Class – X, Sparsh, Chapter -10, Premchand – Bade Bhai Sahab, प्रेमचंद – बड़े भाई साहब

(1880 – 1936)

 31 जुलाई 1880 को बनारस के करीब लमही गाँव में जन्मे धनपत राय ने उर्दू में नवाब राय और हिंदी में प्रेमचंद नाम से लेखन कार्य किया। निजी व्यवहार और पत्राचार धनपत राय नाम से ही करते रहे। उर्दू में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह ‘सोज़ेवतन’ अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर लिया। आजीविका के लिए स्कूल मास्टरी, इंस्पेक्टरी, मैनेजरी करने के अलावा इन्होंने ‘हंस’, ‘माधुरी’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं का संपादन भी किया। कुछ समय बंबई (मुंबई) की फ़िल्म नगरी में भी बिताया लेकिन वह उन्हें रास नहीं आई। यद्यपि उनकी कई कृतियों पर यादगार फ़िल्में बनीं।

आम आदमी के दुख-दर्द के बेजोड़ चितेरे प्रेमचंद को उनके जीवन काल में ही कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट कहा जाने लगा था। उन्होंने हिंदी कथा लेखन की परिपाटी पूरी तरह बदल डाली थी। अपनी रचनाओं में उन्होंने उन लोगों को प्रमुख पात्र बनाकर साहित्य में जगह दी जिन्हें जीवन और जगत में केवल प्रताड़ना और लांछन ही मिले थे।

8 अक्तूबर 1936 में उनका देहावसान हुआ। प्रेमचंद ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सब मानसरोवर शीर्षक से आठ खंडों में संकलित हैं। उनके प्रमुख उपन्यास हैं – गोदान, गबन, प्रेमाश्रम, सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, रंगभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा और मंगलसूत्र (अपूर्ण)।

अभी तुम छोटे हो इसलिए इस काम में हाथ मत डालो। यह सुनते ही कई बार बच्चों के मन में आता है काश, हम बड़े होते तो कोई हमें यों न टोकता। लेकिन इस भुलावे में न रहिएगा, क्योंकि बड़े होने से कुछ भी करने का अधिकार नहीं मिल जाता। घर के बड़े को कई बार तो उन कामों में शामिल होने से भी अपने को रोकना पड़ता है जो उसी उम्र के और लड़के बेधड़क करते रहते हैं। जानते हो क्यों, क्योंकि वे लड़के अपने घर में किसी से बड़े नहीं होते।

प्रस्तुत पाठ में भी एक बड़े भाई साहब हैं, जो हैं तो छोटे ही, लेकिन घर में उनसे छोटा एक भाई और है। उससे उम्र में केवल कुछ साल बड़ा होने के कारण उनसे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ की जाती हैं। बड़ा होने के नाते वह खुद भी यही चाहते और कोशिश करते हैं कि वह जो कुछ भी करें वह छोटे भाई के लिए एक मिसाल का काम करे। इस आदर्श स्थिति को बनाए रखने के फेर में बड़े भाई साहब का बचपना तिरोहित हो जाता है।

– शिक्षा व्यवस्था में निहित खामियाँ।

– भाई के प्रति स्नेह एवं उसकी चिंता।

– प्रेमचंद के व्यक्तित्व के विविध पहलू।

– भाषा तथा मुहावरों का विविध प्रयोग।

– अन्य जानकारियाँ।

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था, जब मैंने शुरू किया लेकिन तालीम जैसे महत्त्व के मामले में वह जल्दबाज़ी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भवन की बुनियाद खूब मज़बूत डालना चाहते थे, जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने।

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का पूरा और जन्मसिद्ध अधिकार था और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ।    

वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कॉपी पर, किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तसवीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों में नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य। मसलन एक बार उनकी कॉपी पर मैंने यह इबारत देखी – स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दरअसल, भाई-भाई। राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक – इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने बहुत चेष्टा की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ, लेकिन असफल रहा। और उनसे पूछने का साहस न हुआ। वह नौवीं जमात में थे, मैं पाँचवीं में। उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात थी। 

मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते  ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी कागज़ की तितलियाँ उड़ाता और कहीं कोई साथी मिल गया, तो पूछना ही क्या। कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं। कभी फाटक पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं, लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का वह रुद्र-रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल यह होता – ‘कहाँ थे’? हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में हमेशा पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मेरे मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि ज़रा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए उसके सिवा और कोई इलाज न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।

“इस तरह अंग्रेज़ी पढ़ोगे, तो ज़िंदगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ आएगा। अंग्रेज़ी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे, पढ़ ले, नहीं ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्वान हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती हैं और खून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विद्या आती है। और आती क्या है, हाँ कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्वान भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मिहनत करता हूँ, यह तुम अपनी आँखों से देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हारी आँखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है? रोज़ ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ। उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ, फिर भी तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक्त गँवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो ही तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे? अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मज़े से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो?”

मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत टूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा में ज़रा देर के लिए मैं सोचने लगता – ‘क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी ज़िंदगी खराब करूँ।’ मुझे अपना मूर्ख रहना मंज़ूर था, लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था, लेकिन घंटे-दो घंटे के बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढ़न्न°गा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाए कोई स्कीम तैयार किए काम कैसे शुरू करूँ। टाइम-टेबिल में खेलकूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रातःकाल छः बजे उठना, मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर, पढ़ने बैठ जाना। छः से आठ तक अंग्रेज़ी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापिस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छः तक ग्रामर, आधा घंटा होस्टल के सामने ही टहलना, साढ़े छः से सात तक अंग्रेज़ी कंपोज़ीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिंदी, दस से ग्यारह तक विविध-विषय, फिर विश्राम।   

मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के हलके-हलके झोंके, फुटबाल की वह उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, वॉलीबाल की वह तेज़ी और फुरती, मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जानलेवा टाइम-टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें, किसी की याद न रहती और भाई साहब को नसीहत और फ़जीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने की चेष्टा करता, कमरे में इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें खबर न हो। उनकी नज़र मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता था।

(2)

सालाना इम्तिहान हुआ। भाई साहब फ़ेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच में केवल दो साल का अंतर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथों लूँ – ‘आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गई? मुझे देखिए, मज़े से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ।’ लेकिन वह इतने दुखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्मसम्मान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रौब मुझ पर न रहा। आज़ादी से खेलकूद में शरीक होने लगा। दिल मज़बूत था। अगर उन्होंने फिर मेरी फ़जीहत की, तो साफ़ कह दूँगा – ‘आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दरजे में अव्वल आ गया।’ ज़बान से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ़ ज़ाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक मुझ पर नहीं था। भाई साहब ने इसे भाँप लिया – उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डंडे की भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साहब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े – देखता हूँ, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्वल आ गए, तो तुम्हें दिमाग हो गया है, मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है? इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यों ही पढ़ गए? महज़ इम्तिहान पास कर लेना कोई चीज़ नहीं, असल चीज़ है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वामी था। ऐसे राजाओं को चक्रवर्ती कहते हैं। आजकल अंग्रेज़ों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कह सकते। संसार में अनेक राष्ट्र अंग्रेज़ों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते, बिलकुल स्वाधीन हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था, संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बड़े-बड़े देवता उसकी गुलामी करते थे। आग और पानी के देवता भी उसके दास थे, मगर उसका अंत क्या हुआ? घमंड ने उसका नाम-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा। आदमी और जो कुकर्म चाहे करे, पर अभिमान न करे, इतराये नहीं। अभिमान किया और दीन-दुनिया दोनों से गया।

शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अभिमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई है ही नहीं। अंत में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था। भीख माँग-माँगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से तुम्हारा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे पढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं लग सकती। कभी-कभी गुल्ली-डंडे में भी अंधा-चोट निशाना पड़ जाता है। इससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशाना खाली न जाए।    

मेरे फ़ेल होने पर मत जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दातों पसीना आ जाएगा, जब अलजबरा और जामेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी हो गुज़रे हैं। कौन-सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा और सब नंबर गायब। सफ़ाचट। सिफ़र भी न मिलेगा, सिफ़र भी। हो किस खयाल में। दरजनों तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कोड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है। आंधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, सोयम, चहारूम, पंचुम लगाते चले गए। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता।

और जामेट्री तो बस, खुदा ही पनाह। अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गए। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फ़र्क है, और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का खून करते हो। दाल-भात-रोटी खाई या भात-दाल-रोटी खाई, इसमें क्या रखा है, मगर इन परीक्षकों को क्या परवाह। वह तो वही देखते हैं जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है। और आखिर इन बे-सिर-पैर की बातों के पढ़ने से फ़ायदा?

इस रेखा पर वह लंब गिरा दो, तो आधार लंब से दुगुना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगुना नहीं, चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफ़ात याद करनी पड़ेगी।

कह दिया – ‘समय की पाबंदी’ पर एक निबंध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप कॉपी सामने खोले, कलम हाथ में लिए उसके नाम को रोइए। कौन नहीं जानता कि समय की पाबंदी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उस पर स्नेह होने लगता है और उसके कारोबार में उन्नति होती है, लेकिन इस ज़रा-सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्नों में लिखने की ज़रूरत? मैं तो इसे हिमाकत कहता हूँ। यह तो समय की किफ़ायत नहीं, बल्कि उसका दुरुपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात को ठूँस दिया जाए। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नहीं, आपको चार पन्ने रँगने पड़ेंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्ने भी पूरे फुलस्केप आकार के। यह छात्रों पर अत्याचार नहीं, तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबंदी पर संक्षेप में एक निबंध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। ठीक। संक्षेप में तो चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो-सौ पन्ने लिखवाते। तेज़ भी दौड़िए और धीरे-धीरे भी। है उलटी बात, है या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है, लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज़ भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यापक हैं। मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दरजे में अव्वल आ गए हो, तो ज़मीन पर पाँव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फ़ेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे कहीं ज़्यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ उसे गिरह बाँधिए, नहीं पछताइएगा।

