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आषाढ़ का एक दिन, संपूर्ण अध्ययन, मोहन राकेश

Aashadh Ka Ek Din The Best Explanation

1958 में प्रकाशित मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ हिंदी रंगमंच में सबसे अधिक खेले जाने वाले नाटकों की श्रेणी में आता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार हिंदी नाटक के विकास में इसे एक मील का पत्थर माना जाता है। समग्रता में विद्वानों ने इस नाटक को सहज स्वाभाविकता यथार्थपरक नाटकीयता और काव्यात्मकता का एक संतुलित मिश्रण माना है। आषाढ़ का एक दिन नाटक की कथावस्तु दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी बाद के आस पास की है। लेकिन इस नाटक में घटित होने वाली घटनाएँ समसामयिक भी हैं और प्रासंगिक भी। इसको अगर आज के सामाजिक संरचना एवं मान्यताओं को सामने रखकर देखा जाए तो यह नाटक एक साथ कई सार्थक आयाम प्रस्तुत करता हुआ प्रतीत होता है। इसमें एक जगह मल्लिका कालिदास के रूप में प्रेमी-प्रेमिका के बीच का प्रेम संघर्ष है तो दूसरी तरफ अंबिका द्वारा मल्लिका को समाज द्वारा बनाए गए जीवन के कुछ कड़वे यथार्थ का बोध करवाने का जद्दोजहद भी है। समकालीन समाज में जिस तरह से हर कोई अपने स्तर पर एक संघर्ष से जूझ रहा है ठीक उसी तरह के संघर्ष से जूझते हुए इस नाटक के सभी पात्रों भी को देखा जा सकता है।

इस नाटक का शीर्षक ‘आषाढ़ का एक दिन’ कई विचित्रताओं अपने में समेटे हुए हैं। पहली तो यह कि इस त्रिखंडीय नाटक का प्रारंभ आषाढ़ के बारिश से होता है और अंत भी आषाढ़ के बारिश से ही होता है। दूसरी तरफ जहाँ आषाढ़ की बारिश और वायु मनमाने तरीके से बहती चली जाती है उसी तरह इस नाटक के अनेक पात्र भी मनमाने ढंग से आचरण करते हुए प्रतीत होते हैं। मल्लिका एक तरफ सामाजिक परंपराओं को ताख पर रखकर कालिदास के साथ घूमती रहती है। तो उज्जयिनी जाने के बाद कालिदास भी उच्छृंखल होकर प्रियंगुमंजरी से विवाह कर लेता है। राजपुरुष दंतुल भी मनमाने ढंग से एक हिरण शावक का शिकार करता है तो विलोम और मातुल भी अपने-अपने आचरणों में नकारात्मकता लिए हुए दिखते हैं। कुल मिलकर यह कहना समीचीन होगा कि भले ही यह नाटक दूसरी शताब्दी के समय को रंगमंच पर प्रस्तुत करती है पर वास्तव में यह आज के समय में भी प्रासंगिक है।

कालिदास : मातृगुप्त (नाटक का पात्र)

अम्बिका : ग्राम की एक वृद्धा

मल्लिका : अम्बिका की पुत्री कालिदास की प्रेमिका

दन्तुल : राजपुरुष

मातुल : कवि-मातुल (कालिदास के मामा)

