प्रेमचंद
(जन्म सन् 1880 ई., निधन : सन् 1936 ई.)
हिंदी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का जन्म उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट लमही नामक गाँव में हुआ था। उनका मूल नाम धनपतराय था। शिक्षा काल में ही उन्होंने अंग्रेजी के साथ उर्दू का भी अध्ययन किया था। प्रारंभ में वे कुछ वर्षों तक स्कूल में रहे, बाद में शिक्षा विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर रहे। स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वे स्वतंत्र लेखन की ओर मुड़े। वे हिंदी ही नहीं बल्कि समग्र भारतीय साहित्य के महान व्यक्तित्व हैं।
अपनी आवाज जनता तक पहुँचाने के लिए उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ और नाटक लिखे। उन्होंने अन्य भाषाओं से अनुवाद किए, निबंध लिखे तथा बालोपयोगी साहित्य की रचना भी की। गबन, वरदान, प्रतिज्ञा, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गोदान, मंगलसूत्र (अपूर्ण) उनके उपन्यास हैं।‘मानसरोवर’आठ भागों में उनकी लगभग तीन सौ कहानियाँ संग्रहित हैं। प्रेम की वेदी, कर्बला और संग्राम उनके नाटक हैं। कुछ विचार, कलम और तलवार और त्याग आदि उनके निबंध संकलन हैं।
पाठ का सामान्य परिचय
बूढ़ी काकी’में प्रेमचन्द्र ने ऐसे दयनीय वृद्धों की अवस्था की ओर हमारा ध्यान खींचा है, जिन्हें उपेक्षा मिलती है और जो जीवन के हर क्षण का आनंदपूर्वक उपभोग करना चाहते हैं। यह मूल कहानी का संक्षिप्त रूप है।
कहानी परिचय
‘बूढ़ी काकी’ प्रेमचंद की एक उत्कृष्ट यथार्थवादी कहानी है। इस कहानी के जरिए मनुष्य के अमानवीय और स्वार्थांध चरित्र का खुलासा किया गया है। बूढ़ी काकी के जीवन में एकमात्र सहारे के रूप में भतीजा बुद्धिराम है जिसके नाम पर काकी ने अपनी सारी संपत्ति लिख दी है। जिह्वास्वाद के अतिरिक्त उसके जीवन में और कोई लालसा नहीं है। परंतु बुद्धिराम और उसकी पत्नी रूपा की स्वार्थपरता के कारण उसकी यह लालसा अपूर्ण बनी रहती है। बड़ी कठिनाई से पेट भर भोजन मिलता है। घर की छोटी लड़की लाडली को छोड़कर अन्य कोई सहानुभूति भी नहीं रखता। काकी का मन हरपल अच्छी-अच्छी खाने की चीजों के लिए तरसता रहता है। घर में तिलक उत्सव के अवसर पर तरह- तरह के पकवान, पूड़ियाँ – कचौड़ियाँ, मसालेदार तरकारियाँ आदि बनती हैं। इन चीजों की सुगंध से काकी की उत्कट क्षुधा जागने लगती हैं। देर तक इन चीजों के न मिलने पर पेट की ज्वाला से विवश होकर काकी रेंगते हुए कड़ाह के पास जा पहुँचती है। चीजें तो नहीं मिलतीं, उल्टे रूपा के व्यंग्य सहने पड़ते हैं। फिर कई घंटों के बाद काकी मेहमानों के पास आ बैठती है। इस बार बुद्धिराम काकी की भावना को बिना समझे उसे खींचते हुए कोठरी में पटक देता है। देर रात को काकी अपने पास लाडली को पाती है जो अपने हिस्से की चीजें छुपाकर काकी के लिए लाई थी। उतनी चीजों से जब काकी का मन नहीं भरता तो वह मेहमानों की जूठी पत्तलों को चाटने लगती है। यह देखकर रूपा को पछतावा होने लगता है और उसमें अपराधबोध पैदा होता है। वह बार-बार ईश्वर से अपनी गलती के लिए क्षमा याचना करती है। फिर प्रसन्नचित्त होकर सारी चीजों से सजी थाली चचेरी सास को परोसती है और उनसे क्षमा माँगती है। बूढ़ी काकी सब कुछ भुलाकर परम आनंद से चीजों का स्वाद लेने लगती है। इस प्रकार प्रेमचंद ने रूपा के हृदय परिवर्तन के जरिए समाज में बुजुर्गों पर हो रहे दुर्व्यवहार को रोकने तथा उनके प्रति कर्तव्य का ज्ञान कराने का प्रयास किया है।
बूढ़ी काकी
बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जीभ के स्वाद के सिवा न और कोई चेष्टा शेष थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इंद्रियाँ, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। जमीन पर पड़ी रहती और घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसकी मात्रा कम होती अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और न मिलती, तो वे रोने लगती थीं। उनका रोना- सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।
उनके पति को स्वर्ग सिधारे बहुत वक्त हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के सिवाए और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी संपत्ति लिख दी। बुद्धिराम ने सारी संपत्ति लिखाते समय खूब लंबे-चौड़े वादे किए, किंतु वे सब वादे केवल कुली डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्जबाग थे। यद्यपि उस संपत्ति की वार्षिक आय कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था।
