लेखक परिचय :
आचार्य विनोबा भावे का पूरा नाम विनायक राव भावे है। उनका जन्म 11 सितम्बर, सन् 1895 को महाराष्ट्र के गंगोदा गांव में हुआ था। बचपन से वे बड़े मेधावी थे; गणित और संस्कृत जैसे विषयों पर उनका पूरा अधिकार था। अपनी माता की प्रेरणा से वे आजीवन अविवाहित रहे और देश की सेवा करते रहे।
आचार्य विनोबा का व्यक्तित्व महात्मा गांधी के आदर्शों से भी प्रभावित था; अत: उन्होंने सत्य, सेवा और अहिंसा के रास्ते को अपनाकर बापू के आदर्शों तथा सिद्धान्तों को आगे बढ़ाया। ‘सर्वोदय’ को साकार करना उनका स्वप्न था। महात्मा गांधी की मौत के बाद विनोबाजी ने देश-भर पद-यात्रा की और भूदान, ग्राम-दान तथा संपत्ति दान के द्वारा देश में एक सकारात्मक क्रान्ति लानेका प्रयत्न किया। भारतीय दर्शन पर उनकी गहरी आस्था थी।
विनोबाजी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानते हुए इसके प्रति अपना गहरा प्रेम प्रकट किया। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे; पर उनकी अधिकांश पुस्तकें हिन्दी में ही हैं। इनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं- गीता प्रवचन, सर्वोदय विचार, विनोबा के विचार, स्वराज-शास्त्र, साहित्यिकों से, भूदान यज्ञ, गांव सुखी हम सुखी, शान्ति- यात्रा, भूदान – गंगा, सर्वोदय-यात्रा, जमाने की मांगें, जीवन और शिक्षण आदि।
श्रम की प्रतिष्ठा
श्रम की प्रतिष्ठा
यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर स्थित है। अगर शेषनाग का आधार टूट जाए तो पृथ्वी स्थिर नहीं रह सकेगी, यह ज़र्रा ज़र्रा हो जायेगी। हमने सोचा- यह शेषनाग कौन ? ध्यान में आया, दिन भर शरीर श्रम करने वाले मज़दूर, जो किस्म-किस्म की पैदावार करते हैं, वे ही ये शेषनाग हैं। सबका आधार उन मज़दूरों पर है, इसलिए भगवान ने मज़दूरों को कर्मयोगी कहा है। लेकिन सिर्फ़ कर्म करने से कोई कर्मयोगी नहीं होता। हिन्दुस्तान में कुछ मज़दूर खेतों पर काम करते हैं, कुछ रेलवे में काम करते हैं, कुछ कारखानों में काम करते हैं। दिन भर मज़दूरी करते हैं और अपने पसीने से रोटी कमाते हैं। जो शख्स पसीने से रोटी कमाता है, वह धर्म – पुरुष हो जाता है। उसके जीवन में पाप का आसानी से प्रवेश नहीं हो सकता। दिन भर काम कर लिया तो रात को गहरी नींद आती है। न दिन में पाप कर्म करने के लिए समय मिलता है, न रात को कुछ सूझ सकता है; क्योंकि थका-माँदा शरीर आराम चाहता है। उसे नींद की ज़रूरत होती है। जिस जीवन में पाप – चिंतन की गुंजाइश ही न हो उसे धार्मिक जीवन होना चाहिए।
