धूप
धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने
मैके में आयी बेटी की तरह मगन है
फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है
जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं
भैया की बाँहों से छूटी भौजाई-सी
लहँगे को लहराती लचती हवा चली है
सारंगी बजती है खेतों की गोदी में
दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के
अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती
रंग-बिरंगी पंखुरियों की खोल चेतना सौरभ से
मँह – मँह महकाती है दिगंत को
मानव मन को भर देती है दिव्य दीप्ति से
शिव के नंदी – सा नदियों में पानी पीता
निर्मल नभ अवनी के ऊपर बिसुध खड़ा है
काल काग की तरह ठूँठ पर गुमसुम बैठा
सोयी आँखों देख रहा है दिवास्वप्न को।
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1911 में बाँदा जिले के कमासिन नामक गाँव में हुआ था इनकी पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद और कानपुर में हुई थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद इन्होंने एल.एल.बी. की पढ़ाई डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर से की। वकालत को उन्होंने अपना पेशा और जीविका का साधन बनाया। उनकी मृत्यु 22 जून, 2000 को हुई।
केदारनाथ अग्रवाल की पहचान प्रगतिवादी कवि के रूप में रही है। ग्रामीण जीवन को व्यक्त करने में उन्हें अद्भुत सफलता मिली है। खेती-बाड़ी, गाँव की प्रकृति, बाँदा के आस-पास का जन-जीवन, केन नदी को आधार बनाकर उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं।
‘धूप’ शीर्षक कविता केदारनाथ जी की एक विख्यात कविता है। यह कविता काव्य संग्रह ‘’फूल नहीं रंग बोलते हैं।’ में संगृहीत है। यह कविता प्रकृति के सौंदर्य और उसमें व्याप्त जीवन के उल्लास को दर्शाती है। इसमें विभिन्न प्राकृतिक तत्त्वों की तुलना मानवीय भावनाओं और रिश्तों से की गई है, जिससे दृश्य और भी सजीव प्रतीत होता है।
इस कविता में प्रकृति के सौंदर्य को मानवीय रिश्तों और भावनाओं के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया गया है। धूप, सरसों के फूल, हवा, पक्षी और खेतों का संगीत मिलकर एक सुंदर चित्र बनाते हैं। यह कविता प्रकृति के चमत्कार और उसकी आध्यात्मिकता को उजागर करती है, जिससे पाठक का मन इस सौंदर्य में खो जाता है।
01
धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने,
मैके में आयी बेटी की तरह मगन है,
फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है,
जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं।
शब्दार्थ –
मैका – मायका (माँ का घर)
मगन – खुश, आनंदित
हमजोली – सहेली, मित्र
संदर्भ और प्रसंग
‘धूप’ शीर्षक कविता काव्य संग्रह ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ में संगृहीत है। इस कविता में गाँव की कुछ छवियाँ प्रस्तुत की गई हैं। इसमें धूप का मानवीकरण हुआ है। उसे मनुष्य की तरह की गतिविधियों से जोड़कर चित्रित किया गया है। धूप के अलावा हवा आदि प्राकृतिक उपादानों को भी मनुष्य की तरह क्रियाशील दिखाया गया है।
व्याख्या
प्रस्तुत कविता में प्रगतिवाद के प्रतिनिधि कवि केदारनाथ अग्रवाल कहते हैं कि धूप चमक रही है। ऐसा लगता है कि चाँदी की साड़ी पहनकर कोई बेटी अपने मायके में आई है। मायके आई हुई बेटी ससुराल की औपचारिकताओं से मुक्त होती है। वह मगन भी होती है और बेपरवाह भी। खिली हुई धूप, फूलों से लदी सरसों से ऐसे लिपट गई है, जैसे दो हमउम्र पुरानी सखियाँ बहुत दिनों के बाद मिलने पर छाती से लिपट जाती हैं।
02
भैया की बाँहों से छूटी भौजाई-सी
लहँगे को लहराती लचती हवा चली है
सारंगी बजती है खेतों की गोदी में
दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के
शब्दार्थ
भौजाई – भाभी
लचती – लहराती, हलचल करती
सारंगी – एक वाद्य यंत्र
दल – झुंड, समूह
संदर्भ और प्रसंग
‘धूप’ शीर्षक कविता काव्य संग्रह ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ में संगृहीत है। इस कविता में गाँव की कुछ छवियाँ प्रस्तुत की गई हैं। इसमें धूप का मानवीकरण हुआ है। उसे मनुष्य की तरह की गतिविधियों से जोड़कर चित्रित किया गया है। धूप के अलावा हवा आदि प्राकृतिक उपादानों को भी मनुष्य की तरह क्रियाशील दिखाया गया है।