लड़कों का बूढ़ों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई उन पर पानी कुल्ली कर देता। काकी चीख मार कर रोती, परंतु यह बात प्रसिद्ध थी कि वे केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था।
संपूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी का अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के डर से अपने हिस्से की मिठाई या चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण महँगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय की तुलना में कहीं सुलभ थी। इस स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।
रात का समय था। बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वाद कर रहा था।
आज बुद्धिराम के बड़े लड़के सुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन के प्रबंध में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़े थे। एक में पूड़ियाँ- कचौड़ियाँ निकल रही थीं। एक बड़े पतीले में मसालेदार सब्जी पक रही थी। घी और मसालों की सुगंध चारों ओर फैली हुई थी।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में बैठी हुई थी। यह सुगंध उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन सोच रही थीं, इतनी देर हो गई कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परंतु अपशकुन के डर से वे रो न सकीं।
बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तसवीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूली फूली, नरम-नरम होंगी। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ लेकर देखती। क्यों न चलकर कड़ाह के सामने ही बैठूं। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकडूं बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरी और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास आ बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खानेवाले के सम्मुख बैठने में होता है।
बुद्धिराम की पत्नी रूपा उस समय कार्य भार से परेशान हो रही थी। कभी इस कमरे में जाती, कभी उस कमरे में, कभी कड़ाह के पास आती, कभी भंडार में जाती। बेचारी अकेली दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुँझलाती थी, कुढ़ती थी, परंतु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठे देखा तो जल उठी। क्रोध न रुक सका। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटककर बोली, “ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? ” बूढ़ी काकी ने सिर उठाया ; न रोईं न बोली। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गई। भोजन तैयार हो गया है। आँगन में पत्तलें पड़ गईं, मेहमान खाने लगे।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चात्ताप कर रही थीं कि मैं कहाँ चली गई। उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाजी पर दुख था। सच ही तो है, जब तक मेहमान लोग भोजन न कर लेंगे, घरवाले कैसे खाएँगे? मुझसे इतनी देर भी न रहा गया। अब जब तक कोई बुलाने न आएगा, न जाऊँगी।
मन-ही-मन इसी प्रकार का विचार कर वह बुलावे का इंतजार करने लगीं। वह मन को बहलाने के लिए लेट गई। धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गई। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर रहे होंगे? किसी की आवाज नहीं सुनाई देती। अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गए। मुझे कोई बुलाने नहीं आया। रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाए। बूढ़ी काकी चलने के लिए तैयार हुईं। यह विश्वास है कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार सब्ज़ियाँ सामने आएँगी, उनकी स्वादेंद्रियाँ गुदगुदाने लगीं। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बाँधे-पहले सब्जी से पूड़ियाँ खाऊँगी, फिर दही और शक्कर से कचौड़ियाँ रायते के साथ मजेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो माँग- माँगकर खाऊँगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं। कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह जूठा करके थोड़े ही उठ जाऊँगी।
