रवींद्र केलेकर- लेखक परिचय
(1925 – 2010)
7 मार्च 1925 को कोंकण क्षेत्र में जन्मे रवींद्र केलेकर छात्र जीवन से ही गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल हो गए थे। गांधीवादी चिंतक के रूप में विख्यात केलेकर ने अपने लेखन में जन-जीवन के विविध पक्षों, मान्यताओं और व्यक्तिगत विचारों को देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इनकी अनुभवजन्य टिप्पणियों में अपने चिंतन की मौलिकता के साथ ही मानवीय सत्य तक पहुँचने की सहज चेष्टा रहती है।
कोंकणी और मराठी के शीर्षस्थ लेखक और पत्रकार रवींद्र केलेकर की कोंकणी में पच्चीस, मराठी में तीन, हिंदी और गुजराती में भी कुछेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। केलेकर ने काका कालेलकर की अनेक पुस्तकों का संपादन और अनुवाद भी किया है।
गोवा कला अकादमी के साहित्य पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित केलेकर की प्रमुख कृतियाँ हैं – कोंकणी में उजवाढाचे सूर, समिधा, सांगली, ओथांबे मराठी में कोंकणीचें राजकरण, जापान जसा दिसला और हिंदी में पतझर में टूटी पत्तियाँ।
पाठ प्रवेश
ऐसा माना जाता है कि थोड़े में बहुत कुछ कह देना कविता का गुण है। जब कभी यह गुण किसी गद्य रचना में भी दिखाई देता है तब उसे पढ़ने वाले को यह मुहावरा याद नहीं रखना पड़ता कि ‘सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय’। सरल लिखना, थोड़े शब्दों में लिखना ज़्यादा कठिन काम है। फिर भी यह काम होता रहा है। सूक्ति कथाएँ, आगम कथाएँ, जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ उसी लेखन के प्रमाण हैं। यही काम कोंकणी में रवींद्र केलेकर ने किया है।
प्रस्तुत पाठ के प्रसंग पढ़ने वालों से थोड़ा कहा बहुत समझना की माँग करते हैं। ये प्रसंग महज पढ़ने-गुनने की नहीं, एक जागरूक और सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं। पहला प्रसंग गिन्नी का सोना जीवन में अपने लिए सुख-साधन जुटाने वालों से नहीं बल्कि उन लोगों से परिचित कराता है जो इस जगत को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं।
दूसरा प्रसंग झेन की देन बौद्ध दर्शन में वर्णित ध्यान की उस पद्धति की याद दिलाता है जिसके कारण जापान के लोग आज भी अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच कुछ चैन भरे पल पा जाते हैं।
(1) पतझर में टूटी पत्तियाँ
गिन्नी का सोना शुद्ध सोना अलग है और गिन्नी का सोना अलग। गिन्नी के सोने में थोड़ा-सा ताँबा मिलाया हुआ होता है, इसलिए वह ज़्यादा चमकता है और शुद्ध सोने से मज़बूत भी होता है। औरतें अकसर इसी सोने के गहने बनवा लेती हैं।
फिर भी होता तो वह है गिन्नी का ही सोना।
शुद्ध आदर्श भी शुद्ध सोने के जैसे ही होते हैं। चंद लोग उनमें व्यावहारिकता का थोड़ा-सा ताँबा मिला देते हैं और चलाकर दिखाते हैं। तब हम लोग उन्हें ‘प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट’ कहकर उनका बखान करते हैं।