निक्षेप : ग्राम-पुरुष

विलोम : ग्राम-पुरुष

रंगिणी : नागरी

संगिनी : नागरी

अनुस्वार : अधिकारी

अनुनासिक : अधिकारी

प्रियंगुमंजरी : राजकन्या – कवि – पत्नी

मातृ-पितृहीन बालक कालिदास का लालन-पालन उसके पशु-पालक मामा के उपेक्षा और प्रताड़नापूर्ण व्यवहार की छाया में प्राकृतिक सौंदर्य से पूर्ण पहाड़ी गाँव में हुआ। पालक मामा मातुल के उपेक्षापूर्ण व्यवहार प्राप्त होने के कारण गाँव का अन्य कोई भी व्यक्ति सिवाय एक मल्लिका के-उसे स्नेह एवं सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता।  किसी का भी ध्यान उसकी काव्य-प्रतिभा की ओर उसकी भावुकता और सहृदयता की ओर नहीं जाता। सभी उसे एक अभागा, आवारा और मनचला युवक मानते हैं। पर उसकी बाल्य सखी मल्लिका का स्नेह और प्यार उसके युवा हो जाने पर भी बना रहता है। वह कालिदास की काव्य-प्रतिभा, भावुकता और सहृदयता को भी न केवल पहचानती है, बल्कि उसका उचित सम्मान भी करती है। मल्लिका की माता अंबिका को न तो कालिदास का अपने घर में आना ही अच्छा लगता है और न बेटी मल्लिका का उसके साथ गाँव-प्रांतरर में घूमता-फिरना ही भाता है। फिर भी सभी प्रकार के अपवादों को निरपेक्ष दृष्टि से निहार मल्लिका कालिदास में भावना के स्तर पर अनुरक्त रहती है। उसके साथ स्वतंत्रतापूर्वक प्रवृत्ति के निभृत एवं स्वच्छंद वातावरण में घूमती-फिरती, उछलती-कूदती और उसी में अनवरत विभोर रहा करती है।   उसी गाँव का एक अन्य युवक है-विलोम। वह कालिदास, उसकी काव्य प्रतिभा और मल्लिका के प्रेम-संबंधों को लेकर पग-पग पर कालिदास से प्रतिद्वंद्विता करता है। वह हरपल मल्लिका को आकर्षित करने के लिए कटिबद्ध रहता है, पर कालिदास और मल्लिका दोनों ही उससे घृणा करते हैं। विलोम मल्लिका की माता अंबिका के सम्मुख तो कालिदास और मल्लिका के प्रेम संबंधों को लेकर उल्टी-सीधी हाँका ही करता है, सारे ग्राम-प्रांतरर में भी उनके विरुद्ध अनेक प्रकार का अपप्रचार करता रहता है। उधर कालिदास के पालक पशु-पालक मामा मातुल भी अपने भाँजे के प्रति वितृष्णा व्यक्त करते, उसे लेकर व्याकुलता और अप्रसन्नता प्रगट करते रहने से पीछे नहीं रहता। वह कालिदास को, उसकी काव्य-प्रतिभा और सहजात स्वच्छंदता को व्यर्थ बल्कि अपने पर ही एक प्रकार का बोझ मानता है। कालिदास का साथ देने से व्यर्थ की चर्चाओं और बदनामियों का केंद्र बन जाने के कारण मल्लिका की माँ द्वारा की गई उसकी सगाई टूट जाती है। परिणामस्वरूप दुखी अंबिका एक बार फिर से मल्लिका को कालिदास के साथ घूमने-फिरने से रोकती है। वह गाँव-प्रांतर के लोगों द्वारा की जाने वाली बदनामी भरी चर्चाओं की बात भी उठाती है। इस पर मल्लिका साफ कहती है- “क्या अधिकार है उन्हें कुछ भी कहने का? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है?” इस पर माँ अंबिका जब कहती है कि … इतना बड़ा अपवाद मुझ से नहीं सहा जाता है, तो भावमयी मल्लिका जो कि कालिदास के लिए समग्र भाव से समर्पित है, बड़ा ही भाव भीना उत्तर देती है –  “मैं जानती हूँ माँ, अपवाद होता है। तुम्हारे दुख की बात भी जानती हूँ। फिर भी मुझे अपवाद का अनुभव नहीं होता। मैंने भावना में भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह संबंध और सब संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है….।” और इस प्रकार मल्लिका भावना के स्तर पर कालिदासमय होकर ही रह जाती है। अपने उन्हीं उपेक्षाओं, बदनामियों से, अनवरत प्रताड़नाओं से भरे दिनों को जिस किसी भी प्रकार से जीते हुए कालिदास अपने प्रथम काव्य ‘ॠतुसंहार’ की रचना करता है। गाँव-प्रांतर में शायद मल्लिका के अतिरिक्त इस अद्भुत काव्य-रचना के बारे में कोई नहीं जानता। खैर किसी प्रकार कालिदास के इस काव्य की चर्चा उज्जयिनी के राज-दरबार तक पहुँच जाती है। वहाँ के दरबारी कवि और विद्वान राजा के सामने उसका पाठ और प्रशंसा करते हैं। सभी  ‘ॠतुसंहार’ काव्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। राज्य ‘ॠतु संहार’ जैसे काव्य के सफल प्रणेता का सम्मान करने का निश्चय करता है। परिणामस्वरूप आचार्य वररुचि के नेतृत्व में राज्य-कर्मचारियों का एक दल कालिदास के गाँव पहुँचता है। दन्तुल नामक एक कर्मचारी का एक हिरण को घायल करने के मामले को लेकर अनजाने में कालिदास से झड़प भी हो जाती है। पता चलने पर वह प्रायश्चित भाव से भर उठता है। उधर जब कालिदास को पता चलता है कि राज-कर्मचारियों का दल उसी को उज्जयिनी ले जाने के लिए आया हुआ है, तो वह वहाँ जाने में अपनी स्वच्छंदता का हनन मानकर इनकार कर देता है। अपने मामा मातुल के जोर देने पर वह महाकाल के मंदिर में जा छिपता है और कहता है कि जब तक राज-कर्मचारी वापस लौट नहीं जाएँगे, वह मंदिर से बाहर नहीं निकलेगा। लोग इसको भी कालिदास का एक नाटक ही मानते हैं। पर गाँव का निक्षेप नामक युवक, जो कि कालिदास की प्रतिभा और स्वभाव का सच्चे मन से कायल होता है, वह आकर अंबिका से कहता है कि – “कालिदास नाटक नहीं कर रहे, अंबिका ! मुझे विश्वास है कि उन्हें राजकीय सम्मान का मोह नहीं है। वे सचमुच इस पवित्र भूमि को छोड़कर नहीं जाना चाहते।” पर निक्षेप भी चाहता है कि कालिदास जिस सम्मान का अधिकारी है, उसे पाने के लिए उसे उज्जयिनी जाना ही चाहिए। अतः वह मल्लिका से आग्रह करता है वह उसे उज्जयिनी जाने के लिए विवश करे। वह कहता हैः   “अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता । कालिदास यहाँ से नहीं जाते हैं, तो राज्य की कोई हानि नहीं होगी। राजकवि का आसन रिक्त नहीं रहेगा। परंतु कालिदास जो आज हैं, जीवनभर वही रहेंगे-एक स्थानीय कवि। जो लोग आज ‘ॠतु संहार’ की प्रशंसा कर रहे हैं, वे भी कुछ दिनों में उन्हें भूल जाएँगे।” निक्षेप की बात मल्लिका को जँच जाती है। माँ के विरोध करने पर भी वह महाकाल के मंदिर में जाकर कालिदास को वहाँ से बाहर निकाल लाती है। उसे उज्जयिनी जाने को विवश करती है। बीच में आकर विलोम अपने स्वभाव के अनुसार कालिदास की तीखी आलोचना करता है। अंबिका को उकसाता है कि वह जाने से पहले कालिदास मल्लिका से विवाह कर ले, क्योंकि अब कालिदास के जीवन में कोई अभाव नहीं रह गया। अंबिका इस बात की चर्चा मल्लिका से करती है, पर वह भावनामयी समर्पिता अपने स्वार्थ के लिए कालिदास के पथ में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित करने से साफ़ इनकार कर देती है। कालिदास के विदा माँगने पर कहती है- “नहीं ! विदा तुम्हें नहीं दूँगी। जा रहे हो, इसलिए केवल प्रार्थना करूँगी कि तुम्हारा पथ प्रशस्त हो।” और कालिदास चला जाता है। इस मोड़ पर पहुँचकर कथानक के एक – आरंभिक भाग का अंत हो जाता है।