व्याख्या
यहाँ कवि ने कहा है कि बहुत प्यारी हवा चल रही है। कवि की कल्पना जगती है कि यह तो भौजाई के लहराते हुए लँहगे से चली हवा की तरह प्यारी मालूम पड़ रही है। भैया ने घर-भर की परवाह नहीं की और भौजाई को बाँहों में भर लिया था। भाभी लाज के मारे उनके बाँहों से अपने को छुड़ा कर जब भागी तो लँहगे के लहराने से शृंगार (प्रेम) में डूबी ऐसी ही हवा चली थी। हवा को एक ऐसी स्त्री के रूप में दर्शाया गया है, जिसका लहँगा हवा में लहराते हुए गति कर रहा है। खेतों में न जाने कितने सुरीले पंछी उड़-बैठ रहे हैं। ऐसा लगता है कि इन खेतों की गोदी में ये पंछी सारंगी की तरह हैं और बज रहे हैं जिससे वातावरण संगीत से भरा और मनमोहक बन जाता है।
03
अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती
रंग-बिरंगी पंखुरियों की खोल चेतना सौरभ से
मँह-मँह महकाती है दिगंत को
मानव मन को भर देती है दिव्य दीप्ति से
शब्दार्थ –
अनावरण – उद्घाटन, प्रकटीकरण
अमर भारती – अनंत सत्य की घोषणा
पंखुरियाँ – फूल की पतली-पतली पत्तियाँ
चेतना – जागरूकता, जीवन शक्ति
सौरभ – सुगंध
दिगंत – क्षितिज, चारों दिशाएँ
दिव्य दीप्ति – आध्यात्मिक प्रकाश
संदर्भ और प्रसंग
‘धूप’ शीर्षक कविता काव्य संग्रह ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ में संगृहीत है। इस कविता में गाँव की कुछ छवियाँ प्रस्तुत की गई हैं। इसमें धूप का मानवीकरण हुआ है। उसे मनुष्य की तरह की गतिविधियों से जोड़कर चित्रित किया गया है। धूप के अलावा हवा आदि प्राकृतिक उपादानों को भी मनुष्य की तरह क्रियाशील दिखाया गया है।
व्याख्या –
प्रकृति की यह सुंदरता बिल्कुल खुले रूप में कवि के सामने है। उन्हें लगता है कि प्रकृति का यह खुला रूप ही विद्या की देवी का असली रूप है। इस छवि को ही ‘अमर भारती’ मान लेना चाहिए। यह अमर भारती फूलों की रंग-बिरंगी पंखुरियों को खोल कर अनंत सौरभ फैला देती है। वह सभी दिशाओं को सुगंध से भर देती है। वह मनुष्य के मन को अलौकिक चमक से भर देती है। इन सब के बीच रहनेवाला मनुष्य मानो अलौकिक सुख को प्राप्त करता है। कवि का संकेत है कि लोक की सुंदरता में ही अलौकिक का अस्तित्व है। अलौकिक की कोई दूसरी दुनिया नहीं है।
04
शिव के नंदी – सा नदियों में पानी पीता
निर्मल नभ अवनी के ऊपर बिसुध खड़ा है
काल काग की तरह ठूँठ पर गुमसुम बैठा
सोयी आँखों देख रहा है दिवास्वप्न को।
शब्दार्थ –
नंदी – भगवान शिव का वाहन, बैल
बिसुध – स्थिर, शांत
काल काग – काला कौवा
गुमसुम – चुपचाप, शोकाकुल
दिवास्वप्न – दिन में देखा जाने वाला सपना
संदर्भ और प्रसंग –
‘धूप’ शीर्षक कविता काव्य संग्रह ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ में संगृहीत है। इस कविता में गाँव की कुछ छवियाँ प्रस्तुत की गई हैं। इसमें धूप का मानवीकरण हुआ है। उसे मनुष्य की तरह की गतिविधियों से जोड़कर चित्रित किया गया है। धूप के अलावा हवा आदि प्राकृतिक उपादानों को भी मनुष्य की तरह क्रियाशील दिखाया गया है।
व्याख्या –
कविता के अंतिम चरण में कवि बताते हैं कि स्वच्छ आकाश धरती के ऊपर बेसुध झुका हुआ मालूम पड़ रहा है। ऐसा लगता है कि भगवान शंकर का नंदी बैल झुककर नदियों से पानी पी रहा हो! इन सुंदर दृश्यों को देखकर मानो समय भी स्तब्ध रह गया है। ऐसा लगता है कि सूखे हुए पेड़ पर बैठा हुआ कौआ काल (समय) है और वह हतप्रभ होकर खोयी-खोयी आँखों से इन दृश्यों को देख रहा है। उसे लग रहा है कि कहीं मैं जागते हुए सपने तो नहीं देख रहा? कवि का ख्याल है कि गाँव की प्रकृति अलौकिक सुंदरता से संपन्न है। एकबारगी इस सुंदरता को देखकर विश्वास नहीं होता कि यह सब सच है!
यह कविता गाँव की प्रकृति के कुछ दृश्यों को प्रस्तुत करती है।
कवि का ख्याल है कि गाँव का परिवेश इतना सुंदर है कि उसे अलौकिक कहा जा सकता है।
पूरी कविता में 24 24 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है
चमकती हुई धूप में गाँव की प्रकृति के कुछ दृश्य रखकर कवि ने इस बात पर जोर दिया है कि हमारे देश के गाँव सुंदरता के प्रतीक हैं। गाँवों के प्रति झुकाव को बढ़ाने की कोशिश प्रगतिवाद की एक पहचान रही है।