सचिव वैद गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भयु आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ बेगिही नास॥
‘सदाचार का तावीज’ व्यंग्य पाठ में हरिशंकर परसाई जी ने भ्रष्टाचार के कारण तथा निवारण के उपायों को व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। इस व्यंग्य के माध्यम से लेखक स्पष्ट करते हैं कि किसी को सदाचारी तभी बनाया जा सकता है जब भ्रष्टाचार के मौके खत्म हों। रिश्वतखोरी या भ्रष्टाचार तब तक समाप्त नहीं होगा, जब तक कि सभी कर्मचारियों को संतोषजनक वेतन नहीं मिल जाता, आर्थिक सुरक्षा नहीं मिल जाती। परसाई जी ने मानव मन की स्वाभाविकता पर भी प्रकाश डाला है। मनुष्य समय और परिस्थिति के अनुरूप अपने विचारों और आदर्शों को बदल लेता है।
एक व्यंग्य रचना ‘सदाचार का तावीज’ वास्तविक रूप में आर्थिक सुरक्षा के अभाव में भ्रष्टाचार निरोधक प्रयासों की असफलता की ओर संकेत करती है। महीने के शुरू के दिनों में जो व्यक्ति भ्रष्टाचार निषेध के लिए एक मजबूत स्टैंड ले सकता है, महीने के आखिरी दिनों में आर्थिक तंगी के कारण वह बदली हुई स्थिति में भी हो सकता है। इसीलिए इस प्रकार की कहानियाँ, स्वयं परसाई के अनुसार, किसी ऊपरी सुधार की जगह, समूची व्यवस्था के बदलाव पर जोर देती हैं। इसी कहानी पर टिप्पणी करते हुए वह लिखते हैं – “संकेत में यह कहना चाहता हूँ कि बिना व्यवस्था में परिवर्तन किए, भ्रष्टाचार बिना खत्म किए और कर्मचारियों को बिना आर्थिक सुरक्षा दिए, भाषणों, सर्कुलरों, उपदेशों, सदाचार समितियों, निगरानी आयोगों के द्वारा कर्मचारी सदाचारी नहीं होगा। इसमें कोई उपदेश नहीं है सिर्फ विरोधाभासों को सामने लाया गया है और कुछ संकेत दिए गए हैं।”
‘सदाचार का ताबीज’ प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक श्री हरिशंकर परसाई द्वारा रचित एक ऐसा लेखन है जिससे देश देश में फैले भ्रष्टाचार की समस्या पर व्यंग्यात्मक तरीके से कटाक्ष किया गया है।
प्रस्तुत रचना में रचनाकार हरिशंकर जी ने एक कल्पित राज्य की कथा को प्रस्तुत किया है। राज्य के राजा जब यह महसूस करते हैं कि राज्य में चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण प्रजा में असंतोष फैल गया है और वे विद्रोह कर सकते हैं तब मामले की गंभीरता को समझते हुए वह अपने राजदरबारियों के साथ विचार-विमर्श करते हैं। राजा भ्रष्टाचार के विषय पर अपने मंत्रियों से बातचीत करते हैं। उनसे पूछते हैं कि भ्रष्टाचार क्या है? यह दिखने में कैसा होता है? और इसे कैसे दूर किया जाता है? लेकिन मंत्री कहते हैं कि भ्रष्टाचार अति सूक्ष्म होता है। हमें तो दिखाई ही नहीं पड़ता क्योंकि हमारी नज़रों में तो आपकी सूरत ही बसी हुई है। लेकिन अगर हम लोग विशेषज्ञों को यह काम सौंप दे तो उन्हें भ्रष्टाचार नजर आ सकता है और उसे दूर करने का उपाय भी वे बता सकते हैं। राजा के आदेशानुसार पाँच विशेषज्ञों को बुलाया जाता है और राजा उन्हें भ्रष्टाचार दूर करने का कार्य सौंप देते हैं। दो महीने बाद विशेषज्ञों की समिति पूरी जाँच-पड़ताल करके राजा के सामने प्रस्तुत होती है। राजा के पूछने पर विशेषज्ञ महाराज को भ्रष्टाचार के विषय में बताते हुए कहते हैं कि वह अत्यंत सूक्ष्म, अगोचर और सर्वव्यापी है, उसे देखा नहीं जा सकता, केवल महसूस किया जा सकता है। राजा को बड़ा आश्चर्य होता है और कहता है कि ये सारे लक्षण तो ईश्वर के हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि आज के युग में बहुत लोगों के लिए भ्रष्टाचार ही ईश्वर बन चुका है।