कालिदास किन परिस्थितियों में पल-पुसकर, अपने काव्य ‘ॠतु संहार’ के माध्यम से उज्जयिनी के राजदरबार तक पहुँच सका, यह स्पष्ट हो जाता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की वस्तु-योजना का दूसरे अंक का भाग कुछ ‘वर्षों के अनन्तर’ आरंभ होता है। घटनास्थल अब भी वही-पहले अंक या भाग वाला-वही अंबिका के घर का प्रकोष्ठ ही रहता है। कालिदास को उज्जयिनी गए काफी वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। उसकी तरफ से भेजा गया कोई भी समाचार मल्लिका या गाँव वालों के पास नहीं पहुँचता। एक प्रकार से एक अनवरत निराशा की भावना अंबिका और मल्लिका दोनों के मनों में बैठती जाती है। कुमारी ही रहकर मल्लिका उसकी अनवरत प्रतीक्षा करती रहती है। अपनी युवती बेटी की चिंता में घुल-घुलकर अंबिका रोगशैय्या से चिपक जाती है। बीच-बीच में निक्षेप आकर कालिदास के संबंध में प्राप्त समाचार मल्लिका को सुना जाया करता है! वह मल्ल्किा को बताता है कि राजधानी में रहकर कालिदास ने अनेक नये-नये काव्यों का सृजन किया है। उनमें ‘मेघ-दूत’, कुमारसंम्भव’ ‘रघुवंशम’ और शाकुन्तलम्’ आदि को विशेष प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता प्राप्त हुई है। वह कालिदास की प्रसिद्धि से तो प्रसन्न है, पर उसके जागतिक व्यवहारों से नहीं। निक्षेप मल्लिका को यह भी सूचना देता है कि कालिदास ने राजपुत्री प्रियंगुमंजरी से विवाह कर लिया है । वह बताता है कि राजधानी में इस बात की चर्चा भी है कि कालिदास का संबंध अनेक संभ्रान्त वनिताओं के साथ भी है। निक्षेप कालिदास के वहाँ विवाह कर लेने पर दुख और ग्लानि का भाव व्यक्त करते हुए कहता है- ….. यहाँ रहते हुए उनका जो आग्रह था कि जीवनभर विवाह नहीं करेंगे? उस आग्रह का क्या हुआ? उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनके इसी आग्रह की रक्षा के लिए तुमने …..?” और फिर वह मल्लिका के प्रति स्वयं को अपराधी मानते हुए कहता है-  “यह तो दुख है कि मेरे कहने से तुम ऐसा न करतीं, तो आज तुम्हारे जीवन का रूप यह न होता।” पर मल्लिका का प्रेम भावनात्मक अधिक है, अतः वह किसी भी बात का बुरा न मान कर कहती है- “व्यक्ति उन्नति करता है तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद जुड़ने लगते हैं।” तात्पर्य यह है कि वह अपनी व्यथा पीकर सब सह लेती है। मल्लिका के अंतर्मन में एक ही टीस है कि कालिदास ने कभी उसका स्मरण ही नहीं किया, उसे एकदम भुला दिया है। तभी उस ग्राम-प्रांतर में एक बार फिर राज-कर्मचारियों के आने की हलचल का पता चलता है। मातृगुप्त  के नाम से कश्मीर का शासक बनकर कालिदास अपने गाँव-प्रांतर से गुजर कर कश्मीर जा रहा होता है। राज-कर्मचारियों को इधर-उधर भाग-दौड़ करते निहार कर कालिदास के घोड़ों की टापों की आवाज सुनकर निक्षेप मल्लिका को बताता है कि “मैंने अभी-अभी एक और आकृति को घोड़े पर जाते देखा है। मुझे विश्वास है, वे स्वयं कालिदास हैं।” यह कहकर निक्षेप उन्हें देखने के लिए चला जाता है। “वे आए हैं और पर्वत-शिखर की ओर गए हैं?” यह कहते हुए मल्लिका का मन प्रतीक्षा से भर उठता है कि जब कालिदास यहाँ आए हैं तो निश्चय ही उससे मिलने के लिए भी आएँगे। पर आती हैं पहले रंगिणी-संगिणी नामक दो राज-कर्मचारी महिलाएँ, कालिदास के विगत जीवन पर शोध करना चाहती हैं और उनके बाद आते हैं अनुस्वार और अनुनासिक नामक दो राज-कर्मचारी, मल्लिका के घर की व्यवस्था देखने के लिए क्योंकि राज महिषी, कालिदास की रानी-पत्नी प्रियंगुमंजरी का वहाँ आना होता है। अनुस्वार और अनुनासिक मल्लिका को यह सूचना देने के बाद कि मातृगुप्त के नाम से कश्मीर के शासक बने कालिदास की रानी प्रियंगुमंजरी देवी मल्लिका से मिलने आ रही हैं। कथानक अग्रसर होता है। मल्लिका को कालिदास के आने की आशा है, पर उसके टूटे-फूटे घर में प्रवेश करती है, मातुल के साथ रानी प्रियंगुमंजरी। वह विस्मय-विमुग्ध मल्लिका के बैठने का आग्रह करने पर कहती है- “नहीं, बैठना नहीं चाहती। तुम्हें और तुम्हारे घर को देखना चाहती हूँ। उन्होंने बहुत बार इस घर की और तुम्हारी चर्चा की है। जिन दिनों ‘मेघदूत’ लिख रहे थे, उन दिनों प्रायः यहाँ का स्मरण किया करते थे। आज इस भूमि का आकर्षण ही हमें यहाँ ले आया है। अन्यथा दूसरे मार्ग से जाने में हमें अधिक सुविधा थी।” वह यह भी बताती है कि कालिदास इधर नहीं आना चाहते थे, वह विशेष आग्रह से ही उन्हें साथ लाईं है। वह यहाँ की कुछ वस्तुएँ भी कश्मीर अपने साथ ले जाने की बात कहती है, ताकि कालिदास के आस-पास यहाँ का वातावरण प्रस्तुत किया जा सके और उस वातावरण के साधनों में शायद मल्लिका भी एक साधन है, जिसे रानी प्रियंगुमंजरी अपने साथ ले जाना चाहती है। पर स्वाभिमानिनी और भावना के स्तर पर समर्पित मल्लिका साथ जाने से साफ इनकार कर देती है। उसके बाद राज्य द्वारा उसके घर की मरम्मत करवा देने के प्रियंगुमंजरी के प्रस्ताव को भी मल्लिका-अपनी माँ अंबिका के चाहने पर भी ठुकरा देती है। बातचीत में मल्लिका कालिदास की समस्त परवर्ती काव्यों से अपने परिचय की बात कह कर, जिन्हें वह व्यवसायियों से मँगवा कर पढ़ती रही है-प्रियंगुमंजरी को चकित कर देती है, प्रियंगुमंजरी मल्लिका के लिए कुछ भी करना चाहती है, मल्लिका की माँ भी चाहती है कि उस अनाथों की-सी स्थितियों से छुटकारे के लिए कुछ हो, पर मल्लिका? वह साफ इनकार कर देती है। अंत में जैसे ही प्रियंगुमंजरी जाती है, तभी विलोम आ टपकता है । वह अपने ही ढंग से बात-चीत करके मल्लिका और अंबिका दोनों के मनों को आहत करने का प्रयत्न करता है। क्योंकि मल्लिका को आशा है कि पर्वतों की ओर गया कालिदास लौटकर शायद उससे मिलने आए, अतः वह चाहती है कि विलोम तत्काल यहाँ से चला जाए, पर वह उनके घावों पर नमक छिड़कता ही रहता है। कालिदास के घोड़े की टापों का शब्द मल्लिका के घर के क्रमशः निकट से निकटतम आकर फिर आगे बढ़ जाता है। वह मल्लिका के घर के पास से गुजर कर भी नहीं मिलता। अतः विलोम और अंबिका दोनों ही अपनी बातों से इस यथार्थ बोध का आश्रय लेकर मल्लिका को आहत और सावधान करने का प्रयास करते हैं। विलोम के चले जाने के बाद मल्लिका के धैर्य का बाँध टूट जाता है और वह सुबकने लगती है।  यहीं नाटक का दूसरा खंड समाप्त होता है।

