँखें भर आतीं। भाइयों के परिवार के प्रति मोहभंग की शुरुआत इन्हीं क्षणों में हुई थी। और फिर, एक दिन तो विस्फोट ही हो गया। उस दिन हरिहर काका की सहन-शक्ति जवाब दे गई। उस दिन शहर में क्लर्की करने वाले भतीजे का एक दोस्त गाँव आया था। उसी के आगमन के उपलक्ष्य में दो – तीन तरह की सब्ज़ी, बजके, चटनी, रायता आदि बने थे। बीमारी से उठे हरिहर काका का मन स्वादिष्ट भोजन के लिए बेचैन था। मन ही मन उन्होंने अपने भतीजे के दोस्त की सराहना की, जिसके बहाने उन्हें अच्छी चीज़ें खाने को मिलने वाली थीं। लेकिन बातें बिलकुल विपरीत हुईं। सबों ने खाना खा लिया, उनको कोई पूछने तक नहीं आया। उनके तीनों भाई खाना खाकर खलिहान में चले गए। दवनी हो रही थी। वे इस बात के प्रति निश्चिंत थे कि हरिहर काका को तो पहले ही खिला दिया गया होगा।

अंत में हरिहर काका ने स्वयं दालान के कमरे से निकल हवेली में प्रवेश किया। तब उनके छोटे भाई की पत्नी ने रूखा-सूखा खाना लाकर उनके सामने परोस दिया – भात, मट्ठा और अचार। बस, हरिहर काका के बदन में तो जैसे आग लग गई। उन्होंने थाली उठाकर बीच आँगन में फेंक दी। झन्न की तेज़ आवाज़ के साथ आँगन में थाली गिरी। भात बिखर गया। विभिन्न घरों में बैठी लड़कियाँ, बहुएँ सब एक ही साथ बाहर निकल आईं। हरिहर काका गरजते हुए हवेली से दालान की ओर चल पड़े – “समझ रही हो कि मुफ़् त में खिलाती हो, तो अपने मन से यह बात निकाल देना। मेरे हिस्से के खेत की पैदावार इसी घर में आती है। उसमें तो मैं दो-चार नौकर रख लूँ, आराम से खाऊँ, तब भी कमी नहीं होगी। मैं अनाथ और बेसहारा नहीं हूँ। मेरे धन पर तो तुम सब मौज कर रही हो। लेकिन अब मैं तुम सबों को बताऊँगा…आदि।”

हरिहर काका जिस वक्त यह सब बोल रहे थे, उस वक्त ठाकुरबारी के पुजारी जी उनके दालान पर ही विराजमान थे। वार्षिक हुमाध के लिए वह घी और शकील लेने आए थे। लौटकर उन्होंने महंत जी को विस्तार के साथ सारी बात बताई। उनके कान खड़े हो गए। वह दिन उन्हें बहुत शुभ महसूस हुआ। उस दिन को उन्होंने ऐसे ही गुज़र जाने देना उचित नहीं समझा। तत्क्षण टीका – तिलक लगा, कंधे पर रामनामी लिखी चादर डाल ठाकुरबारी से चल पडे़। संयोग अच्छा था। हरिहर के दालान तक नहीं जाना पड़ा। रास्ते में ही हरिहर मिल गए। गुस्से में घर से निकल वह खलिहान की ओर जा रहे थे। लेकिन महंत जी ने उन्हें खलिहान की ओर नहीं जाने दिया। अपने साथ ठाकुरबारी पर लेते आए। फिर एकांत कमरे में उन्हें बैठा, खूब प्रेम से समझाने लगे – “हरिहर! यहाँ कोई किसी का नहीं है। सब माया का बंधन है। तू तो धार्मिक प्रवृत्ति का आदमी है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम इस बंधन में कैसे फँस गए? ईश्वर में भक्ति लगाओ। उसके सिवाय कोई तुम्हारा अपना नहीं। पत्नी, बेटे, भाई-बंधु सब स्वार्थ के साथी हैं। जिस दिन उन्हें लगेगा कि तुमसे उनका स्वार्थ सधने वाला नहीं, उस दिन वे तुम्हें पूछेंगे तक नहीं। इसीलिए ज्ञानी, संत, महात्मा ईश्वर के सिवाय किसी और में प्रेम नहीं लगाते। …तुम्हारे हिस्से में पंद्रह बीघे खेत हैं। उसी के चलते तुम्हारे भाई के परिवार तुम्हें पकड़े हुए हैं। तुम एक दिन कहकर तो देख लो कि अपना खेत उन्हें न देकर दूसरे को लिख दोगे, वह तुमसे बोलना बंद कर देंगे। खून का रिश्ता खत्म हो जाएगा। तुम्हारे भले के लिए मैं बहुत दिनों से सोच रहा था लेकिन संकोचवश नहीं कह रहा था। आज कह देता हूँ, तुम अपने हिस्से का खेत ठाकुरजी के नाम पर लिख दो। सीधे बैकुंठ को प्राप्त करोगे। तीनों लोक में तुम्हारी कीर्ति जगमगा उठेगी। जब तक चाँद-सूरज रहेंगे, तब तक लोग तुम्हें याद करेंगे। ठाकुरजी के नाम पर ज़मीन लिख देना, तुम्हारे जीवन का महादान होगा। साधु-संत तुम्हारे पाँव पखारेंगे। सभी तुम्हारा यशोगान करेंगे। तुम्हारा यह जीवन सार्थक हो जाएगा। अपनी शेष ज़िंदगी तुम इसी ठाकुरबारी में गुज़ारना, तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होगी। एक माँगोगे तो चार हाज़िर की जाएँगी। हम तुम्हें सिर-आँखों पर उठाकर रखेंगे। ठाकुरजी के साथ-साथ तुम्हारी आरती भी लगाएँगे। भाई का परिवार तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेगा। पता नहीं पूर्वजन्म में तुमने कौन-सा पाप किया था कि तुम्हारी दोनों पत्नियाँ अकालमृत्यु को प्रप्त हुईं। तुमने औलाद का मुँह तक नहीं देखा। अपना यह जन्म तुम अकारथ न जाने दो। ईश्वर को एक भर दोगे तो दस भर पाओगे। मैं अपने लिए तो तुमसे माँग नहीं रहा हूँ। तुम्हारा यह लोक और परलोक दोनों बन जाएँ, इसकी राह मैं तुम्हें बता रहा हूँ…।”

हरिहर देर तक महंत जी की बातें सुनते रहे। महंत जी की बातें उनके मन में बैठती जा रही थीं। ठीक ही तो कह रहे हैं महंत जी। कौन किसका है? पंद्रह बीघे खेत की फसल भाइयों के परिवार को देते हैं, तब तो कोई पूछता नहीं, अगर कुछ न दें तब क्या हालत होगी? उनके जीवन में तो यह स्थिति है, मरने के बाद कौन उन्हें याद करेगा? सीधे-सीधे उनके खेत हड़प जाएँगे। ठाकुरजी के नाम लिख देंगे तो पुश्तों तक लोग उन्हें याद करेंगे। अब तक के जीवन में तो ईश्वर के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। अंतिम समय तो यह बड़ा पुण्य कमा लें। लेकिन यह सोचते हुए भी हरिहर काका का मुँह खुल नहीं रहा था। भाई का परिवार तो अपना ही होता है। उनको न देकर ठाकुरबारी में दे देना उनके साथ धोखा और विश्वासघात होगा…।

अपनी बात समाप्त कर महंत जी प्रतिक्रिया जानने के लिए हरिहर की ओर देखने लगे। उन्होंने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके चेहरे के परिवर्तित भाव महंत जी की अनुभवी आँखों से छिपे न रह सके। अपनी सफलता पर महंत जी को बहुत खुशी हुई। उन्होंने सही जगह वार किया है। इसके बाद उसी वक्त ठाकुरबारी के दो सेवकों को बुलाकर आदेश दिया कि एक साफ़-सुथरे कमरे में पलंग पर बिस्तरा लगाकर उनके आराम का इंतज़ाम करें। फिर तो महंत जी के कहने में जितना समय लगा था, उससे कम समय में ही, सेवकों ने हरिहर काका के मना करने के बावजूद उन्हें एक सुंदर कमरे में पलंग पर जा लिटाया। और महंत जी! उन्होंने पुजारी जी को यह समझा दिया कि हरिहर के लिए विशेष रूप से भोजन की व्यवस्था करें। हरिहर काका को महंत जी एक विशेष उद्देश्य से ले गए थे, इसीलिए ठाकुरबारी में चहल-पहल शुरू हो गई।

