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‘कुरुक्षेत्र’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’

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लेखक परिचय

दिनकर जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम रवि सिंह तथा माता का नाम मनरूप देवी था। दिनकर की प्राथमिक शिक्षा गाँव से पूरी हुई। वे हाई स्कूल की परीक्षा मोकामाघाट से उत्तीर्ण हुए। उसके बाद वे पटना चले आए और पटना कॉलेज से इतिहास विषय में बी.ए. ऑनर्स की परीक्षा पास की। उन्होंने कई तरह की सरकारी और प्राइवेट

नौकरी की। वे कुलपति के पद पर भी रहे और सांसद भी।

दिनकर में राजनीतिक चेतना प्रखर थी जिसकी अभिव्यक्ति उनकी कविताओं में खूब हुई है। उनपर गाँधीवाद का गहरा प्रभाव पड़ा, हालाँकि वे गाँधीवाद के प्रति असहमति दर्ज करनेवाली कविताएँ भी एक दौर में लिख चुके थे। वे जवाहरलाल नेहरू के निकट थे, मगर ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की कविताओं में उनके शासनकाल की आलोचना भी

दिखाई पड़ती है। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए ‘साहित्य अकादमी’ और ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से वे सम्मानित हुए।।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की मृत्यु 24 अप्रैल, 1974 में हुई थी।

काव्य कृतियाँ

रेणुका (1935), हुंकार (1938), रसवन्ती (1939), द्वंद्वगीत

(1940), कुरूक्षेत्र (1946), सामधेनी (1947), बापू (1947), इतिहास के आँसू (1951), रश्मिरथी (1952), दिल्ली (1954), नीम के पत्ते (1954), नील कुसुम (1955), चक्रवाल (1956), सीपी और शंख (1957), उर्वशी (1961), परशुराम की प्रतीक्षा (1963), हारे को हरिनाम (1970), रश्मिलोक (1974)

गद्य कृतियाँ

मिट्टी की ओर 1946 अर्धनारीश्वर 1952, रेती के फूल 1954, संस्कृति के चार अध्याय 1956, पन्त – प्रसाद और मैथिलीशरण 1958, वेणुवन 1958 धर्म, नैतिकता और विज्ञान 1969 लोकदेव नेहरू 1965, शुद्ध कविता की खोज 1966, साहित्य- मुखी 1968, राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी 1968, हे राम! 1968, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ 1970, भारतीय एकता 1971, मेरी यात्राएँ 1971, दिनकर

की डायरी 1973, चेतना की शिला 1973।

‘कुरुक्षेत्र’ के सृजन का परिवेश

परिवेश का अर्थ है – वातावरण। जब हम किसी कृति के प्रतिपाद्य पर विचार करते हैं तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम उस वातावरण अथवा परिस्थितियों का अध्ययन करें जिनसे प्रभावित होकर रचनाकार ने कृति का सृजन किया। इसके साथ ही उन प्रेरणाओं का अध्ययन भी आवश्यक है जिन्होंने कृति के सृजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया क्योंकि परिवेश और प्रेरणाओं के माध्यम से ही रचनाकार अपने प्रतिपाद्य के स्वरूप और दिशा का निर्धारण करता है।

‘कुरुक्षेत्र’ का प्रकाशन सन् 1946 में हुआ। सन् 1941 से ‘कुरुक्षेत्र’ का लिखा जाना आरंभ हो गया था। कुरुक्षेत्र के परिवेश को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि यह वह समय है जब द्वितीय महायुद्ध की छाया संपूर्ण विश्व पर मँडरा रही थी। सन् 1939 ई. में यह महायुद्ध आरंभ हो चुका था। भयावह नरसंहार की इस आँधी ने साहित्यकारों को अपने-अपने ढंग से प्रभावित किया। दिनकर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। उन्होंने – ‘रश्मि लोक’ की भूमिका में लिखा- “कुरुक्षेत्र काव्य का आरंभ सन् 1941 में सीतामढ़ी में हुआ था, जहाँ मैं सब रजिस्ट्रार था और पूर्ण वह सन् 1946 ई. में पटने में हुआ, जहाँ मैं युद्ध-प्रचार विभाग में काम कर रहा था।” कुरुक्षेत्र की रचना के समय दिनकर का युद्ध प्रचारक विभाग में काम करना उन्हें युद्ध की समस्या से सीधे-सीधे जोड़ता है। एक ओर अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय वातावरण में युद्ध के प्रभाव की छायाएँ एवं दूसरी ओर दिनकर का स्वयं युद्धप्रचार विभाग में कार्यरत रहना निश्चय ही कुरुक्षेत्र के प्रतिपाद्य को आकार देने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है। निश्चय ही परिवेश के इन दबावों ने दिनकर के समक्ष युद्ध की समस्या को तीव्रता से उभारा होगा। युद्ध क्यों होते हैं? क्या युद्ध के बिना भी विश्व की कल्पना की जा सकती है? मानव जाति के लिए विनाशकारी इन युद्धों के लिए कौन उत्तरदायी हैं? ऐसे प्रश्नों का मंथन ही कुरुक्षेत्र की रचना का आधार बना और इसमें कोई संदेह नहीं कि दिनकर के सम्मुख इन प्रश्नों की चुनौती का एक महत्त्वपूर्ण तात्कालिक कारण द्वितीय महायुद्ध की घटनाओं का विद्यमान रहना बना।

