Hindi Sahitya

आकाशदीप, जयशंकर प्रसाद

Aakashdeep By maithilisharan Gupt The Best explanation

पाठ का उद्देश्य

आप एक अद्भुत प्रेम-कहानी को जान सकेंगे।

प्रेम में परिवर्तन की स्थिति को समझेंगे।

ऐतिहासिक संदर्भों का ज्ञान।

समुद्री जीवन के बारे में जानकारी।

कहानी के परिवेश की जानकारी प्राप्त होगी।

शब्द एवं भाषा ज्ञान की बढ़ोतरी।

जटिल संरचना शिल्प का ज्ञान।  

लेखक परिचय

जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1889 में गोवर्द्धन सराय, बनारस में हुआ और उनकी मृत्यु क्षय रोग से 14 जनवरी, 1937 को बनारस में हुई। उनके दादा का सुरती का व्यवसाय था। उनके पिता का नाम बाबू देवी प्रसाद और माता का नाम मुन्नी देवी था। किशोरावस्था में ही इनके पिता और फिर माता और बड़े भाई का देहांत हो गया था। तब उनके ऊपर परिवार का दायित्व आ गया था। उसका निर्वाह करते हुए उन्होंने नियमित रूप से जीवन भर साहित्य सृजन किया। प्रसाद जी छायावाद के चार स्तम्भों में से एक थे। उनका महाकाव्य ‘कामायनी’ छायावाद की प्रतिनिधि रचना माना जाता है। नाटक के क्षेत्र में प्रसाद जी का योगदान ऐतिहासिक है। उन्होंने अपने नाटकों में प्राचीन भारतीय इतिहास को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जीवंत कर दिया था । ‘तितली’ और ‘कंकाल’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। एक इरावती उपन्यास को ये पूरा नहीं लिख सके।

आकाशदीप की प्रस्तावना

जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘आकाशदीप’ कहानी दो प्रमुख पात्रों चंपा और बुद्धगुप्त से संबद्ध है। नायिका प्रधान इस कहानी में समुद्री जीवन के परिवेश को ऐतिहासिक संदर्भों में चित्रित किया गया है। यह कहानी संवादों के माध्यम से विकसित होती है और अन्य चरित्रों एवं घटनाओं की जानकारी हमें संवादों और लेखक द्वारा दिए गए विवरणों से प्राप्त होती है। ‘आकाशदीप कहानी में सात भाग हैं जिनमें पूरी कथा समाहित है। संवादों के माध्यम से प्रसाद जी कहानी में पाठक को घटनाक्रम से परिचित कराते चलते हैं।

