सोन मछली
पाठ परिचय
प्रस्तुत कविता अज्ञेय विरचित ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ नामक काव्य संकलन से ली गई है। इसका प्रकाशन सन् 1959 में हुआ था। यहाँ मछली मानव की जिजीविषा अर्थात् जीने की प्रबल इच्छा का प्रतीक बन कर आई है। कवि का यह अभिनव प्रतीक है।
प्रस्तावना
यह कितनी विचित्र बात है कि जो सुंदर होते हैं उन्हें भी अपने जीवन में अपनी सुंदरता की वजह से अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस पाठ में भी सोन मछली जो रूपवती, आकर्षक और भिन्न है उसे उसकी खूबसूरती की वजह से एक बड़े काँच के पात्र में आलय की शोभा बढ़ाने के लिए रखा जाता है। हम उस मछली को देखकर प्रसन्न तो होते हैं कि उस सुंदर मछली पर हमारा अधिकार है पर उस मछली की दृढ़ इच्छा तो यही है कि वह अपनी इच्छानुसार जलाशय में ही स्वच्छंद विचरण करें और इसी आशा में वह तैरती रहती है। उसके इस तरण प्रयास को ही जिजीविषा अर्थात् जीने की इच्छा बताया गया है। वास्तव में कवि ने यहाँ पर मछली के माध्यम से मनुष्य की ओर इशारा किया है।
सोन मछली
हम निहारते रूप,
काँच के पीछे
हाँप रही है मछली।
रूप-तृषा भी
(और काँच के पीछे)
है जिजीविषा।
शब्दार्थ
निहारते – देखते
रूप – सौंदर्य
जिजीविषा – जीने की प्रबल इच्छा
काँच के पीछे – काँच की बोतल में बंद
रूप-तृषा – सुंदरता की प्यास
प्रसंग
प्रस्तुत लघु कविता ‘सोन मछली’ अज्ञेय विरचिiत ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ से अवतरित है। यहाँ कवि मछली को जिजीविषा का प्रतीक मानकर मछली की विडंबना और मानव की जीवनेच्छा पर प्रकाश डालते हैं।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि हम काँच के बने लघु सरोवर में बंद मछलियों को जल-क्रीड़ाएँ करते हुए देखते हैं। हम बंद मछलियों की तैरती तड़पन को नहीं देखते बल्कि उनके रूप सौंदर्य को देखकर आनंदित होते हैं। इससे तो हमारी सौंदर्य दर्शन की प्यास ही पूर्ण होती है जबकि हम उसकी जीवनेच्छा को नहीं समझते। वास्तव में बंद मछलियाँ जल क्रीड़ाएँ नहीं कर रही होतीं, वे तो पानी का बुलबुला पीने के लिए हाँफती फिरती हैं। उनका यह तैरना, तड़पना जीवन की तलाश एवं जीवन को सुरक्षित रखने का प्रयास है अर्थात् हम उनकी सुंदर जल क्रीड़ाओं को देखकर ही आनंदित होते रहते हैं उनकी जिजीविषा को नहीं समझ पाते। कवि का कहने का तात्पर्य है कि मानव जीवन की दशा भी यही है, उसकी जिजीविषा भी यही है।
विशेष
1. यहाँ काँच के पीछे (बोतल, जार या लघु सरोवर) बंधनों का प्रतीक है और तैरती, हाँफती मछली जीवनेच्छा का प्रतीक है।
2. यहाँ ‘निहारते’ ‘हाँफना’ शब्दों के प्रयोग से कवि की प्रयोगधर्मी बुद्धि परिलक्षित होती है।
3. कवि ने अपने को राही नहीं, राहों के अन्वेषी कहा है, सत्यान्वेषी कहा है। इसीलिए यहाँ मछली जीवनेच्छा का प्रतीक बनकर आई है।
4. भाषा सहज, सरल प्रभावपूर्ण है।