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे निःस्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फ़ेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जाएँ। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था, उसने मुझे भयभीत कर दिया। स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है, लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तकों में मेरी अरुचि ज्यों-की-त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज़ टास्क पूरा हो जाए और दरजे में ज़लील न होना पडे़। अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा।

(3)

फिर सालाना इम्तिहान हुआ और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाई साहब फिर फ़ेल हो गए। मैंने बहुत मेहनत नहीं की, पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गए थे, दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उधर, छः से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले। मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फ़ेल हो गए। मुझे उन पर दया आती थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने की खुशी आधी हो गई। मैं भी फ़ेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दुःख न होता, लेकिन विधि की बात कौन टाले!

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अंतर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फ़ेल हो जाएँ, तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ, फिर वह किस आधार पर मेरी फ़जीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं। मुझे इस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर है कि मैं दनादन पास हो जाता हूँ और इतने अच्छे नंबरों से।

अब भाई साहब बहुत कुछ नरम पड़ गए थे। कई बार मुझे डाँटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा, या रहा भी, तो बहुत कम। मेरी स्वच्छंदता भी बढ़ी। मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं पास ही हो जाऊँगा, पढ़ूँ या न पढ़ूँ, मेरी तकदीर बलवान है, इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाज़ी की ही भेंट होता था, फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था और उनकी नज़र बचाकर कनकौए उड़ाता था। मांझा देना, कन्ने बाँधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियाँ आदि समस्याएँ सब गुप्त रूप से हल की जाती थीं। मैं भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज़ मेरी नज़रों में कम हो गया है।

एक दिन संध्या समय, होस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला आ रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों की पूरी सेना लग्गे और झाड़दार बाँस लिए इनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहाँ सब कुछ समतल है, न मोटरकारें हैं, न ट्राम, न गाड़ियाँ।

सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गई, जो शायद बाज़ार से लौट रहे थे। उन्होंने वहीं हाथ पकड़ लिया और उग्र भाव से बोले – इन बाज़ारी लौंडों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गए हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोज़ीशन का खयाल रखना चाहिए।

एक ज़माना था कि लोग आठवाँ दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिडिलचियों को जानता हूँ, जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मैजिस्ट्रेट या सुपरिंटेंडेंट हैं। कितने ही आठवीं जमात वाले हमारे लीडर और समाचारपत्रों के संपादक हैं। बड़े-बड़े विद्वान उनकी मातहती में काम करते हैं और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाज़ारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो। मुझे तुम्हारी इस कम अक्ली पर दुःख होता है। तुम ज़हीन हो, इसमें शक नहीं, लेकिन वह ज़ेहन किस काम का जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले। तुम अपने दिल में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज़ एक दरजा नीचे हूँ और अब उन्हें मुझको कुछ कहने का हक नहीं है, लेकिन यह तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमात में आ जाओ और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्संदेह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओ, लेकिन मुझमें और तुममें जो पाँच साल का अंतर है, उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूँगा। मुझे दुनिया का और ज़िंदगी का जो तजुरबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम – ए – और डीफिल् और डी – लिट् ही क्यों न हो जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती, दुनिया देखने से आती है। हमारी अम्माँ ने कोई दरजा नहीं पास किया और दादा भी शायद पाँचवीं-छठी जमात के आगे नहीं गए, लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ लें, अम्माँ और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज़्यादा तजुरबा है और रहेगा। अमेरिका में किस तरह की राज-व्यवस्था है, और आठवें हेनरी ने कितने ब्याह किए और आकाश में कितने नक्षत्र हैं, यह बातें चाहे उन्हें न मालूम हों, लेकिन हज़ारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तुमसे ज़्यादा है।

