(सन् 1889-1941)
हिंदी साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य-इतिहासकार, निबंधकार और आलोचक के रूप में विख्यात रहे हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गाँव में सन् 1889 ई. में हुआ था तथा देहावसान बनारस (काशी) में सन् 1941 ई. में हुआ। इनके पिता चंद्रबली शुक्ल कानूनगो थे, जो पत्नी का देहांत होने के कारण मिर्ज़ापुर में आ गए थे। बालक राम चंद्र की आरंभिक शिक्षा यहीं हुई। तथा यहीं से उन्होंने सन् 1901 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। विपरीत परिस्थितियों के कारण यह आगे विधिवत शिक्षा नहीं ले पाए। इनका संपूर्ण ज्ञान तथा शिक्षा इनके व्यक्तिगत प्रयत्नों का परिणाम था।
साहित्य के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल का प्रवेश निबंध और कविता से शुरू होता है। शीघ्र ही इन्होंने इतिहास आलोचना और निबंध के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित किए। हिंदी की प्रारंभिक कहानियों में इनकी कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (1903) का उल्लेखनीय स्थान है। इनकी अन्य रचनाओं में हिंदी साहित्य का इतिहास, जायसी, तुलसीदास की ग्रंथावली की भूमिका तथा सूरदास (भ्रमरगीत-सार की भूमिका) और ‘रस मीमांसा’ उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने अनुवाद और संपादन का कार्य भी किया।
गद्य और गद्य में निबंध के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल का विशिष्ट स्थान है। इस संदर्भ में राम स्वरूप चतुर्वेदी का कहना है कि जैसे आधुनिक कविता में निराला, नाटक में जयशंकर प्रसाद और कथा-साहित्य में प्रेमचंद अपना विशेष स्थान रखते हैं उसी प्रकार निबंध और आलोचना में आचार्य शुक्ल विशिष्ट हैं। इनके प्रारंभिक निबंधों में साहित्य, भाषा की शक्ति, उपन्यास, भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिंदी तथा मित्रता आदि उल्लेखनीय हैं।
परिपक्वावस्था के निबंधों में चिंतामणि भाग-1, भाग-2 तथा भाग-3 (मृत्यु के बाद प्रकाशित) में संकलित निबंध मनोविकारों और समीक्षा से संबंधित है। इतिहास, समीक्षा और निबंध आदि सर्वत्र इनकी दृष्टि लोकमंगल से जुड़ी रही है।
प्रस्तुत निबंध ‘मित्रता’ में शुक्ल ने जीवन में मित्र के महत्त्व एवं उसके चुनाव में रखी जाने वाली सावधानियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। निबंधकार का मानना है कि मित्र का चरित्र हमारे जीवन को दूर तक प्रभावित करता है और हमारे समूचे जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है। सच्चा और अच्छा मित्र हमें समयानुसार उचित सलाह देकर जहाँ हमारे कष्टों, दुखों को दूर करके हमें जीवन में अच्छा बनने में सहायता दे सकता है वहीं मूर्ख और बुरे आचरण वाला हमें गलत आदतों का शिकार बना कर हमारे विनाश का कारण भी बन सकता है। निबंधकार की सलाह है कि उज्ज्वल और निष्कलंक बना रहने के लिए सोच-समझ कर सावधानी पूर्वक मित्र का चयन करना चाहिए, क्योंकि संगति का प्रभाव बहुत तेजी से और गहराई तक प्रभावित करने वाला होता है।
जब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में आती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकांत और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है, क्योंकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में ढाले चाहे राक्षस बनाए चाहे देवता।
ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं, क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई नियंत्रण रहता हैं और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवकों को प्रायः बहुत कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाए तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरुष प्रायः विवेक से कम काम लेते हैं। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके सौ गुण-दोष को परख कर लेते हैं, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और स्वभाव आदि का कुछ भी विचार और अनुसंधान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी-ही-अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हँस-मुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है? क्या जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है? यह बात हमें नहीं सूझती कि यह ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है, “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।” विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए।
छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बंधन होते हैं, उनमें न तो उतनी उमंग रहती है, न उतनी खिन्नता। बाल मैत्री में जो मग्न करने वाला आनंद होता है, जो हृदय को बेधनेवाली ईर्ष्या और खिन्नता होती है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। हृदय के कैसे उद्गार निकलते हैं! वर्तमान कैसा आनंदमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के संबंध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना होता है।
‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किंतु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शांत और गंभीर होती है, उसी प्रकार युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत-से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होंगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन के झंझटों में चलता नहीं। सुंदर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति, ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन संग्राम में साथ देनेवाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-छोटे काम ही हम निकालते जाएँ, पर भीतर ही भीतर घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें।
मित्र भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रुचि के हों। प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शांत प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यंत प्रगाढ़ स्नेह था। उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिंताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूँढ़ता है, निर्बल बली का धीर उत्साही का उच्च आकांक्षा वाला चंद्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था नीति विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।
मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है, “उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।” यह कर्त्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़ चित्त और सत्य संकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों , शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।
जो बात ऊपर मित्रों के संबंध में कही गई है, वहीं जान पहचानवालों के संबंध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऐसे हों, जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनंदमय बनाने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं, न सहानुभूति द्वारा हमें ढाढ़स बँधा सकते हैं, न हमारे आनंद में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखे। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियाँ सजानी नहीं हैं। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है, जो उसके साथ थियेटर देखने जाएँगे, नाचरंग में जाएँगे, सैर सपाटे में जाएँगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऐसे जान-पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकलें, जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, दिन-रात बनाव सिंगार में रहा करते हैं, महफ़िलों में ‘ओ हो हो”, “वाह वाह” किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते हैं और सिगरेट का धुआँ उड़ाते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, निस्सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनंद से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुंदर मनोहर उक्ति वाले कवि हुए हैं और न संसार में सुंदर आचरण वाले महात्मा। उनके लिए न तो बड़े वीर अद्भुत कर्म कर गए हैं और न बड़े-बड़े ग्रंथकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं, जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विकता की उमंगें उठती हैं। उनके लिए फूल-पत्तियों में कोई सौंदर्य नहीं, झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनंत सागर तरंगों में गंभीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थं का आनंद नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शांति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इंद्रिय विषयों में ही लिप्त है, जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऐसे नशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अंधकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा जो तरस न खाएगा? हमें ऐसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।