पर ऐसा अनुभव नहीं हो रहा है। अनुभव तो यह है कि जो काम नहीं करते उनके जीवन में तो पाप है ही, पर उन पापों ने मज़दूरों के जीवन में प्रवेश कर लिया है। कई प्रकार के व्यसन उनमें होते हैं। यानी केवल श्रम करने से कोई कर्मयोगी नही होता। हाँ, जो श्रम टालता है, वह तो कर्मयोगी हो ही नहीं सकता। उसके जीवन में पाप है तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि उसके पास समय फाज़िल पड़ा है। जहाँ समय फाज़िल पड़ा है, वहाँ शैतान का काम शुरू होता है। इसलिए फुरसती लोगों के जीवन में पाप दिखता है तो आश्चर्य नहीं। पर मज़दूरी करने वाले के जीवन में पाप दिखता है तो सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है। ऐसा इसलिए होता है कि वे कर्म को पूजा नहीं समझते। कर्म लाचारी से करना पड़ता है, इसलिए करते हैं। वे अगर काम से मुक्त हो सकें तो बहुत जल्दी राजी हो जायेंगे। सच्चे कर्मयोगी की यह हालत नहीं होती।
आज देहाती लोग भी कहते हैं कि हमारे बच्चों को तालीम मिलनी चाहिए। तालीम किसलिए मिलनी चाहिए? इसलिए नहीं कि लड़का ज्ञानी बनेगा, धर्म-ग्रन्थ पढ़ सकेगा और जीवन में हर काम विचारपूर्वक करेगा। पर इसलिए कि लड़के को नौकरी मिलेगी और हम जैसे दिन भर खटते हैं, वैसे उसे खटना न पड़ेगा, मज़दूर ऐसा सोचते हैं। काम के प्रति ऐसी घृणा मज़दूरों में है। काम न करने वालों में तो है ही।
दिमागी काम करने वाले लोग मज़दूरों को नीच समझते हैं। थोड़ा-सा काम लेने के लिए जितनी मज़दूरी देनी पड़ेगा उतनी देंगे, पर ज़्यादा से ज़्यादा काम लेंगे। ऐसी वृत्ति ही बन गई है। यानी उन्हें तो काम से नफ़रत है ही, मज़दूर को भी काम से नफ़रत है। वह मज़दूरी तो करता है पर उसमें उसे गौरव नहीं लगता।
रामायण में भी एक कहानी है। अच्छी है। सुनने लायक है। रामजी का वनवास हुआ तो सीताजी ने कहा- मैं भी जाऊँगी। उसे आदत नहीं थी ऐसे जीवन की, पर उसने निश्चय किया था कि जहाँ रामजी, वहाँ मैं। पर जब कौशल्या ने सुना तो कहा, कहा, “सीता का जाना कैसे होगा? मैंने तो उसे दीप की बाती भी जलाने नहीं दी।” याने यहाँ भी काम की प्रतिष्ठा मानी नहीं गयी। इसमें अच्छाई भी है कि ससुर के घर लड़की गयी तो उसे बेटी समान माना, पर मेहनत को हीन माना गया, वह इसमें दीखता है।
धर्मराज ने राजसूय यज्ञ किया था। कृष्ण भी वहाँ गए थे। कहने लगे, “मुझे भी काम दो।” धर्मराज ने कहा, “आपको क्या काम दें। आप तो हमारे लिए पूज्य आदरणीय हैं। आपके लायक हमारे पास कोई काम नहीं है।” भगवान् ने कहा, “आदरणीय हैं तो क्या नालायक हैं ! हम काम कर सकते हैं।” तो धर्मराज ने कहा, “आप ही अपना काम ढूँढ़ लीजिए।” भगवान् ने काम लिया जूठी पत्तलें उठाने का और पोंछा लगाने का।