इधर शाम को हरिहर काका के भाई जब खलिहान से लौटे तब उन्हें इस दुर्घटना का पता चला। पहले तो अपनी पत्नियों पर वे खूब बरसे, फिर एक जगह बैठकर चिंतामग्न हो गए। हालाँकि गाँव के किसी व्यक्ति ने भी उनसे कुछ नहीं कहा था। महंत जी ने हरिहर काका को क्या-क्या समझाया है, इसकी भी जानकारी उन्हें नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनका मन शंकालु और बेचैन हो गया। दरअसल, बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं, जिनकी जानकारी बिना बताए ही लोगों को मिल जाती है।

शाम गहराते-गहराते हरिहर काका के तीनों भाई ठाकुरबारी पहुँचे। उन्होंने हरिहर काका को वापस घर चलने के लिए कहा। इससे पहले कि हरिहर काका कुछ कहते, महंत जी बीच में आ गए – “आज हरिहर को यहीं रहने दो…बीमारी से उठा है। इसका मन अशांत है। ईश्वर के दरबार में रहेगा तो शांति मिलेगी…।”

लेकिन उनके भाई उन्हें घर ले चलने के लिए ज़िद करने लगे। इस पर ठाकुरबारी के साधु-संत उन्हें समझाने लगे। वहाँ उपस्थित गाँव के लोगों ने भी कहा कि एक रात ठाकुरबारी में रह जाएँगे तो क्या हो जाएगा? अंततः भाइयों को निराश हो वहाँ से लौटना पड़ा।

रात में हरिहर काका को भोग लगाने के लिए जो मिष्टान्न और व्यंजन मिले, वैसे उन्होंने कभी नहीं खाए थे। घी टपकते मालपुए, रस बुनिया, लंद्ग, छेने की तरकारी, दही, खीर…। पुजारी जी ने स्वयं अपने हाथों से खाना परोसा था। पास में बैठे महंत जी धर्म-चर्चा से मन में शांति पहुँचा रहे थे। एक ही रात में ठाकुरबारी में जो सुख-शांति और संतोष पाया, वह अपने अब तक के जीवन में उन्होंने नहीं पाया था।

इधर तीनों भाई रात-भर सो नहीं सके। भावी आशंका उनके मन को मथती रही। पंद्रह बीघे खेत! इस गाँव की उपजाऊ ज़मीन! दो लाख से अधिक की संपत्ति! अगर हाथ से निकल गई तो फिर वह कहीं के न रहेंगे।

सुबह तड़के ही तीनों भाई पुनः ठाकुरबारी पहुँचे। हरिहर काका के पाँव पकड़ रोने लगे। अपनी पत्नियों की गलती के लिए माफ़ी माँगी तथा उन्हें दंड देने की बात कही। साथ ही खून के रिश्ते की माया फैलाई। हरिहर काका का दिल पसीज गया। वह पुनः वापस घर लौट आए।

लेकिन यह क्या? इस बार अपने घर पर जो बदलाव उन्होंने लक्ष्य किया, उसने उन्हें सुखद आश्चर्य में डाल दिया। घर के छोटे-बड़े सब उन्हें सिर-आँखों पर उठाने को तैयार। भाइयों की पत्नियों ने उनके पैर पर माथा रख गलती के लिए क्षमा-याचना की। फिर उनकी आवभगत और जो खातिर शुरू हुई, वैसी खातिर किसी के यहाँ मेहमान आने पर भी नहीं होती होगी। उनकी रुचि और इच्छा के मुताबिक दोनों जून खाना-नाश्ता तैयार। पाँच महिलाएँ उनकी सेवा में मुस्तैद – तीन भाइयों की पत्नियाँ और दो उनकी बहुएँ। हरिहर काका आराम से दालान में पड़े रहते। जिस किसी चीज़ की इच्छा होती, आवाज़ लगाते ही हाज़िर। वे समझ गए थे कि यह सब महंत जी के चलते ही हो रहा है, इसलिए महंत जी के प्रति उनके मन में आदर और श्रद्धा के भाव निरंतर बढ़ते ही जा रहे थे।

बहुत बार ऐसा होता है कि बिना किसी के कुछ बताए गाँव के लोग असली तथ्य से स्वयं वाकिफ़ हो जाते हैं। हरिहर काका की इस घटना के साथ ऐसा ही हुआ। दरअसल लोगों की ज़ुबान से घटनाओं की ज़ुबान ज़्यादा पैनी और असरदार होती है। घटनाएँ स्वयं ही बहुत कुछ कह देती हैं, लोगों के कहने की ज़रूरत नहीं रहती। न तो गाँव के लोगों से महंत जी ने ही कुछ कहा था और न हरिहर काका के भाइयों ने ही। इसके बावजूद गाँव के लोग सच्चाई से अवगत हो गए थे। फिर तो गाँव की बैठकों में बातों का जो सिलसिला चल निकला उसका कहीं कोई अंत नहीं। हर जगह उन्हीं का प्रसंग शुरू। कुछ लोग कहते कि हरिहर को अपनी ज़मीन ठाकुरजी के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और कुछ नहीं। इससे कीर्ति भी अचल बनी रहती है। इसके विपरीत कुछ लोगों की मान्यता यह थी कि भाई का परिवार तो अपना ही होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। खून के रिश्ते के बीच दीवार बनानी होगी।

जितने मुँह, उतनी बातें। ऐसा ज़बरदस्त मसला पहले कभी नहीं मिला था, इसीलिए लोग मौन होना नहीं चाहते थे। अपने-अपने तरीके से समाधान ढूँढ़ रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि कुछ घटित हो। हालाँकि इसी क्रम में बातें गर्माहट-भरी भी होने लगी थीं। लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दो वर्गों में बँटने लगे थे। कई बैठकों में दोनों वर्गों के बीच आपस में तू-तू, मैं-मैं भी होने लगी थी। एक वर्ग के लोग चाहते थे कि हरिहर अपने हिस्से की ज़मीन ठाकुरजी के नाम लिख दें। तब यह ठाकुरबारी न सिर्फ़ इलाके की ही सबसे बड़ी ठाकुरबारी होगी, बल्कि पूरे राज्य में इसका मुकाबला कोई दूसरी ठाकुरबारी नहीं कर सकेगी। इस वर्ग के लोग धार्मिक संस्कारों के लोग हैं। साथ ही किसी न किसी रूप में ठाकुरबारी से जुड़े हैं। असल में सुबह-शाम जब ठाकुरजी को भोग लगाया जाता है, तब साधु-संतों के साथ गाँव के कुछ पेटू और चटोर किस्म के लोग प्रसाद पाने के लिए वहाँ जुट जाते हैं। ये लोग इसी वर्ग के हिमायती हैं। दूसरे वर्ग में गाँव के प्रगतिशील विचारों वाले लोग तथा वैसे किसान हैं, जिनके यहाँ हरिहर जैसे औरत-मर्द पल रहे होते हैं। गाँव का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था और लोग कुछ घटित होने की प्रतीक्षा करने लगे थे। इधर भावी आशंकाओं को मद्देनज़र रखते हुए हरिहर काका के भाई उनसे यह निवेदन करने लगे थे कि अपनी ज़मीन वे उन्हें लिख दें। उनके सिवाय उनका और अपना है ही कौन? इस विषय पर हरिहर काका ने एकांत में मुझसे काफ़ी देर तक बात की। अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। चाहे वह अपना भाई या मंदिर का महंत ही क्यों न हो? हमें अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में ही अपनी जायदाद अपने उत्तराधिकारियों या किसी अन्य को लिख दी थी, लेकिन इसके बाद उनका जीवन कुत्ते का जीवन हो गया। कोई उन्हें पूछने वाला नहीं रहा। हरिहर काका बिलकुल अनपढ़ व्यक्ति हैं, फिर भी इस बदलाव को उन्होंने समझ लिया और यह निश्चय किया कि जीते-जी किसी को ज़मीन नहीं लिखेंगे। अपने भाइयों को समझा दिया, मर जाऊँगा तो अपने आप मेरी ज़मीन तुम्हें मिल जाएगी। ज़मीन लेकर तो जाऊँगा नहीं। इसीलिए लिखवाने की क्या ज़रूरत?