मकदूनिया का बादशाह डेमट्रियस कभी-कभी राज्य के सब काम छोड़कर अपने ही मेल के दस-पाँच साथियों को लेकर मौज-मस्ती में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हँसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुँचा तब डेमेट्रियस ने कहा, “ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।” पिता ने कहा, “हाँ, ठीक हैं, वह दरवाज़े पर मुझे मिला था।”
कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।
इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर ज़िंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं। एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा अथवा तुम्हारे चरित्र बल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें कहने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो। एक पुरानी कहावत है-
“काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय।
एक लीक काजल की लागि है पै लागि है।”
परिणत होना – बदल जाना
संगति – साथ, हेल मेल, मेल जोल, घनिष्ठता
अपरिमार्जित – जो साफ सुथरा न हो
अपरिपक्व – जो पका न हो, अविकसित
दृढ़ संकल्प – पक्का इरादा
विवेक – अच्छे-बुरे को पहचानने की क्षमता
अनुसंधान – खोज, पड़ताल
चटपट – फटाफट, जल्दी-जल्दी
आत्मशिक्षा – जीवन-ज्ञान
संकल्प – निश्चय
मर्यादा – जीवन अनुशासन
हतोत्साहित – जिसमें उत्साह न हो
उत्साहित – उत्साह, हौंसला
निपुण – कुशल, प्रवीण
उमंग – रोमांच
खिन्नता – खीजना, चिढ़ जाना
अनुरक्ति – लीन होना, जुड़ना, लगाव
उथल-पुथल – हलचल
जीवन-संग्राम – जीवन संघर्ष,
स्नेह – प्रेम-प्यार
प्रीति पात्र – कृपा पात्र
वांछनीय – अपेक्षित
चिंताशील – परेशान
उच्च आकांक्षा – उत्कृष्ट इच्छा
युक्ति – तरीका नीति
विशारद नीति – निपुण, नीतिवान
कर्त्तव्य – फर्ज़
सामर्थ्य – योग्यता
दृढ़ चित्त – पक्का इरादा
सत्य संकल्प – शुभ विचार
आत्मबल – नैतिक शक्ति
प्रतिष्ठित – स्थापित
मृदुल – कोमल, नम्र,
पुरुषार्थ – परिश्रम
शिष्ट – सभ्य, सदाचारी
सत्यनिष्ठ – सत्य पर अडिग रहने वाला, सत्यवान
विनोद – मनोरंजन
मनचला – छिछला
निस्सार – सारहीन, व्यर्थ
शोचनीय – चिंताजनक
सात्विकता – सात्विक होने का भाव
अनंत – जिसका अंत नहीं होता
गंभीर – गहन
रहस्य – छिपा हुआ
कुत्सित विचार – बुरे विचार
इंद्रिय विषय – इंद्रियों से संबंधित
नीचाशय – घटिया इरादे
कलुषित – दूषित
कुसंग – बुरी संगत
क्षय – हानि, कम होना
अवनति – पतन
चेष्टा – प्रयत्न
बेधना – घाव करना
लगाव उथल-पुथल – हलचल
चौकसी – सावधानी
अभ्यस्त – निपुण
कुंठित – अप्रखर, अक्षम, कमजोर, मद्धम
निष्कलंक – बिना कलंक के, पवित्र
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
- घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में विचरने पर युवाओं के सामने पहली कठिनाई क्या आती है?
उत्तर – घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में विचरने पर युवाओं के सामने पहली कठिनाई मित्रों के चुनाव को लेकर आती है।
- हमसे अधिक दृढ़ संकल्प वाले लोगों का साथ बुरा क्यों हो सकता है?
उत्तर – हमसे अधिक दृढ़ संकल्प वाले लोगों का साथ बुरा हो सकता है क्योंकि ऐसे लोग अपने सामने किसी और के विचारों को अहमियत नहीं देते और हमारी नज़र में उनकी बातें सही न होने भी हमें मजबूरन उनकी बातें मान ही लेनी पड़ती हैं।
- आजकल लोग दूसरों में कौन-सी दो चार बातें देखकर चटपट उसे अपना मित्र बना लेते हैं?
उत्तर – आजकल लोग दूसरों का हँसमुख चेहरा, उनके बातचीत का ढंग, उनकी चतुराई या साहस जैसी दो-चार बातें देखकर चटपट उसे अपना मित्र बना लेते हैं।
- किस प्रकार के मित्र से भारी रक्षा रहती है?
उत्तर – ऐसे विश्वासपात्र से भारी रक्षा रहती है जो हमें हमारी गलतियों पर डाँटे, अच्छाइयों पर शाबाशी दे और दोषों और त्रुटियों से हमें बचाए।
- चिंताशील, निर्बल तथा धीर पुरुष किस प्रकार का साथ ढूँढ़ते हैं?
उत्तर – चिंताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त वाले व्यक्ति का, निर्बल बली का तथा धीर पुरुष उत्साही का साथ ढूँढ़ता है।
- उच्च आकांक्षा वाला चंद्रगुप्त युक्ति व उपाय के लिए किसका मुँह ताकता था?
उत्तर – उच्च आकांक्षा वाला चंद्रगुप्त युक्ति व उपाय के लिए चाणक्य (विष्णुगुप्त) का मुँह ताकता था।
- नीति- विशारद अकबर मन बहलाने के लिए किसकी ओर देखता था?
उत्तर – नीति- विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।
- मकदूनिया के बादशाह डेमेट्रियस के पिता को दरवाजे पर कौन सा ज्वर मिला था?
उत्तर – मकदूनिया के बादशाह डेमेट्रियस के पिता को दरवाजे पर कुसंगति रूपी ज्वर मिला था जो कि मौज़-मस्ती में बादशाह का साथ देने वाला एक हँसमुख जवान था।
- राज दरबार में जगह न मिलने पर इंग्लैंड का एक विद्वान अपने भाग्य को क्यों सराहता रहा?