‘कुरुक्षेत्र’ के कथानक का स्रोत अथवा आधार

‘कुरुक्षेत्र’ के कथानक में महाभारत के युद्धोत्तर प्रसंगों का आधार ग्रहण किया गया है। युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर के मन की खिन्नता, चिंता, अशांति और क्षोभ का प्रसंग महाभारत में कई पर्वों में फैला हुआ है। वह नारद से अपने हृदय की वेदना कहते हैं और पूरी स्थिति-परिस्थिति से हताश होकर वन जाने को तत्पर होते हैं। किंतु चारों भाइयों तथा द्रौपदी के समझाने और कृष्ण के परामर्श से वह हस्तिनापुर आते हैं और उनका राज्याभिषेक होता है। श्रीकृष्ण के आदेशानुसार वह पितामह के पास जाकर राज्य-धर्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं और अनेक विषयों पर विस्तृत चर्चा होती है। पितामह के देहावसान के पश्चात् युधिष्ठिर फिर से मोहग्रस्त होकर शोक-संताप में डूब जाते हैं। व्यास और श्रीकृष्ण उन्हें हर तरह से समझाने का प्रयास करते हैं परंतु उनका मन वैराग्य से भर जाता है। ध्यान रखने की मूल बात यह है कि ‘कुरुक्षेत्र’ में दिनकर जी ने शांति पर्व और उद्योगपर्व के कथानक को ही आधार रूप में लिया गया है।

‘कुरुक्षेत्र’ का नामकरण

‘कुरुक्षेत्र’ नाम पर विचार करने पर हमें इस नाम के कई पक्ष नजर आते हैं। सर्वप्रथम तो यह घटना और स्थान से संबद्ध नाम दिखाई देता है। यह महाभारत का युद्ध स्थल है। भीष्म पितामह कुरुक्षेत्र की रणभूमि में शर-शैय्या पर लेटे हैं। युधिष्ठिर यहीं उनसे बात करने जाते हैं। अतः जिस प्रसंग को दिनकर ने लिया है, उसकी घटनाओं और कार्यों से इसका सीधा संबंध है। लेकिन ‘कुरुक्षेत्र’ नाम केवल इतने ही अर्थ का द्योतक नहीं है। चूँकि कवि युद्ध की सनातन समस्या से प्रश्नाकुल होकर काव्य सृजन कर रहा है अतः कुरुक्षेत्र यहाँ युद्ध मात्र का प्रतीक है साथ ही युद्ध से जुड़ी समस्त विभीषिकाओं, उसके परिणामों का प्रतीक भी है। इसके अतिरिक्त यह मनुष्य के भीतर विचारों और भावों की टकराहट और संघर्ष का, युधिष्ठिर के मन की प्रश्नाकुलता और द्वंद्व का, युद्ध के पक्ष और विपक्ष में उठने वाले विचारों के संघर्ष का प्रतीक हैं। इस तरह ‘कुरुक्षेत्र’ नाम ‘साकेत’ या ‘हल्दीघाटी’ की भाँति स्थान विशेष मात्र का सूचक मात्र नहीं है। ‘कुरुक्षेत्र’ का रूढ़ अर्थ और व्यंजित अर्थ दोनों ही यहाँ निहित हैं। मूलतः यह रचना युद्ध की समस्याओं को लेकर विचारों का कुरुक्षेत्र है। इस दृष्टि से यह नाम काफी सार्थक है।

‘कुरुक्षेत्र’ की केंद्रीय समस्या व विचार

कुरुक्षेत्र की केंद्रीय समस्या युद्ध है। दिनकर ने युद्ध की समस्या को अपनी इस कृति का आधार बनाया है। तत्कालीन परिस्थितियों एवं प्रेरणाओं के दबाव में दिनकर का मन युद्ध की समस्या को लेकर आंदोलित रहा। कवि मानते हैं कि मानव समुदाय अपनी इच्छापूर्ति के लिए अनैतिक साधनों के उपयोग में संकोच नहीं करेंगे, तब तक युद्ध की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। जब तक मनुष्य मनुष्य के बीच विषमता अथवा असमानता विद्यमान है, युद्ध को टालना संभव नहीं है। सप्तम सर्ग में भीष्म स्पष्ट रूप से मानते हैं-