वह उकडूँ बैठकर हाथों के बल सरकती हुई आँगन में आईं। परंतु हाय दुर्भाग्य ! मेहमान मंडली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उँगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में जा पहुँचीं।
पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए। लपककर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अँधेरी कोठरी में धम से पटक दिया।
मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया। बाजेवाले, धोबी, नाऊ भी भोजन कर चुके, परंतु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने का निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर दीनता पर किसी को करुणा न आई। अकेली लाडली उनके लिए परेशान हो रही थी।
लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था। वह झुँझला रही थी कि वे लोग काकी को बहुत-सी पूड़ियाँ क्यों नहीं दे देते? क्या मेहमान सब की सब खा जाएँगे? और यदि काकी ने मेहमानों के पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी परंतु माँ के डर से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिलकुल न खाई थीं। उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थीं। उसका हृदय अधीर हो रहा था। बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगी। मुझे खूब प्यार करेंगी।
रात के ग्यारह बज गए थे। रूपा आँगन में पड़ी सो रही थी। लाडली की आँखों में नींद न थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। जब विश्वास हो गया कि अम्माँ सो रही है, तो वह चुपके से उठी और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली।
बूढ़ी काकी को केवल इतना याद था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़ कर घसीटे और फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाए लिए जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराए तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर दे पटका, वे मूर्छित हो गईं।
जब वे सचेत हुईं तो किसी की जरा भी आहट न मिलती थी। उन्होंने समझा कि सब लोग खा-पीकर सो गए। यह विचारकर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गईं। ग्लानि से गला भर-भर आता था, परंतु मेहमानों के डर से रोती न थीं।
सहसा उनके कानों में आवाज आई, ‘काकी उठो; मैं पूड़ियाँ लाई हूँ।’काकी ने लाडली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बैठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं।
बूढ़ी काकी
काकी ने पूछा, “क्या तुम्हारी अम्माँ ने दी हैं? ”
लाडली ने कहा, “नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं।”
काकी पूड़ियों पर टूट पड़ी। पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई। लाडली ने पूछा, “काकी पेट भर गया? ” जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर गरमी पैदा कर देती है, उसी तरह इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इच्छा को और उत्तेजित कर दिया था। बोली, “नहीं बेटी जाकर अम्माँ से और माँग लाओ।”
लाडली ने कहा, “ अम्माँ सो गई हैं, जगाऊँगी तो मारेंगी।”
काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुर्चन गिरे थे। उन्हें निकालकर वे खा गईं। बार- बार होंठ चाटती थीं, चटखारें भरती थीं
हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ? काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोली, “मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर खाना खाया।”
लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठे पत्तलों के पास बैठा दिया। काकी पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर खाने लगीं। ओह ! दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, खस्ता कितना सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की जूठी पत्तल चाट रही हूँ। परंतु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएँ एक ही केंद्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केंद्र उनकी स्वादेंद्रियाँ थीं।
ठीक उसी समय रूपा की आँखें खुलीं। उसे मालूम हुआ कि लाडली मेरे पास नहीं है। चौकी, चारपाई के इधर-उधर देखने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाडली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही हैं।