पर बात न भूलें कि बखान आदर्शों का नहीं होता, बल्कि व्यावहारिकता का होता है। और जब व्यावहारिकता का बखान होने लगता है तब ‘प्रैक्टिकल आइडियालिस्टों’ के जीवन से आदर्श धीरे-धीरे पीछे हटने लगते हैं और उनकी व्यावहारिक सूझबूझ ही आगे आने लगती है।
सोना पीछे रहकर ताँबा ही आगे आता है।
चंद लोग कहते हैं, गांधीजी ‘प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट’ थे। व्यावहारिकता को पहचानते थे। उसकी कीमत जानते थे। इसीलिए वे अपने विलक्षण आदर्श चला सके। वरना हवा में ही उड़ते रहते। देश उनके पीछे न जाता।
हाँ, पर गांधीजी कभी आदर्शों को व्यावहारिकता के स्तर पर उतरने नहीं देते थे। बल्कि व्यावहारिकता को आदर्शों के स्तर पर चढ़ाते थे। वे सोने में ताँबा नहीं बल्कि ताँबे में सोना मिलाकर उसकी कीमत बढ़ाते थे।
इसलिए सोना ही हमेशा आगे आता रहता था।
व्यवहारवादी लोग हमेशा सजग रहते हैं। लाभ-हानि का हिसाब लगाकर ही कदम उठाते हैं। वे जीवन में सफल होते हैं, अन्यों से आगे भी जाते हैं पर क्या वे ऊपर चढ़ते हैं। खुद ऊपर चढ़ें और अपने साथ दूसरों को भी ऊपर ले चलें, यही महत्त्व की बात है। यह काम तो हमेशा आदर्शवादी लोगों ने ही किया है। समाज के पास अगर शाश्वत मूल्यों जैसा कुछ है तो वह आदर्शवादी लोगों का ही दिया हुआ है। व्यवहारवादी लोगों ने तो समाज को गिराया ही है।
पाठ का सार – गिन्नी का सोना
गिन्नी का सोना- यह निबंध विचारप्रधान है तथा लोगों को सक्रिय और जागरूक बनाने की प्रेरणा भी देता है। शुद्ध सोने और गिन्नी के सोने को आधार बनाकर लेखक ने अपनी विषयवस्तु का विस्तार किया है। शुद्धता में चमक और मज़बूती कभी-कभी कम लगती है और लोग व्यावहारिकता की ओर अधिक आकर्षित हो जाते हैं क्योंकि उसमें चमक अथवा सौंदर्य अधिक होता है। भले ही गांधी जी आदर्शवादी थे, परंतु वे व्यावहारिकता को आदर्शों की ऊँचाइयों तक ले जाते थे। लोग उन्हें प्रायः प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट’ कहते थे। लेखक के अनुसार समाज का उत्थान प्रायः आदर्शवादी लोग करते हैं क्योंकि व्यवहारवादी लोगों ने तो समाज का पतन ही किया है। उपयोगितावाद की चरम सीमा ही शाश्वत मूल्यों को समाप्त कर देती है और समाज को ले डूबती है।
(2) झेन की देन
जापान में मैंने अपने एक मित्र से पूछा, “यहाँ के लोगों को कौन-सी बीमारियाँ अधिक होती हैं?” “मानसिक”, उन्होंने जवाब दिया, “यहाँ के अस्सी फ़ीसदी लोग मनोरुग्ण हैं।”
“इसकी क्या वजह है?”
कहने लगे, “हमारे जीवन की रफ़् तार बढ़ गई है। यहाँ कोई चलता नहीं, बल्कि दौड़ता है। कोई बोलता नहीं, बकता है। हम जब अकेले पड़ते हैं तब अपने आपसे लगातार बड़बड़ाते रहते हैं। – – – अमेरिका से हम प्रतिस्पर्धा करने लगे। एक महीने में पूरा होने वाला काम एक दिन में ही पूरा करने की कोशिश करने लगे। वैसे भी दिमाग की रफ़् तार हमेशा तेज़ ही रहती है। उसे ‘स्पीड’ का इंजन लगाने पर वह हज़ार गुना अधिक रफ़्तार से दौड़ने लगता है। फिर एक क्षण ऐसा आता है जब दिमाग का तनाव बढ़ जाता है और पूरा इंजन टूट जाता है। ….. यही कारण है जिससे मानसिक रोग यहाँ बढ़ गए हैं। …..”