उधर महंत जी भी हरिहर काका की टोह में रहने लगे। जहाँ कहीं एकांत पाते, कह उठते – “विलंब न करो हरिहर। शुभ काम में देर नहीं करते। चलकर ठाकुरजी के नाम ज़मीन बय कर दो। फिर पूरी ज़िंदगी ठाकुरबारी में राज करो। मरोगे तो तुम्हारी आत्मा को ले जाने के लिए स्वर्ग से विमान आएगा। देवलोक को प्राप्त करोगे…।”

लेकिन हरिहर काका न ‘हाँ’ कहते और न ‘ना’। ‘ना’ कहकर वे महंत जी को दुखी करना नहीं चाहते थे क्योंकि भाई के परिवार से जो सुख-सुविधाएँ उन्हें मिल रही थीं, वे महंत जी की कृपा से ही। और ‘हाँ’ तो उन्हें कहना है नहीं, क्योंकि अपनी ज़िंदगी में अपनी ज़मीन उन्हें किसी को नहीं लिखनी। इस मुद्दे पर वे जागरूक हो गए थे।

पर बीतते समय के अनुसार महंत जी की चिंताएँ बढ़ती जा रही थीं। जाल में फँसी चिड़िया पकड़ से बाहर हो गई थी, महंत जी इस बात को सह नहीं पा रहे थे। महंत जी को लग रहा था कि हरिहर धर्म-संकट में पड़ गया है। एक ओर वह चाहता है कि ठाकुरजी को लिख दूँ, किंतु दूसरी ओर भाई के परिवार के माया-मोह में बँध जाता है। इस स्थिति में हरिहर का अपहरण कर ज़बरदस्ती उससे लिखवाने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं। बाद में हरिहर स्वयं राजी हो जाएगा।

महंत जी लड़ाकू और दबंग प्रकृति के आदमी हैं। अपनी योजना को कार्य-रूप में परिणत करने के लिए वह जी-जान से जुट गए। हालाँकि यह सब गोपनीयता का निर्वाह करते हुए ही वह कर रहे थे। हरिहर काका के भाइयों को इसकी भनक तक नहीं थी।

बात अभी हाल की ही है। आधी रात के आस-पास ठाकुरबारी के साधु-संत और उनके पक्षधर भाला, गंड़ासा और बंदूक से लैस एकाएक हरिहर काका के दालान पर आ धमके। हरिहर काका के भाई इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे। इससे पहले कि वे जवाबी कार्रवाई करें और गुहार लगाकर अपने लोगों को जुटाएँ, तब तक आक्रमणकारी उनको पीठ पर लादकर चंपत हो गए।  

गाँव में किसी ने ऐसी घटना नहीं देखी थी, न सुनी ही थी। सारा गाँव जाग गया। शुभचिंतक तो उनके यहाँ जुटने लगे, लेकिन अन्य लोग अपने दालान और मकान की छतों पर जमा होकर आहट लेने और बातचीत करने लगे।

हरिहर काका के भाई लोगों के साथ उन्हें ढूँढ़ने निकले। उन्हें लगा कि यह महंत का काम है। वे मय दल-बल ठाकुरबारी जा पहुँचे। वहाँ खामोशी और शांति नज़र आई। रोज़ की भाँति ठाकुरबारी का मुख्य फाटक बंद था। वातावरण में रात का सन्नाटा और सूनापन व्याप्त मिला। उन्हें लगा, यह काम महंत का नहीं, बाहर के डाकुओं का है। वे तो हरजाने की मोटी रकम लेकर ही हरिहर काका को मुक्त करेंगे।

खोज में निकले लोग किसी दूसरी दिशा की ओर प्रस्थान करते कि इसी समय ठाकुरबारी के अंदर से बातचीत करने की सम्मिलित, किंतु धीमी आवाज़ सुनाई पड़ी। सबके कान खड़े हो गए। उन्हें यकीन हो गया कि हरिहर काका इसी में हैं। अब क्या सोचना? वे ठाकुरबारी का फाटक पीटने लगे। इसी समय ठाकुरबारी की छत से रोड़े और पत्थर उनके ऊपर गिरने लगे। वे तितर-बितर होने लगे। अपने हथियार सँभाले। लेकिन हथियार सँभालने से पहले ही ठाकुरबारी के कमरों की खिड़कियों से फायरिंग शुरू हो गई। एक नौजवान के पैर में गोली लग गई। वह गिर गया। उसके गिरते ही हरिहर काका के भाइयों के पक्षधर भाग चले सिर्फ़ वे और तीनों भाई बचे रह गए। अपने तीनों के बूते इस यद्धु को जीतना उन्हें संभव नहीं जान पड़ा। इसीलिए वे कस्बे के पुलिस थाने की ओर दौड़ पड़े।

इधर ठाकुरबारी के भीतर महंत और उनके कुछ चंद विश्वासी साधु सादे और लिखे कागज़ों पर अनपढ़ हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरन ले रहे थे। हरिहर काका तो महंत के इस व्यवहार से जैसे आसमान से ज़मीन में आ गए थे। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि महंत जी इस रूप में भी आएँगे। जिस महंत को वह आदरणीय एवं श्रद्धेय समझते थे, वह महंत अब उन्हें घृणित, दुराचारी और पापी नज़र आने लगा था। अब वह उस महंत की सूरत भी देखना नहीं चाहते थे। अब अपने भाइयों का परिवार महंत की तुलना में उन्हें ज़्यादा पवित्र, नेक और अच्छा लगने लगा था। हरिहर काका ठाकुरबारी से अपने घर पहुँचने के लिए बेचैन थे। लेकिन लोग उन्हें पकड़े हुए थे और महंत जी उन्हें समझा रहे थे – “तुम्हारे भले के लिए ही यह सब किया गया हरिहर। अभी तुम्हें लगेगा कि हम लोगों ने तुम्हारे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती की, लेकिन बाद में तुम समझ जाओगे कि जिस धर्म-संकट में तुम पड़े थे, उससे उबारने के लिए यही एकमात्र रास्ता था…!”

एक ओर ठाकुरबारी के भीतर जबरन अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझाने का कार्य चल रहा था तो दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से पहले ही पुलिस की जीप के साथ ठाकुरबारी आ पहुँचे। जीप से तीनों भाई, एक दरोगा और पुलिस के आठ जवान उतरे। पुलिस इंचार्ज ने ठाकुरबारी के फाटक पर आवाज़ लगाई। दस्तक दी। लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं। अब पुलिस के जवानों ने ठाकुरबारी के चारों तरफ़ घेरा डालना शुरू किया। ठाकुरबारी अगर छोटी रहती तो पुलिस के जवान आसानी से उसे घेर लेते, लेकिन विशालकाय ठाकुरबारी को पुलिस के सीमित जवान घेर सकने में असमर्थ साबित हो रहे थे। फिर भी जितना संभव हो सका, उस रूप में उन्होंने घेरा डाल दिया और अपना-अपना मोर्चा सँभाल सुबह की प्रतीक्षा करने लगे।

हरिहर काका के भाइयों ने सोचा था कि जब वे पुलिस के साथ ठाकुरबारी पहुँचेंगे तो ठाकुरबारी के भीतर से हमले होंगे और साधु-संत रँगे हाथों पकड़ लिए जाएँगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ठाकुरबारी के अंदर से एक रोड़ा भी बाहर नहीं आया। शायद पुलिस को आते हुए उन्होंने देख लिया था।

सुबह होने में अभी कुछ देर थी, इसलिए पुलिस इंचार्ज रह-रहकर ठाकुरबारी का फाटक खोलने तथा साधु-संतों को आत्मसमर्पण करने के लिए आवाज़ लगा रहे थे। साथ ही पुलिस वर्ग की ओर से हवाई फ़ायर भी किए जा रहे थे, लेकिन ठाकुरबारी की ओर से कोई जवाब नहीं आ रहा था।    सुबह तड़के एक वृद्ध साधु ने ठाकुरबारी का फाटक खोल दिया। उस साधु की उम्र अस्सी वर्ष से अधिक की होगी। वह लाठी के सहारे काँपते हुए खड़ा था। पुलिस इंचार्ज ने उस वृद्ध साधु के पास पहुँच हरिहर काका तथा ठाकुरबारी के महंत, पुजारी एवं अन्य साधुओं के बारे में पूछा। लेकिन उसने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। पुलिस इंचार्ज ने कई बार उससे पूछा। डाँट लगाई, धमकियाँ दीं, लेकिन हर बार एक ही वाक्य कहता, “मुझे कुछ मालूम नहीं।” ऐसे वक्त पुलिस के लोग मार-पीट का सहारा लेकर भी बात उगलवाते हैं लेकिन उस साधु की वय देखकर पुलिस इंचार्ज को महटिया जाना पड़ा।

पुलिस इंचार्ज के नेतृत्व में पुलिस के जवान ठाकुरबारी की तलाशी लेने लगे। लेकिन न तो ठाकुरबारी के नीचे के कमरों में ही कोई पाया गया और न छत के कमरों में ही। पुलिस के जवानों ने खूब छान-बीन की, उस वृद्ध साधु के अलावा कोई दूसरा ठाकुरबारी में नहीं मिला।

हरिहर काका के भाई चिंता, परेशानी और दुखद आश्चर्य से घिर गए। ठाकुरबारी के महंत और साधु-संत हरिहर काका को लेकर कहाँ भाग गए? अब क्या होगा? काफ़ी पैसे खर्च कर पुलिस को लाए थे। पुलिस के साथ आने के बाद वह अंदर ही अंदर गर्व महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि अब भाई को वे आसानी से घर ले जाएँगे तथा साधु-संतों को जेल भिजवा देंगे। लेकिन दोनों में से एक भी नहीं हुआ।