रूपा का हृदय सन्न हो गया। यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखनेवालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता मानों ज़मीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई विपत्ति आनेवाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आई। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठा कर कहा, “परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो । इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।”
रूपा की ओर स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दीख पड़े थे। वह सोचने लगी, ‘हाय ! कितनी निर्दय हूँ? जिसकी संपत्ति से मुझे दो सौ रुपया वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति ! और मेरे कारण ! हे दयामय भगवान ! मुझसे बड़ी भारी गलती हुई है, मुझे क्षमा करो।”
रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सारा भोजन सजाकर लिए हुए बूढ़ी काकी की ओर चली। उसने कंठावरुद्ध स्वर में कहा, “काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वे मेरा अपराध क्षमा कर दें।”
भोले-भाले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी सब भुला कर बैठी हुई खाना खा रही थीं। उनके एक-एक रोएँ से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी इस स्वर्गीय दृश्य का आनंद लेने में निमग्न थी।
शब्दार्थ
जवाब दे चुकना – शिथिल हो जाना, कमजोर हो जाना।
कालान्तर – बहुत समय पहले।
सब्जबाग दिखाना – (मुहावरा) अपना काम साधने या निकालने के लिए बड़ी- बड़ी आशाएँ दिलाना।
अर्धांगिनी – पत्नी
भलमनसाहत – शिष्टता
स्वर्ग सिधारे – मृत्यु को प्राप्त हुए
विद्वेष – ईर्ष्या
जिह्वा कृपाण – जीभ रूपी तलवार (कटु वचन)
नाई – नापित, बाल काटने का काम करने वाला
विरुदावली – प्रशंसा के वाक्य
भाट – चारण, प्रशंसा गायक, खुशामदी।
अपशकुन – अशुभ
भट्टियाँ – चूल्हा
ठंडई – शरबत
कगार – किनारा, तट
जेवनार – गीत, भोजगीत
मंसूबे – इरादे
टेंटुआ – गला, गर्दन
ढाढस – धैर्य, धीरज
तकदीर – भाग्य
पेट की अग्नि – भूख, क्षुधा
अपाहिज – पंगु
दुर्गति – दुर्दशा, बुरी हालत
खुरचन – खुरच कर निकाली गई वस्तु
स्वादेन्द्रिय – जीभ, रसना
मद – नशा
स्वाध्याय
1. निम्नलिखित प्रश्नों के नीचे दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर उत्तर लिखिए:
(1) बूढ़ी काकी के भतीजे का क्या नाम था?
(अ) धनीराम
(ब) पं. बुद्धिराम
(क) सुखराम
(ड) दुखराम
उत्तर – (ब) पं. बुद्धिराम
(2) रूपा किसकी पत्नी थी?
(अ) धनीराम
(ब) मनीराम
(क) हनीराम
(ड) पं. बुद्धिराम
उत्तर – (ड) पं. बुद्धिराम
(3) किसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ काकी के लिए बचाकर रखी थीं?
(अ) रूपा
(ब) बुद्धिराम
(क) लाडली
(ड) श्यामा
उत्तर –
(4) बूढ़ी काकी को पत्तलों पर से जूठी पूड़ी के टुकड़े खाता देखकर कौन सन्न रह गया?
(अ) रूपा
(ब) बुद्धिराम
(क) लाडली
(ड) श्यामा
उत्तर – (क) लाडली
2. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए –
(1) बूढ़ी काकी कैसे रोती थी?
उत्तर – बूढ़ी काकी गला फाड़-फाड़कर तथा चीखें मार-मार्कर रोती थीं।
(2) बुद्धिराम के घर किस उत्सव में पूड़ियाँ बन रही थीं?
उत्तर – बुद्धिराम के बड़े लड़के सुखराम के तिलक उत्सव पर घर में तरह- तरह के पकवान, पूड़ियाँ – कचौड़ियाँ, मसालेदार तरकारियाँ आदि बन रही थीं।
(3) बूढ़ी काकी को कहाँ पर बैठा देखकर रूपा क्रोधित हो गई?
उत्तर – बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठा देखकर रूपा क्रोधित हो गई।
(4) किस खुशी में लाडली को नींद आ रही थी?
उत्तर – बूढ़ी काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी में लाडली को नींद आ रही थी।
(5) उत्सव के दिन बूढ़ी काकी किसके डर से नहीं रो रही थी?
उत्तर – तिलक उत्सव के दिन बूढ़ी काकी अपशकुन के डर से नहीं रो रही थी।
(6) बुढ़ापे में बूढ़ी काकी की समस्त इच्छाओं का केन्द्र कौन-सी इन्द्रिय थी?
उत्तर – बुढ़ापे में बूढ़ी काकी की समस्त इच्छाओं का केन्द्र स्वादेंद्रिय अर्थात् जिह्वा या जीभ थी।
3. निम्नलिखित प्रश्नों के दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए :
(1) बूढ़ी काकी कब रोती थी?
उत्तर – बूढ़ी काकी उस समय रोती थीं जब घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसकी मात्रा कम होती अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और न मिलती थी।
(2) लड़के बूढ़ी काकी को कैसे सताते थे?