‘कुछ और वर्षों के बाद’-नाटककार की इस विज्ञप्ति के साथ वस्तु-योजना का तीसरा और अंतिम भाग आरंभ होता है। वही पहले जैसा मल्लिका का घर! पर अब उस प्रकोष्ठ की स्थिति पहले से कहीं अधिक जीर्ण-शीर्ण हो चुकी होती है। घर में एक और भी महत्त्वपूर्ण अंतर आ चुका है। वह यह कि अब गृहस्वामिनी अंबिका नहीं है। उसका स्थान स्वयं मल्लिका और मल्लिका का स्थान उसकी अपनी नन्हीं बच्ची ले लेती है कि जिसका पिता कालिदास का प्रतिद्वन्द्वी विलोम है। इस प्रकार इस परिवर्तित आयाम में अगली वस्तु-योजना का आरंभ कश्मीर से लौटे मातुल के प्रवेश के साथ होता है। मल्लिका को मातुल के मुख से कश्मीर के समाचार ज्ञात होते हैं। वह बताता है कि यहाँ पहुँच कालिदास शासक बनकर कश्मीर की राजनीति का संचालन करने लगा। पर कुछ ही दिन बाद वहाँ की प्रजा विद्रोह कर देती है। काव्य की दुनिया में रहने वाला कालिदास उस विद्रोह का और उससे संबन्धित राजनीतिक उठा-पटक का सामना नहीं कर पाता, अतः सब छोड़-छाड़ न जाने कहाँ भाग गया है। मातुल बताता है कि ऐसा सुनने में आया कि काशी पहुँचकर कालिदास ने संन्यास ग्रहण कर लिया है। पर वह निश्चित रूप से कुछ भी नहीं बता पाता, वह राजनीतिक जीवन और वातावरण की अनेक प्रकार से भर्त्सना करने के बाद एक प्रकार की अनिश्चित की स्थिति में ही कहता हैः  “मैंने सुना है। विश्वास नहीं होता, परंतु होता भी है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। जितना संभव है कि ऐसा न हो, उतना ही संभव है कि ऐसा हो। और यह भी संभव है कि जो हो, वह न हो….” वह यह भी कहता है कि-  “वहाँ के लोगों का तो कहना है कि उसने संन्यास ले लिया है और काशी चला गया है। परंतु मुझे विश्वास नहीं होता… परंतु असंभव भी नहीं है। एक राजनीतिक जीवन, दूसरे कालिदास। मैं आज तक दोनों में से किसी की भी धुर नहीं पहचान पाया….।” पर मल्लिका इस बात पर विश्वास के स्वरों में कह उठती है कि – “नहीं, यह सत्य नहीं हो सकता। मेरा हृदय इसे स्वीकार नहीं करता।” उसका हृदय कसमसा उठता है। मातुल के बैसाखी पटकते हुए वहाँ से चले जाने के बाद वहाँ जैसे मल्लिका अपने से ही संभाषण करने लगती है – “नहीं, तुम काशी नहीं गए। तुमने संन्यास नहीं लिया मैंने इसलिए तुमसे यहाँ से जाने के लिए नहीं कहा था… और आज तुम मेरे जीवन को इस तरह निरर्थक कर दोगे?” इस प्रकार मल्लिका जीवन में पहली बार एक प्रकार की पराजय की भावना से अभिभूत हो उठती है। वह अपने कालिदास को जहाँ जिन उच्च स्थितियों पर सामाजिक और व्यावहारिक जीवन भी देखना चाहती थी, वह वहाँ कभी भी तो उसे दिखाई नहीं देता। उसे लगने लगता है कि जैसे उसके सारे सपने, सारी कल्पनाएँ आषाढ़ की पहली ही बौछार ने धाराशायी कर दिए हैं। बाहर वर्षा का जोर एक बार फिर बढ़ जाता है, मल्लिका का मानसिक उद्वेग भी। वह मन-ही-मन अपने अब तक के जीवन का पुनरावलोकन कर ही रही होती है कि वस्तु-योजना में अंतिम मोड़ आ पहुँचता है। सहसा जोर से बादल गरजते और बिजलियाँ चमक उठती हैं” मल्लिका के जीर्ण-शीर्ण घर का द्वार एक बार और-शायद अंतिम बार भड़भड़ाकर खुलता है और अस्त-व्यस्त वेश-दशा में आषाढ़ी वर्षा में भीगता हुआ कालिदास वहाँ सहसा प्रवेश करता है। मल्लिका उसे जड़-सी देखती ही रह जाती है। वस्तु-योजना विकास के उस मोड़ पर पहुँच कर अपने उपसंहार की ओर अब और भी अधिक वेग से बढ़ने लगती है। कालिदास और मल्लिका दोनों ही परस्पर अपहचानी दृष्टियों से देखते हैं। तब पहचान को दुहराने और ताजा करने के लिए कालिदास ही कहता है- “संभवतः पहचानती नहीं, हो…। स्वाभाविक है, क्योंकि मैं वह व्यक्ति हूँ जिसे मैं स्वयं नहीं पहचानता…. देख रहा हूँ कि तुम भी वह नहीं हो। सब कुछ बदल गया है…।” वह यह भी कहता है कि जीवन के यथार्थ को देखने के लिए ही वह एक बार फिर यहाँ आया है। थका और ज्वर-ग्रस्त होने पर भी आषाढ़ की इस वर्षा में भीगकर वह अपने-आपको स्वस्थ अनुभव कर रहा है। वह मल्लिका के घर-परिवेश में आने वाले परिवर्तन, उसकी जीर्ण-शीर्णता की चर्चा भी करता है। वह बताता है कि राजधानी और कश्मीर में रहते हुए भी वह वहाँ के वातावरण में कभी अपने-आपको खपा नहीं सका। यहाँ की स्मृतियाँ उसके मन-मस्तिष्क को हमेशा कुरेदती रही। और अब वह कहता है- “…. सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है। आज मैं उस सबसे मुक्त हूँ जो वर्षों से मुझे कसता रहा है।… मैंने संन्यास नहीं लिया। मैं केवल मातृगुप्त के कलेवर से मुक्त हुआ हूँ जिससे पुनः कालिदास के कलेवर में जी सकूँ। एक आकर्षण सदा उस सूत्र की ओर खींचता था जिसे तोड़कर मैं यहाँ से गया था। यहाँ की एक-एक वस्तु में जो आत्मीयता थी, वह यहाँ से जाकर मुझे कहीं नहीं मिली।” और अपनी पराजय, अपने अहं की पराजय भी वह स्वीकार कर लेता है। यह भी कहता है कि वहाँ रह कर उसने जो कुछ भी लिखा, वह सब वास्तव में इसी गाँव, मल्लिका और वातावरण की ही देन है। ‘कुमारसम्भव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। ‘मेघदूत’ के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह-विमर्दिता यक्षिणी तुम हो। ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थीं। ‘रघुवंश’ में अज का विलाप भी मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति थी।” मैं वहाँ जाकर वहाँ के वातावरण को ग्रहण कर भी कुछ नया नहीं रच सका हूँ। अचानक इतना मान-सम्मान प्राप्त हो जाने के कारण वही दलित काम और अहंभाव से पीड़ित हो उठा था। वह अहंकारी बन गया था, पर अब उसका वह सारा नशा टूट चुका है। अतः वह अपने जीवन को एक नए अर्थ से प्रारंभ कर सकने के लिए ही यहाँ लौटा है। मल्लिका उसे बताती है कि राजधानी में रहकर जितने भी काव्य उसने रचे थे, व्यवसायियों से मँगवाकर उसने सारे-के-सारे पढ़ डाले हैं। उसने कालिदास की अनवरत प्रगति और स्मृति में कोरे भोजपत्र भी इकट्ठे करके रखे थे। ताकि उन पर वह अपने जीवन का श्रेष्ठतम काव्य रच सके। वह कहती है- “ये पन्ने मैंने अपने-हाथों से बना कर सिये थे। सोचा था, तुम राजधानी से आओगे, तो मैं तुम्हें भेंट दूँगी। कहूँगी कि इन पृष्ठों पर अपने सबसे बड़े महाकाव्य की रचना करना। परंतु उस बार तुम आकर भी नहीं आए और यह भेंट यहीं पड़ी रही। अब तो ये पन्ने टूटने भी लगे हैं, और मुझे कहते संकोच होता है कि ये तुम्हारी रचना के लिए हैं।” इस प्रकार मल्लिका अपने समूचे व्यक्तित्व के टूटने-अपने कौमार्य के टूटने और माँ तक बन जाने की बात कालिदास को प्रतीक-परोक्ष-रूप से बता देती है, फिर भी उन भोजपत्रों पर पड़ी मल्लिका के आँसुओं की बूँदें कालिदास को विकल कर देती हैं। कालिदास पन्ना उलटते हुए उनपर अश्रुबिन्दुओं के चिह्न, स्वेदकणों का प्रमाण, फूलों की सूखी पत्तियों के रंग देखकर कहते हैं, -“ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ है मल्लिका? इनपर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है।” अनन्त सर्गों के एक महाकाव्य की। इन पृष्ठों पर अब नया कुछ क्या लिखा जा सकता है। उसे जीवन का एक नया भावात्मक काव्य रचने की प्रेरणा भी प्रदान करती हैं। पर उस भावातिरेक के वातावरण पर जीवन का भोगा गया यथार्थ सहसा बिजली की तरह कौंध जाता है। कालिदास और मल्लिका के लिए सर्वाधिक घृणा के पात्र प्रतिद्वन्द्वी विलोम के संसर्ग से जन्मी नन्हीं बच्ची सहसा सोते से जाग कर रो उठती है। उधर कालिदास कह रहा होता है कि – “परंतु इससे आगे भी तो जीवन शेष है। हम फिर आज से आरंभ कर सकते हैं।” तभी उस बच्ची का रुदन सुनाई देता है और कालिदास के पूछने पर मल्लिका कहती है- “पर मेरा वर्तमान है।” ठीक इसी समय दरवाजे को सहसा धक्के-से खोल कर शराब के नशे में लड़खड़ाता विलोम भी वहाँ प्रवेश करता है और उपसंहार की ओर अग्रसर वस्तु-योजना तनाव से पूर्ण होकर अपने अंत की ओर और भारी द्रुत गति से भागने लगती है। विलोम और कालिदास स्तंभित भाव से एक-दूसरे को देखते हैं। पर इस बार विलोम उससे हतप्रभ नहीं होता। वह गृहस्वामी होने के दावे के साथ कालिदास का आतिथ्य करने की बात कहता है। इस पर भी जब कालिदास उसे डाँटकर वहाँ से चले जाने की बात कहता है तो विलोम तन जाता है। बड़े ही स्पष्ट शब्दों में वह कहता है- “क्योंकि तुम यहाँ लौट आए हो?… क्योंकि वर्षों से छोड़ी हुई भूमि पर आज फिर तुम्हें अपनी प्रतीत होने लगी है?… क्योंकि तुम्हारा अधिकार शाश्वत है?…. जैसे तुमसे बाहर जीवन की गति ही नहीं है। परंतु समय निर्दय नहीं है। उसने औरों को भी सत्ता दी है। अधिकार दिए हैं। वह धूप-दीप-नैवेद्य लिए घर की देहली पर रुका नहीं रहता है। उसने औरों को भी अवसर दिया है। निर्माण किया है।…तुम्हें उसी निर्माण से वितृष्णा होती है? क्योंकि तुम जहाँ अपने को देखना चाहते हो, नहीं देख पा रहे हो? और कालिदास सचमुच अपने को नहीं देख पाता! अतिथि के सम्मान की रक्षा के लिए विलोम वहाँ से चला जाता है, पर समय की गति से पछाड़ खाकर कालिदास भी वहाँ टिक या रुक नहीं पाता। वह कहता है यूँ तो सब-कुछ पहले जैसा ही है-  “परंतु यह कोरे पृष्ठों का महाकाव्य तब नहीं लिखा गया था।… मैंने कहा था कि मैं अथ से आरंभ करना चाहता हूँ। यह संभवतः इच्छा का समय के साथ द्वंद्व था। परंतु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि … वह प्रतीक्षा नहीं करता।” और फिर से आषाढ़ के पहले दिन के बादल गरज उठते हैं, बिजली चमकती है। एक बार चारों ओर देखकर कवि कालिदास बरसते आषाढ़ की तीखी बौछारों में हमेशा के लिए जाने किस ओर निकल जाता है। बेचारी मल्लिका की पुकारें उन बौछारों में कहीं खोकर रह जाती हैं। और तब? एक बार पुनः अपनी नन्हीं बच्ची का रुदन सुनकर मल्लिका भावना के स्तर से यथार्थ के स्तर पर उतर कर अपनी बच्ची के पास जा, उसे चूमने लगती है, जीवन के सत्य, भोगे जा रहे यथार्थ के इस मोड़ पर पहुँच कर ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की वस्तु-योजना आषाढ़ के पहले दिन से ही वर्षा की बौछारों में भीग-भीग कर, उसी बौछार में ही अवसित होकर रह जाती है।   