शाम को वह मुझे एक ‘टी-सेरेमनी’ में ले गए। चाय पीने की यह एक विधि है। जापानी में उसे चा-नो-यू कहते हैं।
वह एक छः मंजिली इमारत थी जिसकी छत पर दफ़् ती की दीवारोंवाली और तातामी (चटाई) की ज़मीनवाली एक सुंदर पर्णकुटी थी। बाहर बेढब-सा एक मिट्टी का बरतन था। उसमें पानी भरा हुआ था। हमने अपने हाथ-पाँव इस पानी से धोए। तौलिए से पोंछे और अंदर गए। अंदर ‘चाजीन’ बैठा था। हमें देखकर वह खड़ा हुआ। कमर झुकाकर उसने हमें प्रणाम किया । दो… झो… (आइए, तशरीफ़ लाइए) कहकर स्वागत किया। बैठने की जगह हमें दिखाई। अँगीठी सुलगाई। उस पर चायदानी रखी। बगल के कमरे में जाकर कुछ बरतन ले आया। तौलिए से बरतन साफ़ किए। सभी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण ढंग से कीं कि उसकी हर भंगिमा से लगता था मानो जयजयवंती के सुर गूँज रहे हों। वहाँ का वातावरण इतना शांत था कि चायदानी के पानी का खदबदाना भी सुनाई दे रहा था।
चाय तैयार हुई। उसने वह प्यालों में भरी। फिर वे प्याले हमारे सामने रख दिए गए। वहाँ हम तीन मित्र ही थे। इस विधि में शांति मुख्य बात होती है। इसलिए वहाँ तीन से अधिक आदमियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। प्याले में दो घूँट से अधिक चाय नहीं थी। हम ओठों से प्याला लगाकर एक-एक बूँद चाय पीते रहे। करीब डेढ़ घंटे तक चुसकियों का यह सिलसिला चलता रहा। पहले दस-पंद्रह मिनट तो मैं उलझन में पड़ा। फिर देखा, दिमाग की रफ़् तार धीरे-धीरे धीमी पड़ती जा रही है। थोड़ी देर में बिलकुल बंद भी हो गई। मुझे लगा, मानो अनंतकाल में मैं जी रहा हूँ। यहाँ तक कि सन्नाटा भी मुझे सुनाई देने लगा।
अकसर हम या तो गुज़रे हुए दिनों की खट्टी-मीठी यादों में उलझे रहते हैं या भविष्य के रंगीन सपने देखते रहते हैं। हम या तो भूतकाल में रहते हैं या भविष्यकाल में। असल में दोनों काल मिथ्या हैं। एक चला गया है, दूसरा आया नहीं है। हमारे सामने जो वर्तमान क्षण है, वही सत्य है। उसी में जीना चाहिए। चाय पीते-पीते उस दिन मेरे दिमाग से भूत और भविष्य दोनों काल उड़ गए थे। केवल वर्तमान क्षण सामने था। और वह अनंतकाल जितना विस्तृत था।
जीना किसे कहते हैं, उस दिन मालूम हुआ।
झेन परंपरा की यह बड़ी देन मिली है जापानियों को!
पाठ का सार – झेन की देन
लेखक ने जापान में एक मित्र से पूछा- जापानियों को कौन-सी बीमारियाँ अधिक होती हैं, तो उनके मित्र ने उत्तर दिया – मनोरुग्णता। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ के जीवन की रफ़्तार बढ़ गई है। यहाँ हर जापानी की अमेरिका से प्रतिस्पर्धा होती है। इसलिए लोग बोलने की जगह बकने लगे हैं, चलने की जगह भागने लगे हैं, महीने का काम एक दिन में करने की कोशिश करते हैं, दिमाग की रफ्तार तेज़ रहने लगी है उस पर भी उन्होंने दिमाग में स्पीड का इंजन लगा लिया है जिससे दिमाग का तनाव इतना बढ़ जाता है कि मानसिक बीमारियाँ आम बात हो गई है।
उस शाम का लेखक के मित्र उन्हें ‘टी-सेरेमनी’ में ले गए। जापान में चाय पीने की इस विधि को ‘चा-नो-यू’ कहते हैं। एक छ: मंजिली इमारत की छत पर एक सुंदर पर्णकुटी बनाई गई थी। लेखक और उसके मित्र ने पास रखे बेढब-से बर्तन से पानी लेकर हाथ-मुँह धोया और अंदर गए। अंदर ‘चाजीन’ बैठा था। वह स्वागत में उठा और कमर झुकाकर दो-झो कहकर प्रणाम किया। उन्हें बैठने की जगह दिखाई फिर अँगीठी सुलगाई, उस पर चायदानी रखी, पास के कमरे से बर्तन लाया और उन्हें तौलिए से पोछने लगा। सभी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण थीं मानो जयजयवंती के सुर गूँज रहे हो।
शांति का अनुभव
चाय तैयार हुई। उसे प्यालों में डाला गया। कुटी में तीन मित्र थे। अन्य किसी के लिए स्थान भी नहीं था। कपों में दो-दो घूँट चाय थी। वहाँ महत्त्व शांति का था। वे तीनों एक-एक बूँद चाय पीते हुए डेढ़ घंटे तक चुसकियाँ लेते रहे। लेखक को शुरू के 10-15 मिनट तो अजीब लगा। बाद में उनके दिमाग की रफ्तार धीमी होती गई। थोड़ी देर में बिल्कुल बंद हो गई। लेखक को लगा मानो वह अनंतकाल में जी रहा हो। उसे सन्नाटा तक सुनाई देने लगा।