उत्तर – लड़के बूढ़ी काकी को तरह-तरह से सताते थे, जैसे- कोई चुटकी काटकर भागता तो कोई उन पर पानी कुल्ली कर देता। लड़के ऐसा अमानवीय आचरण इसलिए करते थे क्योंकि बूढ़ी काकी के प्रति उनके माता-पिता का रवैया भी रूखा ही था।
(3) बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की कैसी तसवीर नाचने लगी?
उत्तर – बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तसवीर नाचने लगी कि पूड़ियाँ खूब लाल-लाल, फूली फूली, नरम-नरम होंगी। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ लेकर देखती।
(4) थाली में भोजन सजाकर बूढ़ी काकी को खिलाते समय रूपा ने क्या कहा?
उत्तर – रूपा ने थाली में सारा भोजन सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली। उसने कंठावरुद्ध स्वर में कहा, “काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वे मेरा अपराध क्षमा कर दें।”
(5) बुद्धिराम ने बूढ़ी काकी की संपत्ति कैसे हथिया ली थी?
उत्तर – पंडित बुद्धिराम बूढ़ी काकी का भतीजा था। बूढ़ी काकी के पति और बेटों की मृत्यु के बाद बुद्धिराम ने अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से बूढ़ी काकी का विश्वास जीत लिया। उनके खान-पान, रहन-सहन की ज़िम्मेदारी निभाने की खूब लंबे-चौड़े वादे किए और उनकी संपप्ति अपने नाम करवा ली।
4. निम्नलिखित प्रश्नों के चार-पाँच वाक्यों में उत्तर लिखिए:
(1) क्या देखकर रूपा को पश्चात्ताप हुआ? क्यों?
उत्तर – बूढ़ी काकी को पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खाते हुए देखकर रूपा को पश्चात्ताप हुआ क्योंकि रूपा को इस सत्य का भान हुआ कि जिसकी संपत्ति से मुझे दो सौ रुपए की वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति और वो भी मेरे कारण। सचमुच रूपा को अपने कृत्य पर घृणा आने लगी।
(2) रूपा और बुद्धिराम ने बूढ़ी काकी के प्रति कब अमानुषिक व्यवहार किया और क्यों?
उत्तर – तिलक उत्सव के दौरान भूख से बेचैन बूढ़ी काकी जब कड़ाह के पास आ जाती है तो अमर्यादित शब्दों से जली-कटी सुनाकर रूपा बूढ़ी काकी के प्रति अमानुषिक व्यवहार करती हैं तो उसी उत्सव में अत्यधिक भूख से व्याकुल होने पर जब बूढ़ी काकी दुबारा रेंगती हुई भोजन करते मेहमानों के बीच में जा पहुँचीं तब पंडित बुद्धिराम ने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए उन्हें अँधेरी कोठरी में धम से पटककर अपने अमानुषिक व्यवहार का प्रदर्शन किया।
(3) खाने के बारे में बूढ़ी काकी के मन में कैसे-कैसे मंसूबे बँधे?