मल्लिका

अनुपम त्यागमयी, निश्छल हृदया तथा प्रेमी की मंगल-कामना के लिए अपने जीवन के स्वप्नों को न्योछावर कर देने वाली मल्लिका की यश-सुरभि से प्रस्तुत कृति मल्लिका-पुष्प की सुगंध के समान ही सुवासित रहा है। यह नाटक के आरंभ में हमें इसके नायक कालिदास से पूर्व मल्लिका के दर्शन होते हैं और नाटक की समाप्ति पर भी स्वपुत्री को आवेशावस्था में चूमती मल्लिका ही हमारी दया की पात्र के रूप में रंगमंच पर विद्यमान रहती है।

पितृहीन अल्हड़ किशोरी – हतभाग्या मल्लिका का प्रथम दुर्भाग्य तो यही है कि उसके सिर से असमय ही पिता की छत्रच्छाया उठ जाती है तथा उसके कोई भाई भी नहीं है, मल्लिका और उसकी माँ को ही किसी प्रकार उदर-पूर्ति के साधन जुटाने पड़ते हैं। मल्लिका अल्हड़ नवयौवना है, वह जग-रीति का सम्यक् ज्ञान नहीं रखती अतः इस तथ्य के परिणामों को नहीं सोच पाती कि उसके कालिदास-संबंधी प्रेम का जो अवसाद फैलता जा रहा है उसका क्या भयंकर परिणाम निकल सकता है। उसकी देखभाल करने वाली है उसकी वृद्धप्राय: माँ, जिसकी अपनी इकलौती पुत्री या कहिए जीवन की एकमात्र आधार पुत्री पर अपेक्षा से अधिक स्नेह-भाव है। वह मल्लिका को जग की ऊँच-नीच समझाने के लिए उससे रूठती तो है, किंतु अपनी अल्हड़-पुत्री पर कोई कड़ा प्रतिबंध नहीं लगा पाती।

हठीली पुत्री- अम्बिका की इकलौती संतान होने के कारण मल्लिका के चरित्र में उस हठ और दुराग्रह का पर्याप्त पुट है, जो प्रायः यही इकलौती संतानों में पाया जाता है। अम्बिका उसे बार-बार यह समझाने की चेष्टा करती है कि मात्र भावनाओं में खोए रहकर जीवन की प्रत्यक्ष आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं की जा सकती, किंतु मल्लिका की हठ के समक्ष उसे हार ही माननी पड़ती है। उदाहरणार्थ अंबिका इस बात पर मल्लिका से बड़ी रुष्ट है कि वह वर्षा होने की संभावना होने पर भी घर नहीं लौटी और कदाचित् अपने प्रेमी कालिदास के साथ वर्षाविहार में भीगती रही।

कल्पनाजीवी एवं भावुक – मल्लिका अत्यधिक भावुक है। प्रेमी के साथ वर्षा में विहार करने के अनंतर उसका अंग-प्रत्यंग हुलसने लगता है- वह भावुकता के गगन में विहार करने लगती है। नाटक के आरंभ में ही उसके द्वारा माता से कही गई यह उक्ति कवित्व एवं भावुकता से ओत-प्रोत है- “मुझे भीगने का तनिक खेद नहीं। भीगती नहीं तो आज मैं वंचित रह जाती। .. चारों ओर धुँआरे मेघ घिर आए थे। मैं जानती थी वर्षा होगी। फिर भी मैं घाटी की पगडंडी पर नीचे-नीचे उतरती गई। एक बार मेरा अंशुक भी हवा ने उड़ा दिया। फिर बूँदें पड़ने लगीं। … वह बहुत अद्भुत अनुभव था माँ, बहुत अद्भुत।” भावुकता का मल्लिका अंतिम दृश्य के अतिरिक्त कभी भी परित्याग नहीं कर पाती। जब उसे यह समाचार मिल जाता है कि कालिदास ने नरेश पुत्री से विवाह कर लिया है, उनका अधिकांश समय वारांगनाओं के साहचर्य में व्यतीत होता है, फिर भी कल्पनाजीवी मल्लिका यह आशा संजोए बैठी रहती है कि मेरे प्रेमी महाशय मुझे विस्मृत न कर पाएँगे। ग्राम-प्रांतर में आने पर कालिदास उससे मिलने नहीं आता, फिर भी भावुकतामयी मल्लिका स्वयं को कालिदास से पृथक् विच्छिन्न नहीं समझती।