ठाकुरबारी के जो कमरे खुले थे, उनकी तलाशी पहले ली गई थी। बाद में जिन कमरों की चिटकिनी बंद थी, उन्हें भी खोलकर देखा गया था। एक कमरे के बाहर बड़ा-सा ताला लटक रहा था। पुलिस और हरिहर काका के भाई सब वहीं एकत्र हो गए। उस कमरे की कुंजी की माँग वृद्ध साधु से की गई तो उसने साफ़ कह दिया, “मेरे पास नहीं।”

जब उससे पूछा गया, “इस कमरे में क्या है?” तब उसने जवाब दिया, “अनाज है।”

पुलिस इंचार्ज अभी यह सोच ही रहे थे कि इस कमरे का ताला तोड़कर देखा जाए या छोड़ दिया जाए कि अचानक उस कमरे के दरवाज़े को भीतर से किसी ने धक्का देना शुरू किया।

पुलिस के जवान सावधान हो गए।

ताला तोड़कर कमरे का दरवाज़ा खोला गया। कमरे के भीतर हरिहर काका जिस स्थिति में मिले, उसे देखकर उनके भाइयों का खून खौल उठा। उस वक्त अगर महंत, पुजारी या अन्य नौजवान साधु उन्हें नज़र आ जाते तो वे जीते-जी उन्हें नहीं छोड़ते।

हरिहर काका के हाथ और पाँव तो बाँध ही दिए गए थे, उनके मुँह में कपड़ा ठूँसकर बाँध दिया गया था। हरिहर काका ज़मीन पर लुढ़कते हुए दरवाज़े तक आए थे और पैर से दरवाज़े पर धक्का लगाया था।

काका को बंधनमुक्त किया गया, मुँह से कपड़े निकाले गए। हरिहर काका ने ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और साधुओं की काली करतूतों का परदाफ़ाश करना शुरू किया कि वह साधु नहीं, डाकू, हत्यारे और कसाई हैं, कि उन्हें इस रूप में कमरे में बंद कर गुप्त दरवाज़े से भाग गए, कि उन्होंने कई सादे और लिखे हुए कागज़ों पर जबरन उनके अँगूठे के निशान लिए…आदि।

हरिहर काका ने देर तक अपने बयान दर्ज कराए। उनके शब्द-शब्द से साधुओं के प्रति नफ़रत और घृणा व्यक्त हो रही थी। जीवन में कभी किसी के खिलाफ़ उन्होंने इतना नहीं कहा होगा जितना ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और साधुओं के बारे में कहा।

अब हरिहर काका पुनः अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे थे। इस बार उन्हें दालान पर नहीं, घर के अंदर रखा गया था – किसी बहुमूल्य वस्तु की तरह सँजोकर, छिपाकर। उनकी सुरक्षा के लिए रिश्ते-नाते में जितने ‘सूरमा’ थे, सबको बुला लिया गया था। हथियार जुटा लिए गए थे। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। अगर किसी आवश्यक कार्यवश काका घर से गाँव में निकलते तो चार-पाँच की संख्या में हथियारों से लैस लोग उनके आगे-पीछे चलते रहते। रात में चारों तरफ़ से घेरकर सोते। भाइयों ने ड्यूटी बाँट ली थी। आधे लोग सोते तो आधे लोग जागकर पहरा देते रहते।

इधर ठाकुरबारी का दृश्य भी बदल गया था। एक से एक खूँखार लोग ठाकुरबारी में आ गए थे। उन्हें देखकर ही डर लगता था। गाँव के बच्चों ने तो ठाकुरबारी की ओर जाना ही बंद कर दिया। हरिहर काका को लेकर गाँव प्रारंभ से ही दो वर्गों में बँट गया था। इस नयी घटना को लेकर दोनों तरफ़ से प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की जाने लगी थीं।

और अब हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की अपेक्षा चतुर और ज्ञानी हो चले थे। वह महसूस करने लगे थे कि उनके भाई अचानक उनको जो आदर-सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने लगे हैं, उसकी वजह उन लोगों के साथ उनका सगे भाई का संबंध नहीं, बल्कि उनकी जायदाद है, अन्यथा वे उनको पूछते तक नहीं। इसी गाँव में जायदादहीन भाई को कौन पूछता है? हरिहर काका को अब सब नज़र आने लगा था! महंत की चिकनी-चुपड़ी बातों के भीतर की सच्चाई भी अब वह जान गए थे। ठाकुरजी के नाम पर वह अपना और अपने जैसे साधुओं का पेट पालता है। उसे धर्म और परमार्थ से कोई मतलब नहीं। निजी स्वार्थ के लिए साधु होने और पूजा-पाठ करने का ढोंग रचाया है। साधु के बाने में महंत, पुजारी और उनके अन्य सहयोगी लोभी-लालची और कुकर्मी हैं। छल, बल, कल, किसी भी तरह धन अर्जित कर बिना परिश्रम किए आराम से रहना चाहते हैं। अपने घृणित इरादों को छिपाने के लिए ठाकुरबारी को इन्होंने माध्यम बनाया है। एक ऐसा माध्यम जिस पर अविश्वास न किया जा सके। इसीलिए हरिहर काका ने मन ही मन तय कर लिया कि अब महंत को वे अपने पास फटकने तक नहीं देंगे। साथ ही अपनी ज़िंदगी में अपनी जायदाद भाइयों को भी नहीं लिखेंगे, अन्यथा फिर वह दूध की मक्खी हो जाएँगे। लोग निकालकर फेंक देंगे। कोई उन्हें पूछेगा तक नहीं। बुढ़ापे का दुख बिताए नहीं बीतेगा!

लेकिन हरिहर काका सोच कुछ और रहे थे और वातावरण कुछ दूसरा ही तैयार हो रहा था। ठाकुरबारी से जिस दिन उन्हें वापस लाया गया था, उसी दिन से उनके भाई और रिश्ते-नाते के लोग समझाने लगे थे कि विधिवत अपनी जायदाद वे अपने भतीजों के नाम लिख दें। वह जब तक ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की गिद्ध-दृष्टि उनके ऊपर लगी रहेगी। सिर पर मँडरा रहे तूफ़ान से मुक्ति पाने के लिए उनके समक्ष अब यही एकमात्र रास्ता है…।

सुबह, दोपहर, शाम, रात गए तक यही चर्चा। लेकिन हरिहर काका साफ़ नकार जाते। कहते – “मेरे बाद तो मेरी जायदाद इस परिवार को स्वतः मिल जाएगी इसीलिए लिखने का कोई अर्थ नहीं। महंत ने अँगूठे के जो जबरन निशान लिए हैं, उसके खिलाफ़ मुकदमा हमने किया ही है…।”

भाई जब समझाते-समझाते हार गए तब उन्होंने डाँटना और दबाव देना शुरू किया। लेकिन काका इस रास्ते भी राजी नहीं हुए। स्पष्ट कह दिया कि अपनी ज़िंदगी में वह नहीं लिखेंगे। बस, एक रात उनके भाइयों ने वही रूप धारण कर लिया, जो रूप महंत और उनके सहयोगियों ने धारण किया था। हरिहर काका को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उनके वही अपने सगे भाई, जो उनकी सेवा और सुरक्षा में तैयार रहते थे, उन्हें अपना अभिन्न समझते थे, जो उनकी नींद ही सेाते और जागते थे, हथियार लेकर उनके सामने खड़े थे। कह रहे थे – “सीधे मन से कागज़ों पर जहाँ-जहाँ ज़रूरत है, अँगूठे के निशान बनाते चलो अन्यथा मारकर यहीं घर के अंदर गाड़ देंगे। गाँव के लोगों को कोई सूचना तक नहीं मिलने पाएगी।”

अगर पहले वाली बात होती तो हरिहर काका डर जाते। अज्ञान की स्थिति में ही मनुष्य मृत्यु से डरते हैं। ज्ञान होने के बाद तो आदमी आवश्यकता पड़ने पर मृत्यु को वरण करने के लिए तैयार हो जाता है। हरिहर काका ने सोच लिया कि ये सब एक ही बार उन्हें मार दें, वह ठीक होगा; लेकिन अपनी ज़मीन लिखकर रमेसर की विधवा की तरह शेष ज़िंदगी वे घुट-घुटकर मरें, यह ठीक नहीं होगा। रमेसर की विधवा को बहला-फुसलाकर उसके हिस्से की ज़मीन रमेसर के भाइयों ने लिखवा ली। शुरू में तो उसका खूब आदर-मान किया, लेकिन बुढ़ापे में उसे दोनों जून खाना देते उन्हें अखरने लगा। अंत में तो उसकी वह दुर्गति हुई कि गाँव के लोग देखकर सिहर जाते। हरिहर काका को लगता है कि अगर रमेसर की विधवा ने अपनी ज़मीन नहीं लिखी होती तो अंत समय तक लोग उसके पाँव पखारते होते।

हरिहर काका गुस्से में खड़े हो गए और गरजते हुए कहा, “मैं अकेला हूँ…तुम सब इतने हो! ठीक है, मुझे मार दो…मैं मर जाऊँगा, लेकिन जीते-जी एक धूर ज़मीन भी तुम्हें नहीं लिखूँगा…तुम सब ठाकुरबारी के महंत-पुजारी से तनिक भी कम नहीं…!”