उत्तर – राज दरबार में जगह न मिलने पर इंग्लैंड का एक विद्वान अपने भाग्य को सराहता रहा क्योंकि उसने यह महसूस कर लिया था कि यहाँ के राजदरबारी पद और अज्ञानता के मद में डूबे हुए हैं। वह यह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ बुरे लोगों की संगति में पड़कर उसकी आध्यात्मिक उन्नति बाधित होगी।
- हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय क्या है?
उत्तर – हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो और मित्रों का चयन बड़ी सावधानी से करो।
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन या चार पंक्तियों में दीजिए :-
- विश्वासपात्र मित्र को खजाना, औषध और माता जैसा क्यों कहा गया?
उत्तर – विश्वासपात्र मित्र को खजाना, औषध और माता जैसा कहा गया है क्योंकि जिस प्रकार खजाना हमारी आर्थिक संकट को दूर कर देता है उसी प्रकार अच्छा मित्र भी हमारे जीवन को सही आयाम देकर हमें समस्याओं से दूर रखता है। जिस प्रकार औषध हमें बीमारियों से ठीक करता है उसी प्रकार मित्र भी औषध की तरह हमें बुराइयों से बचाते हैं। मित्र को माँ के समान भी कहा गया है क्योंकि जिस प्रकार माँ सदैव हमारी मंगल कामना करती है उसी प्रकार हमारा सच्चा मित्र भी हमारा भला ही चाहता है।
- अपने से अधिक आत्मबल रखने वाले व्यक्ति को मित्र बनाने से क्या लाभ है?
उत्तर – अपने से अधिक आत्मबल रखने वाले व्यक्ति को मित्र बनाने के बहुत लाभ होते हैं। पहला तो यह कि हमें उनसे सदैव जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती रहती है। दूसरा, हम उनसे इतने उत्साहित हो जाते हैं कि अपने सामर्थ्य से बाहर जाकर भी कार्य करने को सामान्य बात मानने लगते हैं। इतिहास भी इस कथन को सत्यापित करता है कि जब सुग्रीव ने राम से मित्रता की तो वह इतना अधिक उत्साहित हो गया कि अपने से अधिक बलशाली बालि से भी युद्ध करने को तैयार हो गया।
- लेखक ने युवाओं के लिए कुसंगति और सत्संगति की तुलना किससे की और क्यों?
उत्तर – लेखक ने युवाओं के लिए कुसंगति की तुलना कुसंग के ज्वर से की है। इस ज्वर से बुद्धि का क्षय, नीति और सद्वृत्ति का नाश होता है। वास्तव में कुसंगति पैरों में बँधी उस चक्की के समान होती है जो दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाती है। दूसरी तरफ़ लेखक ने सत्संगति की तुलना सहारा देने वाले बाहुओं से की है जो निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाती है।
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए-
- सच्चे मित्र के कौन-कौन से गुण लेखक ने बताएँ हैं?
उत्तर – लेखक ने सच्चे मित्र के निम्नलिखित गुण बताएँ हैं –
– सच्चा मित्र औषधि की तरह हमें बुराइयों से बचाता है।
– सच्चा मित्र माँ की तरह ही सदैव हमारी मंगलकामना करता है।
– सच्चे मित्र भाई की तरह ही विश्वासपात्र होते हैं।
– सच्चा मित्र हमारे लिए खजाने की तरह ही होता है जो हमें जीवन की परेशानियों से दूर रखता है।
– सच्चा मित्र हमारे दृढ़ संकल्पों को पूरा करने में हमारी सहायता करता है।
- बाल्यावस्था और युवावस्था की मित्रता के अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – बाल्यावस्था की मित्रता के पीछे स्नेह-बंधन होते हैं। बाल मैत्री में मग्न करने वाला आनंद होता है, तो हृदय को बेधनेवाली ईर्ष्या और खिन्नता भी होती है। इसमें मधुरता, अनुरक्ति और अपार विश्वास का मिश्रण होता है। दूसरी तरफ़ युवावस्था की मित्रता बड़ी चुनौतीपूर्ण होती है क्योंकि हमें अच्छे मित्रों का चयन करना होता है। अगर मित्र अच्छे मिले तो हमारा जीवन सुखमय बन जाता है और अगर मित्रों के चयन में गलती हो जाए तो हमारा जीवन अंधकारमय हो जाएगा।
