चंद्रगहना से लौटती बेर
देख आया चंद्रगहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेंड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, ‘जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।’
और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं,
ब्याह – मंडप में पधारीय
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं – स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग – अंचल हिल रहा है
इस विजन में
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
चुप खड़ा बगुला डुबाये टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
औ’ यहीं से
भूमि ऊँची है जहाँ से
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छन्द हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रींवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टेंय
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटोंय
मन होता है
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाये सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे चुप्पे।
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1911 में बाँदा जिले के कमासिन नामक गाँव में हुआ था इनकी पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद और कानपुर में हुई थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद इन्होंने एल.एल.बी. की पढ़ाई डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर से की। वकालत को उन्होंने अपना पेशा और जीविका का साधन बनाया। उनकी मृत्यु 22 जून, 2000 को हुई।
केदारनाथ अग्रवाल की पहचान प्रगतिवादी कवि के रूप में रही है। ग्रामीण जीवन को व्यक्त करने में उन्हें अद्भुत सफलता मिली है। खेती-बाड़ी, गाँव की प्रकृति, बाँदा के आस-पास का जन-जीवन, केन नदी को आधार बनाकर उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं।
काव्य-संग्रह
युग की गंगा (1947), नींद के बादल (1947), लोक और आलोक (1957), फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965), आग का आईना (1970), गुलमेंहदी (1978), पंख और पतवार (1980), हे मेरी तुम (1981), मार प्यार की थापें (1981), बम्बई का रक्त – स्नान (1981), अपूर्वा (1984), बोल बोल अबोल (1985), आत्म-गंध (1988), अनहारी हरियाली (1990), खुलीं आँखें खुले डैने (1993), पुष्प दीप (1994) अनुवाद – देश-देश की कविताएँ (1970)
काव्य-संकलन
आधुनिक कवि – 16 (1978), कहें केदार खरी-खरी (1983, सं. – अशोक त्रिपाठी), जमुन जल तुम (1984, सं. – अशोक त्रिपाठी), जो शिलाएँ तोड़ते हैं (1986, सं. – अशोक त्रिपाठी), वसन्त में प्रसन्न हुई पृथ्वी (1996, सं.- अशोक त्रिपाठी), कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह (1997, सं.- अशोक त्रिपाठी),
निबन्ध-संग्रह
समय-समय पर (1970), विचार – बोध (1980), विवेक – विवेचन (1981)
उपन्यास – पतिया (1985)
यात्रा-वृत्तान्त – बस्ती खिले गुलाबों की (1975)
पत्र – साहित्य – मित्र-संवाद (1991, सं- रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी)
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह कविता प्रकृति के अनुपम सौंदर्य, ग्रामीण परिवेश, प्रेम और जीवन की सादगी को दर्शाती है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है वहीं से लौटते हुए रास्ते में प्रकृति के सौंदर्य को निहार रहे हैं। वे खेतों, फसलों, जलाशयों, पक्षियों और आसपास के दृश्य को बड़े ही सजीव और मनोरम रूप में प्रस्तुत करते हैं। सच में पूछा जाए तो यह कविता प्रकृति के मानवीकरण का अनुपम उदाहरण है।