 “देखते हैं, कैसे नहीं लिखोगे? लिखना तो तुम्हें है ही, चाहे हँस के लिखो या रो के…।”

हरिहर काका के साथ उनके भाइयों की हाथापाई शुरू हो गई। हरिहर काका अब उस घर से निकलकर बाहर गाँव में भाग जाना चाहते थे, लेकिन उनके भाइयों ने उन्हें मज़बूती से पकड़ लिया था। प्रतिकार करने पर अब वे प्रहार भी करने लगे थे। अकेले हरिहर कई लोगों से जूझ सकने में असमर्थ थे, फलस्वरूप उन्होंने अपनी रक्षा के लिए खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। अब भाइयों को चेत आया कि मुँह तो उन्हें पहले ही बंद कर देना चाहिए था। उन्होंने तत्क्षण उन्हें पटक उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन ऐसा करने से पहले ही काका की आवाज़ गाँव में पहुँच गई थी। टोला-पड़ोस के लोग दालान में जुटने लगे थे। ठाकुरबारी के पक्षधरों के माध्यम से तत्काल यह खबर महंत जी तक भी चली गई थी। लेकिन वहाँ उपस्थित हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग, गाँव के लोगों को समझा देते कि अपने परिवार का निजी मामला है, इससे दूसरों को क्या मतलब? लेकिन महंत जी ने वह तत्परता और फुरती दिखाई जो काका के भाइयों ने भी नहीं दिखाई थी। वह पुलिस की जीप के साथ आ धमके।

पुलिस आने के बाद निजी मामले का सवाल खत्म हो गया। घर-तलाशी शुरू हुई। फिर हरिहर काका को उससे भी बदतर हालत में बरामद किया गया जिस हालत में ठाकुरबारी से उन्हें बरामद किया गया था।

बंधनमुक्त होने और पुलिस की सुरक्षा पाने के बाद उन्होंने बताया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत जुल्म-अत्याचार किया है, कि जबरन अनेक कागज़ों पर उनके अँगूठे के निशान लिए हैं, कि उन्हें खूब मारा-पीटा है, कि उनकी कोई भी दुर्गति बाकी नहीं छोड़ी है, कि अगर और थोड़ी देर तक पुलिस नहीं आती तो वह उन्हें जान से मार देते…।

हरिहर काका के पीठ, माथे और पाँवों पर कई जगह ज़ख्म के निशान उभर आए थे। वह बहुत घबराए हुए-से लग रहे थे। काँप रहे थे। अचानक गिरकर बेहोश हो गए। मुँह पर पानी छींटकर उन्हें होश में लाया गया। भाई और भतीजे तो पुलिस आते ही चंपत हो गए थे। पुलिस की पकड़ में रिश्ते के दो व्यक्ति आए। रिश्ते के शेष लोग भी फरार हो गए थे…।

हरिहर काका के साथ घटी घटनाओं में यह अब तक की सबसे अंतिम घटना है। इस घटना के बाद काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे हैं। उनकी सुरक्षा के लिए राइफलधारी पुलिस के चार जवान मिले हैं। हालाँकि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए हैं। असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर अकेले रहने लगेंगे, तब ठाकुरबारी के महंत अपने लोगों के साथ आकर पुनः उन्हें ले भागेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर को अकेला और असुरक्षित पा उनके भाई पुनः उन्हें धर दबोचेंगे। इसीलिए जब हरिहर काका ने अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की माँग की तब नेपथ्य में रहकर ही उनके भाइयों और महंत जी ने पैरवी लगा और पैसे खर्च कर उन्हें पूरी सहायता पहुँचाई। यह उनकी सहायता का ही परिणाम है कि एक व्यक्ति की सुरक्षा के लिए गाँव में पुलिस के चार जवान तैनात कर दिए गए हैं।

जहाँ तक मैं समझता हूँ, फिलहाल हरिहर काका पुलिस की सुरक्षा में रह ज़रूर रहे हैं, लेकिन वास्तविक सुरक्षा ठाकुरबारी और अपने भाइयों की ओर से ही मिल रही है। ठाकुरबारी के साधु-संत और काका के भाई इस बात के प्रति पूरी तरह सतर्क हैं कि उनमें से कोई या गाँव का कोई अन्य हरिहर काका के साथ जोर-ज़बरदस्ती न करने पाए। साथ ही अपना सद्भाव और मधुर व्यवहार प्रकट कर पुनः उनका ध्यान अपनी ओर खींच लेने के लिए दोनों दल प्रयत्नशील हैं।

गाँव में एक नेता जी हैं, वह न तो कोई नौकरी करते हैं और न खेती-गृहस्थी, फिर भी बारहों महीने मौज़ उड़ाते रहते हैं। राजनीति की जादुई छड़ी उनके पास है। उनका ध्यान हरिहर काका की ओर जाता है। वह तत्काल गाँव के कुछ विशिष्ट लोगों के साथ उनके पास पहुँचते हैं और यह प्रस्ताव रखते हैं कि उनकी ज़मीन में ‘हरिहर उच्च विद्यालय’ नाम से एक हाई स्कूल खोला जाए। इससे उनका नाम अमर हो जाएगा। उनकी ज़मीन का सही उपयोग होगा और गाँव के विकास के लिए एक स्कूल मिल जाएगा। लेकिन हरिहर काका के ऊपर तो अब कोई भी दूसरा रंग चढ़ने वाला नहीं था। नेता जी भी निराश होकर लौट आते हैं।

इन दिनों गाँव की चर्चाओं के केंद्र हैं हरिहर काका। आँगन, खेत, खलिहान, अलाव, बगीचे, बरगद हर जगह उनकी ही चर्चा। उनकी घटना की तरह विचारणीय और चर्चनीय कोई दूसरी घटना नहीं। गाँव में आए दिन छोटी-बड़ी घटनाएँ घटती रहती हैं, लेकिन काका के प्रसंग के सामने उनका कोई अस्तित्व नहीं। गाँव में जहाँ कहीं और जिन लोगों के बीच हरिहर काका की चर्चा छिड़ती है तो फिर उसका कोई अंत नहीं। लोग तरह-तरह की संभावनाएँ व्यक्त करते हैं – “राम जाने क्या होगा? दोनों ओर के लोगों ने अँगूठे के निशान ले लिए हैं। लेकिन हरिहर ने अपना बयान दर्ज कराया है कि वे दोनों लोगों में से किसी को अपनी ज़मीन का उत्तराधिकारी नहीं मानते हैं। दोनों ओर के लोगों ने जबरन उनके अँगूठे के निशान लिए हैं। इस स्थिति में उनके बाद उनकी जायदाद का हकदार कौन होगा?”

लोगों के बीच बहस छिड़ जाती है। उत्तराधिकारी के कानून पर जो जितना जानता है, उससे दस गुना अधिक उगल देता है। फिर भी कोई समाधान नहीं निकलता। रहस्य खत्म नहीं होता, आशंकाएँ बनी ही रहती हैं। लेकिन लोग आशंकाओं को नज़रअंदाज़ कर अपनी पक्षधरता शुरू कर देते हैं कि उत्तराधिकार ठाकुरबारी को मिलता तो ठीक रहता। दूसरी ओर के लोग कहते कि हरिहर के भाइयों को मिलता तो ज़्यादा अच्छा रहता।

ठाकुरबारी के साधु-संत और काका के भाइयों ने कब क्या कहा, यह खबर बिजली की तरह एक ही बार समूचे गाँव में फैल जाती है। खबर झूठी है कि सच्ची, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। जिसे खबर हाथ लगती है, वह नमक-मिर्च मिला उसे चटकाकर आगे बढ़ा देता है।

एक खबर आती है कि महंत जी और हरिहर काका के भाई इस बात के लिए अफ़सोस कर रहे हैं कि अँगूठे के निशान लेने के बाद उन्होंने हरिहर को खत्म क्यों नहीं कर दिया। बात ही आगे नहीं बढ़ती।

एक दूसरी खबर आती है कि हरिहर मरेंगे तो उन्हें अग्नि प्रदान करने के लिए ठाकुरबारी के साधु-संतों और काका के भाइयों के बीच काफ़ी लड़ाई होगी। दोनों ओर से अग्नि प्रदान करने का निश्चय हो चुका है। इस संदर्भ में उनकी लाश हस्तगत करने के लिए खून की नदी बहेगी।