वर्तमान का अनुभव –
प्रायः हम या तो गुजरे हुए समय की यादों में खोए रहते हैं या भविष्य के सपनों में। जबकि दोनों काल मिथ्या हैं। सत्य है वर्तमान। चाय पीते-पीते लेखक के दिमाग में केवल वर्तमान रह गया। वह अनंतकाल जितना विस्तृत लग रहा था। इसी को जीना कहते हैं। लेखक कहते हैं कि जापानियों की यह झेन परंपरा सचमुच निराली है।
शब्दार्थ
1.मुक्ति – आज़ादी
2.आंदोलन – Movement
3.शामिल – सम्मिलित
4.चिंतक – चिंतन करने वाला
5.विख्यात – मशहूर
6.विविध – Different
7.पक्ष – Favour
8.परिप्रेक्ष्य – दृश्य
9.मौलिकता – आधारभूत
10.चेष्टा – कोशिश
11.शीर्षस्थ – सबसे ऊँचा
12.संपादन – Publication
13.अनुवाद – Translation
14.सहित – साथ
15.कृतियाँ – रचनाएँ
16.सूक्ति – अच्छी उक्ति
17.आगम – आया हुआ
18.जातक – बुद्ध के जन्मों की कहानी
19.प्रमाण – Evidence
20.प्रसंग – घटना
21.महज़ – मात्र
22.जागरूक – सजग
23.सक्रिय – Active
24.प्रेरणा – Inspiration
25.दिनचर्या – दिन भर के कामों की सूची
26.गिन्नी – ताँबा
27.चंद – कुछ
28.बखान – विस्तार
29.आदर्श – आदर्श
30.विलक्षण – अद्भुत
31.वरना – नहीं तो
32.सज्जा – सजावट
33.शाश्वत – हमेशा रहने वाला
झेन की देन
34.मानसिक – मस्तिष्क से जुड़ा हुआ
35.फीसदी – प्रतिशत
36.मनोरुग्ण – मानसिक बीमारी
37.रफ़्तार – तेज़ी
38.प्रतिस्पर्धा – Competition
39.क्षण – पल
40.विधि – तरीका
41.दफ्ती – लकड़ी की दीवार
42.पर्णकुटी – पत्तों से बनी कुटिया
43.बेढब – बेढंग
44.अँगीठी – चूल्हा
45.भंगिमा – Posture
46.जयजयवंती – एक राग का नाम
47.सिलसिला – क्रम
48.अनंतकाल – जिस काल का अंत न हो
49.सन्नाटा – पूर्ण शांति
50.रंगीन – Colourful
51.मिथ्या – झूठ
52.विस्तृत – विस्तार
मौखिक
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए-
I 1 – शुद्ध सोना और गिन्नी का सोना अलग क्यों होता है?
उत्तर- शुद्ध सोना पूरी तरह से शुद्ध होता है और गिन्नी के सोने में थोड़ा-सा ताँबा मिलाया हुआ होता है। इस मिलावट से सोना अधिक मजबूत और चमकीला बन जाता है।
2 – प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट किसे कहते हैं?
उत्तर- प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट उसे कहते हैं जिसमें व्यावहारिकता का मिश्रण होता है। ये लोग आदर्शवादी तो होते हैं मगर इनमें व्यावहारिकता का भी पुट होता है।
3 – पाठ के संदर्भ में शुद्ध आदर्श क्या है?
उत्तर- पाठ के संदर्भ में शुद्ध आदर्श वह है जो आदर्श को व्यावहारिकता के स्तर पर नहीं उतरने देते बल्कि व्यावहारिकता को आदर्श के स्तर तक ले जाते हैं।
II 4 – लेखक ने जापानियों के दिमाग में ‘स्पीड’ का इंजन लगने की बात क्यों कही है?
उत्तर- लेखक ने जापानियों के दिमाग में ‘स्पीड का इंजन’ लगने की बात की है क्योंकि जापानी प्रगति और विकास की राह में अमेरिका से आगे निकालने की होड़ में दिन-रात लगे हुए हैं।
5 – जापानी में चाय पीने की विधि को क्या कहते हैं?
उत्तर- जापानी में चाय पीने की विधि को चा-नो-यू कहते हैं।
6 – जापान में जहाँ चाय पिलाई जाती है, उस स्थान की क्या विशेषता है?
उत्तर- जापान में जहाँ चाय पिलाई जाती है, उस स्थान की विशेषता है कि वहाँ पूर्ण शांति होती है, उस स्थान की सज्जा पारंपरिक होती है। अत्यंत ही गरिमापूर्ण पद्धति से चाय बनाई अथवा दी जाती है और वहाँ तीन आदमियों से ज़्यादा को प्रवेश नहीं मिलता है।
लिखित
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (25-30 शब्दों में) लिखिए-
I 1 – शुद्ध आदर्श की तुलना सोने से और व्यावहारिकता की तुलना ताँबे से क्यों की गई है?