दैव न करे, आज मैं बीमार हो जाऊँ, तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जाएँगे। दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेगा, लेकिन तुम्हारी जगह दादा हों, तो किसी को तार न दें, न घबराएँ, न बदहवास हों। पहले खुद मरज़ पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डॉक्टर को बुलाएँगे। बीमारी तो खैर बड़ी चीज़ है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने-भर का खर्च महीना-भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस तक खर्च कर डालते हैं और फिर पैसे-पैसे को मुहताज हो जाते हैं। नाश्ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं, लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज़्ज़त और नेकनामी के साथ निभाया है और कुटुम्ब का पालन किया है जिसमें सब मिलकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम – ए – हैं कि नहीं और यहाँ के एम – ए – नहीं, आक्सफोर्ड के। एक हज़ार रुपये पाते हैं लेकिन उनके घर का इंतज़ाम कौन करता है? उनकी बूढ़ी माँ। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ बेकार हो गई। पहले खुद घर का इंतज़ाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। कर्ज़दार रहते थे। जब से उनकी माता जी ने प्रबंध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाईजान, यह गरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गए हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह न चलने पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी बातें ज़हर लग रही हैं। – – – मैं उनकी इस नयी युक्ति से नत-मस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा – हरगिज़ नहीं। आप जो कुछ फ़रमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको उसके कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले से लगा लिया और बोले – मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा भी जी ललचाता है लेकिन करूँ क्या, खुद बेराह चलूँ , तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर है। संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुज़रा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही। उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ़ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

1. पत्राचार – पत्र-व्यवहार

2. जब्त – Seize

3. रास – पसंद

4. चितेरे – सुंदर

5. प्रताड़ना – कष्ट

6. लांछन – आरोप

7. देहावसान – मृत्यु

8. काश – Wish

9. बेधड़क – बिना डरे

10. मिसाल – उदाहरण

11. तिरोहित – ढका हुआ

12. तालीम – शिक्षा

13. पुख्ता – मज़बूत

14. तम्बीह – डाँट-डपट

15. सामंजस्य – तालमेल

16. मसलन – उदाहरणतः

17. इबारत – लेख

18. चेष्टा – कोशिश

19. जमात – कक्षा

20. हर्फ- अक्षर

21. मिहनत (मेहनत) – परिश्रम

22. लताड़ – डाँट-डपट

23. सूक्ति-बाण – व्यंग्यात्मक कथन / तीखी बातें

24. स्कीम – योजना

25. अमल करना – पालन करना

26. अवहेलना – तिरस्कार

27. नसीहत – सलाह

28. फ़जीहत – अपमान

29. तिरस्कार – उपेक्षा

30. सालाना इम्तिहान – वार्षिक परीक्षा

31. लज्जास्पद – शर्मनाक

32. शरीक – शामिल

33. आतंक – भय          

34. अव्वल – प्रथम

35. जलील – अपमान

36. कांतिहीन – चेहरे पर चमक न होना

37. सहिष्णुता – सहनशीलता

38. अदब – इज्जत

39. ज़हीन – बुद्धिमान

40. बदहवास – बेहाल

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए-

1. कथा नायक की रुचि किन कार्यों में थी?

उत्तर – कथा नायक की रुचि मैदान में दौड़ने, कंकरियाँ उछालने, पतंग उड़ाने और दीवारों पर चढ़ कर कूदने में थी।

2. बड़े भाई साहब छोटे भाई से हर समय पहला सवाल क्या पूछते थे?

उत्तर – बड़े भाई साहब छोटे भाई से हर समय पहला सवाल यह पूछते थे, “कहाँ थे?”

3. दूसरी बार पास होने पर छोटे भाई के व्यवहार में क्या परिवर्तन आया?

उत्तर – दूसरी बार पास होने पर छोटा भाई और अधिक आज़ाद हो गया और खूब पतंगें उड़ाने लगा।

4. बड़े भाई साहब छोटे भाई से उम्र में कितने बड़े थे और वे कौन-सी कक्षा में पढ़ते थे?

उत्तर – बड़े भाई साहब छोटे भाई से उम्र में पाँच साल बड़े थे और वे नवीं कक्षा में पढ़ते थे।

5. बड़े भाई साहब दिमाग को आराम देने के लिए क्या करते थे?

उत्तर – बड़े भाई साहब दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापियों पर और किताबों के हाशिए पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे।

1. छोटे भाई ने अपनी पढ़ाई का टाइम-टेबिल बनाते समय क्या-क्या सोचा और फिर उसका पालन क्यों नहीं कर पाया?

उत्तर – छोटे भाई ने प्रातः 6 से 9 बजे तक तीन विषय पढ़ने का निश्चय किया था। स्कूल से लौटकर आधा घंटा विश्राम के उपरांत रात ग्यारह बजे तक अन्य विषय पढ़ने का टाइम-टेबल बनाया था। इसमें केवल उसने घूमने के लिए आधे घंटे का समय निर्धारित किया था। परंतु मैदान की हरियाली, हवा के झोंके, खेल की उछल-कूद का मोह ने उसे टाइम-टेबल का पालन करने नहीं दिया।   

2. एक दिन जब गुल्ली-डंडा खेलने के बाद छोटा भाई बड़े भाई साहब के सामने पहुँचा तो उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई?