एक तीसरी खबर आती है कि हरिहर काका की मृत्यु के बाद उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करने के लिए उनके भाई अभी से तैयारी कर रहे हैं। इलाके के मशहूर डाकू बुटन सिंह से उन लोगों ने बातचीत पक्की कर ली है। हरिहर के पंद्रह बीघे खेत में से पाँच बीघे बुटन लेगा और दखल करा देगा। इससे पहले भी इस तरह के दो-तीन मामले बुटन ने निपटाए हैं। पूरे इलाके में उसके नाम की तूती बोलती है।

एक चौथी खबर आती है कि महंत जी ने निर्णय ले लिया है, हरिहर की मृत्यु के बाद देश के कोने-कोने से साधुओं और नागाओं को वह बुलाएँगे।

रहस्यात्मक और भयावनी खबरों से गाँव का आकाश आच्छादित हो गया है। दिन-प्रतिदिन आतंक का माहौल गहराता जा रहा है। सबके मन में यह बात है कि हरिहर कोई अमृत पीकर तो आए हैं नहीं। एक न एक दिन उन्हें मरना ही है। फिर एक भयंकर तूफ़ान की चपेट में यह गाँव आ जाएगा। उस वक्त क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह कोई छोटी लड़ाई नहीं, एक बड़ी लड़ाई है। जाने-अनजाने पूरा गाँव इसकी चपेट में आएगा ही…। इसीलिए लोगों के अंदर भय भी है और प्रतीक्षा भी। एक ऐसी प्रतीक्षा जिसे झुठलाकर भी उसके आगमन को टाला नहीं जा सकता।

और हरिहर काका! वह तो बिलकुल मौन हो अपनी ज़िंदगी के शेष दिन काट रहे हैं। एक नौकर रख लिया है, वही उन्हें बनाता-खिलाता है। उनके हिस्से की ज़मीन में जितनी फसल होती है, उससे अगर वह चाहते तो मौज की ज़िंदगी बिता सकते थे। लेकिन वह तो गूँगेपन का शिकार हो गए हैं। कोई बात कहो, कुछ पूछो, कोई जवाब नहीं। खुली आँखों से बराबर आकाश को निहारा करते हैं। सारे गाँव के लोग उनके बारे में बहुत कुछ कहते-सुनते हैं, लेकिन उनके पास अब कहने के लिए कोई बात नहीं।

पुलिस के जवान हरिहर काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे हैं। जिसका धन वह रहे उपास, खाने वाले करें विलास। अब तक जो नहीं खाया था, दोनों जून उसका भोग लगा रहे हैं। 

‘हरिहर काका’ पाठ मिथिलेश्वर जी के द्वारा लिखित है। हरिहर काका मिथिलेश्वर जी के काफ़ी निकट हैं और इसका कारण यह है कि जब मिथिलेश्वर छोटे थे तब हरिहर काका इन्हें अपने कंधे पर घुमाया करते थे। इनके साथ खेला करते थे। जिस वजह से दोनों के उम्र में लंबा फासला होने के बावजूद परस्पर मित्रवत् व्यवहार है। हरिहर काका पहले लेखक से खुलकर बातें किया करते थे। लेकिन अचानक से वे अब मौन रहने लगे हैं, उनकी इस स्थिति से लेखक बहुत चिंतित हैं। उनके साथ ऐसा क्या हुआ जिसके कारण वे गूँगेपन का शिकार हो गए? यही खुलासा ही ‘हरिहर काका’ पाठ के नाम से जाना जाता है।

हरिहर काका के गाँव में एक ठाकुरबारी है। धार्मिक प्रवृत्ति के लोग अपनी मन्नतें पूरी होने पर दिल खोल कर दान करते हैं और इसी तरह आज ठाकुरबारी के नाम पर बीस बीघे खेत हैं। ठाकुरबारी के साथ अधिकांश गाँववालों का संबंध बहुत ही घनिष्ठ है। ये ठाकुरबारी के साधु-संतों के प्रवचन सुन और ठाकुरबारी के दर्शन कर अपना जीवन सार्थक मानते हैं।

हरिहर काका चार भाई हैं प्रत्येक के हिस्से में 15 बीघे खेत हैं। सभी भाइयों की शादी हो चुकी है। हरिहर काका के अलावा सबके बाल-बच्चे हैं। हरिहर काका ने औलाद प्राप्ति के लिए दो-दो शादियाँ कीं, परंतु बिना बच्चा जने उनकी दोनों पत्नियाँ इस दुनिया से चल बसीं। बाद में बिना विवाह किए हरिहर काका अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे। हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी पत्नियों को यह सीख दी थी कि हरिहर काका की अच्छी तरह सेवा करे। लेकिन हरिहर काका को रूखा-सूखा खाकर ही संतोष करना पड़ता था। हरिहर काका इतने बड़े परिवार में रहने के बाद भी कोई उन्हें पानी तक भी पूछने वाला नहीं था। एक दिन हरिहर काका की तबीयत खराब थी। उन्हें पता चला कि शहर से उसका भतीजा अपने मित्र के साथ आया है और घर में अच्छे-अच्छे पकवान पकवान बन रहे हैं परंतु उन्हें खाने को रूखा-सूखा ही मिला। इस पर वे बमक गए और सबको खरी-खोटी सुना डाली और गरजते हुए दालान की ओर निकल गए।

हरिहर काका जिस समय यह सब कह रहे थे, उस समय ठाकुरबारी के पुजारी जी उनके दालान पर ही विराजमान थे। लौटकर पुजारी जी ने महंत जी को सारी घटना बताई। महंत जी तुरंत निकले और हरिहर काका को लेकर ठाकुरबारी चले आए और एकांत कमरे में उन्हें बैठाकर प्रेम से समझाने लगे – “हरिहर ! यहाँ कोई किसी का नहीं है। सब माया का बंधन है। ईश्वर के सिवाय कोई तुम्हारा अपना नहीं है। तुम्हारे हिस्से में पंद्रह बीघे खेत हैं। उसी के चलते तुम्हारे भाई के परिवार तुम्हें पकड़े हुए हैं। तुम एक दिन कहकर तो देखो कि अपना खेत उन्हें न देकर दूसरे को लिख दोगे, वह तुमसे बोलना बंद कर देंगे। तुम्हारे भले के लिए मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम अपने हिस्से का खेत ठाकुरजी के नाम पर लिख दो। सीधे बैकुंठ को प्राप्त करोगे। तीनों लोक में तुम्हारी कीर्ति जगमगा उठेगी। यह तुम्हारे जीवन का महादान होगा। साधु-संत तुम्हारे पाँव पखारेंगे। तुम्हारा यह जीवन सार्थक हो जाएगा। अपनी शेष ज़िंदगी तुम इसी ठाकुरबारी में गुजारना, तुम्हें किसी चीज़ की कोई कमी नहीं होगी। अपना यह जीवन तुम बेकार मत जाने दो। इस दान से तुम्हारा लोक और परलोक दोनों बन जाएगा…।” उन्हें महंत जी की बातों पर यकीन होने लगा था। परन्तु, दूसरे ही पल वे सोचने लगे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। उनको न देकर ठाकुरबारी में दे देना उनके साथ धोखा और विश्वासघात होगा। तत्पश्चात, ठाकुरबारी में ही महंत जी हरिहर काका के लिए खाने-पीने और सोने का विशेष इंतज़ाम करवा दिया।

हरिहर काका के भाइयों को जब इस घटना का पता चला तो वे अपनी पत्नियों पर खूब बरसे और चिंतित हो गए। वे हरिहर काका को लाने ठाकुरबारी चल पड़े मगर महंत जी ने हरिहर काका वहीं पर रोक लिया। सुबह-सुबह ही तीनों भाई पुन: ठाकुरबारी पहुँचे हरिहर काका के पाँव पकड़ रोने लगे। अपनी पत्नियों की गलती के लिए माफी माँगी और उन्हें दंड देने की बात कही। साथ ही खून के रिश्ते की माया फैलाई। हरिहर काका का दिल पसीज गया। वे पुनः घर वापस लौट गए।

अब घर के सभी बड़े-छोटे हरिहर काका की खातिरदारी में जुट गए थे। हरिहर काका समझ गए थे कि यह सब महंत जी के चलते ही हो रहा है। महंत जी के प्रति हरिहर काका के मन में आदर और श्रद्धा के भाव निरंतर बढ़ता ही जा रहा था। भावी आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए हरिहर काका के भाई उनसे यह निवेदन करने लगे थे कि अपनी ज़मीन वे उन्हें लिख दें।

इस विषय पर हरिहर काका ने एकांत में मिथिलेश्वर से काफी देर तक बात की। अंतत: वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। चाहे वो अपना भाई या मंदिर का महंत ही क्यूँ न हो। उनके सामने गाँव के रमेसर की विधवा का उदाहरण भी था जिसने जीते जी अपनी जायदाद दूसरे के नाम कर दी और दाने-दाने को मोहताज हो गई।