- दो भिन्न प्रकृति के लोगों में परस्पर प्रीति और मित्रता बनी रहती है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – दो भिन्न प्रकृति के लोगों में परस्पर प्रीति और मित्रता बनी रह सकती है और इतिहास के उदाहरण इस कथन पर मुहर भी लगाते हैं, जैसे – मुगल सम्राट अकबर और बीरबल दोनों अलग-अलग स्वभाव के होते हुए भी मित्र थे। अकबर अपने राज्य का विस्तार करने वाला एक महत्त्वाकांक्षी शासक था तो बीरबल नीतिनिपुण, विद्वान व मज़ाकिया स्वभाव वाले व्यक्ति थे। इसी प्रकार राम धीर और शांत स्वभाव के थे और उनके अनुज लक्ष्मण उग्र स्वभाव के थे, लेकिन दोनों भाइयों में परस्पर प्रीति थी। उच्च आकांक्षा वाला सम्राट चंद्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य पर आश्रित रहता था।
- मित्र का चुनाव करते समय हमें किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर – मित्र का चुनाव करते समय हमें बहुत-सी बातें ध्यान में रखनी चाहिए, जैसे –
– उसके गुणों तथा स्वभाव की बारीकी से परख करनी चाहिए।
– उसमें औषध वाले गुण होने चाहिए जो हमें बुराइयों से दूर रखे।
– हमारी माता जैसे हमारी मंगल कामना करती है उसी तरह हमारा मित्र भी हमारा भला सोचे।
– वह विश्वास पात्र होना चाहिए।
– उसमें अधिकाधिक आत्मबल होना चाहिए।
– मित्र खजाने की तरह ही हमें मुसीबतों से दूर रखें।
- बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है? क्या आप लेखक की इस उक्ति से सहमत हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – लेखक का यह कहना कि बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है, सचमुच, सोलह आने सही है। जब हमलोग किशोरावस्था या युवावस्था में होते हैं और चाहे न चाहे अनजाने में ही सही किसी न किसी ऐसी असंस्कृत बातों या कृत्यों से परिचित हो जाते हैं कि उससे छुटकारा पा लेना इतना आसान नहीं होता। और हम जिस चीज़ को जितना भूलने की कोशिश करते हैं वह उतना ही हमें याद आती रहती है। मेरे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ कि कुछ गलत संगति के कारण मुझे अपशब्द कहने की आदत लग गई थी इसके साथ ही साथ मैं सबको किसी न किसी बात पर छोटा या गलत दिखाने की कोशिश भी करने लगा था। यह आदत इतने बुरे तरीके से मेरे दर्जा समाज में नीचे गिरा रही थी कि मैं क्या कहूँ। आखिरकार कई महीनों की अटल निर्णय और संगति बदलने के बाद मैं इन कुकृत्यों से मुक्त हो पाया।
(1) निम्नलिखित शब्दों से भाववाचक संज्ञा बनाइए :-
मित्र – मित्रता
कोमल – कोमलता
शांत – शांति
लड़का – लड़कपन
बुरा – बुराई
अच्छा – अच्छाई
निपुण – निपुणता
दृढ़ – दृढ़ता
(2) निम्नलिखित वाक्यांशों के लिए एक शब्द लिखिए :-
जिसका सत्य में दृढ़ विश्वास हो – सत्यव्रत
जो नीति का ज्ञाता हो – नीतिज्ञ
जिस पर विश्वास किया जा सके – विश्वसनीय
जो मन को अच्छा लगता हो – मनोहारी
जिसका कोई पार न हो – अपार
(3) निम्नलिखित में संधि कीजिए:
युवा + अवस्था = युवावस्था
बाल्य + अवस्था = बाल्यावस्था
नीच + आशय = नीचाशय
महा + आत्मा = महात्मा
नशा + उन्मुख = नशोन्मुख
वि + अवहार = व्यवहार
हत + उत्साहित = हतोत्साहित
सह + अनुभूति = सहानुभूति
प्रति + एक = प्रत्येक
पुरुष + अर्थी = पुरुषार्थी
(4) निम्नलिखित समस्त पदों का विग्रह कीजिए :-
नीति-विशारद = नीति का विशारद
राजदरबारी = राजा का दरबारी