उत्तर – खाने के बारे में बूढ़ी काकी ने मन में तरह-तरह के मंसूबे बाँधे थे कि पहले सब्जी से पूड़ियाँ खाऊँगी, फिर दही-शक्कर तथा कचौड़ियों के साथ रायते मजेदार लगेंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो माँग- माँगकर खाऊँगी। इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह जूठा करके थोड़े ही उठ जाऊँगी।
(4) ‘बुढ़ापा तृष्णारोग का अंतिम समय है’ लेखक ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर – बुढ़ापा तृष्णारोग का अंतिम समय है’ लेखक ने ऐसा कहा है क्योंकि बुढ़ापा जीवन की अंतिम स्थिति होती है। इस स्थिति में आकर लोग शारीरिक रूप से लाचार हो जाते हैं और उन्हें अपने प्राय: कामों के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है। इस उम्र में बूढ़ों का स्वभाव भी बच्चों की तरह ही हो जाता है। खाने की इच्छा, बातचीत करने की चाह और सेवा-सुश्रुषा करवाने की तृष्णा बढ़ जाती है।
5. आशय स्पष्ट कीजिए :
(1) बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता
उत्तर – “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनः आगमन हुआ करता है।” प्रेमचंद ने ऐसा कहा है क्योंकि पाठ में अनेक ऐसे स्थल आए हैं जो इस कथन को सत्य साबित करते हैं। बुढ़ापे में ज्ञानेंद्रियाँ क्षीण और कर्मेन्द्रियाँ शिथिल पड़ जाती हैं। इसी तरह की स्थिति बचपन में भी होती है। बच्चों की शारीरिक स्थिति और मानसिक स्थिति प्राय: पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई होती है। जिस प्रकार बच्चे भूख से रोते हैं इस पाठ में भी बूढ़ी काकी खाने के लिए रोती हैं। बच्चों को डाँट पड़ने पर वो नाराज़ हो जाते हैं और फिर प्यार करने से मान जाते हैं उसी तरह रूपा और बुद्धिराम द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर भी वह बुरा नहीं मानती है।
(2) लड़कों का बूढ़ों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है I
उत्तर – “लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है।” ऐसा प्राय: देखा जाता है क्योंकि लड़के शारीरिक रूप से सबल और समर्थ होते हैं। उनके जीवन में अनेक ज़रूरी और गैर-ज़रूरी काम होते हैं जिस कारण वे व्यस्त रहते हैं। लड़कपन की अवस्था ऐसी होती है कि वे अपने आपको ही सही और सबसे बेहतर मानते हैं। इसके ठीक विपरीत स्थिति बूढ़ों की होती है। इसलिए लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है।
6. सूचनानुसार उत्तर लिखिए:
(1) समानार्थी शब्द दीजिए
दीनता – दरिद्रता
वाटिका – उपवन, उद्यान
(2) विरुद्धार्थी शब्द दीजिए
प्रतिकूल – अनुकूल
सज्जन – दुर्जन
अनुराग – विराग
सुलभ – दुर्लभ
अपशकुन – शकुन
दीर्घाहार – अल्पाहार
निर्लज्जता – सलज्जता
अपरिमित – परिमित
(3) शब्दसमूह के लिए एक शब्द दीजिए
जहाँ घटना बनी है वह जगह – घटनास्थल
जीभ का स्वाद – स्वादेंद्रिय
भूख से आतुर – क्षुधातुर
धीरज की परीक्षा लेनेवाली – धैर्यपरीक्षक
(4) मुहावरों के अर्थ बताकर वाक्य प्रयोग कीजिए :
सब्जबाग दिखाना – अपना काम साधने या निकालने के लिए बड़ी- बड़ी आशाएँ दिलाना – पंडित बुद्धिराम ने काकी को सब्जबाग दिखाकर उनकी संपत्ति हथिया ली।
आपे से बाहर होना – अत्यधिक क्रोधित होना – पड़ोसी से मामूली मतभेद में ही दिनेश आपे से बाहर हो गया।
उबल पड़ना – क्रोधित होना – विद्यालय से मनोज की शिकायत सुनते ही पिताजी उबल पड़े।
छाती पर सवार होना – अधीर होना – आज कल के किशोर-युवा किसी भी काम के लिए छाती पर सवार हो जाते हैं।
नाक कटवाना – इज्ज़त डुबाना – क्रिकेट मैच में हारकर टिम्स लायन ने हमारे मोहल्ले की नाक कटवा दी।
बेसिर पैर की बात – फिजूल बात – रमेश की बातें अधिकतर बेसिर पैर की होती हैं।
हृदय सन्न रह जाना – दुखी होना – बूढ़ी काकी को पत्तलों पर से जूठी पूड़ी के टुकड़े खाता देखकर रूपा का हृदय सन्न रह गया।