उत्तर – कई दिनों तक डाँट न पड़ने के कारण छोटा भाई स्वच्छंदहोकर गिल्ली-डंडा खेलने लगा तो बड़े भाई ने क्रोधित होकर उसे लताड़ते हुए कहा कि अव्वल आने पर तुम्हें घमंड हो गया है लेकिन घमंड तो रावण का भी नहीं रहा। अभिमान का अंत विनाश ही होता है।

3. बड़े भाई साहब को अपने मन की इच्छाएँ क्यों दबानी पड़ती थीं?

उत्तर – बड़े भाई साहब भले ही बड़े हो मगर उनमें भी लड़कपन था। वे भी खेलना-कूदना और पतंग उड़ाना चाहते थे। लेकिन आदर्श बड़ा भाई बनने की आशा में वे खेल नहीं पाते थे। उनका मानना था कि यदि वे ही सही रास्ते पर नहीं चलेंगे तो छोटे को ठीक कैसे रख पाएँगे?

4. बड़े भाई साहब छोटे भाई को क्या सलाह देते थे और क्यों?

उत्तर – बड़े भाई साहब छोटे भाई को सदा परिश्रम करने की सलाह देते थे। वे कहते थे कि यूँ गिल्ली-डंडा, फुटबॉल, पतंग उड़ाना तथा भाग-दौड़ करके समय बर्बाद करना ठीक नहीं है। ऐसे तुम कभी भी परीक्षा में पास नहीं हो पाओगे। इस तरह दादा की मेहनत की कमाई गँवाना अनुचित है। बड़े भाई साहब छोटे भाई को हमेशा सही रास्ता दिखाते थे क्योंकि वे अपने छोटे भाई की सफलता देखना चाहते थे।

5. छोटे भाई ने बड़े भाई साहब के नरम व्यवहार का क्या फ़ायदा उठाया?

उत्तर – छोटे भाई ने बड़े भाई साहब के नरम व्यवहार का भरपूर फ़ायदा उठाया। उसने पढ़ना-लिखना बिलकुल छोड़ दिया और खेलने-कूदने की साथ साथ पतंगें भी उड़ाने लगा।

1. बड़े भाई की डाँट-फटकार अगर न मिलती, तो क्या छोटा भाई कक्षा में अव्वल आता? अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर – लेखक के बड़े भाई यदि समय – समय पर उन्हें न टोकते तो हो सकता था कि लेखक अपनी कक्षा में अव्वल न आते। लेखक को पढ़ने-लिखने का शौक तो था ही नहीं वे तो केवल खेल-कूद में ही मस्त रहा करते थे परंतु बड़े भाई साहब के डर से उन्हें पढ़ना पड़ता था। वास्तव में लेखक ज़हीन थे, थोड़ी-सी परिश्रम से ही वे अपनी कक्षा में अव्वल आ जाते थे। लेकिन सफलता का श्रेय निश्चित रूप से बड़े भाई साहब को जाता है क्योंकि वे लेखक पर अंकुश रखते थे। इस बात को स्वयं लेखक ने भी स्वीकार किया है।

2. इस पाठ में लेखक ने समूची शिक्षा के किन तौर-तरीकों पर व्यंग्य किया है? क्या आप उनके विचार से सहमत हैं?

उत्तर – पाठ में लेखक के बड़े भाई साहब ने इतिहास की घटनाओं, जामेट्री के नियमों व विधियों तथा ज़रा-सी बात पर कई-कई पृष्ठ वाले निबंध लिखना, बालकों में रटंत शक्ति बढ़ाने पर ज़ोर देना इत्यादि मामलों पर व्यंग्य किया है। यहाँ यह भी कहा गया है कि शिक्षा में ज्ञानवृद्धि पर बल नहीं दिया जाता अपितु आँकड़ों तथा विवरणों का प्रस्तुतीकरण मुख्य है। इस पाठ में परीक्षा प्रणाली पर भी प्रश्न चिह्न लगाया गया है।

3. बड़े भाई साहब के अनुसार जीवन की समझ कैसे आती है?

उत्तर – बड़े भाई साहब का मानना है कि जीवन की समझ केवल पुस्तकें पढ़ने से नहीं आती। यह समझ तो जगत में जीवन जीने से आती है। उनका यह मानना था कि अम्मा और दादा भले ही उन जितनी किताबें न पढ़ें हों लेकिन अपने अनुभव के आधार पर उन्हें दुनियादारी की असंख्य बातें पता थीं। ऐसी हजारों बातें प्रतिदिन के जीवन में आतीं हैं जिनका समाधान अनुभव और समझ से होता है। बड़े भाई साहब उम्र और अनुभव को बहुत महत्त्व देते थे।

4. छोटे भाई के मन में बड़े भाई साहब के प्रति श्रद्धा क्यों उत्पन्न हुई?