निश्छल, निःस्वार्थ प्रेमिका- सच्चा प्रेम निश्छल और निःस्वार्थ होता है-उसमें स्वार्थ-भावना का कलुष नहीं होता। इस कसौटी की दृष्टि से मल्लिका का चरित्र बड़ा प्रशंसनीय है। यह उसकी कालिदास के प्रति निश्छलता निःस्वार्थ प्रेम से अर्जित शक्ति का ही प्रताप है कि वह माता का विरोध और लोकापवाद सहकर भी अपनी प्रेम-भावना में न्यूनता नहीं आने देती। उसकी माता चाहती है कि कालिदास उज्जयिनी जाने से पूर्व उससे विवाह कर ले तथा विलोम तो इस तथ्य को मल्लिका ही नहीं अपितु कालिदास के भी सम्मुख प्रस्तुत कर देता है, फिर भी मल्लिका नहीं चाहती कि वह अपने प्रेमी के उज्जयिनी-गमन में अपने विवाह का बखेड़ा खड़ा करके अड़चन डाल दे।

स्वाभिमानिनी- मल्लिका के हृदय में आत्म-सम्मान या स्वाभिमान की भावना भी पर्याप्त मात्रा में है। प्रियंगुमंजरी उसके समक्ष यह प्रस्ताव रखती है कि तुम्हारे घर का परिसंस्कार करा दिया जाए, किंतु वह उसके इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर देती है, क्योंकि इससे उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है- “आप बहुत उदार हैं। परंतु हमें ऐसे घर में रहने का ही अभ्यास है, इसलिए हमें असुविधा नहीं होती।” विलोम से वह घृणा करती है ओर उसका रंचमात्र भी अहसान नहीं चाहती। इसीलिए जब वह उसकी माँ के लिए मधु दे जाने की बात कहता है तो वह कह देती है- “हमें मधु की आवश्यकता नहीं है। हमारे घर में मधु पर्याप्त मात्रा में है।” कालिदास जब ग्राम-प्रांतर में आकर भी उससे मिलने नहीं आता तो उसका स्वाभिमान आहत हो उठता है और उसके मुख से ये शब्द फूट पड़ते हैं, “आज वर्षों के अनंतर तुम लौटकर आए हो। सोचती थी कि तुम आओगे तो उसी तरह मेघ घिरे होंगे, वैसा ही अँधेरा-सा दिन होगा, वैसे ही एक बार मै वर्षा में भीगूँगी और तुमसे कहूँगी देखो मैंने तुम्हारी सब रचनाएँ पढ़ी हैं।”

करुण-हृदया- आलोच्य नाटक के आरंभिक दृश्य में ही हमें मल्लिका के करुणा-आप्लावित हृदय के दर्शन हो जाते हैं। कालिदास द्वारा उसके विषय में कहे गए वे शब्द पूर्णतया सार्थक हैं जिन्हें वे हरिणशावक को छाती से लगा कर मल्लिका के यहाँ लाने के समय कहते हैं- “तुम्हें वहाँ ले चलता हूँ जहाँ तुम्हें अपनी माँ की-सी आँखें और उसका सा-ही स्नेह मिलेगा।” क्योंकि जैसे ही वह आहत हरिणशावक को देखती है, वह अधीर होकर पूछ बैठती है- “यह आहत हरिणशावक? यहाँ ऐसा कौन व्यक्ति है जिसने इसे आहत किया? क्या दक्षिण की तरह यहाँ भी …?” उसके लिए दूध ले आती है और उसे गोद में लेकर उसका मुख दूध के निकट ले जाती है। नाटक के अंतिम दृश्य में भी उसका स्वपुत्री के प्रति वात्सल्य भाव उसकी प्रेम-भावना पर विजयी दृष्टिगत होता है।

कालिदास

कालिदास के चरित्रांकन के विषय में मोहन राकेश पर यह दोषारोपण किया गया है कि उन्होंने कालिदास के चरित्र को गिरा दिया है और मैं भी ऐसा ही अभिमत रखता हूँ।

पशुओं के प्रति दयालु- प्रस्तुत नाटक के प्रथम अंक की आरंभिक घटना से ही कालिदास के चरित्र के इस पक्ष पर प्रकाश पड़ जाता है। दंतुल द्वारा आहत हरिणशावक दौड़कर उसकी गोद में आ जाता है जिसे देखकर वे ऐसा दुखानुभव करते हैं मानो उन्हीं के शरीर में बाण लगा हो। वे उसे गोद में उठा कर मल्लिका के घर की ओर चल देता है, और अपनी सहृदयता का परिचय देते हुए कहता है- “हम जिएँगे हरिणशावक! जिएँगे न! एक बाण से आहत होकर हम प्राण नहीं देंगे। हमारा शरीर कोमल है तो क्या हुआ? हम पीड़ा सह सकते हैं। एक बाण प्राण ले सकता है तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण दे भी सकता है। हमें नए प्राण मिल जाएँगे। हम कोमल आस्तरण पर विश्राम करेंगे। हमारे अंगों पर धृत का लेप होगा। कल फिर हम वनस्थली में घूमेंगे। कोमल दुर्वा खाएँगे। खायेंगे न?”

स्वाभिमानी- कालिदास के चरित्र में स्वाभिमान की भावना भी पर्याप्त मात्रा में है। वह समझता है कि राज्याश्रय में रहने वाले कवियों को नरेशगण थोड़ी-सी मुद्राएँ देकर अपना क्रीत-दास बना लेते हैं जिससे उनकी काव्य-प्रतिभा का उचित विकास नहीं हो पाता और वे उन नरेशों की प्रशस्ति में रचनाएँ लिखने लगते हैं। यही कारण है कि कालिदास के मामा मातुल राजकीय सम्मान मिलने की बात सुनकर बड़े प्रसन्न होते हैं किंतु कालिदास उसे ठुकराते हुए के मंदिर में जा छुपते हैं।

दुर्बल हृदय प्रेमी- मल्लिका की तुलना में कालिदास एक दुर्बल हृदय प्रेमी सिद्ध होता है। मल्लिका अपना तन-मन उन पर न्योछावर कर देती है और उसे विवाह करने की आशा में किसी अन्य पुरुष से विवाह करने से इनकार कर देती हैं जैसा कि निक्षेप कथन से ज्ञात होता है, कालिदास ने भी ग्राम-प्रांतर में रहते हुए यह इच्छा व्यक्त की थी कि मैं भी आजीवन विवाह (मल्लिका के अतिरिक्त किसी अन्य युवती से) नहीं करूँगा, किंतु वह उज्जयिनी जाकर नरेशपुत्री प्रियंगुमंजरी से विवाह कर लेता है और जैसा कि लोकापवाद था उनका वारांगनाओं के साहचर्य में जीवन व्यतीत होता था।