ज्ञानी तो खा सकते हैं और आशीर्वाद दे सकते हैं; काम नहीं कर सकते। अगर कोई सवेरे उठकर पीसता है तो वह ज्ञानी नहीं, मज़दूर कहलायेगा। ज्ञानी को, योगी को काम नहीं करना चाहिए। बूढ़ों को काम से मुक्त रहना ही चाहिए। बूढ़ों को काम देना निष्ठुरता मानी जायेगी। यानी बूढ़ा, बच्चा, योगी, ज्ञानी, व्यापारी, वकील, अध्यापक, विद्यार्थी, किसी को काम नहीं करना चाहिए। इतना बेकार वर्ग खड़ा हो जायेगा तो बेकारी बढ़ेगी। अगर ऐसा होता कि जो काम नहीं करता, वह खाता भी नहीं, तो ठीक था; पर वह तो अधिक खाने को माँगता है। ऐसी समाज रचना जहाँ हुई है वहाँ मज़दूर समझते हैं कि हमें काम करने से छुट्टी मिले तो अच्छा होगा। ऐसा समाज जहाँ लाचारी से काम करता है, तो उसमें कर्मयोगी हो ही नहीं सकते। जो काम टालते हैं, जो काम नहीं करते हैं, उनका जीवन धार्मिक होता ही नहीं। इस कारण अपने समाज में श्रम की प्रतिष्ठा नहीं हैं।
काम नहीं करते, इसका कारण यह है कि जो दिमागी काम करते हैं, उन्होंने दिमागी काम की महत्ता इतनी बढ़ा दी है कि उसे हज़ार रुपया देना ही उचित मानेंगे और श्रम करने वाले को कम से कम जितना दे सकेंगे उतना देने की कोशिश करेंगे। शरीर श्रम की प्रतिष्ठा न मानो; पर महात्मा गांधी तो दिमागी काम करते थे, फिर भी थोड़ा-सा समय
निकालकर दिन में सूत कात ही लेते थे। काम की इज्जत करनी चाहिए। अगर हम काम की इज़्ज़त नहीं करते तो बड़ा भारी धर्म-कार्य खोते हैं- ऐसा समझना चाहिए। यह तो एक बात कि कुछ दिमागी काम ज्यादा करेंगे और कुछ दिमागी काम कम करेंगे, पर श्रम करने वालों का भी दिमाग है और दिमागी काम करने वालों को भी हाथ दिए हैं, तो दोनों को काम करना चाहिए। दोनों की इज्ज़त बढ़ेगी, प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
दिमागी काम का और श्रम का मूल्य कम – ज़्यादा रखा गया, यह ठीक नहीं है। पहले तो ऐसी व्यवस्था नहीं थी। ब्राह्मण जो ज्ञानी होता था, पढ़ाता था। वह सिर्फ धोती और खाने का अधिकारी था, वह अपरिग्रही माना गया। आज तो जो भी विद्या पढ़ाता है, वह उसका मूल्य माँगता है। हम विद्या बेचने लगे हैं। यह गलत है। ‘कर्म योग’ की महिमा, श्रम की प्रतिष्ठा कायम करनी है तो कीमत में अधिक फर्क नहीं करना चाहिए।
शरीर – श्रम करने वाले को हम नीच मानते हैं। उसे किसी प्रकार की छुट्टियाँ नहीं देते। सफाई कर्मचारी को अगर एक दिन की भी छुट्टी दें तो सारा शहर गन्दा हो जाए। इतना जो उपकारी है, उसे हम नीचा मानते हैं। उसे साफ रहने के लिए साबुन आदि भी नहीं देते। न उसे इज्ज़त है, न प्रतिष्ठा है, न सम्मान है। मेहतर माने क्या? मेहतर माने
तो – ‘महत्तर’। ऐसा जो महत्तर है उसे हमने नीच माना !