उत्तर – बड़े भाई साहब ने छोटे भाई को बताया कि भले ही वह पढ़ाई में उनके करीब आ गया हो किंतु जीवन का अनुभव उसे कम ही है क्योंकि वह छोटा है, यदि आज कोई विपत्ति आए तो वह घबरा जाएगा लेकिन यदि दादा हों तो वे किसी भी स्थिति को बड़ी होशियारी से संभालेंगे। दादा अपनी थोड़ी-सी कमाई में कितनी समझदारी से घर चलाते हैं, जबकि दादा हमें जो भेजते हैं, वे खर्च हो जाते हैं और फिर धोबी और नाई से मुँह चुराते हैं। ऑक्सफोर्ड से पढ़े हेडमास्टर साहब का घर उनकी माँ चलाती हैं। बड़े भाई साहब ने छोटे को कहा कि वह उसे कभी भी गलत राह पर नहीं चलने देगा। बड़े भाई साहब की ये बातें सुनकर लेखक के मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा हुई।  

5. बड़े भाई की स्वभावगत विशेषताएँ बताइए?

उत्तर – बड़े भाई की स्वभावगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

क. बड़े भाई साहब अत्यंत परिश्रमी हैं।

ख. बड़े भाई साहब अत्यंत संयमी और कर्तव्यपरायण व्यक्ति थे।

ग. बड़े भाई साहब बड़ों का आदर करते थे।

घ. बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई को सदा सही रास्ते पर चलने की सलाह देते थे।

ङ. बड़े भाई साहब की चिंतन शक्ति उच्च कोटि की थी।

6. बड़े भाई साहब ने ज़िंदगी के अनुभव और किताबी ज्ञान में से किसे और क्यों महत्त्वपूर्ण कहा है?

उत्तर – बड़े भाई साहब ज़िंदगी के अनुभव को किताबी ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है। उनका मानना था कि किसी के पास किताबी ज्ञान कितना ही हो लेकिन उम्र के साथ जो अनुभव आता है वही जीवन में सही-गलत का फ़ैसला लेने में अधिक मदद करता है। उनका मानना था की बुजुर्गों ने चाहे डिग्री प्राप्त न की हो लेकिन अपने अनुभव के आधार पर उन्हें जीवन के उचित और अनुचित का सही ज्ञान होता है। स्कूल के हेडमास्टर ने ऑक्सफोर्ड से एम. ए. किया था परंतु घर चलाने में फ़ेल हो गए। उनका घर उनकी बूढ़ी माँ सफलता और कुशलता से चलाती हैं जो अनुभव का परिचायक है।

7. बताइए पाठ के किन अंशों से पता चलता है कि –

(क) छोटा भाई अपने भाई साहब का आदर करता है।

उत्तर – जब बड़ा भाई दो बार फ़ेल हो जाता है तथा छोटा भाई कक्षा में अव्वल आकर पतंगबाज़ी में अपना समय बिताने लगता है तो उसका बड़ा भाई समझाता है कि भले ही वह फ़ेल फो गया है किंतु वह बड़ा है और उसे यूँ गलत रास्ते पर न जाने देगा। बड़े भाई की बातें सुनकर छोटे भाई की आँखें भर आईं। बड़े भाई साहब ने छोटे भाई से कहा कि इस वक्त तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही होंगी, छोटा बोला – हरगिज नहीं।

(ख) भाई साहब को ज़िंदगी का अच्छा अनुभव है।

उत्तर – भाई साहब को ज़िंदगी का अच्छा अनुभव है। वे जानते हैं कि दादा अपनी मेहनत की कमाई किस प्रकार हमारी पढ़ाई पर खर्च कर रहे हैं। परिवार का भी पालन सही तरीके से कर रहे हैं। वह यह भी जानते हैं कि यदि वे अपने आचरण और व्यवहार पर काबू नहीं रखेंगे तो छोटे भाई को कैसे संभाल पाएँगे।

(ग) भाई साहब के भीतर भी एक बच्चा है।

उत्तर – बड़े भाई साहब जब छोटे भाई को समझा रहे थे तभी संयोग से एक कटी हुई पतंग उन दोनों के करीब से आई। उस पतंग की डोर लटक रही थी। बड़े भाई साहब लंबे थे उन्होंने लपक कर डोर खींच ली और पतंग लेकर हॉस्टल की तरफ भागे। यह हरकत बताती है कि बड़े भाई साहब को भी दूसरे लड़कों की तरह पतंग उड़ाने और लूटने का मन होता था।