पात्र परिचय

प्रमुख पात्र हैं- बुद्धगुप्त और चंपा

बुद्धगुप्त –

बलवान

साहस और आत्मविश्वास

जलदस्यु से महानाविक

प्रेमी रूप में

चंपा–

चंपा क्षत्रिय युवती  

साहसी

ईमानदार और नैतिक

प्रेम का आदर्श

सहयोगी पात्र हैं –

क) अनुपस्थित सहयोगी पात्र

चंपा के पिता

चंपा की माँ

मणिभद्र

ख) उपस्थित सहयोगी पात्र

नाव में सवार 10-12 नाविक और उनका नायक सहयोगी पात्र हैं।

नायक, मणिभद्र का नौकर है।   

एक आदिवासी युवती जया भी एक सहायक पात्र है।  

कथासार

कहानी में दो प्रमुख पात्र हैं- चंपा और बुद्धगुप्त। दोनों समुद्र में एक जहाज पर बंदी बनाए हुए हैं। दोनों के हाथ-पाँव बँधे हुए हैं फिर भी वे प्रयासपूर्वक अपने बंधन खोलकर मुक्त हो जाते हैं फिर नाव के नायक से बुद्धगुप्त का द्वंद्व युद्ध होता है, जिसमें बुद्धगुप्त विजयी होता है। अब नाव पर बुद्धगुप्त का अधिकार हो जाता है। नाव धीरे-धीरे एक द्वीप के पास पहुँचती है। द्वीप का कोई नाम न होने के कारण वे उसका नामकरण चंपा द्वीप करते हैं। साथ-साथ रहने के कारण और परस्पर सहयोग से युक्त होने के कारण उनके बीच स्नेह भाव जाग्रत होने लगता है। दोनों अपने पुराने अनुभव को साझा करते हैं तब पता चलता है कि बुद्धगुप्त जलदस्यु है। चंपा के पिता मणिभद्र के पोत में प्रहरी थे। इस पोत पर बुद्धगुप्त आक्रमण करता इस आक्रमण में चंपा के पिता मारे जाते हैं। जब यह बात चंपा को पता चलती है तो उसके मन में बदला लेने की भावना जाग्रत होती है। इस बीच दोनों के हृदय में प्रेम भाव पल्लवित होने लगता है। अंतत: चंपा मानसिक अंतर्द्वंद्व में अपना हथियार फेंक देती है, परंतु बुद्धगुप्त से विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है प्रेम और  प्रतिशोध के द्वंद्व के चलते वह एकाकी जीवन का वरण करती है और इस द्वीप में रहकर जीवनभर ‘आकाशदीप’ जलाती रहती हैं ताकि नाविक को रास्ता मिलता रहे। बुद्धगुप्त निराश होकर द्वीप छोड़ देता है और भारत भूमि में चला जाता है।

कथानक एवं अंतर्वस्तु

‘आकाशदीप’ कहानी को प्रसाद जी ने बहुत कलात्मकता से गूँथा है। इस छोटी-सी कथा को प्रसाद ने सात भागों में बाँटकर लिखा है।

कहानी का प्रारंभ बहुत नाटकीय ढंग से होता है। कहानी का पहला संवाद चंपा बोलती है- ‘बंदी’ दूसरा बोलता है- क्या है? सोने दो। यह दो नितांत अपरिचित। एक दूसरे से अनजान व्यक्तियों का संवाद है, जो अज्ञात कारणों से एक ही परिस्थिति में पड़े हुए हैं – अर्थात् बंदी हैं। बंदियों की एकमात्र कामना होती है कि बंधन मुक्त हो जाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में भी दूसरा बंदी कहता है, सोने दो। इसके बावजूद पहला बंदी निराश नहीं होता। संवाद आगे चलता है। इसी से कहानी भी आगे चलने लगती है। इस संवाद से पता चलता है कि पहला बंदी दुस्साहसी है और दूसरा बंदी आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। उसे मुक्त होने के लिए कोई याचना नहीं करनी है। किसी का उपकार भी नहीं लेना है। इसीलिए वह आत्मविश्वास से बोलता है। यह भी पता चलता है कि बंदी समझदार है। अनुभवी है वह जानता है कि जो मुझे मुक्त करने की सलाह दे रहा है, वह भी मेरी ही परिस्थिति में पड़ा हुआ है। अतः वह अगले प्रस्ताव की प्रतीक्षा करता है। इसलिए फिर वैसा ही निश्चिंत वाक्य बोलता है- “बड़ी शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।”

धीरे-धीरे दोनों संवाद और सहमति की स्थिति में आते हैं और दोनों के साथ-साथ पाठक को भी पता चलता है कि नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं। आँधी आने की संभावना है। पहला बंदी कहता है कि “आज मेरे बंधन शिथिल हैं। फिर संवाद में एक वाक्य ‘शस्त्र मिलेगा’ कहा जाता है और इस तरह आगे की रूपरेखा तय हो जाती है। यह नाव पोत से जुड़ी हुई है। उसे एक रस्सी से जोड़कर रखा गया है। अब पोत से जुड़ी हुई रस्सी को काटना है। रहस्य और रोमांच का वातावरण है। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे और एक ने दूसरे के बंधन खोल दिए । अब दोनों मुक्त थे। हर्षातिरेक में दोनों गले लग गए। इतने में दूसरे बंदी को और पाठक को भी पहली बार पता चलता है कि पहला बंदी स्त्री है। यहाँ पहला बंदी कहता है, क्या स्त्री होना कोई पाप है ? फिर पहला बंदी अर्थात् चंपा नायक का कृपाण ले आती है। इतने में में आँधी आ जाती है। आँधी की इस भागदौड़ में दूसरा बंदी कुशलता से पोत से जुड़ी हुई रस्सी को काट देता है। अब पोत से नाव अलग हो जाती है। अर्थात् उन्हें बंदी बनाने वाले लोग पोत में ही रह जाते हैं। नाव में यही 10-12 लोग रह गए। कहानी का पहला भाग यहीं समाप्त हो जाता है।