इसलिए दो बातें होनी चाहिए। हर एक को थोड़ा-थोड़ा श्रम करना ही चाहिए। अगर हम बिना काम किए खाते हैं तो हमारा जीवन पापी बनता है। दूसरी चीज़, कामों का मूल्य समान होना चाहिए। जब यह होगा तब श्रम की प्रतिष्ठा होगी।
शब्दार्थ –
शेषनाग – पुराणानुसार सहस्र फनों के सर्पराज जिनके फनों पर पृथ्वी ठहरी है। जर्रा जर्रा – अणु-अणु। किस्म-किस्म – भाँति-भाँति। पैदावार – ऊपज, फसल। कर्मयोगी – जो कर्म को योग मानता हो, मेहनती। शख्स – व्यक्ति, जन। व्यसन – किसी भी प्रकार का शौक, बुरी आदत। फाज़िल आवश्यकता से अधिक। राजसूय यज्ञ – एक यज्ञ जिसके करने का अधिकार केवल ऐसे राजा को होता है, जो सम्राट पद का अधिकारी हो। अपरिग्रही – आवश्यक धन से अधिक का त्याग करनेवाला व्यक्ति। मेहतर – एक जाति जिसका काम मल-मूत्र आदि उठाना है। (भंगी), श्रेष्ठ व्यक्ति।
विचार बिंदु :
‘श्रम की प्रतिष्ठा’ निबंध में विनोबाजी ने श्रम के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। उनका विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति को कुछ-न-कुछ श्रम करना चाहिए। देश का विकास तभी हो सकता है जब इसमें समूचे नागरिकों का योगदान हो। कर्मयोग की महत्ता पर बल देते हुए निबंधकार ने समाज के सभी वर्ग के लोगों के श्रम करने पर आग्रह किया है। विनोबाजी का विचार है कि जो अपने पसीने से रोटी कमाता है, वह पाप कर्मों से कोसों भागता है। शारीरिक श्रम और दिमागी काम का मूल्य भी समान होना चाहिए। श्रमिक को शेषनाग सिद्ध करते हुए निबंधकार ने रामायण की सीता और महाभारत के श्रीकृष्ण का उदाहरण देकर देश के सर्वांगीण विकास हेतु श्रम की महत्ता स्थापित की है।
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो-तीन वाक्यों में दीजिए।
(क) कर्मयोगी होने पर कौन – सा फायदा मिलता है?
उत्तर – कर्मयोगी अर्थात् जो अपने काम में पूरे मनोयोग से लीन रहता है वह धर्म – पुरुष हो जाता है। उसके जीवन में पाप का आसानी से प्रवेश नहीं हो सकता। इस तरह उसका जीवन धार्मिक जीवन बन जाता है।
(ख) फुरसती लोगों को कर्मयोगी क्यों कहा नहीं जा सकता?
उत्तर – फुरसती लोग श्रम टालते हैं, इसलिए उन लोगों को कर्मयोगी नहीं कहा जा सकता। अगर उन्हें काम करना भी पड़ता है तो वे आधे मन से या मजबूरी में काम करते हैं। ऐसे काम न तो उनके लिए अच्छा होता है और न ही समाज के लिए।
(ग) देहाती लोग अपने बच्चों को तालीम देने की बात क्यों करते हैं?
उत्तर – देहाती अपने बच्चों को तालीम देने की बात करते हैं क्योंकि तालीम से उनके बच्चों को अच्छी नौकरी मिलेगी और जैसे वे दिन-भर खटते हैं वैसे उनके बच्चों को नहीं खटना पड़ेगा। आज मज़दूरों में भी मजदूरी के प्रति घृणा आ चुकी है।
(घ) भगवान् कृष्ण ने श्रम का आदर कैसे किया?
उत्तर – एक बार धर्मराज ने राजसूय यज्ञ किया था। कृष्ण भी वहाँ गए थे और धर्मराज से कहने लगे, “मुझे भी काम दो।” धर्मराज ने उन्हें पूज्य और आदरणीय बताया। तब कृष्ण जी ने स्वयं ही जूठी पत्तलें उठाने का और पोछा लगाने का काम किया। इस तरह भगवान् कृष्ण ने श्रम का आदर किया।
(ङ) ज्ञानी और मजदूर में क्या फर्क होता है?
उत्तर – ज्ञानी अपने दिमाग के प्रयोग द्वारा बुद्धिजनित काम अधिक करते हैं जबकि मजदूर शारीरिक श्रम अधिक करते हैं। यही फर्क ज्ञानी और मजदूर में होता है।
(च) शारीरिक और दिमागी श्रम की प्रतिष्ठा कैसे बढ़ सकती है?