पथप्रदर्शक = पथ का प्रदर्शक
स्नेह बंधन = स्नेह का बंधन
सत्यनिष्ठा = सत्य के लिए निष्ठा
जीवन निर्वाह = जीवन का निर्वाह
जीवन-संग्राम = जीवन का संग्राम
(5) निम्नलिखित मुहावरों के अर्थ समझकर इनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए
मुहावरा अर्थ वाक्य
कच्ची मिट्टी की मूर्ति – परिवर्तित होने योग्य – बच्चे कच्ची मिट्टी की मूर्ति होते हैं।
खजाना मिलना – अधिक मात्रा में धन मिलना – सुरेश की जिंदगी बदल गई है, लगता है उसे कोई खजाना मिल गया है।
जीवन की औषधि होना – जीवन रक्षा का साधन – सच्चे मित्र जीवन की औषधि होते हैं।
मुँह ताकना – आशा लगाए बैठना – बच्चे शाम के समय मिठाई खाने की आशा में अपने पिता का मुँह ताकने लगते हैं।
ठट्ठा मारना – ठठोली करना, हँसी मजाक करना, ऐश करना – आजकल के युवा ठट्ठा मारने को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं।
पैरों में बँधी चक्की – पाँव की बेड़ी – पुराने जमाने की स्त्रियों के पैरों में मर्यादाओं की बँधी चक्की हमेशा लटकती रहती थी।
घड़ी भर का साथ – थोड़ी देर का साथ – आज के युग में शायद ही कोई इतना ईमानदार हो जो घड़ी भर का साथ दे दे।
(1)आपने अपने मित्रों का चुनाव उनके किन-किन गुणों से प्रभावित होकर किया है? कक्षा में बताइए।
उत्तर – मैंने अपने स्कूल में कुछ ऐसे मित्र बनाएँ हैं जिसमें सचमुच दुर्लभ गुण हैं जैसे कि वे किसी भी स्थिति में अपने मित्रों का साथ नहीं छोड़ते हैं। वे नोट्स दे देते हैं यहाँ तक कि खाली समय में सामूहिक परिचर्चा भी विविध विषयों पर करते हैं। वे सत्यवादी हैं और साहस जैसे गुण भी उनमें विद्यमान है।
2.आपका मित्र बुरी संगति में पड़ गया है। आप उसे कुसंगति से बचाकर सत्संगति की ओर लाने के लिए क्या उपाय करेंगे?
उत्तर- मैं ऐसी स्थिति में उसे पहले तो समझाने की कोशिश करूँगा और साथ ही साथ अपने अन्य मित्रों की भी मदद लूँगा। स्कूल की कौंसेलर से एक मीटिंग भी करूँगा। उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताऊँगा और अगर वह फिर भी गलती करते रहे तो थप्पड़ का प्रयोग भी मैं कर सकता हूँ।
3.एक अच्छी पुस्तक, अच्छे विचार भी सच्चे मित्र की तरह ही होते हैं। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर – यह तो शत-प्रतिशत सही बात है कि एक अच्छी पुस्तक, अच्छे विचार भी सच्चे मित्र की तरह ही होते हैं। इन सभी से हमारा जीवन सरल और सुंदर बनता है।
4.क्या आपने कभी अपनी बुरी आदत को अच्छी आदत में बदलने का प्रयास किया है? उदाहरण देकर कक्षा में बताइए।
उत्तर – हाँ, एक बार की बात है जब बगीचे से फूल तोड़ने की बात पर मेरी शिक्षिका मुझे डाँट लगा रही थी तो मैंने अपने बचाव के लिए एक ऐसे बच्चे का नाम ले लिया जिसने भी फूल तोड़े थे। पर किस्मत का धनी वह कभी पकड़ा नहीं गया। पर मैं पकड़ा गया। मेरी शिक्षिका ने मुझे समझाते हुए कहा कि कभी भी अपनी तुलना किसी से मत किया करो और खुद के बचाव के लिए किसी दूसरे का नाम लेना कमजोरी की निशानी है। उस दिन से मैंने न ही बुरा काम किया और न ही किसी का नाम।
1.सच्ची मित्रता पर कुछ सूक्तियाँ चार्ट पर लिखकर कक्षा में लगाइए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर इसे करें।
- सत्येन बोस द्वारा निर्देशित ‘दोस्ती’ फिल्म जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार तथा छह फिल्म फेयर अवार्ड भी मिले थे, देखिए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर इसे करें।