यह कविता ग्रामीण जीवन, प्रकृति और प्रेम का सुंदर चित्रण करती है। कवि खेतों, फसलों और पक्षियों के माध्यम से प्रेम, समर्पण और स्वतंत्रता के विचारों को व्यक्त करते हैं। वे प्रकृति में सौंदर्य और जीवन की सहजता को महसूस करते हैं और प्रेम की सच्ची कहानी सुनने की इच्छा रखते हैं। यह कविता प्राकृतिक चित्रों और कोमल भावनाओं का अनूठा संगम प्रस्तुत करती है, जिससे पाठक भी प्रकृति के साथ आत्मीयता महसूस करता है।
कवि चंद्रगहना नामक स्थान से लौट रहे हैं और एक खेत की मेंड़ (किनारे) पर बैठकर प्रकृति के विभिन्न रूपों का अवलोकन कर रहे हैं। वे छोटे-छोटे पौधों, फूलों, जलाशय और पक्षियों का सुंदर वर्णन करते हैं।
चना का पौधा – छोटा-सा पौधा है जो अपने गुलाबी फूल के साथ मानो सज-धज कर खड़ा है।
अलसी का पौधा – पतली, लचीली डंठल वाली अलसी नील फूलों के साथ किसी के प्रेम स्पर्श के लिए तैयार प्रतीत होती है।
सरसों का पौधा – सबसे परिपक्व (सयानी) हो चुका है और पीले फूलों के कारण दुल्हन की तरह तैयार लग रहा है।
फागुन का महीना – रंगों और उल्लास का महीना आ गया है, जिससे खेत-खलिहान में एक विवाह जैसा माहौल प्रतीत हो रहा है।
इसके बाद कवि पोखर (तालाब) के पास की प्राकृतिक हलचल को देखते हैं –
बगुला – ध्यान लगाकर पानी में देखता है और जैसे ही कोई मछली दिखती है, उसे पकड़कर खा लेता है।
काले माथे वाली चिड़िया – सफेद पंखों को फैलाकर झपट्टा मारती है और मछली को पकड़कर उड़ जाती है।
कवि रेल की पटरी के पास पहुँचते हैं और महसूस करते हैं कि अभी ट्रेन आने का समय नहीं है, इसलिए वे स्वच्छंद हैं। वे चित्रकूट की पहाड़ियों, बाँझ भूमि, रींवा के पेड़ों, तोते और सारस के मधुर स्वर को सुनते हैं।
अंत में, कवि सारस के संग उड़ जाने और उसकी प्रेम कहानी सुनने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
01
देख आया चंद्रगहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेंड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
शब्दार्थ –
चंद्रगहना – चित्रकूट के एक गाँव का नाम
मेंड़ – खेत की किनारी
बीते के बराबर – लगभग एक हाथ के बराबर
ठिंगना – कम कद वाला
शीश – सिर
मुरैठा – सिर पर बाँधी जाने वाली पगड़ी
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि चंद्रगहना गाँव को देख आए हैं। वह खेत की मेड़ पर बैठे हैं और आस-पास के दृश्यों को देख रहे हैं। कवि ने देखा कि खेत में चने की फसल लगी है। उसका हरा पौधा लगभग एक बित्ते के बराबर ऊँचा हो गया है, मगर व्यक्तित्व से ठिगना मालूम पड़ता है। उसमें निकला हुआ गुलाबी फूल सिर पर बँधी पगड़ी की तरह मालूम पड़ता है। सजा-धजा चना मानो किसी उत्सव की तैयारी कर रहा है, हो सकता है कि वह अपनी शादी की तैयारी कर रहा हो!
02
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, ‘जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।’
शब्दार्थ –
हठीली – जिद्दी, अक्खड़
कमर की लचीली – पतली और लचकदार
हृदय का दान – प्रेम और समर्पण का प्रतीक
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि वहीं पास में ही सट कर तीसी के पौंधे उगे हुए हैं। मगर वह तो चने से लंबी है, देह से दुबली भी है, उसकी कमर में बहुत लचक भी है। उसने अपने नीले फूल को माथे पर चढ़ाकर सजा रखा है और शर्त रख दी है कि जो इस फूल को छू देगा उसे मैं अपने हृदय का दान दे दूँगी। मतलब उससे शादी कर लूँगी। लगता है कि उसने चने को ध्यान में रखकर यह कठिन शर्त रख दी है! बेचारा एक बित्ते का ठिगना चना उस लंबी छरहरी अलसी के सिर पर सजे नीले फूल को कैसे छू पाएगा! अलसी ने चने को छेड़ने के लिए खूब शरारत रची है!