“जब तक मनुज मनुज का यह

सुख – भाग नहीं सम होगा,

शमित न होगा कोलाहल

संघर्ष नहीं कम होगा।”

दिनकर मानते हैं कि युद्ध न पाप है और न पुण्य। युद्ध को नैतिक या अनैतिक की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। क्योंकि हमें युद्ध की नैतिकता या अनैतिकता का निर्धारण करने से पहले यह देखना होगा कि युद्ध का उद्देश्य क्या है? युद्ध का आयोजन करने वाली शक्तियाँ कर्त्तव्य भाव से प्रेरित होकर युद्ध में भाग ले रही हैं या कोई निजी स्वार्थ उन्हें युद्ध के लिए प्रवृत्त कर रहा है? नि:स्वार्थ भाव से कर्तव्य पालन के लिए छेड़ा गया युद्ध निश्चय ही पुण्य है।

 

पात्र परिचय

युधिष्ठिर

धर्मराज का पारंपरिक चरित्र ‘कुरुक्षेत्र’ में कायम रहा है। उनकी मनोदशा को कवि ने बड़े ही मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है। युधिष्ठिर की आत्मग्लानि, उनकी आत्म-भर्त्सना, दैन्य, क्षोभ, निराशा, व्याकुलता आदि बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त हुए हैं। कवि युधिष्ठिर की व्यथा का बड़ा ही करुण चित्र उपस्थित करते हैं-

“हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?

ध्वंस अवशेष पर सिर धुनता है कौन ?

कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूँढता है ?

लपटों से मुकुट का पट बुनता है कौन ?

और बैठ मानव की रक्त सरिता के तीर

नियति के व्यंग्य भरे अर्थ गुनता है कौन?

कौन देखता है शवदाह बंधु बांधवों का ?

उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?

यहाँ हम युधिष्ठिर को दया, करुणा, उदारता, सहिष्णुता, सहानुभूति आदि श्रेष्ठ मानवीय गुणों से संपन्न पाते हैं। दूसरों को दुखी देखकर वे विजयोल्लास में शामिल नहीं हो सकते जबकि उनके अन्य बंधुगण इसमें आत्मविभोर हैं।

भीष्म

‘कुरुक्षेत्र’ के दूसरे प्रमुख पात्र भीष्म हैं। ‘कुरुक्षेत्र’ में प्रतिपादित युद्ध संबंधी वाद-विवाद में भीष्म युद्ध के पक्ष में बोलते हैं। भीष्म के चरित्र में उनके इतिहास प्रसिद्ध उदात्त व्यक्तित्व तथा कवि की आधुनिक दृष्टि का मेल है। उनसे पाठक का प्रथम परिचय ही अजेय, पराक्रमी, दृढ़ प्रतिज्ञ, नीतिज्ञ और तत्त्वज्ञानी के रूप में कराया गया है। ये शर-शैय्या पर अर्जुन के बाणों से नहीं, स्नेह से पराजित होकर लेटे हैं। वे धैर्य, आत्मसम्मान, न्याय, कर्मयोग और लोक कल्याण के मूल्यों का प्रतीक हैं। और इन मूल्यों की रक्षा के लिए युद्ध को आवश्यक मानते हैं। उनका विचार है कि-

“चुराता न्याय जो रण को बुलाता भी वही है।”

“जब तक मनुष्य का यह

सुख भाग नहीं सम होगा,

शमित न होगा कोलाहल

संघर्ष नहीं कम होगा।”

परम धर्म और आपद्धर्म का निर्धारण

दिनकर ने अहिंसा को परमधर्म और हिंसा को आपद्धर्म के रूप में निरूपित किया है। यद्यपि दोनों को सम्यक महत्त्व दे पाना तथा समय की माँग के अनुसार उनका ग्रहण और विसर्जन मानवता के लिए एक समस्या है। हम अपनी संपूर्ण भारतीय परंपरा में कहीं भी हिंसा का समर्थन नहीं पाते। हमारा धर्म, दर्शन और संस्कृति अहिंसा का विशिष्ट मानव – मूल्य के रूप में स्वीकार करती है। गांधी जी के नेतृत्व में चलाया गया अहिंसात्मक आंदोलन स्वयं में मानव जाति के इतिहास में एक क्रांति माना जा सकता है। इन परिस्थितियों में हिंसा की स्वीकृति को सहज ग्राह्य नहीं कहा जा सकता। किंतु दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ में अनेकशः हिंसा की पक्षधरता को स्वीकार किया है। उनका तर्क है कि जब तक व्यक्ति में पौरुष, बल और सामर्थ्य आदि गुण नहीं होंगे तब तक उसकी अहिंसा और क्षमा का कोई महत्त्व नहीं। तृतीय सर्ग में भीष्म कहते हैं-

“क्षमा शोभती उस भुजंग को,

जिसके पास गरल हो।

उसको क्या जो दंतहीन, विष रहित, विनीत सरल हो।”

कुरुक्षेत्र के भीष्म मानते हैं कि साधना और तपस्या सदैव पशुबल से पराजित होती आई है-

“हिंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है?

देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है।”

कुरुक्षेत्र की सर्गबद्ध व्याख्या

कुरुक्षेत्र सात सर्गों (अध्यायों) में विभाजित काव्य-रचना है। इसकी कथा का आधार महाभारत से ग्रहण किया गया है। महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र की रणभूमि में हुआ था इसीलिए कुरुक्षेत्र शब्द का प्रतीकार्थ है युद्ध। लेकिन दिनकर ने अपने काव्य में महाभारत युद्ध का वृत्तांत प्रस्तुत नहीं किया है। बल्कि इसकी कथा कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों की विजय के पश्चात् आरंभ होती है।

प्रथम सर्ग

विजयी पक्ष आनंद और उन्माद में मस्त है लेकिन तभी युधिष्ठिर का मन अनेक प्रश्नों और शंकाओं से घिर जाता है। वे विचार करते हैं कि युद्ध का परिणाम केवल आनंद और सुख ही नहीं है। इसका दूसरा पक्ष है जो अतिशय भयानक और हृदय विदारक है। बालहीन माताओं, पितृहीन बालकों, पति-विहीन स्त्रियों के आर्त्तनाद के बीच विजय का उल्लास उन्हें अत्यंत नगण्य प्रतीत होता है। असंख्य वीरों के रक्त से सना और अनाथों के करुण क्रंदन से लिपटा राज सिंहासन सुख उन्हें अत्यधिक आत्म-ग्लानिपूर्ण लगता है। वह अनुभव करते हैं कि वीरगति पाकर चला जाने वाला दुर्योधन उनकी तुलना में भाग्यशाली था क्योंकि उसे वह सब तो देखने की यंत्रणा नहीं झेलनी पड़ी जिसे युधिष्ठिर देख रहे हैं। बंधु-बांधवों का शवदाह देखने और उत्तरा का करुण विलाप सुनने की हृदय विदारक स्थितियों से युधिष्ठिर के मन में क्षोभ उत्पन्न होता है और वे महसूस करते हैं यह सारा विनाश केवल पाँच व्यक्तियों पांडवों की असहिष्णुता का परिणाम है। यदि जैसी स्थिति थी वैसे में ही पांडव संतोष कर लेते तो यह भीषण रक्तपात न होता। ऐसे आत्मग्लानिपूर्ण भावों से उनका मन बहुत खिन्न हो उठा और वे भीष्म पितामह के पास जाते हैं।

द्वितीय सर्ग

भीष्म अजेय थे और उन्हें अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण करने का वरदान प्राप्त था। अतः, अर्जुन के बाणों से पूरा शरीर बेध दिए जाने के बावजूद जब उन्होंने महसूस किया कि अभी मरने के लिए उपयुक्त समय नहीं है तो उन्होंने आई हुई मृत्यु से कह दिया कि कुछ समय प्रतीक्षा करो। इस प्रकार युद्ध समाप्त होने के बाद तक रणभूमि में शर-शैय्या पर पड़े थे। अधीर और व्याकुल युधिष्ठिर ने उनके पास पहुँच कर चरण स्पर्श करते हुए कहा कि महाभारत विफल हुआ। युद्ध के विनाशकारी परिणामों से उत्पन्न अपनी मनोव्यथा जब वह भीष्म को सुना चुके तो भीष्म ने उत्तर दिया कि धर्मराज का यह व्यवहार कायरतापूर्ण है, उनका यह सोचना गलत है कि युद्ध पांडवों के कारण हुआ। युद्ध तो अवश्यंभावी था जिसे वे रोक नहीं सकते थे। बहुत समय से इस संसार में विषाक्त वातावरण-स्वार्थ, राजनीतिक प्रवंचना, प्रतिशोध आदि की प्रबलता होती जा रही थी और जिस तरह प्रकृति में अतिशय गर्मी का विस्फोट तूफान में होता है उसी तरह मनुष्य समाज के विकारों की अग्नि का विस्फोट युद्ध में होता है। कुरुक्षेत्र का युद्ध यद्यपि कौरवों द्वारा पांडवों के अपमान और स्वत्व हरण के कारण हुआ लेकिन मात्र इतना ही इसका कारण न था, बल्कि देश भर के वातावरण में युद्ध के बीज फैल गए थे। अतः धर्मराज का यह विचार सर्वथा निर्मूल है कि युद्ध करके उन्होंने कोई पाप किया है। पाप और पुण्य के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। कोई काम अपने आप में पाप या पुण्य नहीं होता क्योंकि उसके पीछे निहित भाव प्रधान होता है।