भ्रष्टाचार के दुष्परिणामों को सुनकर राजा बहुत चिंतित हो जाते हैं और विशेषज्ञों से उसे मिटाने का उपाय पूछते हैं। इस पर विशेषज्ञ अपनी योजना अनुसार कहते हैं “हाँ महाराज, हमने उसकी भी योजना तैयार की है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए महाराज को व्यवस्था ने बहुत परिवर्तन करने होंगे। एक तो भ्रष्टाचार के मौके मिटाने होंगे। जैसे ठेका है तो ठेकेदार है और ठेकेदार है तो अधिकारियों को घूस है। ठेका मिट जाए तो उसकी घूस मिट जाए। इसी तरह और बहुत सी चीज है। किन कारणों से आदमी घूस लेता है, यह भी विचारणीय है।”
तत्काल कोई निर्णय न लेकर राजा ने उन्हें अपनी योजना को रख जाने को कहा और दरबारियों को उस योजना पर विचार करने को कहा। इसी क्रम में राजा के स्वस्थ्य में थोड़ी गिरावट आने लगी। उनकी तबीयत भी खराब रहने लगी। इस पर एक मंत्री ने कहा कि “महाराज, चिंता के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। उन विशेषज्ञों ने आपको झंझट में डाल दिया।”
राजा ने कहा- “हाँ, मुझे रात को नींद नहीं आती।”
दूसरा दरबारी बोला- “ऐसी रिपोर्ट को आग के हवाले कर देना चाहिए जिससे महाराज की नींद में खलल पड़े।’’
फिर क्या था राजा ने अपने दरबारियों से योजा को क्रियान्वयन करने के बारे में पूछा तो दरबारियों ने कहा कि “महाराज, वह योजना क्या है एक मुसीबत है। उसके अनुसार कितने उलट-फेर करने पड़ेंगे! कितनी परेशानी होगी। सारी व्यवस्था उलट-पलट हो जाएगी। जो चला आ रहा है, उसे बदलने से नई-नई कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। हमें तो कोई ऐसी तरकीब चाहिए जिससे बिना कुछ उलट-फेर किए भ्रष्टाचार मिट जाए।”
राजा भी उनकी बातों से सहमत हो गए। इसके बार दरबारियों ने राजा के सामने एक सिद्ध साधु को पेश किया जो एक कंदरा में तपस्या करते हुए इस महान साधक बनें हैं। इन्होंने सदाचार का तावीज़ बनाया है। वह मंत्रों से सिद्ध है और उसके बाँधने से आदमी एकदम सदाचारी हो जाता है। उस साधु ने अनेक साहित्यिक शब्दों का प्रयोग करते हुए बड़े-बड़े दावे करते हुए अपने तावीज की खासियत बताई और राजा समेत सभी दरबारी उनसे प्रभावित हो गए। फिर क्या था राजा के आदेश पर उस साधु को तत्काल अग्रिम राशि के रूप में पाँच करोड़ रुपए सदाचार का तावीज बनाने के लिए दे दिए गए।
तावीज़ तैयार हुई और उसके हरेक कर्मचारियों के बाजू पर बाँध दिया गया। ताबीज के प्रभाव को जाँचने के लिए राजा अपना भेष बदलकर महीने की दूसरी तारीख को किसी कार्यालय में जाता है। उस कार्यालय के कर्मचारी को एक दिन पहले ही वेतन मिला था इसलिए उसने भेष बदलकर आए राजा के रिश्वत को स्वीकार नहीं किया। इस पर राजा अति प्रसन्न हो गए और सोचने लगे कि तावीज सही तरीके से काम कर रहा है पर जब वे उसी महीने की इकतीस तारीख को फिर से भेष बदलकर कर्मचारी के पास जाता है और कर्मचारी को पाँच रुपए की पेशकश करता है, कर्मचारी ले लेता है। इसपर पहले तो राजा को संदेश होता है कि शायद कर्मचारी ने अपने बाजू पर तावीज़ बांधा ही नहीं है पर कर्मचारी ने अपना तावीज दिखाया तो राजा भोंचक्का ही रह गया। राजा ने जब उस ताबीज पर कान लगाकर सुनता है तो उसमें से आवाज़ आ रही थी। “अरे, आज इकतीस है। आज तो ले ले।”