(घ) भाई साहब छोटे भाई का भला चाहते हैं।

उत्तर – जब भी लेखक खेलकूद में अधिक समय लगाते थे तथा पढ़ाई पर ध्यान न देते थे तो बड़े भाई साहब उन्हें डाँटते थे। बड़े भाई साहब उन्हें हर समय दुनिया में क्या ठीक है क्या गलत है, समझाते रहते थे। वह चाहते थे कि उनका छोटा भाई सदा सही रास्ते में आगे बढ़े।

1. इम्तिहान पास कर लेना कोई चीज़ नहीं, असल चीज़ है बुद्धि का विकास।

उत्तर – इस कथन द्वारा बड़े भाई साहब यह बताना चाहते थे कि किताबें पढ़कर कोई भी परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है। यह मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग है, पर जीवन में पुस्तकीय ज्ञान से अधिक विवेक और अनुभव की अवश्यकता पड़ती है। उनके मतानुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य बुद्धि का विकास होना चाहिए।

2. फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता था।

उत्तर – जीवन में भले ही कितनी मुसीबतें क्यों न आ जाए, पर मनुष्य कभी भी मोह-माया से अलग नहीं रह सकता। उसी प्रकार लेखक बड़े भाई साहब से खूब डाँट खाने के बाद भी अपने टाइम-टेबल का अनुसरण एक दिन भी नहीं किया।

3. बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने?

उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि महल बनाने के लिए जिस तरह मज़बूत नींव की आवश्यकता होती है उसी तरह बड़े भाई साहब अपनी शिक्षा की बुनियाद पक्की करना चाहते थे। वे एक साल की पढ़ाई में दो-दो , तीन-तीन साल लगा देते थे।

4. आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला आ रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्कार ग्रहण करने जा रही हो।

उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि आकाश में उड़कर नीचे आते पतंग को आकाश का राहगीर बताया गया है। वह धीमी गति से नीचे आ रही थी, जैसे कोई आत्मा विरक्त होकर नीचे नया शरीर धारण करने आ रही हो। नीचे आती पतंग पर नज़र टिकाए लेखक उसी पतंग की दिशा की तरफ़ भागे जा रहे थे। उन्हें इधर-उधर से आने वाली किसी भी चीज़ की कोई खबर न थी।

1. निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए –

नसीहत – मशवरा, सलाह, सीख

रोष – गुस्सा, क्रोध, आक्रोश

आजादी – स्वाधीनता, स्वतंत्रता, मुक्ति

राजा – महीप, भूपति, नृप

ताजुब्ब – आश्चर्य, अचंभा, अचरज

2. प्रेमचंद की भाषा बहुत पैनी और मुहावरेदार है। इसीलिए इनकी कहानियाँ रोचक और प्रभावपूर्ण होती हैं। इस कहानी में आप देखेंगे कि हर अनुच्छेद में दो-तीन मुहावरों का प्रयोग किया गया है। उदाहरणतः इन

वाक्यों को देखिए और ध्यान से पढ़िए –

॰ मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था।

॰ भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत टूट जाती।

॰ वह जानलेवा टाइम-टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें, किसी की याद न रहती और भाई साहब को नसीहत और फ़जीहत का अवसर मिल जाता।

निम्नलिखित मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए –

सिर पर नंगी तलवार लटकना – उधार लेने पर वालों के सिर पर महाजनों की नंगी तलवार लटकती रहती है।

आड़े हाथों लेना – बड़े भाई साहब छोटे भाई की बदमशियों के कारण उसे आड़े हाथों लेते थे।

अंधे के हाथ बटेर लगना – कम मेधावी होने पर भी राकेश की अच्छी नौकरी लगना अंधे के हाथ बटेर लगने के समान ही है।

लोहे के चने चबाना – मेरे लिए गणित के सवाल हल करना लोहे के चने चबाने के समान है।

दाँतों पसीना आना – रॉकेट साइंस के विषय समझने में दाँतों पसीना आ जाता है।

ऐरा-गैरा नत्थू खैरा – कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू खैरा यूपीएससी की परीक्षा में पास नहीं हो सकता।

3. निम्नलिखित तत्सम, तद्भव, देशी, आगत शब्दों को दिए गए उदाहरणों के आधार पर छाँटकर लिखिए।

तत्सम तद्भव देशज आगत (अंग्रेज़ी एवं उर्दू / अरबी-फ़ारसी)

जन्मसिद्ध, आँख, दाल-भात, पोज़ीशन, फ़जीहत, तालीम, जल्दबाज़ी, पुख्ता, हाशिया, चेष्टा, जमात, हर्फ़, सूक्तिबाण, जानलेवा, आँखफोड़, घुड़कियाँ, आधिपत्य, पन्ना, मेला-तमाशा, मसलन, स्पेशल, स्कीम, फटकार, प्रातःकाल, विद्वान, निपुण, भाई साहब, अवहेलना, टाइम-टेबिल