उत्तर – शारीरिक और दिमागी श्रम की प्रतिष्ठा को एक समान बढ़ाने के लिए हमें दोनों प्रकार के श्रम का मूल्य एक समान रखना होगा। दोनों वर्ग को समान सम्मान देना होगा। दोनों वर्गों को समाज के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण मानना होगा।
2. निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक-एक वाक्य में दीजिए।
(क) शेषनाग किसे कहा गया है?
उत्तर – मजदूरों और कामगारों को शेषनाग कहा गया है।
(ख) कौन धर्म – पुरुष हो जाता है?
उत्तर – जो व्यक्ति ईमानदारी से अपने मेहनत की रोटी खाता है वह धर्म- पुरुष हो जाता है।
(ग) किसके जीवन में पाप का आसानी से प्रवेश नहीं हो सकता?
उत्तर – जो अपने काम में पूरे मनोयोग से रमा रहता है उसके जीवन में पाप का आसानी से प्रवेश नहीं हो सकता है।
(घ) किसे कर्मयोगी कहा जा सकता है?
उत्तर – ईमानदारी से काम करने वाले मजदूरों को कर्मयोगी कहा जा सकता है।
(ङ) फुरसती लोगों के जीवन में पाप क्यों दीखता है?
उत्तर – फुरसती लोग श्रम टालते हैं, इसलिए उनके जीवन में पाप दिखता है।
(च) मजदूरों को नीच कौन समझता है?
उत्तर – दिमागी काम करने वाले लोग मज़दूरों को नीच समझते हैं।
(छ) किसने कहा कि सीता को दीप की बाती भी जलाने नहीं आती?
उत्तर – कौशल्या ने कहा कि सीता को दीप की बाती भी जलाने नहीं आती।
(ज) कृष्ण ने धर्मराज से क्या कहा?
उत्तर – धर्मराज के राजसूय यज्ञ में कृष्ण ने धर्मराज से कहा कि मुझे भी कुछ काम करने के लिए दीजिए।
(झ) ज्ञानी क्या नहीं कर सकते?
उत्तर – ज्ञानी खा सकते हैं और आशीर्वाद दे सकते हैं पर काम नहीं कर सकते हैं।
(ञ) कौन मजदूर कहलाएगा?
उत्तर – जो व्यक्ति भी श्रम करता है वह मजदूर कहलाएगा।
(ट) किसका जीवन धार्मिक नहीं होता?
उत्तर – जिनके जीवन में पाप-कर्म का तनिक भी समावेश होता है वे धार्मिक नहीं होते हैं।
(ठ) हम काम की इज्जत नहीं करते तो कौन-सा कार्य खोते हैं?
उत्तर – हम काम की इज्जत नहीं करते तो धर्म कार्य खोते हैं।
(ड) ब्राह्मण को अपरिग्रही क्यों माना गया था?
उत्तर – ब्राह्मण सिर्फ धोती और खाने का अधिकारी था, इसलिए उसे अपरिग्रही माना गया था।
(ढ) कब श्रम की प्रतिष्ठा होगी?
उत्तर – जब कामों का मूल्य समान होगा तब श्रम की प्रतिष्ठा होगी
3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-एक शब्द में दीजिए।
(क) यह पृथ्वी किसके मस्तक पर स्थित है?
उत्तर – यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर स्थित है।
(ख) भगवान् ने किसे कर्मयोगी कहा है?
उत्तर – भगवान् ने मजदूरों को कर्मयोगी कहा है।
(ग) अपने पसीने से कौन रोटी कमाता है?
उत्तर – अपने पसीने से मजदूर मजदूरी करके रोटी कमाता है।
(घ) किसे कर्मयोगी कहा नहीं जा सकता?