उत्तर- शुद्ध आदर्श की तुलना सोने से की गई है क्योंकि शुद्ध सोने में जितनी शुद्धता और पवित्रता होती है उतनी ही शुद्धता और पवित्रता आदर्शवादी व्यक्ति में भी होती है जबकि व्यावहारिकता की तुलना ताँबे से की गई है क्योंकि व्यावहारवादी लोग मौकापरस्त होते हैं। उनके हरेक कार्य में स्वार्थ की बू आती है।
II 2 – चाजीन ने कौन-सी क्रियाएँ गरिमापूर्ण ढंग से पूरी कीं?
उत्तर- चाजीन ने बड़े सलीके से कमर झुकाकर अतिथियों को प्रणाम किया फिर बैठने की जगह दिखाई, अँगीठी सुलगाई बर्तनों को तौलिये से साफ़ किया। ये सारी क्रियाएँ उसे अत्यंत ही गरिमापूर्ण ढंग से पूरी कीं।
3 – ‘टी-सेरेमनी’ में कितने आदमियों को प्रवेश दिया जाता था और क्यों?
उत्तर- ‘टी-सेरेमनी’ में केवल तीन ही आदमियों को प्रवेश दिया जाता था क्योंकि वहाँ अत्यंत ही शांत वातावरण में चाय पी जाती है। अधिक आदमियों के होने से शांति भंग होने का खतरा बना रहता है।
4 – चाय पीने के बाद लेखक ने स्वयं में क्या परिवर्तन महसूस किया?
उत्तर- चाय पीने के बाद लेखक के दिमाग की रफ़्तार धीरे-धीरे धीमी पड़ गई। थोड़ी देर में बिलकुल बंद भी हो गई। उन्हें लगा कि मानो वे अनंतकाल में जी रहे हों। उन्हें पूर्ण शांति का आभास होने लगा । उनके दिमाग से भूतकाल और भविष्य काल दोनों उड़ गए थे। वे केवल वर्तमान में थे।
लिखित
(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए-
1 – गांधीजी में नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी; उदाहरण सहित इस बात की पुष्टि कीजिए।
उत्तर- यह कथन पूर्णत: सत्य है कि गांधीजी में नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने नमक कानून तोड़ा, दांडी यात्रा की, असहयोग आंदोलन किया, स्वदेशी आंदोलन किया जो इस बात की पुष्टि करता है कि वे आदर्शवादी थे। उनके इसी आदर्शवादिता ने ही तो शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लोगों को संगठित किया। गांधीजी ने सत्य और अहिंसा जैसे शाश्वत मूल्य समाज को दिया है।
2 – आपके विचार से कौन-से ऐसे मूल्य हैं जो शाश्वत हैं? वर्तमान समय में इन मूल्यों की संगिकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- मेरे विचार से ये मूल्य शाश्वत हैं- सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, भाईचारा, त्याग, परोपकार, मीठी वाणी, मानवीयता इत्यादि। वर्तमान समाज में इन मूल्यों की प्रासंगिकता बनी हुई है। जहाँ- जहाँ और जब-जब इन मूल्यों में गिरावट आई है वहाँ तब-तब समाज का नैतिक पतन हुआ है। भले ही आज हम तकनीकी क्षेत्र में विकसित हो चुके हों पर अभी भी हम हर रोज़ इन मूल्यों के गिरावट से होने वाले कुपरिणामों को देख सकते हैं।
3 – अपने जीवन की किसी ऐसी घटना का उल्लेख कीजिए जब –
(1) शुद्ध आदर्श से आपको हानि-लाभ हुआ हो।
उत्तर – मैंने एक बार ड्राइविंग लाइसेन्स के लिए आवेदन किया था। संबन्धित अधिकारी ने मुझसे परोक्ष रूप से 500 रुपए की रिश्वत माँगी पर मैंने साफ मना कर दिया क्योंकि दुपहिया वाहन चलाना मुझे अच्छी तरह से आता है और ड्राइविंग टेस्ट में मैं फेल हो ही नहीं सकता था। पर फिर भी मुझे ड्राइविंग टेस्ट में विभिन्न कारणों के कारण फेल कर दिया गया और ऐसा लगातार तीन बार हुआ। अंत में मुझे ड्राइविंग टेस्ट में पास किया गया और मेरा ड्राइविंग लाइसेन्स ज़ारी हुआ। इतनी ईमानदारी के कारण मुझे 5-6 बार स्थानीय परिवहन कार्यालय के चक्कर लगाने पड़े जिससे मेरे अपने काम की बहुत हानि हुई।