मुँह बाए फिरना – आशा लिए फिरना – रमेश कुछ पैसों के लिए मुँह बाए फिरता रहता है।
कलेजे में हूक-सी उठना – मन में वेदना उमड़ना – अपने शहीद पिता की वीरगति को याद करके सुरेश के कलेजे में हूक-सी उठने लगती है।
रोटियों के लाले पड़ना – दरिद्रता में दिन बीतना – कोरोना के दौरान मजदूरों को रोटियों के लाले पड़ने लगे थे।
आग हो जाना – क्रोधित होना – बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास देखकर रूपा आग हो गई।
जवाब दे चुकना – काम करना बंद हो जाना – बूढ़ी काकी के हाथ-पैर जवाब दे चुके हैं।
कलेजा पसीजना – दया आना – भिखारी की दयनीय स्थिति देखकर रमेश का कलेजा पसीज गया।
(5) संधि-विच्छेद कीजिए
परमानंद – परम + आनंद
परमात्मा – परम + आत्मा
अर्धांगिनी – अर्ध + अंगिनी
स्वार्थानुकूलता – स्वार्थ + अनुकूलता
सहानुभूति – सह + अनुभूति
रसास्वादन – रस + आस्वादन
व्याकुल – वि + आकुल
दीर्घाहार – दीर्घ + आहार
प्रतीक्षा – प्रति + ईक्षा
कण्ठावरुद्ध – कण्ठ + अवरुद्ध
क्षुधातुर – क्षुध + आतुर
कालान्तर – काल + अन्तर
रक्षागार – रक्षा + आगार
सज्जन – सत् + जन
सदिच्छाएँ – सत् + इच्छाएँ
पुनरागमन – पुनर् + आगमन
दुर्गति – दु: + गति
सम्मुख – सम् + मुख
(6) विग्रह करके समास का नाम लिखिए:
क्षुधातुर – तत्पुरुष
सदिच्छाएँ – कर्मधारय
क्षुधावर्धक – तत्पुरुष
रसास्वादन – तत्पुरुष
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दस-बारह वाक्यों में दीजिए।
(क) बूढ़ी काकी के प्रति बुद्धिराम और रूपा का व्यवहार कैसा था?
उत्तर – बूढ़ी काकी के प्रति बुद्धिराम और रूपा का व्यवहार बहुत अंशों में अमानवीय और रूखा था। बूढ़ी काकी की संपत्ति से सालाना डेढ़ सौ- से दो सौ रुपए तक की उनकी आमदनी हो जाया करती थी। बावजूद इसके वे बूढ़ी काकी का अच्छे से ख्याल नहीं रखते थे। बुद्धिराम के बेटे मुखराम के तिलक के दिन बुढ़िया का भरी महफ़िल में रूपा और बुद्धिराम द्वारा दो बार अपमान किया जाना उनके क्रूर व्यवहार को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है।
(ख) बूढ़ी काकी के साथ लाडली का कैसा संबंध था?
उत्तर – पूरे घर भर में बूढ़ी काकी का दुख दर्द अगर कोई समझता था तो वह बुद्धिराम की बेटी लाडली ही थी। इस दृष्टि से बूढ़ी काकी के साथ लाडली का संबंध आत्मीयता से परिपूर्ण था। जब भी लाडली को मिठाई – चबेना खाने को मिलता तो अपने दोनों भाइयों के भय से वह बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था। तिलक वाले दिन भी बूढ़ी काकी की दुर्गति देखकर लाडली ने उन्हें खिलाने के लिए अपने हिस्से की पूड़ियाँ बचाकर रख ली थी। छोटी उम्र की होते हुए भी वह यह समझ सकने में समर्थ थी कि माता-पिता बूढ़ी काकी के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं।
(ग) बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमग्न क्यों बैठी थी?
उत्तर – तिलक वाले दिन स्वादिष्ट व्यंजन बड़े-बड़े कड़ाहों में पक रहे थे। बूढ़ी काकी के जीवन में खाने के अलावा और कोई इच्छा शेष न रह गई थी। स्वादिष्ट भोजन की सुगंधि बूढ़ी काकी को बार-बार परेशान कर रही थी। वह यह सोच-सोच कर व्याकुल हो रही थी कि उन्हें खाने को मिलेगा भी या नहीं। इसी कशमकश में वह रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठी। उन्हें कड़ाह के पास बैठा देख रूपा ने कर्कश स्वर में उनकी खूब बेइज़्ज़ती की। दिल मसोस कर वह अपनी कोठरी में चली गई। दूसरी बार जब बूढ़ी को भूख ज़ोरों से लगने लगी तो वह पुनः मेहमानों के खाने की जगह चली गई और इस बार रौद्र रूप धारण किए बुद्धिराम ने उन्हें घसीटते हुए उनकी कोठरी में पटक दिया। इन्हीं कारणों की वजह से बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमग्न बैठी थी।
(घ) कड़ाह के पास जा बैठी बूढ़ी काकी के साथ रूपा ने कैसा आचरण दिखाया?