भीष्म का मत है कि त्याग, करुणा, क्षमा अहिंसा आदि महत्त्वपूर्ण है। लेकिन जब सामने से हिंसक वार होता हो तब वे काम नहीं आते क्योंकि

“पाशविकता खड्ग जब लेती उठा

आत्मबल का एक वश चलता नहीं।”

इस बात की पुष्टि वह उदाहरण देकर करते हैं कि जब राम ने देखा कि वनों में ऋषिमुनियों की अस्थियों का ढेर लगा हुआ है तो स्थिति का सामना करने के लिए उन्होंने प्रण किया कि पृथ्वी से राक्षसों का अंत कर दूँगा।

तृतीय सर्ग

इस सर्ग में युद्ध और शांति के प्रश्न पर विचार किया गया है। भीष्म कहते हैं शांति तो सभी चाहते हैं किंतु विवश होकर युद्ध करना पड़ता है। शांति दो तरह की हो सकती है एक तो वह जो अन्याय और शोषण पर आधारित हो जिसमें शोषित को अपना हक लेने का भी अधिकार न हो, दमन के खिलाफ अस्त्र उठाने की किसी की हिम्मत न हो दूसरे प्रकार की शांति है प्रेम और न्याय पर आधारित अहिंसा। इसमें दूसरे प्रकार की शांति तो वरेण्य (पूजनीय) हो सकती किंतु पहले प्रकार की नहीं। पहले प्रकार की स्थिति में शांति की बात करना या त्याग, तप और क्षमा की बात करना वास्तव में कायरता है। अन्याय और असमानता पर आधारित शांति की बजाय क्रांति और प्रतिशोध बेहतर है। न्याय की स्थापना के लिए होने वाली हिंसा और युद्ध उचित है। इसलिए युद्ध का उत्तरदायी वह नही जो शोषित है बल्कि उत्तरदायी है वह जो अनीति और शोषण कर रहा है।

चतुर्थ सर्ग

भीष्म कहते हैं कि न्याय चुराने वाला ही रण को बुलाता है। इसलिए अपने अधिकार को पाने के लिए युद्ध करना अनुचित नहीं है। दूसरी ओर लोगों में परस्पर अंहकार बैर ईर्ष्या और बढ़ता जा रहा था। दुर्योधन द्वारा पांडवों के अधिकारों के हनन के अलावा भी महाभारत युद्ध के अनेक कारण थे। इन कारणों के ताप का विस्फोट महाभारत रूपी ज्वालामुखी की शक्ल में हुआ। राजसूय यज्ञ के पश्चात् ही महामुनि व्यास ने इस कठिन समय के विषय में आगाह किया था। यज्ञ ने ईर्ष्या को बढ़ावा दिया।

इस सर्ग में भीष्म पितामह आत्म-विश्लेषण करते हुए स्वयं को भी युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। अपने मन में कर्तव्य के प्रति दृढ़ता और स्नेह के संघर्ष में वह सदैव कर्त्तव्य को ही विजयी बनाते रहे, अपने कोमल भावों की अवहेलना करते रहे। न्याय का पक्ष लेकर कभी दुर्योधन को ललकारने और राजद्रोह की आवाज उठाने का प्रयास नहीं किया। यदि ऐसा किया होता तो संभवतः कुरुक्षेत्र युद्ध की नौबत न आती किंतु अब सब कुछ हो चुका है इसलिए उसे भूल कर नए युग का सूत्रपात करना चाहिए।

पंचम सर्ग

इस सर्ग के आरंभ में कवि ने द्वापर कालीन समाज की भीषण परिस्थितियों की तस्वीर प्रस्तुत की है। भीष्म पितामह से युद्ध के औचित्य के बारे में सुनकर भी युधिष्ठिर के मन की आत्मग्लानि समाप्त नहीं होती। उन्हें लगता है संपूर्ण विनाश का दृश्य मानो उन पर उपहास कर रहा है। वह सोचते हैं कि उनकी साधुवृत्ति एक दिखावा थी। वास्तव में उनके भीतर राज्य और वैभव की लिप्सा काम कर रही थी और अब जो राज्य उन्हें मिला है वह किसी-पुण्य कर्म का फल नहीं है। उन्हें पश्चात्ताप होता है कि उन्हें यह बोध पहले क्यों नहीं हुआ कि युद्ध भोग और धन की इच्छा का परिणाम है। यदि पहले ऐसा बोध हो जाता तो वह युद्ध न करते। उन्हें लगता है कि राजसिंहासन का लोभ ही इस सर्वनाश की जड़ है। अतः, अब उन्हें लगने लगता है कि राज्य लोभ से ही उन्होंने युद्ध किया है।