(2) शुद्ध आदर्श में व्यावहारिकता का पुट देने से लाभ हुआ हो।
उत्तर – वार्षिक परीक्षाओं में नकल करना आज के दौर की एक आम बात है। एक शिक्षक होने के नाते सही तरीके से परीक्षा पूर्ण करवाना मेरा दायित्व भी है और नैतिक ज़िम्मेदारी भी। पर फिर भी अभिभावकों और कुछ सहायक शिक्षकों के दबाव के कारण मुझे समझौता करने पर विवश किया जाता है। ऐसे में मैं परीक्षा पूर्व ही परीक्षा पर्यवेक्षक की भूमिका से अपने आपको मुक्त करवा लेता हूँ। इससे न तो मुझे समझौता करना पड़ता है और न ही मैं अपनी नज़रों में नीचे गिरता हूँ।
4 – ‘शुद्ध सोने में ताँबे की मिलावट या ताँबे में सोना’, गांधीजी के आदर्श और व्यवहार के संदर्भ में यह बात किस तरह झलकती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- गांधीजी ने सदा सत्य और अहिंसा की दुहाई दी है। अगर पाठ से अलग इस बात की चर्चा की जाए तो उन्होंने सत्य और अहिंसा की व्याख्या करते हुए यह बात स्पष्ट कर दी कि यदि कोई गाय भागी जा रही है तथा कसाई उसे ढूँढ़ता हुआ आपसे पूछे कि आपने यहाँ से भागती हुई किसी गाय को देखा है, वह किस ओर गई है? इस अवसर पर सत्य बोलकर गाय की जान जोखिम में डालना गलत होगा। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी के आदर्श और व्यवहार में हमेशा शुद्ध सोना ही झलकता है।
5 – ‘गिरगिट’ कहानी में आपने समाज में व्याप्त अवसरानुसार अपने व्यवहार को पल-पल में बदल डालने की एक बानगी देखी। इस पाठ के अंश ‘गिन्नी का सोना’ के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए कि ‘आदर्शवादिता’ और ‘व्यावहारिकता’ इनमें से जीवन में किसका महत्त्व है?
उत्तर- ‘गिरगिट’ कहानी में इंस्पेक्टर का व्यवहार अवसर के अनुकूल अपने लाभ के लिए बदलता रहता था। वह हर प्रकार से उस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहता था। यह कोरी अवसरवादिता आज की व्यावहारिकता का ही पर्याय है। आज ऊपरी तौर पर भले ही व्यवहारवादी सफ़ल होते दिखाई पड़ रहे हों, वे भले ही लाभ हानि की गणना कर स्वयं को ऊपर उठाते जा रहे हों पर इस प्रक्रिया में वे दूसरों को पीछे धकेलते हैं और खुद आगे बढ़ते हैं। भले ही जिन्हें वो धकेल रहे हों वे कितने ही गुणवान क्यों न हों। दूसरी बात, इस प्रक्रिया में वे जीवन मूल्यों को पूरी तरह से रौंद देते हैं। यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति आदर्शों की होली जलाकर आग सेंकने लगे तब तो समाज विनाश के गर्त में ही चला जाएगा। किसी भी समाज की उन्नति सही मायने में उस समय ही हो सकती है जब वहाँ शाश्वत मूल्यों का विकास हो रहा हो। जीवन मूल्यों और नैतिकता के विकास को ही सभ्यता का विकास माना जा सकता है। कोरी अवसरवादिता या व्यावहारिकता से समाज का पाटन होता है। अतएव मानव-उत्थान के लिए आदर्शवाद का ही महत्त्व है।
6 – लेखक के मित्र ने मानसिक रोग के क्या-क्या कारण बताए? आप इन कारणों से कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर- लेखक ने अपने मित्र को मानसिक रोग के निम्नलिखित कारण बताए
– वे हमेशा अमेरिका से आगे निकला चाहते हैं।
– वे तनावग्रस्त स्थिति में काम करते रहते हैं।
– वे किसी भी काम को जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहते हैं।
– उनके दिमाग में स्पीड का इंजन लगा हुआ है।