03
और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं,
ब्याह – मंडप में पधारीय
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
शब्दार्थ –
सयानी – परिपक्व, समझदार
हाथ पीले करना – ब्याह करना
फाग – एक लोकगीत
फागुन – फाल्गुन महीना, जो होली और फसल कटाई का समय होता है
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि इन पंक्तियों में कहते हैं कि खेतों में फैली सरसों की फसल क्या खूब लग रही है! ऐसा लगता है मानो सरसों अब ब्याह के लायक सयानी हो गई है। उसके पीले फूल यूँ लग रहे हैं जैसे, शादी की तैयारी के लिए हल्दी–उबटन से हाथ पीले हो गए हैं। वह ब्याह के लिए मानो मंडप में आ चुकी है। यूँ लगता है कि फाल्गुन का महीना अपनी फगुनाहट की हवा के जरिए ब्याह और होली के गीत गा रहा है!
04
देखता हूँ मैं – स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
इस विजन में
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
शब्दार्थ –
स्वयंवर – विवाह के लिए चयन की प्रक्रिया
अनुराग-अंचल – प्रेममय वातावरण
विजन – जहाँ लोग न हों
व्यापारिक नगर – शहर या कस्बा जहाँ व्यापारिक गतिविधियाँ अधिक होती हैं
प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है – प्रेमपूर्ण स्थान अधिक उर्वर और समृद्ध होता है
संदर्भ और प्रसंग –
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि को लग रहा है कि प्रकृति में स्वयंवर का कार्यक्रम चल रहा है। इस खुशी में प्रकृति का आँचल मारे स्नेह के डोल रहा है। वैसे तो यह जगह निर्जन है, मगर धंधे-व्यापार वाले शहर से दूर रहने के कारण यहाँ प्रेम का उपजाऊ वातावरण मौजूद है। अर्थात् सरल जीवन से उत्पन्न प्रेम की सम्भावनाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। यहाँ शहरी जीवन की कृत्रिमता नहीं है।
05
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
शब्दार्थ –
पोखर – छोटा तालाब
चकमकाता – चमकता हुआ
प्यास जाने कब बुझेगी – लालसा और अतृप्ति की भावना
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
यहाँ पर कवि ने एक बड़े तालाब की चर्चा की है। कवि जहाँ बैठे हैं, वहाँ से उसके पैरों की तरफ एक बड़ा पोखर है। हवा के कारण उस पोखर में लहरें दिखाई पड़ रही हैं। पोखर इतना गहरा और साफ-सुथरा है कि उसकी तलहटी नीली मालूम पड़ रही है। उस तलहटी में भूरी घास है और वह भी लहराती हुई दिखाई पड़ रही है। सूरज अपनी चमक के साथ पोखर के पानी में चाँदी के एक बड़े गोल खम्भे की तरह प्रतिबिंबित हो रहा है। पोखर के किनारे कई पत्थर हैं। कवि कल्पना करता है कि ये पत्थर मानो चुपचाप पानी पी रहे हैं। मगर ये तो न जाने किस जमाने से पानी पी रहे हैं! न जाने इनकी प्यास कब बुझेगी?