उत्तर – जो श्रम करने से कतराता है, उसे कर्मयोगी नहीं कहा जा सकता है।
(ङ) जहाँ समय फाज़िल पड़ा होता है, वहाँ किसका काम शुरू हो जाता है?
उत्तर – जहाँ समय फाज़िल पड़ा होता है, वहाँ शैतान का काम शुरू हो जाता है।
(च) किन-किन लोगों के जीवन में पाप दिखता है?
उत्तर – फुरसती और आलसी लोगों के जीवन में पाप दिखता है।
(छ) कौन कहता है कि उनके बच्चों को तालीम मिलनी चाहिए?
उत्तर – देहाती लोग भी कहते हैं उनके बच्चों को तालीम मिलनी चाहिए।
(ज) राजसूय यज्ञ किसने किया था?
उत्तर – धर्मराज ने राजसूय यज्ञ किया था।
(झ) कौन-से श्रम की प्रतिष्ठा मानी गयी है?
उत्तर – जब व्यक्ति सुख-सुविधा पाकर भी अपने काम स्वयं करता है तो ऐसे श्रम की प्रतिष्ठा मानी जाती है।
(ञ) दिमागी काम कौन करता था?
उत्तर – गांधीजी दिमागी काम करते थे।
(ट) अपरिग्रही किसे माना गया था?
उत्तर – ब्राह्मण को अपरिग्रही माना गया है।
(ठ) बिना काम किए हमारा जीवन कैसा बनता है?
उत्तर – बिना काम किए हमारा जीवन पापी के समान बनता है।
(ड) किसका मूल्य समान होना चाहिए?
उत्तर – शारीरिक श्रम और दिमागी काम का मूल्य समान होना चाहिए।
4. निम्नलिखित अवतरणों का आशय स्पष्ट कीजिए।
(क) लेकिन सिर्फ कर्म करने से कोई कर्मयोगी नहीं होता।
उत्तर – कर्म करने से ही कोई कर्मयोगी नहीं हो जाता है क्योंकि अगर कोई व्यक्ति कर्म करता है पर उसमें व्यसन अर्थात् बुरी आदतें भी हैं जो समाज और राष्ट्र के लिए अहितकर हैं तो वह कर्मयोगी नहीं कहलाएगा।
(ख) जहाँ समय फाजिल पड़ा है, वहाँ शैतान का काम शुरू हो जाता है।
उत्तर – फुरसती लोग श्रम से कतराते हैं इसलिए उनके पास खाली समय रहता है और खाली समय में वे उल-जलूल काम करके अपना, दूसरों का और राष्ट्र की प्रगति में बाधक बनते हैं।
(ग) ज्ञानी तो खा सकते हैं और आशीर्वाद दे सकते हैं; काम नहीं कर सकते।
उत्तर – आज के संदर्भ में यह उक्ति सही सिद्ध होती है कि जो लोग ज्ञानी होते हैं वे खा तो सकते हैं और आशीर्वाद दे सकते हैं पर काम नहीं करते क्योंकि उनका मानना है कि वे मानसिक श्रम तो कर ही रहे हैं। पर ऐसा पूर्णत: सही नहीं है। अगर मानसिक श्रम अधिक किया जा रहा है फिर भी शारीरिक श्रम तो करना ही चाहिए।
(घ) अगर हम बिना काम किए खाते हैं तो हमारा जीवन पापी बनता है।
उत्तर – अगर हम बिना काम किए हुए खाते हैं तो हमारा जीवन पापी बन जाता है क्योंकि इस पृथ्वी का एक ही नियम है कि आपको मेहनत करनी ही पड़ेगी। यहाँ राम और कृष्ण ने भी मेहनत की थे तो हम क्या हैं। अतः, हमें बिना श्रम के भोजन नहीं करना चाहिए।
(ङ) प्रस्तुत निबंध से हमें कौन-सी शिक्षा मिलती है?