मैं इन कारणों से पूर्णत: सहमत हूँ। अत्यधिक काम का बोझ और तनाव मनुष्य को मानसिक रूप से बीमार बना ही देता है।
7 – लेखक के अनुसार सत्य केवल वर्तमान है, उसी में जीना चाहिए। लेखक ने ऐसा क्यों कहा होगा? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- लेखक के अनुसार सत्य केवल वर्तमान है, उसी में जीना चाहिए। लेखक ने ऐसा कहा है क्योंकि उनके मतानुसार मनुष्य का अधिकांश समय या तो भूतकाल की बातों के बारे में सोचते हुए बीतता है या भविष्य की चिंता में। वह कभी भी वर्तमान का आनंद नहीं ले पाता। जो बीत चुका है उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं होता है और जो आया ही नहीं है उसकी चिंता कर कर हम अपना वर्तमान गवाँ देते हैं जबकि सत्य तो यह है कि अगर हम वर्तमान का निर्वाह सही तरीके से करे तो हमारा भूत और भविष्य दोनों ठीक हो जाएगा।
लिखित
(ग) निम्नलिखित के आशय स्पष्ट कीजिए-
1 – समाज के पास अगर शाश्वत मूल्यों जैसा कुछ है तो वह आदर्शवादी लोगों का ही दिया हुआ है।
उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि आदर्शवादी लोग ही समाज को बेहतर तथा स्थायी जीवन तथा शाश्वत मूल्य देते हैं। वे बताते हैं कि लोगों के लिए जीने की कौन-कौन-सी राहें ठीक हैं जिससे समाज आदर्श रूप में रह सकता है।
2 – जब व्यावहारिकता का बखान होने लगता है तब ‘प्रैक्टिकल आइडियालिस्टों’ के जीवन से आदर्श धीरे-धीरे पीछे हटने लगते हैं और उनकी व्यावहारिक सूझ-बूझ ही आगे आने लगती है।
उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि व्यावहारिक आदर्शवाद वास्तव में व्यावहारिकता ही है उसमें आदर्शवाद कहीं नहीं रहता। यदा-कदा व्यावहारिकता ही सामने उभर आती है और केवल लाभ-हानि और अवसरवादिता का पर्याय गठित करती है।
3 – हमारे जीवन की रफ़् तार बढ़ गई है। यहाँ कोई चलता नहीं बल्कि दौड़ता है। कोई बोलता नहीं, बकता है। हम जब अकेले पड़ते हैं तब अपने आपसे लगातार बड़बड़ाते रहते हैं।
उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि जीवन की भाग-दौड़, व्यस्तता तथा आगे निकले की होड़ ने लोगों का सुख-चैन छीन लिया है। हर व्यक्ति अपने जीवन में अधिक पाने की होड़ में बेतहाशा भागा जा रहा है। इससे वे तनावग्रस्त होकर मानसिक रोग से पीड़ित हो रहे हैं।
4 – सभी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण ढंग से कीं कि उसकी हर भंगिमा से लगता था मानो जयजयवंती के सुर गूँज रहे हों।
उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश का आशय अदब और नम्रता का सांगोपांग करना है। चाय देने वाले चाजीन ने सबसे पहले बड़े सलीके से कमर झुकाकर अतिथियों को प्रणाम किया फिर बैठने की जगह दिखाई, अँगीठी सुलगाई बर्तनों को तौलिये से साफ़ किया। ये सारी क्रियाएँ उसने अत्यंत ही गरिमापूर्ण ढंग से पूरी कीं। ऐसे वातावरण में आकर ऐसा लगता था मानो जयजयवंती के सुर गूँज रहे हों।
भाषा-अध्ययन
1 – नीचे दिए गए शब्दों का वाक्य में प्रयोग कीजिए –
व्यावहारिकता – आज के युग में व्यावहारिकता ही काम आती है।
आदर्श – मेरे आदर्श सुभाष चंद्र बोस हैं।
सूझबूझ – समझदार लोग सूझबूझ से काम लेते हैं।
विलक्षण – तताँरा की तलवार में विलक्षण शक्ति थी।
शाश्वत – मनुष्य के अच्छे कर्म शाश्वत होते हैं।
2 – ‘लाभ-हानि’ का विग्रह इस प्रकार होगा – लाभ और हानि यहाँ द्वंद्व समास है जिसमें दोनों पद प्रधान होते हैं। दोनों पदों के बीच योजक शब्द का लोप करने के लिए योजक चिह्न लगाया जाता है। नीचे दिए गए द्वंद्व समास का विग्रह कीजिए –