इधर महंत जी अधीर हो रहे थे। हरिहर काका से जबरदस्ती ज़मीन लिखवाने के लिए हर कोशिश करने में जुट गए थे। एक दिन अचानक आधी रात को ठाकुरबारी के साधु-संत और उनके पक्षधर भाला, गँड़ासा और बंदूक से लैस एकाएक हरिहर काका के दालान पर आ धमके और हरिहर काका को अपने पीठ पर लादकर चंपत हो गए। तत्पश्चात, हरिहर काका के भाई लोगों के साथ उन्हें तलाशने निकले। उन्हें लगा कि यह महंत का ही काम है। वे सभी ठाकुरबारी जा पहुँचे। वहाँ खामोशी और शांति नज़र आई। वहाँ चारों तरफ़ सन्नाटा था। लोगों को लगा कि यह काम महंत का नहीं, बाहर के डाकुओं का है। लेकिन ज्यों ही लोग किसी दूसरी दिशा की ओर प्रस्थान किए कि ठाकुरबारी के अंदर से धीमी बातचीत की आवाज़ सुनाई पड़ी। सबके कान खड़े हो गए। उन्हें यकीन हो गया था कि हरिहर काका इसी में हैं। लोग ठाकुरबारी का फाटक पीटने लगे। तभी ठाकुरबारी की छत से रोड़े और पत्थर उनके ऊपर गिरने लगे। ठाकुरबारी के कमरों की खिड़कियों से फायरिंग शुरू हो गई थी। एक नौजवान के पैर में गोली लग गई तो तीन भाइयों को छोड़कर बाकी लोग वहाँ से भाग निकले तब तीनों भाइयों ने थाने की ओर दौड़ लगाई। इधर महंत और उसके साधु कुछ सादे और कुछ लिखे कागजों पर जबरन हरिहर काका के अँगूठे के निशान ले रहे थे। हरिहर काका की नजरों में महंत एक घृणित, दुराचारी और पापी नज़र आने लगा था। अब हरिहर काका को अपने भाइयों के परिवार महंत की तुलना में ज्यादा पवित्र, नेक और अच्छा लगने लगा था। सुबह होने से पहले ही पुलिस की जीप लेकर हरिहर काका के तीनों भाई ठाकुरबारी आ पहुँचे। तत्पश्चात, पुलिस ने एक वृद्ध साधु से सवाल-जवाब किया, हरिहर काका तथा ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और अन्य साधुओं के बारे में पूछा। लेकिन उसने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। तभी अचानक एक कमरे के दरवाजे को भीतर से किसी ने धक्का देना शुरू किया। पुलिस के जवान सावधान हो गए। ताला तोड़कर कमरे का दरवाजा खोला गया। कमरे के अंदर हरिहर काका जिस स्थिति में मिले, उसे देखकर उनके भाइयों का खून खौल उठा। उस वक़्त अगर महंत, पुजारी या अन्य साधु उन्हें नजर आ जाते तो वे जीते-जी उन्हें मार डालते। हरिहर काका के हाथ-पैर और मुँह बाँध दिए गए थे। काका को बंधनमुक्त किया गया।

अब हरिहर काका पुनः अपने भाइयों के परिवार के साथ हवेली के अंदर वाले कमरे में रहने लगे थे। लेकिन उनके परिवार वाले भी महंत से कम नहीं थे, वे भी ज़मीन लिखने के लिए काका पर दबाव डालने लगे थे। जब हरिहर काका ने साफ़ इंकार कर दिया तो वे हाथापाई पर उतर आए। काका ने अपनी रक्षा हेतु ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाई, जिसके बाद टोला-पड़ोस के लोग वहाँ इकट्ठा हो गए। जैसे ही यह बात महंत तक पहुँची, वे फौरन पुलिस की जीप लेकर आ धमके। जब पुलिस के द्वारा तलाशी ली गई, तब हरिहर काका को उससे भी बदतर हालत में बरामद किया गया, जिस हालत में ठाकुरबारी से उन्हें बरामद किया गया था।

अब हरिहर काका की सुरक्षा के लिए पुलिस के चार जवान तैनात कर दिए गए हैं। मौके का फायदा उठाने के लिए उनके पास गाँव के एक नेता आ गए और उन्हें प्रस्ताव दिया कि उनके नाम से उनकी ज़मीन पर ‘हरिहर उच्च विद्यालय’ खोला जाए। लेकिन हरिहर काका के ऊपर तो अब कोई भी दूसरा रंग चढ़ने वाला नहीं था। नेता जी भी निराश होकर लौटे।

हरिहर काका का प्रसंग गाँव में चर्चा का विषय बना हुआ है। इनके मामले में गाँव वाले दो पक्षों में विभाजित हो गए हैं एक महंत के पक्षधर हैं और दूसरे हरिहर के भाइयों के। गाँव में एक तीसरा पक्ष भी है जो प्रगतिशील हैं इसमें लेखक स्वयं शामिल हैं। इनका मानना है कि जमीन किसी के नाम नहीं लिखी जानी चाहिए।

जमीन पर कब्जा करने के लिए महंत ने नागा बाबाओं को बुलाने का प्रबंध कर रखा है तो दूसरी ओर इनके भाइयों ने डाकू बूटन सिंह से पाँच बीघे में सौदा तय कर लिया है।

इधर मौन, नीरव और गूंगेपन का शिकार हो चुके हरिहर काका ने एक नौकर रख लिया है, वही उन्हें बनाता-खिलाता है। पुलिस के जवान काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे हैं…

1.यंत्रणाओं – कष्टों

2.मनःस्थिति -Mental Condition

3.चंद – कुछ

4.आसक्ति – लगाव

5.सयाना – बड़ा/ चालाक

6.प्रतीक्षा – इंतज़ार

7.फिलहाल – for the time being

8.मझधार – बीच समंदर में

9.विलीन – लुप्त

10.कतई -बिल्कुल

11.लालसा – इच्छा

12.शिकार – Victim

13.ठाकुरबारी – मंदिर

14.प्रचलित – Famous

15.कलेवर – आकार

16.मनौती – मन्नत

17.मुकदमे – Cases

18.नियुक्ति – Deployment

19.जून – बार/ बेला

20.औलाद – संतान

21.व्यंजन – Dish

22.मशगूल – व्यस्त

23.विस्फोट – Blast

24.हवेली – Building

25.अनाथ – Orphan

26.बेसहारा – जिसका कोई सहारा न हो

27.शकील – अच्छी शक्ल वाला/ कुछ समान

28.हुमाध – हवन सामग्री

29.तत्क्षण – उसी समय

30.दालान – आँगन

31.प्रवृत्ति – Tendency

32.कीर्ति – Glory

33.अकारथ – व्यर्थ

34.विश्वासघात – धोखा

35.इंतज़ाम – प्रबंध

36.दुर्घटना – Accident

37.चिंतामग्न – परेशान

38.शंकालु – शंका करने वाला

39.बेचैन – अशांत

40.मिष्टान्न – मिठाइयाँ

41.संपत्ति – Property

42.खातिर – के लिए/ स्वागत

43.मुस्तैद – सतर्क

44.वाकिफ़ – अवगत/ Known

45.पैनी – तीक्ष्ण/Pointed

46.सिलसिला – क्रम

47.मान्यता – धारणा

48.जायदाद – संपत्ति

49.प्रगतिशील – Progressive

50.हिमायती – के समर्थक

51.मद्देनज़र – ध्यान में रखते हुए

52.निष्कर्ष – उपसंहार/ Conclusion

53.सिवाय – के अलावा

54.उत्तराधिकारी – वारिस

55.टोह – घात

56.जागरूक – Aware

57.अपहरण – अगवा/Kidnep

58.अतिरिक्त – के अलावा

59.राजी – सहमत

60.दबंग – दिलेर

61.परिणत – बदलना

62.अप्रत्याशित – जिसकी आशा न की गई हो

63.गुहार – फरियाद

64.फाटक – Gate

65.सन्नाटा – सूनापन

66.जबरन – जबरदस्ती

67.संकट – मुसीबत

68.नेतृत्व – Leadership

69.तलाशी – Search

70.कुंजी – चाबी

71.अनाज – Grain

72.सूरमा – पहलवान

73.ढोंग – पाखंड

74.निजी – Private

75.प्रहार – आक्रमण

76.जूझ – Cope-up

77.असमर्थ – Incapable/ अयोग्य

78.पक्षधरों – Supporters

79.अत्याचार – जुल्म/Atrocity

80.दुर्गति – बुरा हाल

81.बेहोश – मूर्छित

82.नेपथ्य – पीछे से

83.पैरवी – तारीफ

84.राजनीति – politics

85.आतंक – Terror

1. कथावाचक और हरिहर काका के बीच क्या संबंध है और इसके क्या कारण हैं?