कहानी के खंड 2 का आरंभ सूर्योदय से होता है। अब नाविकों को पता चलता है कि पोत का कहीं पता नहीं है और बंदी मुक्त है। यहाँ पहली बार दूसरे बंदी का नाम पता चलता है- बुद्धगुप्त नाव का नायक उसे पुनः बंदी बनाना चाहता है। फिर दोनों में द्वंद्व युद्ध होता है। प्राचीन भारतीय पंरपरा के अनुसार द्वंद्व युद्ध में दो लोग लड़ते । शेष लोग अलग खड़े रहते हैं। कोई उसमें दखल नहीं देता । इस द्वंद्व युद्ध में बुद्धगुप्त विजयी होता है और नाव का स्वामी बन जाता है। नायक को जीवनदान देकर वह उसे सेवक बना लेता है। इस द्वंद्व युद्ध में बुद्धगुप्त को भी घायल तो होना था “चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना विहीन कर दिया। इस तरह दोनों बंदियों (अर्थात् बुद्धगुप्त और चंपा) का रिश्ता शनैः शनै गहरा होने लगता है।

कहानी के खंड 3 में दोनों बंदी अपने पिछले जीवन का परिचय देते हैं। यह उनका पहला औपचारिक परिचय है। दोनों यह जानना चाहते हैं कि वे बंदी कैसे बने या उन्हें बंदी क्यों बनाया गया ? पात्र अब अपरिचय से परिचय की दिशा में आगे बढ़ते हैं। चंपा बताती है कि वह चंपा नगरी की एक क्षत्रिय बालिका है। पिता पोत के मालिक मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माँ की मृत्यु के बाद वह पिता के साथ पोत में ही रहने लगी। जलदस्युओं द्वारा पिता की हत्या के बाद मणिभद्र ने उसे एक घृणित प्रस्ताव दिया। चंपा ने प्रतिरोध किया और उसे गालियाँ दीं और फिर मणिभद्र ने चंपा को बंदी बना लिया। इधर बुद्धगुप्त बताता है कि वह ताम्रलिप्ति का क्षत्रिय है, जो दुर्भाग्य से जलदस्यु बन गया है। इस स्नेहिल संभाषण के बाद दोनों एक नए द्वीप में उतरे इस द्वीप का नामकरण चंपा द्वीप कर दिया गया। चंपा का शेष जीवन इसी द्वीप पर बीतने वाला था।

इसके बाद कहानी में पाँच बरस का अंतराल आता है। कहानी के खंड 4 में चंपा आकाशदीप जला रही है। फिर कहीं से घूमता हुआ बुद्धगुप्त आ जाता है। वह चंपा के आकाशदीप जलाने को लेकर थोड़ी निष्ठुर टिप्पणी करता है-”तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो।” प्रेम के इस प्रवाह के बीच भी चंपा को लगता हैं कि बुद्धगुप्त का हृदय करुणाविहीन है। उसमें अभी कोमलता नहीं है और वह बुद्धगुप्त को कहती है- “तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी है परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है।” चंपा को अपनी माँ की याद आती है। माँ मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में रखकर नदी भागीरथी के तट पर ऊँचा टाँग देती थी और भगवान से प्रार्थना करती थी कि मेरे पथभ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना।” अपने पिता की मृत्यु के कारण बुद्धगुप्त की टिप्पणी से चंपा को क्रोध आता है और बुद्धगुप्त पहली बार चंपा का रौद्र रूप देखता है।

कहानी के खंड 5 में चंपा, जया के साथ तट पर खड़ी है। ये दोनों एक छोटी-सी नौका में बैठकर समुद्र के उदास वातावरण में अपने को घुला देती है। इतने में बुद्धगुप्त आता है और वह चंपा की चिंता करते हुए कहता है कि इस नाव पर इधर घूमना सुरक्षित नहीं है। महानाविक बुद्धगुप्त जिससे बाली, जावा और चंपा का आकाश गूँजता था, पवन थर्राता था, वह चंपा के सामने छल छलाई आँखों से देखता है। दोनों के बीच पुनः भावुक क्षण आता है। इस क्षण के प्रभाव से बाहर आकर चंपा अपना कृपाण समुद्र में गिरा देती हैं। इस तरह वह अपने पिता के हत्यारे (बुद्धगुप्त) से बदला लेने का संकल्प त्याग देती है।