(क) माता-पिता = माता और पिता
(ख) पाप-पुण्य = पाप और पुण्य
(ग) सुख-दुख = सुख और दुख
(घ) रात-दिन = रात और दिन
(ङ) अन्न-जल = अन्न और जल
(च) घर-बाहर = घर और बाहर
(छ) देश-विदेश = देश और विदेश
3 – नीचे दिए गए विशेषण शब्दों से भाववाचक संज्ञा बनाइए –
(क) सफल = सफलता
(ख) विलक्षण = विलक्षणता
(ग) व्यावहारिक = व्यावहारिता
(घ) सजग = सजगता
(ङ) आदर्शवादी = आदर्शवादिता
(च) शुद्ध = शुद्धता
4 – नीचे दिए गए वाक्यों में रेखांकित अंश पर ध्यान दीजिए और शब्द के अर्थ को समझिए –
(क) शुद्ध सोना अलग है।
(ख) बहुत रात हो गई अब हमें सोना चाहिए।
ऊपर दिए गए वाक्यों में ‘सोना’ का क्या अर्थ है? पहले वाक्य में ‘सोना’ का अर्थ है धातु ‘स्वर्ण’। दूसरे वाक्य में ‘सोना’ का अर्थ है ‘सोना’ नामक क्रिया। अलग-अलग संदर्भों में ये शब्द अलग अर्थ देते हैं अथवा एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। ऐसे शब्द अनेकार्थी शब्द कहलाते हैं। नीचे दिए गए शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ स्पष्ट करने के लिए उनका उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए –
उत्तर, कर, अंक, नग
उत्तर- दिल्ली उत्तर दिशा की ओर है।
उत्तर- मुझे इस प्रश्न का उत्तर पता है।
कर- मैं अपना काम खुद कर लेता हूँ।
कर- सरकार हमसे तरह-तरह के कर वसूलती है।
अंक- परीक्षा में कम आंक आने पर रमेश उदास हो गया।
अंक- माँ के अंक में बच्चा सोया हुआ है।
नग – हमारे सामने एक विशाल नग (पहाड़) खड़ा है।
नग – अँगूठी में जड़ा नग (चमकीला पत्थर) बहुत सुंदर है।
II 5 – नीचे दिए गए वाक्यों को संयुक्त वाक्य में बदलकर लिखिए –
(क) 1 – अँगीठी सुलगायी।
2 – उस पर चायदानी रखी।
उत्तर – अँगीठी सुलगायी और उस पर चायदानी रखी।
(ख) 1 – चाय तैयार हुई।
2 – उसने वह प्यालों में भरी।
उत्तर – चाय तैयार हुई और उसने वह प्यालों में भरी।
(ग) 1 – बगल के कमरे से जाकर कुछ बरतन ले आया।
2 – तौलिये से बरतन साफ़ किए।
उत्तर – बगल के कमरे से जाकर कुछ बरतन ले आया और तौलिये से बरतन साफ़ किए।
6 – नीचे दिए गए वाक्यों से मिश्र वाक्य बनाइए –
(क) 1 – चाय पीने की यह एक विधि है।
2 – जापानी में उसे चा-नो-यू कहते हैं।
उत्तर – चाय पीने की यह एक विधि है जिसे जापानी में चा-नो-यू कहते हैं।
(ख) 1 – बाहर बेढब-सा एक मिट्टी का बरतन था।
2 – उसमें पानी भरा हुआ था।
उत्तर – बाहर बेढब-सा एक ऐसा मिट्टी का बरतन था जिसमें पानी भरा हुआ था।
(ग) 1 – चाय तैयार हुई।
2 – उसने वह प्यालों में भरी।
3 – फिर वे प्याले हमारे सामने रख दिए।
उत्तर – चाय जैसे तैयार हुई उसने वह प्यालों में भरकर हमारे सामने रख दिए।
योग्यता-विस्तार
1 – गांधीजी के आदर्शों पर आधारित पुस्तकें पढ़िए; जैसे – महात्मा गांधी द्वारा रचित ‘सत्य के प्रयोग’ और गिरिराज किशोर द्वारा रचित उपन्यास ‘गिरमिटिया’।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।
2 – पाठ में वर्णित ‘टी-सेरेमनी’ का शब्द चित्र प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।
परियोजना कार्य
1 – भारत के नक्शे पर वे स्थान अंकित कीजिए जहाँ चाय की पैदावार होती है। इन स्थानों से संबंधित भौगोलिक स्थितियों और अलग-अलग जगह की चाय की क्या विशेषताएँ हैं, इनका पता लगाइए और परियोजना पुस्तिका में लिखिए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर करें।