उत्तर – इस निबंध से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने कर्म में पूरे मनोयोग से लीन रहना चाहिए। मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम दोनों को समान रूप से देखना चाहिए। साथ ही साथ हमें धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहिए।
5. रिक्त स्थानों को भरिए।
(क) इसलिए भगवान् ने मज़दूरों को कर्मयोगी कहा है।
(ख) ऐसा इसलिए होता है कि वे कर्म को पूजा नहीं समझते।
(ग) भगवान् ने कहा, आदरणीय हैं तो क्या नालायक हैं।
(घ) दिमागी काम करनेवालों को भी हाथ दिए हैं।
(ङ) ब्राह्मण जो ज्ञानी होता था, पढ़ाता था।
भाषा ज्ञान –
1. ‘देहाती’ शब्द देहात के साथ ‘ई’ प्रत्यय के योग से बना है। शब्द के अंत में आनेवाले शब्दांशों को प्रत्यय कहते हैं। यहाँ ‘ई’ एक तद्धित प्रत्यय है। हिन्दी में दो प्रत्यय होते हैं – कृदन्त और तद्धित।
उपर्युक्त उदाहरण की तरह ‘ई’ प्रत्यय के योग से बननेवाले शब्दों को प्रस्तुत निबंध से खोजकर लिखिए |
2. ‘यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर स्थित है’।
इस वाक्य में प्रयुक्त ‘पर’ अधिकरण कारक की सप्तमी विभक्ति का चिह्न है। इसे परसर्ग भी कहते हैं।
प्रस्तुत निबंध में जहाँ-जहाँ इसी परसर्ग ‘पर’ का प्रयोग हुआ है, उन्हें छाँटकर लिखिए।
उत्तर – हिन्दुस्तान में कुछ मज़दूर खेतों पर काम करते हैं।
सबका आधार उन मज़दूरों पर है।
3. निम्नलिखित वाक्यों पर ध्यान दीजिए।
जो शख्स पसीनेसे रोटी कमाता है, वह धर्म-पुरुष हो जाता है।
अगर हम काम की इज्जत नहीं करते तो बड़ा भारी धर्म-कार्य खोते हैं।
शरीर – श्रम करनेवाले को हम नीच मानते हैं।
इन वाक्यों में प्रयुक्त धर्म-पुरुष, धर्म – कार्य और शरीर श्रम अधिक शब्दों के मेल से बने हैं।
जैसे- धर्म (का) पुरुष
धर्म (का) कार्य
शरीर (का) श्रम
जब एकाधिक शब्द एक-दूसरे से मिल जाते हैं, तब उस मेल को समास कहा जाता है।
समास सात प्रकार के होते हैं – अव्ययीभाव, तत्पुरुष समास, नञ् तत्पुरुष, कर्मधारय, द्विगु, द्वन्द्व और बहुब्रीही समास। उपर्युक्त उदाहरण तत्पुरुष समास के हैं।
4. ‘आज देहाती लोग भी कहते हैं कि हमारे बच्चों को तालीम मिलनी चाहिए।’
इस वाक्य में ‘आज देहाती लोग भी कहते हैं’ प्रधान वाक्य है और ‘हमारे बच्चों को तालीम मिलनी चाहिए’ आश्रित वाक्य है। इन दोनों वाक्यों को संयोजक अविकारी शब्द ‘कि’ मिलाता है।
याद रखिए – जिस वाक्य में एक प्रधान वाक्य और एक आश्रित वाक्य हो, उसे मिश्र वाक्य कहते हैं। रचना की दृष्टि से वाक्य के अनेक भेद पाए जाते हैं – सरल वाक्य, मिश्र वाक्य, संयुक्त वाक्य आदि।
5. इस पाठ में जीवन, लोग, काम के आगे क्रमश: धार्मिक, देहाती और दिमागी शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन शब्दों से उनकी विशेषता उभर कर आती है। पाठ से कुछ ऐसे ही शब्द छाँटिए जो किसी की विशेषता बता रहे हों।