षष्ठ सर्ग

इस सर्ग में भीष्म या युधिष्ठिर के मुख से बोलने की बजाए कवि स्वयं युद्ध का समस्या पर विचार करते हैं। युद्ध की समस्या यहाँ द्वापर काल तक सीमित न होकर सनातन समस्या के रूप में उभरी है और आधुनिक विज्ञान के युग की परिस्थितियों के संदर्भ में भी इस पर विचार किया गया है। आरंभ में कवि ईश्वर से विनयपूर्वक प्रश्न पूछते हैं कि धर्म यानी कर्त्तव्य और दया का दीपक विश्व में कब जलेगा? कब पृथ्वी पर शांति की ज्योति प्रज्वलित होगी? शांति के प्रयास बहुत-से महान विभूतियों द्वारा किए जा चुके हैं। भीष्म, युधिष्ठिर, स्वयं भगवान, गौतम बुद्ध, अशोक, गांधी, ईसा मसीह आदि ने इसका प्रयास किया। इन सभी को इनके प्रयासों के लिए समुचित सम्मान भी मिला। किंतु उनके शांति स्थापना के आदर्शों का स्थायी रूप से पालन नहीं हुआ।

आज मनुष्य ने काफी प्रगति की है। अपनी बुद्धि के बल पर उसने प्रकृति को जीत लिया है। उसके रहस्यों का पता लगा लिया है। धरती, आकाश, समुद्र सभी पर उसकी गति है। लेकिन अफसोस यही है कि बुद्धि और हृदय का समान विस्तार नहीं हुआ है। प्रेम और बलिदान के भावों के व्यापक विस्तार की जरूरत है।

कवि फिर प्रश्न करते हैं कि विज्ञान के अन्वेषणों द्वारा मनुष्य क्या चाहता है? पृथ्वी के रहस्यों को जानने के बाद वह ग्रह नक्षत्रों के रहस्यों का पता लगाने में तो सक्रिय है किंतु इस वैज्ञानिक प्रगति का लक्ष्य संसार में समरसता का प्रसार होना चाहिए युद्ध और संहार नहीं। वे फिर ईश्वर से प्रश्न करते हुए कहते हैं कि साम्य की वे स्निग्ध और उदार रश्मियाँ कब इस संसार में बिखरेंगी जिनसे समरसता का प्रसार हो सकेगा।

सप्तम सर्ग

यह ‘कुरुक्षेत्र’ का सबसे बड़ा सर्ग है। इसमें कवि विचार करते हैं कि व्यक्ति पाप की खाई में गिरकर भी यदि निकलने का प्रयास करता है तो वह महान है। वह मानता है कि प्रकाश का रास्ता अंधकार से होकर जाता है। भीष्म पितामह धर्मराज से कहते हैं कि कुरुक्षेत्र युद्ध में नर संहार का अर्थ मानवता का संहार या अंत नहीं है। इस दारुण दुख के बाद सुख-शांति के फूल खिलेंगे। वे आशा करते हैं कि द्वापर युग की समाप्ति पर जिस नए युग का आरंभ होगा उससे अवश्य ही मनुष्य की प्रगति होगी। वे धर्मराज से कहते हैं कि मानव कल्याण का मार्ग लेकर संसार में आगे बढ़ो। समाज में शांति की स्थापना तभी हो सकती है जब सब मनुष्यों को अपने अधिकार प्राप्त हो जाएँ। युद्ध रोकने के लिए शोषणकारी व्याघ्र से धरती को मुक्त करना जरूरी है। वह भाग्यवाद का खंडन करते हुए कहते हैं कि मनुष्य ने जो कुछ पाया है वह अपनी भुजाओं के बल पर ही पाया है। लेकिन यहाँ भाग्यवाद का नाम लेकर छल और प्रवंचना से कुछ लोग बहुत अधिक पाए हुए हैं और दूसरे वंचित हैं।