उत्तर – कथावाचक हरिहर काका के साथ बहुत गहरे रूप से जुड़े हुए हैं । हरिहर काका के प्रति उनकी आसक्ति के दो प्रमुख कारण हैं-

क. हरिहर काका उनके पड़ोस में रहते हैं।

ख. हरिहर काका बचपन में उन्हें बहुत दुलार करते थे, कंधे पर उठाकर घुमाया करते थे। हरिहर काका ने उन्हें पिता से भी बढ़कर प्यार दिया था।

2. हरिहर काका को मंहत और अपने भाई एक ही श्रेणी के क्यों लगने लगे?

उत्तर – हरिहर काका को मंहत और अपने भाई एक ही श्रेणी के लगने लगे क्योंकि दोनों उनके खेतों को हड़पना चाहते थे। महंत ने उनकी ज़मीन ठाकुरबारी के नाम करवाने के लिए उनके साथ दुर्व्यवहार किया तो दूसरी तरफ़ उनके अपने भाइयों ने उनके साथ दुश्मनों से भी बुरा व्यवहार किया।

3. ठाकुरबारी के प्रति गाँव वालों के मन में अपार श्रद्धा के जो भाव हैं उससे उनकी किस मनोवृत्ति का पता चलता है?

उत्तर – ठाकुरबारी गाँव का एक प्रमुख स्थान है। ठाकुरबारी के प्रति गाँव वालों के मन में अपार श्रद्धा के जो भाव हैं उससे उनकी धार्मिक मनोवृत्ति का पता चलता है। वे ठाकुरबारी को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं।

4. अनपढ़ होते हुए भी हरिहर काका दुनिया की बेहतर समझ रखते हैं? कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – अनपढ़ होते हुए भी हरिहर काका दुनिया की बेहतर समझ रखते हैं। यद्यपि उन्होंने दो विवाह किए था परंतु संतान सुख किसी से नहीं मिल पाया। वे अपने भाइयों के साथ रहने लगे थे। उनके नाम पर 15 बीघे ज़मीन थी जिस पर महंत और उनके भाइयों की कुदृष्टि थी यह उन्हें भली-भाँति पता था। इसलिए उन्होंने जीते जी किसी को ज़मीन न लिखने का निश्चय किया था। उन्हें पता था कि जब तक ज़मीन उनके पास है तब तक उनका मान-सम्मान बना हुआ रहेगा पर जैसे ही ज़मीन उनके हाथ से निकल गई तो कोई उन्हें पूछेगा तक नहीं।

5. हरिहर काका को जबरन उठा ले जाने वाले कौन थे? उन्होंने उनके साथ कैसा बर्ताव किया?

उत्तर – हरिहर काका को जबरन उठा ले जाने वाले महंत द्वारा भेजे गए ठाकुरबारी के साधु-संत थे। वे भाला, गंडासा तथा बंदूक से लैस होकर आए थे। वे हरिहर काका के दालान पर आ धमके और उन्हें अपनी पीठ पर लाद कर चंपत हो गए। उन्होंने उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव किया। जबरन उनके अँगूठे के निशान सादे तथा कुछ लिखे कागज़ों पर ले लिए। इसके बाद हरिहर काका के हाथ पैर बाँध दिए और उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया ताकि वे चिल्ला न सकें।

6. हरिहर काका के मामले में गाँव वालों की क्या राय थी और उसके क्या कारण थे?

उत्तर – हरिहर काका के मामले में गाँव वाले दो वर्गों में बँट गए थे। एक वर्ग महंत के कृत्य की कटु आलोचना करता हैं। वे मानते हैं कि अब साधुओं और डाकुओं में कोई अंतर नहीं रह गया है। ठाकुरबारी की पवित्रता नष्ट हो गई है तो दूसरा वर्ग यह कहकर महंत के कृत्य को सही ठहराने की कोशिश करता कि धर्म, परमार्थ और विकास के कामों में कभी-कभी चोर-डाकू का भी रूप धारण करना पड़ता है। एक वर्ग के लोग यह चाहते हैं कि हरिहर काका को अपनी ज़मीन ठाकुरबारी के नाम कर देनी चाहिए क्योंकि यह धर्म का काम है। इसके बाद यह ठाकुरबारी राज्य की सबसे बड़ी ठाकुरबारी हो जाएगी। दूसरे वर्ग के लोग हरिहर काका के भाइयों के पक्ष में अपनी राय देते हैं और कहते हैं कि उन्हें अपनी ज़मीन अपने भाइयों के नाम कर देनी चाहिए। अपना परिवार अपना ही होता है। हालाँकि गाँव में कुछ प्रगतिशील विचारों वाले लोग भी हैं तथा वैसे किसान हैं जो अपना मत हरिहर काका के पक्ष में रखते हैं। उनका मानना है कि जीते-जी अपनी जायदाद का मालिक किसी और को बनाना सही नहीं है।

7. कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि लेखक ने यह क्यों कहा, “अज्ञान की स्थिति में ही मनुष्य मृत्यु से डरते हैं। ज्ञान होने के बाद तो आदमी आवश्यकता पड़ने पर मृत्यु को वरण करने के लिए तैयार हो जाता है।”

उत्तर – जब तक व्यक्ति अज्ञान की स्थिति में रहता है तब तक उसे मृत्यु से डर लगता है। धर्म के ठेकेदार भी उनको मृत्यु का भय दिखाकर उनका शोषण करते हैं। परंतु जब मनुष्य को ज्ञान हो जाता है तो वह मृत्यु का वरण करने के लिए भी तैयार हो जाता है। वास्तव में डर मौत का नहीं जीवन का होता है। मौत तो आनी ही है यह जीवन का सबसे बड़ा सत्य है। यह कथन लेखक ने हरिहर काका के लिए कहा है। पहले वे मौत के डर से डर जाते थे। परंतु अब उन्होंने सोच लिया है कि ये सब उसे एक ही बार मार दे तो ठीक रहेगा। वे अपनी ज़मीन दूसरों के नाम लिख कर घुट-घुट कर नहीं मरना चाहते। उन्हें रमेसर की विधवा की दशा से पूरी सच्चाई का भान हो गया था।

8. समाज में रिश्तों की क्या अहमियत है? इस विषय पर अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर – समाज में रिश्तों की बहुत अहमियत है, पर यह सब समझने वालों के लिए हैं। आज के भौतिकवादी संसार में रिश्ते-नाते स्वार्थ की बलिवेदी में भष्म हो चुके हैं। ऐसा लगता है कि रिश्तों में आर्थिक दृष्टिकोण का समावेश हो गया है। आज के दौर में केवल उस व्यक्ति का आदर सम्मान होता है जिसके पास पर्याप्त चल-अचल संपत्ति होती है। धन-संपत्ति के आगे रिश्ते-नाते ठहर नहीं पाते। परंतु समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आज भी रिश्ते-नाते को धन-संपत्ति से बढ़कर मानते हैं।

9. यदि आपके आसपास हरिहर काका जैसी हालत में कोई हो तो आप उसकी किस प्रकार मदद करेंगे?

उत्तर – यदि मेरे आस-पास हरिहर काका जैसी हालत में कोई होता तो निश्चित रूप से मैं उसकी भरपूर मदद करता। पहले तो मैं उनके साथ हो रहे अत्याचारों की शिकायत पुलिस थाने में करता। महंत और उनके भाइयों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की माँग करता। अगर ऐसा करने से स्थिति सामान्य हो जाती तो ठीक वरना उन्हें यह सुझाव देता कि अपनी ज़मीन बेचकर किसी और शहर में रहना शुरू करें तथा पुनर्विवाह करके अपने ज़िंदगी को नए तरीके से जीना शुरू करें।

10. हरिहर काका के गाँव में यदि मीडिया की पहुँच होती तो उनकी क्या स्थिति होती? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – हरिहर काका के गाँव में यदि मीडिया की पहुँच होती तो उन्हें इतनी यंत्रणाएँ नहीं भोगनी पड़ती। उनके साथ हुई घटना राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर तक आम हो जाती जिससे पुलिस और प्रशासन पर दबाव पड़ता और वे हरिहर काका के पक्ष में उचित कार्रवाई करते। ऐसा भो हो सकता था कि बहुत सारे गैर सरकारी संस्थाएं (NGOs) उनकी मदद के लिए आ पहुँचती।

1. मुँह खोलना – रहस्य बताना

2. कान खड़े होना – सतर्क होना

3. सिर आँखों पर उठाना – मान देना

4. हाथ से निकल जाना – अवसर खोना

5. कुत्ते का जीवन होना – व्यर्थ होना

6. जी-जान से जुट जाना – मन लगाकर काम करना

7. आसमान से ज़मीन पर आ जाना- नुकसान होना 

8. दूध की मक्खी होना – अहमियत न होना

9. रंग चढ़ना – प्रभाव पड़ना

10. नाम की तूती बोलना – प्रभुत्व होना

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