खण्ड 6 में हम देखते हैं कि द्वीप में एक समारोह आयोजित हो रहा है। चंपा के पूछने पर जया उसे बताती है कि आज रानी का ब्याह है वह जब बुद्धगुप्त से पूछती है तो बुद्धगुप्त कहता है कि यदि तुम्हारी इच्छा हो तो ऐसा हो भी सकता है। बुद्धगुप्त और चंपा का विवाह हो सकता है। चंपा को अपनी परिस्थिति की अनुभूति होती है कि यहाँ मैं निस्सहाय और कंगाल हूँ। मेरी सहमति असहमति का कोई मूल्य नहीं है। इसलिए महानाविक चाहे जो कर सकता है। चंपा अपने इन भावों को अभिव्यक्त करती है। बुद्धगुप्त बराबर चंपा को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि उसने चंपा के पिता की हत्या नहीं की थीं। वे किसी दूसरे दस्यु के हाथों मारे गए थे। चंपा को इस पर विश्वास नहीं होता।

बुद्धगुप्त तब भी निवेदन करता रहता है। वह यह भी प्रस्ताव देता है कि अब हम इस द्वीप को छोड़कर पावन भारत-भूमि में चलते हैं और वहीं सुख पूर्वक निवास करते हैं। चंपा कहती है कि मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल। जब चंपा से कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिलता है तब बुद्धगुप्त भारत जाने का निर्णय सुना देता है और चंपा इसी चंपा द्वीप में रहने को अपनी नियति मान लेती है।

अंतिम खंड 7 है। सुबह-सुबह चंपा देखती है कि नावों की एक श्रेणी चंपा का किनारा छोड़कर भारत की ओर जा रही है। स्पष्ट है कि बुद्धगुप्त रवाना हो रहा है और चंपा की आँखों में आँसू हैं।

यहाँ कहानी समाप्त होती है। प्रसाद जी स्पष्ट करते हैं कि यह कितनी शताब्दियों से पहले की कथा है। चंपा इस दीप स्तंभ में आजीवन आलोक जलाती रहती है। उसके बाद भी चंपा द्वीप वाले, चंपा की समाधि-सदृश पूजा करते थे। एक दिन चंपा काल के कठोर हाथों से चल बसी और उसके कुछ बरसों बाद वह द्वीप स्तंभ भी ढह जाता है। इसी करुणा में यह कहानी समाप्त हो जाती है।

कहानी का परिवेश

भौगोलिक परिवेश

कहानी के प्रारंभ में दो पात्र आते हैं। दोनों बंदी हैं और नाव में बंदी हैं। नाव एक बड़े समुद्री पोत से बँधी हुई है। दोनों जिस समय मुक्त होने का प्रयास कर रहे हैं। प्रसाद जी ने उस समय के समुद्र का वर्णन इन शब्दों में किया है, “तारक खचित नील अंबर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अंधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आंदोलन था। नौका लहरों में विकल थी। दोनों बंदी अपने आपको मुक्त करने का प्रयास कर रहे थे। इतने में समुद्र में आँधी का आगमन होता है। आँधी की सूचनाओं से जहाज में आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सारे नाविक इस आपदा में व्यस्त हो गए। प्रसाद जी ने वर्णन किया “तारे ढँक गए। तरंगे उद्वेलित हुई समुद्र गरजने लगा भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कन्दुक-क्रीड़ा और अट्टहास करने लगी। यह परिवेश कहानी के पात्रों के द्वारा किए जाने वाले कर्मों के लिए उपयुक्त था ।

प्राकृतिक परिवेश

प्रसाद जी इस कहानी में समुद्र की प्रकृति के विविध रंगों का वर्णन करते हैं। जब बुद्धगुप्त विजयी होता है तब उषा का मधुर आलोक फूट पड़ता है। “सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगती है और अब सागर भी शांत है। रात्रि का वर्णन करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं, “शरद के घवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चन्द्र की उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरद लक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया। यहाँ चंपा खुश है और दोनों के बीच स्नेह का अंकुर फूट रहा है। इसी तरह का परिवेश भावनात्मक प्रसाद जी ने चित्रित किया है। बीते पाँच वर्षों के जीवन को हसरत से याद करती हुई चंपा कहती है, “जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य लादकर हमलोग सुखी जीवन बिताते थे- इस जल में अगणित बार हम लोगों की तरी आलोकमय प्रयास में तारिकाओं की मधुर ज्योति में थिरकती थी।”