06
चुप खड़ा बगुला डुबाये टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
शब्दार्थ –
ध्यान निद्रा त्यागता है – जागरूक हो जाता है
मीन चंचल – चंचल मछली
श्वेत – सफ़ेद
चोंच – Beak
गगन – आकाश
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि कहते हैं कि तालाब में एक बगुला चुपचाप खड़ा है, बिल्कुल ध्यान लगाए ‘वकोध्यानं’, तैरती हुई एक मछली को देखकर वह अपनी ध्यान-निद्रा के अभिनय को त्यागता है और चोंच में फुर्ती के साथ दबाकर गले में डाल लेता है। मछली बगुले के पेट में चली गई। एक दूसरी चतुर चिड़िया है जिसका माथा काला है। वह सफेद पंखोंवाली है। वह अचानक पानी पर झपट्टा मारती है और एक चंचल मछली को अपनी पीली चोंच में दबाकर दूर आकाश में उड़ जाती है। अर्थात् प्रकृति के द्वारा प्रदत्त कार्यों का सभी प्राणी सही तरीके से निष्पादन कर रहे हैं।
07
औ’ यहीं से
भूमि ऊँची है जहाँ से
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छन्द हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रींवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
शब्दार्थ –
भूमि – ज़मीन
स्वच्छन्द – आज़ाद
अनगढ़ – अव्यवस्थित
बाँझ – अनुपजाऊ
संदर्भ और प्रसंग –
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
पोखर के इन दृश्यों को दिखाने के बाद कवि बताते हैं कि पोखर के पास से ही जमीन क्रमशः ऊँची होने लगी है। उस ऊँचाई से रेल की पटरी गुजरी है। मगर अभी किसी ट्रेन के जाने का समय नहीं है। कवि को महसूस हो रहा है कि इस माहौल में वह पूरी तरह आजाद हैं। उन्हें कहीं आने-जाने का भी तनाव नहीं है। वे चारों तरफ नजर उठाकर देखते हैं कि चित्रकूट की पहाड़ियाँ दूर-दूर तक फैली हुई हैं। ये पहाड़ियाँ ज्यादा ऊँची नहीं हैं। ये आकार-प्रकार में भी सुगढ़ नहीं हैं। वहाँ की भूमि भी बंजर है। इधर-उधर रींवा के काँटेदार और कुरूप पेड़ दिखाई पड़ रहे हैं।
08
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टेंय
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटोंय
मन होता है
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाये सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे चुप्पे।
शब्दार्थ –
टिरटों टिरटोंय – सारस का स्वर
वनस्थली – जंगल का क्षेत्र
जुगुल जोड़ी – प्रेमी जोड़ा
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या
कवि कविता की अंतिम पंक्तियों में कहते हैं कि इस पथरीली बंजर जमीन के वातावरण में भी तोते की आवाज सुनाई पड़ती है। सुग्गे जब टें टें बोलते हैं तो लगता है कि कानों में मीठा-मीठा रस टपक रहा हो ! इस वन भूमि के सन्नाटे को चीरता हुआ सारस पक्षी का स्वर टिरटों टिरटों सुनाई पड़ता है। कवि का मन होता है कि पंख फैलाए उस सारस पक्षी के साथ वह उड़ जाए और वहाँ पहुँच जाए जहाँ वह अपनी जोड़ी के साथ रहता है। उसकी इच्छा है कि हरे-भरे खेतों में रहनेवाली इस जोड़ी की सच्ची प्रेम कहानी वह चुपचाप सुन ले और आनंदित होता रहे।
यह कविता चित्रकूट के निर्जन ग्रामीण इलाके की प्रकृति का चित्रण करती है। कवि ने पूरी आत्मीयता से प्रकृति के बीच घटित हो रही गतिविधियों को दिखाया है। यहाँ प्रकृति का मुख्य हिस्सा किसानी से जुड़ा है। फसलों का मानवीकरण करते हुए जो कुछ प्रस्तुत किया गया है, वह बहुत सुंदर बन पड़ा है।
खेत, तालाब और पहाड़ी के बीच फसल, मछली और पक्षी को रखकर जो परिवेश रचा गया है, उसमे प्रगतिवाद की प्रेरणा काम कर रही है। कवि ने गैर- रोमैंटिक वातावरण के प्रति आकर्षण उत्पन्न किया है।
पूरी कविता में मात्रिक छंद का प्रवाह मौजूद है। छोटी-बड़ी पंक्तियों के सहारे कोशिश की गई है कि मात्रिक छंद के प्रवाह में पूरी कविता लगभग कथा की तरह सुनाई जा सके।
केदारनाथ अग्रवाल ने प्रगतिवादी दृष्टि को इस कविता में ऊँचाई प्रदान किया है। सैद्धांतिक शब्दावली से बचते हुए उन्होंने गाँवों के प्रति ध्यान खींचने का काम किया है। यह कविता गाँव के वातावरण को सजीव और आकर्षक तरीके से पेश करनेवाली शुरुआती कविताओं में महत्त्वपूर्ण है।