फिर भीष्म उस आरंभिक अवस्था की चर्चा करते हैं जब सभी मनुष्यों को अपना अधिकार सुलभ था और समाज समता पर आधारित था। अतः, जीवन में सर्वत्र शांति थी। फिर व्यक्ति के मन में स्वार्थ का उदय हुआ और उसने अधिकारों का संचय आरंभ कर दिया। इससे शांति भंग हुई और संघर्ष उत्पन्न हुआ परिणामस्वरूप राजतंत्र का जन्म हुआ। न्याय और व्यवस्था का यह प्रयास कुछ दिन तो कामयाब हुआ किंतु कालांतर शासक स्वयं शोषक बन गए। जब तक यह शोषण समाप्त न होगा तब तक शांति संभव नहीं होगी। वह धर्मराज से कहते हैं कि संन्यास खोजना कायरता है। अतः, उन्हें जनता को सुखी बनाने का प्रयास करना चाहिए। संन्यास से व्यक्ति संसार को नश्वर समझ कर चिंताओं में डूब जाता है। लेकिन व्यक्ति को सुख दुख सहन करते हुए इस संसार को सरस और सुंदर बनाने का प्रयास करना चाहिए। संन्यासी तो संसार से पलायन करता है वह संसार के काम नहीं आता और कर्मठ मनुष्य का पथ संन्यास नहीं है। निर्वेद (ग्लानि व घृणा) से आकुल मनुष्य की विरक्ति अकर्मण्यता को जन्म देती है यह विरक्ति मनुष्य को दुर्बल, दीन, श्रीहीन और निस्तेज बनाती है। केवल ज्ञानमयी निवृत्ति से मन की दुविधा नहीं फिर सकती। मनुष्य का शत्रु उसके अंतःकरण में ही विद्यमान होता है अन्यत्र नहीं। अतः उसे मन पर संयम रखकर मानवता के विकास के बारे में सोचना चाहिए और लोक कल्याण के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। पितामह धर्मराज को आशावान रहने की सलाह देते हैं और विश्वास व्यक्त करते हैं एक दिन पृथ्वी अवश्य ही आशंका से मुक्त होगी। स्नेह और बलिदान की भावना के विस्तार के कारण पृथ्वी स्वर्ग के समान बन सकेगी।

संदर्भ सहित व्याख्या

हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?

ध्वंस – अवशेष पर सिर धुनता है कौन?

कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूँढता है?

लपटों से मुकुट का पट बुनता है कौन?

और बैठे मानव की रक्त सरिता के तीर

नियति के व्यंग्य भरें अर्थ गुनता है कौन?

कौन देखता है शवदाह बंधु-बांधवों का?

उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?

संदर्भ

प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की काव्यकृति ‘कुरुक्षेत्र’ से ली गई हैं। ‘कुरुक्षेत्र’ में दिनकर ने युधिष्ठिर की युद्धोत्तर मनःस्थिति को प्रस्तुत करते हुए युद्ध की समस्या पर विभिन्न पहलुओं से विचार किया है। भीष्म और युधिष्ठिर दोनों ही मानवतावादी दृष्टि का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अंतर केवल इतना है कि एक हिंसा पर पश्चात्ताप कर रहा है और दूसरा क्रांति का समर्थक है।

प्रसंग

युधिष्ठिर संपूर्ण नरसंहार के लिए पांडवों को दोषी मानते हैं और इस बात के लिए आत्मग्लानि अनुभव करते हैं कि अपने विद्वेष के कारण पांडवों ने इतनी बड़ी असहिष्णुता का परिचय दिया। उन्हें अफसोस है कि जो विवेक उनमें अब जाग रहा है वह युद्ध से पहले नहीं जागा। व्यथित हृदय से वह भीष्म पितामह के पास जाते हैं और कहते हैं कि महाभारत विफल हुआ। इस विजय की कोई सार्थकता नहीं जो इतने भीषण रक्तपात से सनी है। यह कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में पांडवों की विजय हुई है और कौरवों की हार किंतु यह विजय कितनी पीड़ादायी है इसका उल्लेख युधिष्ठिर की प्रस्तुत पंक्तियाँ करती हैं।

व्याख्या

युधिष्ठिर भीष्म पितामह से कहते हैं कि वास्तव में यह हार किसकी हुई है – कौरवों की या पांडवों की भीषण विध्वंस के बाद जो कुछ शेष बचा है उसे देखना कितना कष्टदायी है। इस विनाश को देखकर पश्चात्ताप के सिवाए और कुछ मिलता ही नहीं पश्चात्ताप करने वाले को विजयी कहा जा सकता है या पराजित? इस विजय में सुख नहीं है। सुख तलाशने पर भी विफलता ही मिल रही है क्योंकि सामने जो दृश्य दिखाई देता है वह जलती हुई या भस्म हुई चिताओं का है। इस विजय से प्राप्त राजमुकुट के तंतु चिता की लपटों से बुने हुए प्रतीत होते हैं और इसमें सुख की तलाश बुझी हुई चिताओं के ढेरों में सुख की विफल तलाश के समान हैं। यह विजयी व्यक्ति मानो मनुष्य के रक्त की नदी के किनारे बैठा है और भाग्य या अज्ञात नियामक शक्ति के व्यंग्यों को सहन कर रहा है। अपने भाई बंधुओं का और निकट संबंधियों का अंतिम संस्कार करता हुआ और शवदाह देखता हुआ तथा पुत्र वधु (अभिमन्यु की पत्नी) उत्तरा का करुण विलाप सुनता हुआ यह विजयी व्यक्ति (युधिष्ठिर) कैसे प्रसन्न हो सकता है। क्या यह वास्तव में उसकी जीत है या जीत के नाम पर उसकी घोर पराजय है।