- अपने मित्रों की जन्म तिथि, टेलीफोन नंबर तथा उसका पता एक डायरी में नोट कीजिए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर इसे करें।
- अपने मित्रों के जन्म दिवस पर बधाई कार्ड बनाकर भेंट कीजिए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर इसे करें।
- कक्षा में अपने मित्रों की अच्छी आदतों की सूची तैयार कीजिए।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर इसे करें।
- अपने सहपाठियों के साथ एक समूह चित्र (ग्रुप फोटो खिंचवाकर अपने पास रखें।
उत्तर – छात्र अपने स्तर पर इसे करें।
राम-सुग्रीव – राम अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। इनके तीन भाई थे – लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हनुमान, भगवान राम के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। हनुमान के कारण ही किष्किंधा के राजा बालि के छोटे भाई सुग्रीव की मित्रता राम से हुई तब सुग्रीव अपने बड़े भाई बालि के भय से ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान तथा कुछ अन्य वानर सेनापतियों के साथ रह रहे थे। श्री राम ने सुग्रीव से मित्रता निभाते हुए सुग्रीव के साथ हुए अन्याय को दूर करने में सहायता की तथा उसमें आत्मबल का संचार किया। सुग्रीव भी सीता की खोज में श्रीराम के सहायक बने।
चंद्रगुप्त चाणक्य- चंद्रगुप्त मौर्य भारत के चक्रवर्ती सम्राट थे। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान विजेता ही नहीं था वरन एक योग्य शासक भी था अपने मंत्री चाणक्य (कौटिल्य) की सहायता से उसने ऐसी शासन व्यवस्था का निर्माण किया, जो उस समय के अनुकूल थी। वास्तव में चाणक्य को मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है। किवदंती के अनुसार एक बार मगध के राजा महानंद द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने नंदवंश का नाश करने का प्रण किया। नंदवंश के विनाश के बाद उसने चंद्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठाने में हर संभव सहायता की। चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।
अकबर-बीरबल – मुगल सम्राट अकबर एक उदार शासक के रूप में इतिहास में दर्ज हैं। तेरह वर्ष की आयु में ही इन्होंने राजपाट संभाल लिया था। उस समय बैरम खाँ नाम का मंत्री इनका संरक्षक बना था। अकबर ने मुगल परंपरा के विपरीत समन्वय और उदार नीति अपनाई। अकबर के दरबारी रत्नों (नवरत्नों) में हिंदू मंत्री बीरबल हाजिर जवाब और कुशल मंत्री था। बीरबल अपनी बुद्धिमानी और समझदारी के कारण बादशाह अकबर का स्नेहपात्र था। अकबर इन्हें सदा अपने साथ रखता था और प्रत्येक काम में इनकी सलाह लिया करता था। अकबर बीरबल का संबंध और बीरबल की वाक् चातुरी, हाजिर जवाबी लोक-जीवन में काफी चर्चित है।
मकदूनिया (Macedonia) – मकदूनिया यूनान (ग्रीक) का एक प्रसिद्ध गणराज्य, जहाँ के राजा सिकंदर महान (Alexander the Great) हुए है। यूनान के अन्य दो राज्य-एथेंस और स्पार्टा थे। एथेंस का ज्ञान-विज्ञान में बोलबाला था। महान दार्शनिक सुकरात (Socrates) यहीं के थे परंतु स्वतंत्र विचार रखने के कारण वहाँ के शासन ने इनको जेल में डाल दिया था, जहाँ जहर का प्याला पीने के कारण इनकी मृत्यु हुई थी। इन्हीं के शिष्य प्लेटो (Plato) और प्लेटो के शिष्य अरस्तु (Aristotle) हुए हैं। अरस्तू के पिता मकदूनिया के राजवैद्य थे। सुकरात की मृत्यु के बाद प्लेटो ने आदर्श गणराज्य बनाने के लिए एक विद्यापीठ की स्थापना की थी। अरस्तू इसी विद्यापीठ का होनहार विलक्षण विद्यार्थी रहा है।