उत्तर – कड़ाह के पास जा बैठी बूढ़ी काकी के साथ रूपा ने जो आचरण दिखाया वह दिनभर के सभी नोंक-झोंक, मनमुटाव और थकान का मिला-जुला रूप कर्कश स्वर में कुछ इस प्रकार निकला – “ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूँसती है न जाने कहाँ भस्म हो जाता है।” इस तरीके से रूपा ने न बूढ़ी काकी उम्र का लिहाज किया और न ही उनकी बेबसी को समझ सकी।
(ङ) लाडली किस बात को लेकर झुँझला रही थी और क्यों?
उत्तर – तिलक के दिन जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा, उनके साथ अभद्र व्यवहार किया तो लाडली का हृदय धक् रह गया। वह अपने माता-पिता के निंदनीय कृत्य पर झुँझला रही थी। वह सोच रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान सब की सब खा जाएँगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? हालाँकि, वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परंतु माता के भय से न जाती थी।
(च) रूपा ने परमात्मा से क्यों प्रार्थना की?
उत्तर – रूपा ईश्वरभीरु और धर्मभीरु थी। जब उसने देखा कि उसकी बूढ़ी काकी ब्राह्मणी होते हुए मेहमानों के जूठे पत्तलों से पूड़ियाँ चुन-चुनकर खा रही है तो उसे असीम आत्मग्लानि हुई। उसे इस बात का एहसास हुआ कि इनकी संपत्ति की बदौलत हजारों रुपए इस घर में आ चुके हैं और हम इन्हें ढंग से खाना तक नहीं खिला रहे हैं। बाहर के लोग हमारे घर आकर खाना खाकर चले गए और घर का ही एक सदस्य भूखा रह जाए। उसे लगने लगा कि यह अनर्थ है। ईश्वर कुपित होकर उनके परिवार का अनिष्ट करेंगे। इसी डर से उसने परमात्मा से प्रार्थना की और अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगी।
(छ) हमारे समाज में बुजुर्गों पर हो रहे दुर्व्यवहार का चित्र ‘बूढ़ी काकी’ कहानी दिखाती है? क्या ऐसा व्यवहार सही है? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर – हमारे समाज में बुजुर्गों पर हो रहे दुर्व्यवहार का चित्र ‘बूढ़ी काकी’ कहानी बखूबी दिखाती है। बुजुर्गों के प्रति ऐसा व्यवहार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। मनुष्य जीवन में बुढ़ापा आना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। इस अवस्था में आप, हम सब एक न एक दिन पहुँचेंगे ही फिर न जाने लोग क्यों बूढ़ों को बेकार वस्तु की तरह समझते हैं। उन बूढ़ों की वजह सी ही हमारा अस्तित्व है। वे बूढ़े भले ही कागरे का वृक्ष हो चुके हैं जो कभी भी गिर सकते हैं लेकिन उनका तिरस्कार या अवहेलना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं। बूढ़ों के प्रति हमारा नज़रिया या रवैया वास्तव में हमारी मानसकिता का प्रतिफलन है। हमें यह बार-बार विचार कर लेना चाहिए कि कर्मों का फल आज नहीं तो कल मिलता ही है।
योग्यता – विस्तार
• प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाईसाहब’ ढूँढकर पढ़िए।
उत्तर – शिक्षक यह कहानी छात्रों को उपलब्ध करवाए।
• प्रस्तुत कहानी का नाट्य रूपांतरण तैयार करके इसका मंचन कीजिए।
उत्तर – शिक्षक आवश्यक रणनीति बनाएँ।
शिक्षक प्रवृत्ति
• विद्यार्थियों को वृद्धाश्रम की मुलाकात पर ले जाइए। प्रेमचंद की और कहानियाँ विद्यार्थियों को सुनाइए।
उत्तर – शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत ये कार्य करवाया जाएगा।