ऐतिहासिक परिवेश

‘आकाशदीप’ एक प्रेम कहानी है। कहानी का परिवेश समुद्री जीवन है। इस प्राकृतिक परिवेश पर प्रसाद जी ने इस इतिहास का आवरण डाल दिया है। यह इतिहास के उस काल खंड की कथा है जब भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित नहीं हुआ था, न ही मुस्लिम शासन स्थापित हुआ था। इसी तरह समुद्र पर भी किसी का शासन नहीं था। सिर्फ व्यापारियों और जलदस्युओं के भरोसे समुद्र का व्यापार चलता था। प्रसाद जी यह बताना नहीं भूलते कि यह कितनी ही शताब्दियों के पहले की कथा है। उन कालखण्ड के समाज और परिवेश में यात्रा किये बिना ‘आकाशदीप का मोहक सौन्दर्य उद्घाटित नहीं होता । अतः प्रसाद जी भाषा और वातावरण के माध्यम से शताब्दियों पूर्व के इस कालखंड की यात्रा कराते हैं।

संरचना शिल्प

‘आकाशदीप’ कहानी का शिल्प जटिल है। यह कहानी कथा की तरह नहीं चलती। इसका प्रारम्भ नाटकीय संवाद से होता है। इन संवादों से पता चलता है कि नाव पर दो बंदी हैं। दोनों बंदी आपस में संवाद करते हैं और मुक्त होने का प्रयास करते हैं। नाटकीय संवाद की विशेषता यह होती है कि इसमें एक पात्र बोलता है, तब दूसरा पात्र उसका ठीक-ठीक जवाब न देकर कोई और बात कहता है। इस तरह असंबद्ध सी प्रतीत होने वाली बातचीत से कहानी आगे गढ़ती है। कहानी का आरम्भ इस तरह से होता है

भाषा

प्रसाद जी के आलोचकों का मत है कि प्रसाद जी की कहानियों की भाषा काव्यात्मक है, वे अपनी कहानियों में देशज शब्दों का प्रयोग करने से बचते हैं। चूँकि ‘आकाशदीप का समय प्राचीनकाल है, जब भारत में इस्लाम का आगमन नहीं हुआ था, इसलिए वे अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग नहीं करते। आकाशदीप संस्कृत तत्सम शब्दों से आप्लावित कहानी है। इसके बावजूद उनकी भाषा दुरूह नहीं है उसमें प्रवाह हैं। बीच-बीच में वे अत्यंत सहज भाषा का प्रयोग भी करते हैं।

बोध प्रश्न

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक पंक्ति में दीजिए:

यह कहानी किस स्थान पर घटित होती हैं।

बुद्धगुप्त किस स्थान का निवासी था?

चंपा कहाँ की रहने वाली थी?

चंपा की पीड़ा का मूल कारण क्या था?

मेरे लिए सब भूमि मिट्टी हैं सब जल तरल है सब पवन शीतल है। इस कथन में चंपा की कौन सी मानसिकता प्रकट होती है?

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए ।

जलदस्यु का नाम _______ था। बुद्धगुप्त

नाव पर केवल _______नाविक और _______थे । दस, प्रहरी

चंपा के पिता बणिक _______के यहाँ _______का कार्य करते थे। मणिभद्र, प्रहरी

बुद्धगुप्त _______का एक _______ था। ताम्रलिप्ति, क्षत्रिय

चंपा का घर _______के तट पर था। जाह्नवी

चंपा के पिता ने _______दस्युओं को मारकर _______ली। सात, जल समाधि

वह _______की एक क्षत्रिय बालिका थी । चंपा नगरी

कहानी के खंड 2 का आरम्भ _______से होता है। सूर्योदय

चंपा की माँ मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में रखकर _______ के तट पर ऊँचा टाँग देती थीं। भागीरथी

इस कहानी में दो प्रमुख पात्र _______एवं _______ हैं। चंपा, बुद्धगुप्त

कहानी में _______युवती _______ है। आदिवासी, जया

निर्जन द्वीप का _______ नामकरण किया गया। चंपाद्वीप

द्वंद्व युद्ध में बुद्धगुप्त ने _______ को पराजित किया। नाव के नायक को

Leave a Comment

You cannot copy content of this page