वाक्पटुता- कालिदास कवि-कलाकार है और कवि भी उत्तम कोटि का, अतः उसका वाक्पटु होना स्वाभाविक ही है। वे अपने आचरण से तो नहीं, हाँ अपनी बातों से अपने विपक्षियों और मित्रों को प्रभावित करने में पटु हैं। वह मल्लिका के घर में घुस आने वाले दंतुल को डपटते हुए पूछता है- “जहाँ तक मैं जानता हूँ हम लोग परिचित नहीं हैं। तुम्हारा एक दूसरे के अपरिचित घर में आने का साहस कैसे हुआ?” इसी प्रकार वह विलोम द्वारा यह प्रश्न करने पर कि तुम राजधानी अकेले ही जाओगे अथवा मल्लिका के साथ विवाह करके इसे भी अपने साथ ले जाओगे? ऐसा उत्तर देते हैं जिससे विलोम को बगले झाँकनी पड़ती हैं- “मैं तुम्हारी प्रशंसा करने के लिए अवश्य बाध्य हूँ। तुम दूसरों के घर में ही नहीं, उनके जीवन में भी अनाधिकार प्रवेश कर जाते हो।” इसी प्रकार वह मल्लिका से भी चिकनी-चुपड़ी बातें ही करते रहते हैं। अपने आचरण द्वारा ऐसा कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता जिससे यह स्पष्ट हो सके कि उसे वास्तव में मल्लिका कितना प्रेम है।

स्वार्थी एवं आत्मकेंद्रित- प्रस्तुत नाटक में कालिदास का जैसा चरित्रांकन किया गया है उससे वे एक आत्म-केंद्रित एवं स्वार्थी व्यक्ति सिद्ध होता है। क्योंकि जब अंबिका की वास्तव में ही मृत्यु हो जाती है तब भी कालिदास मल्लिका के भरण-पोषण की चिंता या उसको पत्नी के रूप में अपना लेने की चेष्टा करता हुआ नहीं दिखाई देता। वह कश्मीर के शासक होने का जो भार स्वीकार करते हैं उसके मूल में भी उसकी यह स्वार्थ-भावना है कि वह अपने विरोधियों से बदला लेना चाहता है।

असफल राजनेता- भावुक कवि और साहित्यकार राजनीति में सफल नहीं हो पाते क्योंकि उसमें छल-छद्म ओर राजनैतिक हथकण्डों को जानने वाली विवेक-बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। इस दृष्टि से यह तथ्य कालिदास के जीवन की भूल ही थी कि वह अपने विपक्षियों को नीचा दिखाने की कामना से कश्मीर का शासन भार सँभाल लेता है। यह कहा जा सकता है कि यदि उसे प्रियंगुमंजरी जैसी राजनीति कुशल पत्नी न मिली होती तो वे कश्मीर का शासन उतने दिनों तक भी न संभाल पाता जितने दिनों के पश्चात् उन्हें कश्मीर का शासन छोड़ कर भागना पड़ा।

विलोम

विलोम को कुछ आलोचकों ने इस नाटक का खलनायक बताया है जो मेरी दृष्टि में उचित नहीं है वह अधम पात्र तो अवश्य है क्योंकि कृति की नायिका मल्लिका की विवशता का लाभ उठाकर उसे अपनी अंकशायिनी बनने को विवश कर देता है। किंतु खलनायक का मुख्य लक्षण यह है कि वह नायक और नायिका के मिलन में पग-पग पर बाधा पहुँचाया करता है, जबकि नाटक के आरंभिक भाग में विलोम उनके मिलन में बाधक बनने के स्थान पर उनका विवाह कराने को उत्सुक मिलता हैं इसलिए विलोम को इस नाटक का खलनायक न मान कर अधम पात्र ही मानना चाहिए। विलोम के चरित्र में अवगुणों की प्रधानता है, जिनमें से प्रथम यह है कि वह उस मल्लिका से प्रेम करता है, जो उसे घृणा करती है और इसके कारण ही उसके चरित्र में अन्य अवगुणों का समावेश हो जाता है। मल्लिका के प्रेम को जीतने के लिए वह उसकी माँ की चापलूसी करता रहता है, तथा कालिदास की प्रछन्न निंदा।

अंबिका

अंबिका प्रस्तुत नाटक की ऐसी पात्र है जिसके प्रति पाठक-प्रेक्षकों की पूर्ण सहानुभूति रहती है। उसका मुख्य दुर्भाग्य यह है कि वह असमय ही विधवा हो जाती है तथा उसका कोई पुत्र भी नहीं है जो बड़ा होकर उसके भरण-पोषण का उत्तरदायित्व संभाल लेता। यह भी उसका दुर्भाग्य ही है कि उसकी इकलौती पुत्री मल्लिका उसके लाड़-प्यार के कारण कुछ ढीठ हो गई है, तथा नवयौवनाओं के समान कल्पना के संसार में खोई रहती है। अनुभवी अंबिका इस तथ्य से भली प्रकार परिचित है कि युवक कालिदास जैसे आत्मकेंद्रित कवि को अपनी प्रेयसियों के जीवन से खिलवाड़ करने में ही आनंदानुभव होता है। उन्हें उनके भले-बुरे की विशेष चिंता नहीं होती। वे उनसे विवाह करने का झंझट मोल लेना नहीं चाहा करते और इन बातों को वह स्वपुत्री को समझाना भी चाहती है किंतु मल्लिका अपनी माता की उचित सीखों की ओर कान नहीं देती। परिणाम वही निकलता है जिसकी उसे आशंका थी, वह अपनी पुत्री मल्लिका के दुखों से तिल-तिल कर गलती हुई, असमय ही काल कवलित हो जाती है।

प्रियंगुमंजरी

प्रियंगु एक परम विदुषी राजकन्या है, जिस पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की ही कृपा है। मनचाहा पति पाकर वह उसकी काव्यात्मक उपलब्धियों के प्रति गर्व अभिमान से भर उठती है व प्रसन्नता का अनुभव करती है। वह पति को ‘कालिदास’ नहीं अपितु ‘मातृगुप्त’ – कहलवाना पसंद करती है। अपने पति को वह राजनीति में बाँधे रखना चाहती है और नहीं चाहती कि वह अपने गाँव या अपनी जड़ों की ओर लौटे वह ‘साहित्य को कालिदास का पहला और राजनीति को आगे की ओर बढ़ता हुआ दूसरा चरण मानती है।

सत्ता वर्ग की प्रतिनिधि होने की वजह से उसी परिवेश में पली बढ़ी होने से वह राजनीति के दाँव पेचों में भी माहिर है। आभिजात्य वर्ग में पाया जानेवाला दर्प भी उसकी बातों और अंदाज़ में झलकता है। एक तरफ तो वह अपने पति को वह जैसा है वैसे ही स्वीकार कर लेती है पर उसे वैसा बने नहीं रहने देना चाहती, अपितु उसे अपनी स्थितियों और नए आभिजात्य परिवेश के अनुरूप बनाने के लिए, उसे बदलने की भरसक कोशिश भी करती है तो दूसरी तरफ वह पतिपरायण, कर्तव्य परायण बनने की कोशिश भी करती है पति का राज्य वैभव के बीच रहकर भी उदास रहना उसे अखरता है पति से उसने जो पाया है वह बाह्य है रंक को राजा बनाकर भी वह उसके मन व आत्मा को स्पर्श नहीं कर पाती। उसके भीतर की पत्नी सोचती है अपने ग्राम-प्रांतर की स्मृति के कारण इनका राज्य कार्य में मन नहीं लगता यह सोचकर वह यह प्रयास और व्यवस्था करती है कि उनके बाल्यकाल के परिवेश को ही अपने साथ उठाकर ले जाए, ताकि पति उदास होने की बजाय सदा प्रसन्न रहें। इसीलिए यात्रा में पति के ग्राम से होकर वह सायास गुज़रती है। पति की बाल सखा के प्रति उत्सुकता भी इसका एक कारण है और वह उससे भी मिलती है उसे और समस्त ग्राम के सौन्दर्य को वह अपने साथ ले जाना चाहती है। वह यह सोच ही नहीं पाती कि भौतिक साधन या सम्पन्नता तृप्ति व प्रसन्नता नहीं दे सकते।