उत्तर – तत्सम – जन्मसिद्ध, चेष्टा, सूक्तिबाण, आधिपत्य, सूक्तिबाण, आधिपत्य, प्रातःकाल, विद्वान, निपुण, अवहेलना

तद्भव – दाल-भात, आँखफोड़, पन्ना,

देशज – मेला, घुड़कियाँ, मेला-तमाशा, फटकार 

आगत – पोज़ीशन, फ़जीहत, तालीम, जल्दबाज़ी, पुख्ता, हाशिया, जमात, हर्फ़, जानलेवा, मसलन, स्पेशल, स्कीम, टाइम-टेबिल

4. क्रियाएँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं – सकर्मक और अकर्मक।

सकर्मक क्रिया – वाक्य में जिस क्रिया के प्रयोग में कर्म की अपेक्षा रहती है, उसे सकर्मक क्रिया कहते हैंजैसे – शीला ने सेब खाया। मोहन पानी पी रहा है।

अकर्मक क्रिया – वाक्य में जिस क्रिया के प्रयोग में कर्म की अपेक्षा नहीं होती, उसे अकर्मक क्रिया कहते हैं जैसे – शीला हँसती है। बच्चा रो रहा है।

नीचे दिए वाक्यों में कौन-सी क्रिया है – सकर्मक या अकर्मक? लिखिए –

(क) उन्होंने वहीं हाथ पकड़ लिया। सकर्मक

(ख) फिर चोरों-सा जीवन कटने लगा। सकर्मक

(ग) शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। सकर्मक

(घ) मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता। सकर्मक

(ङ) समय की पाबंदी पर एक निबंध लिखो। सकर्मक

(च) मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था। अकर्मक

5. ‘इक’ प्रत्यय लगाकर शब्द बनाइए –

विचार – वैचारिक

इतिहास – ऐतिहासिक

संसार – सांसारिक

दिन – दैनिक

नीति – नैतिक

प्रयोग – प्रायोगिक

अधिकार – आधिकारिक

1. प्रेमचंद की कहानियाँ मानसरोवर के आठ भागों में संकलित हैं। इनमें से कहानियाँ पढ़िए और कक्षा में सुनाइए। कुछ कहानियों का मंचन भी कीजिए।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

2. शिक्षा रटंत विद्या नहीं है – इस विषय पर कक्षा में परिचर्चा आयोजित कीजिए।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

3. क्या पढ़ाई और खेल-कूद साथ-साथ चल सकते हैं – कक्षा में इस पर वाद—विवाद कार्यक्रम आयोजित कीजिए।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

4. क्या परीक्षा पास कर लेना ही योग्यता का आधार है? इस विषय पर कक्षा में चर्चा कीजिए।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

1. कहानी में ज़िंदगी से प्राप्त अनुभवों को किताबी ज्ञान से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बताया गया है। अपने माता—पिता, बड़े भाई—बहिनों या अन्य बुज़ुर्ग / बड़े सदस्यों से उनके जीवन के बारे में बातचीत कीजिए और पता लगाइए कि बेहतर ढंग से ज़िंदगी जीने के लिए क्या काम आया – समझदारी / पुराने अनुभव या किताबी पढ़ाई?

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

2. आपकी छोटी बहन / छोटा भाई छात्रावास में रहती / रहता है। उसकी पढ़ाई—लिखाई के संबंध में उसे एक पत्र लिखिए।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

1. प्राण सूखना – अत्यधिक डर लगना

2. पहाड़ होना – कठिन कार्य

3. हँसी खेल न होना – आसान काम न होना

4. आँखें फोड़ना – कठिन काम करना

5. खून जलाना – अत्यधिक परिश्रम करना

6. घोंघे होना – निरा बुद्धू होना

7. गाढ़ी कमाई – मेहनत से कमाए गए पैसे

8. लगती बातें – दिल दुखाने वाली बातें

9. जिगर के टुकड़े होना – निराश होना

10. जान तोड़ना – परिश्रम करना

11. बूते के बाहर होना – असमर्थ होना

12. प्राण निकालना – डर जाना

13. सिर पर नंगी तलवार लटकना – भय होना

14. सिर फिरना – पागल हो जाना

15. अंधे के हाथ बटेर लगना – अचानक कोई कीमती वस्तु प्राप्त हो जाना

16. दाँतों पसीना आना – कठिन कार्य करते समय हिम्मत छूटना

17. लोहे के चने चबाना- कठिन कार्य

18. दिमाग चक्कर खाना – कुछ समझ में न आना

19. पापड़ बेलना – कठिन परिश्रम

20. आटे-दाल का भाव – सच्चाई का पता चलना

21. ज़मीन पर पाँव न रखना – बहुत खुश होना

22. आड़े हाथों लेना – खूब सुनना

23. तलवार खींचना – नाराज़ होना

24. घाव पर नमक छिड़कना – दुखी करना

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