Gujrat State Board, the Best Hindi Solutions, Class X, Raidas, Prabhuji Tum Chandan Gum Paani, प्रभुजी तुम चंदन हम पानी रैदास

(जन्म सन् 1388 ई., निधन सन् 1518 ई. अनुमानित)

संत कवि रैदास कबीर के समकालीन महान संत थे। रैदास को रविदास के नाम से भी जाना जाता है। यह माना जाता है कि संत रामानंदजी के शिष्यों में से एक थे। ये काशी में रहते थे। उनके पदों में अनन्य भक्तिभाव की अभिव्यक्ति है। संत कवि रैदास ने भक्त और भगवान के अटूट संबंध की पुष्टि अपने पदों में की है। आत्मा-परमात्मा का मिलन सोने में सुगंध की भाँति उत्तम बतलाया है। उनके पद बहुत लोकप्रिय हैं। उनके कुछ पद गुरुग्रंथ साहब में संग्रहीत हैं। बोलचाल की सरल सहज भाषा में दो सौ से अधिक पद हैं।

पाठ में संकलित पद में रैदास कहते हैं कि प्रभुजी मैं हरहाल में आपके निकट रहता हूँ। मुझे आपकी भक्ति से भक्तमय बनना है। मैं आपका दास आपकी प्रतीति चाहता हूँ। यहाँ आत्मा और परमात्मा की अद्वैतता वर्णित है।

पद ‘प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी’ में कवि अपने आराध्य को याद करते हुए उनसे अपनी तुलना करता है। उसका प्रभु बाहर कहीं किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं विराजता वरन् उसके अपने अंतस में सदा विद्यमान रहता है। यही नहीं, वह हर हाल में, हर काल में उससे श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न है। इसीलिए तो कवि को उन जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।

जाकी अंग अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा।

जैसे चितवत् चंद चकोरा।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।

जाकी जोति बरै दिन राती।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा।

ऐसी भक्ति करै रैदासा।

बास – गंध, वास

समानी – समाना (सुगंध का बस जाना), बसा हुआ (समाहित)

घन- बादल

बन- जंगल

मोरा – मोर, मयूर

चितवत – देखना, निरखना

चकोर – तीतर की जाति का एक पक्षी जो चंद्रमा का परम प्रेमी माना जाता है

बाती – बत्ती; रुई, पुराने कपडे़ आदि को ऐंठकर या बटकर बनाई हुई पतली पूनी

जोति – ज्योति,

बरै-बढ़ाना, जलना

राती – रात्रि

सोनहिं – सोने में

सुहागा – सोने को शुद्ध करने के लिए प्रयोग में आनेवाला क्षारद्रव्य

दासा – दास, सेवक

1. निम्नलिखित प्रश्नों के एक-एक वाक्य में उत्तर लिखिए –

(1) प्रभु चंदन है तो भक्त क्या है?

उत्तर – प्रभु चंदन है तो भक्त स्वयं को जल अर्थात् पानी मानता है।

(2) भक्त दीपक बनकर क्या चाहता है?

उत्तर – भक्त दीपक बनकर दिन-रात प्रज्वलित होना चाहता है ताकि ईश्वर की महिमा प्रकाश के रूप में सभी दिशाओं को आलोकित करे।  

 (3) सोने का महत्त्व कब बढ़ता है?

उत्तर – सोने में जब सुहागा को मिला दिया जाता है तब उसका महत्त्व बढ़ जाता है।

2. निम्नलिखित प्रश्न के दो-तीन वाक्यों में उत्तर लिखिए:

(1) भक्त किन-किन उदाहरणों द्वारा समझाता है कि मैं प्रभु के निकट हूँ अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – भक्त रैदास स्वयं को तुच्छ तथा ईश्वर को सर्वोपरि मानते हुए तरह-तरह के उदाहरणों द्वारा अपने को प्रभु के निकट रखने की चेष्टा करते हैं। वे पहले प्रभु को और बाद में स्वयं को रखते हैं, जैसे – चंदन और पानी, बादल और मोर, चाँद और चकोर, दीपक और बाती, मोती और धागा तथा सोना और सुहागा।

3. उचित जोड़े बनाइए :

‘अ’                  ‘ब’

चंदन                 मोरा

घन बन               ज्योति

दीपक                 पानी

सोना                 रैदासा

भक्त                 सुहागा

उत्तर –

‘अ’                  ‘ब’

चंदन                 पानी

घन बन               मोरा

दीपक                 ज्योति

सोना                 सुहागा

भक्त                 रैदासा

रैदास के अन्य पद संकलित कीजिए।

उत्तर –

ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।

गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ।।

जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।

नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।।

नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।

कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै।।

 रैदास के पद एवं गुरुनानक के पद की तुलना कीजिए।

उत्तर – रैदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें  अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफ़ाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। रैदास के चालीस पद सिक्खों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित हैं। नानक नवजागरण के कवि होने के साथ-साथ ही अच्छे सूफी कवि भी। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा ‘बहता नीर’ थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी के शब्द समा गए थे।

निरालाजी की ‘तुम और मैं ’कविता का गान करें और समझाइए।

उत्तर –

तुम तुंग – हिमालय – शृंग

और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।

तुम विमल हृदय उच्छवास

और मैं कांत-कामिनी-कविता।

तुम प्रेम और मैं शांति,

तुम सुरा – पान – घन अंधकार,

मैं हूँ मतवाली भ्रांति।

तुम दिनकर के खर किरण-जाल,

मैं सरसिज की मुस्कान,

तुम वर्षों के बीते वियोग,

मैं हूँ पिछली पहचान।

तुम योग और मैं सिद्धि,

तुम हो रागानुग के निश्छल तप,

मैं शुचिता सरल समृद्धि।

तुम मृदु मानस के भाव

और मैं मनोरंजिनी भाषा,

तुम नंदन-वन – घन विटप

और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।

तुम प्राण और मैं काया,

तुम शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म

मैं मनोमोहिनी माया।

तुम प्रेममयी के कंठहार,

मैं वेणी काल-नागिनी,

तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,

मैं व्याकुल विरह – रागिनी।

तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,

तुम हो राधा के मनमोहन,

मैं उन अधरों की वेणु।

तुम पथिक दूर के श्रांत

और मैं बाट – जोहती आशा,

तुम भवसागर दुस्तर

पार जाने की मैं अभिलाषा।

तुम नभ हो, मैं नीलिमा,

तुम शरत – काल के बाल-इंदु

मैं हूँ निशीथ – मधुरिमा।

तुम गन्ध-कुसुम-कोमल पराग,

मैं मृदुगति मलय-समीर,

तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,

मैं प्रकृति, प्रेम – जंजीर।

तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,

तुम रघुकुल – गौरव रामचंद्र,

मैं सीता अचला भक्ति।

तुम आशा के मधुमास,

और मैं पिक-कल-कूजन तान,

तुम मदन – पंच – शर – हस्त

और मैं हूँ मुग्धा अनजान !

तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,

तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,

मैं तड़ित् तूलिका रचना।

तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य

मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,

तुम नाद – वेद ओंकार – सार,

मैं कवि – शृंगार शिरोमणि।

तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,

तुम कुन्द – इन्दु – अरविन्द-शुभ्र

तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

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