वह संस्कारी है, विनम्र भी है, व्यवहारकुशल भी है और शिष्ट भी पर अपनी कुलीनता विद्वत्ता व सौन्दर्य का अभिमान लिए जब वह मल्लिका से साक्षात्कार करती है तो उसके भीतर की स्त्री और पत्नी मल्लिका के आगे हीनता, ईर्ष्या व घबराहट का अनुभव करती है। निरंतर अपना दर्प एवं अपनी महत्ता दिखाने का प्रयास उसकी इसी पराजय व खिसियाहट के कारण उभरता दिखाई देता है अपने वैभव का बखान कर मल्लिका को उसकी गरीबी का अहसास कराकर वह मल्लिका के सुकुमार मन पर कई बार प्राणान्तक आघात करती है। अपनी सुकुमार विजयिनी प्रतिद्वंदी के सुकुमार मर्म को चोट पहुँचाकर उसे चाहे संतुष्टि मिलती हो पर अनुनासिक व अनुस्वार जैसे मूर्ख निकम्मे अधिकारियों से मल्लिका के विवाह का उसका प्रस्ताव पाठक व दर्शक के हृदय को भीतर तक भेदकर उन्हें द्रवीभूत कर देता है। इसी कारण वह पाठक के मन में किसी प्रकार की सहृदयता या प्रेमभाव नहीं जगा पाती और वह स्थान मल्लिका को मिल जाता है। जब इससे भी बात नहीं बनती तो वह उसके जीर्ण घर का उद्धार करने की बात भी कहती है।

रंगिनी – संगिनी

नगर में रहनेवाली पढ़ी-लिखी विदुषी संभ्रांत महिलाएँ हैं। उज्जयिनी के राज्य से महाकवि कालिदास के जीवन पर शोधकार्य हेतु उन्हें सरकारी निधि से सहायता प्राप्त होती है। वे महाकवि के जीवन के विषय में सूक्ष्म जानकारियों की तलाश करते हुए कालिदास की शैशव – स्थली पहुँचती हैं। कालिदास जैसी महान विभूति को जन्म देनेवाली भूमि निश्चित ही असाधारण होगी ऐसी उनकी कल्पना है। ऐसी कल्पना से भरी सत्ता और सुविधा संपन्न वर्ग की वे दोनों स्त्रियाँ जब कालिदास के ग्राम प्रदेश में पहुँचती हैं तो वहाँ की प्रत्येक वस्तु को साधारण देखकर उन्हें हैरानी भी होती है और निराशा भी।

हर चीज़ को अतिरिक्त उत्साह, उत्सुकता से देखने की उनकी प्रवृत्ति से उनकी कृत्रिमता तो झलकती ही है, साथ ही रचनाकार ने उनकी या उनके जैसे अनुसंधानकर्ताओं, छात्रों की शोध – वृत्ति पर भी व्यंग्य किया है, जो विषय या वस्तु को समझने के लिए उसकी आत्मा में प्रविष्ट होने की बजाय केवल बाह्य उपकरणों पर केंद्रित होकर रह जाती है।

संवाद योजना

आधुनिक यथार्थवादी या समस्या-प्रधान नाटकों में प्रायः दो प्रकार के सम्वादों की योजना की जाती है। एक- सम्पूर्ण संवाद, इस प्रकार के संवादों में अभिनेयता की पूर्णता तो रहती ही है, अभिनेता अपनी बात कहने के लिए अनेक शब्दों और पूर्ण वाक्यों का प्रयोग करता है। उनमें असंबद्धता, अस्पष्टता और अधूरापन आभासित नहीं होता। संवादों का दूसरा प्रकार है- अपूर्ण या सांकेतिक संवाद। इस प्रकार के संवादों की योजना प्रायः असन्तुलित एवं अव्यक्त स्थितियों की अभिव्यक्ति के लिए या फिर असन्तुलित पात्रों के व्यवहारों के द्योतन के लिए, अथवा भावावेश की स्थिातियों के रूपायन के लिए ही प्रायः किया जाता है। इस प्रकार की संवाद-योजनाओं में सांकेतिकता के अभिधान के लिए नाटककार या तो डैशों का प्रयोग करता है, या फिर व्याख्या-बिन्दुओं का। इस प्रकार की संवाद योजना अक्सर संक्षिप्त, कभी-कभी एक शब्द मात्र ही हो जाती है। भावावेश के क्षणों में कभी-कभी इस प्रकार के संवाद लम्बे भी हो जाते हैं। उनके बीच-बीच में डैश-और व्याख्या-बिंदु भी प्रयुक्त किए जाते हैं। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक से इन दोनों प्रकार के संवादों का परोग हुआ है।

‘आषाढ़ का एक’ दिन के भाषा-शिल्प पर विचार करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसके वस्तु-विधान और कथ्य का संबंध प्रत्यक्षतः अतीत में जिए एक ऐसे पात्र से है जो एक प्रतिभावान, सरस और समृद्ध कवि था। उसका जीवन काव्यमय था। उसके साथ जुड़ी नाटक की नायिका भी भावनामयी होने की कारण स्वभावतः काव्यमयी थी, वह नायक की अन्तः प्रेरणाओं का मूल स्रोत थीं। अतः नाटक की भाषा में काव्यमयता का आ जाना एक सहज स्वाभाविक बात ही कही जाएगी। भाषायी काव्यमता के कारण ही अनेक आलोचक राकेश के इस नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ को जयशंकर प्रसाद की नाट्य-परम्परा (काव्यात्मक संस्कृतनिष्ठ शब्दावली युक्त भाषा) रखना अधिक उचित एवं युक्तिसंगत स्वीकार करते हैं।

मोहन राकेश ने शायद नाटक को यथार्थ के बेहद करीब ले जाने के लिए ही अंबिका और मल्लिका के चरित्र को जस का तस प्रस्तुत किया है। इस नाटक से शायद वास्तविकता दिखाना चाह रहे हों तभी तो उन्होंने ना ही अंबिका को तमाम संघर्षों के बाद सफलता हासिल करते दिखाया और ना ही मल्लिका को। हो सकता है कि उनकी सोच दर्शकों को सोचने पर मजबूर करना रहा हो। दर्शक दीर्घा में बैठा इंसान जब मंच पर अपने आस-पास की घटनाओं को घटित होते देखता है तब उसे इस बात का एहसास होता है कि जो हो रहा है उनमें क्या सही है और क्या गलत। इस तरह यह देखा जा सकता है कि आषाढ़ का एक दिन की अंबिका और मल्लिका आज भी हमारे आस – पास समाज से संघर्ष करती हुई दिखाई दे जाती हैं।

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