विशेष

1) प्रस्तुत पंक्तियाँ मानवीय करुणा और सहानुभूति के भावों को बड़े ही मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत करती हैं।

2) युद्ध में हुए विनाश और रक्तपात के आधार पर युद्ध की (उसमें प्राप्त विजय की ) निरर्थकता सिद्ध करती है।

3) युधिष्ठिर की वेदना की अभिव्यक्ति बड़े ही सजीव बिंबों के माध्यम से की गई। लपटों से मुकुट पट बनना, मानव की रक्त सरिता के तीर बैठ कर नियति के व्यंग्य भरे अर्थ गुनता आदि बड़े ही मर्मस्पर्शी बिंब हैं।

4) भाषा सहज, संप्रेषणीय तथा चित्रात्मक है तत्सम शब्दों की बहुलता है सिर धुनना मुहावरे का भी प्रयोग हुआ है। आंतरिक मनोव्यथा को कवि प्रश्नाकुलता के माध्यम से अभिव्यक्ति देता है। आवेश और आवेग दोनों ही भाषा में सर्जनात्मक स्तर पर सक्रिय हैं। जगह-जगह रूपकों का इस्तेमाल है जैसे ‘रक्त सरिता के तीर’।

5) इस कवित्त में स्वभावोक्ति अलंकार है क्योंकि यहाँ जीवन और जगत की सहज नीतियों का सीधा संकेत है।

उद्धरण 2

छीनता हो स्वत्व कोई, और तू

त्याग तप से काम ले यह पाप है।

पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे

बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।

बद्ध विदलित और साधनहीन को

है उचित अवलंब अपनी आह का

गिड़गिड़ा कर किंतु माँगे भीख क्यों

वह पुरुष जिसकी भुजा में शक्ति हो।

संदर्भ – पूर्ववत

प्रसंग –

युधिष्ठिर से यह सुनकर कि महाभारत युद्ध करके पांडवों ने बड़ा अनर्थ किया, भीष्म पितामह समझाते हैं कि युद्ध के लिए केवल पांडव ही उत्तरदायी नहीं थे। पूरे देश में ईर्ष्या, वैमनस्य, प्रतिशोध और कटुता का वातावरण फैल गया था। काफी लोग एक दूसरे से शत्रुता का भाव रखने लगे थे। इस तपते हुए परिवेश में चिनगारी कौरवों और पांडवों के द्वारा लगी। वह युधिष्ठिर को समझाते हैं कि यह सोचकर पश्चात्ताप करना व्यर्थ है कि युद्ध पाप कर्म है। क्योंकि कोई कार्य अपने आप में पुण्य या पाप नहीं होता। उसके पीछे निहित भाव अथवा उद्देश्य ही उसे पाप या पुण्य बना देते हैं। कोई युद्ध नहीं करना चाहता किंतु यदि द्वार पर शत्रु आ जाए तो सभी को उससे जूझना पड़ता है। बहुत विचार करने के बावजूद वह महसूस करते हैं कि धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती। इतना कहा जा सकता है कि सम्मानपूर्वक जीवन यापन के लिए मनुष्य में अंगारों जैसी वीरता अपेक्षित है। वह युधिष्ठिर से कहते हैं कि प्रहार के बदले में अथवा अन्याय के विरुद्ध किया गया युद्ध प्रतिकार नहीं हो सकता।

व्याख्या –

कोई अन्य व्यक्ति जब तुम्हारा अधिकार या तुम्हारी स्वतंत्रता छीन रहा हो तब त्याग या तप से काम लेना पाप है क्योंकि ऐसा करके तुम उस व्यक्ति की दूसरे का अधिकार हनन की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हो। इसलिए अधिकार का हनन करने वाले हाथ को काट देना पुण्य है क्योंकि इससे समाज में दूसरों के स्वत्व हनन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलने से रोका जा सकेगा। परवश, दलित या साधनहीन व्यक्ति यदि अत्याचार को आह भरकर सहन कर लेता है तो कोई अनुचित बात नहीं क्योंकि उसमें प्रतिशोध की क्षमता नहीं है लेकिन शक्तिवान व्यक्ति को दया की भीख माँगना या गिड़गिड़ाना शोभा नहीं देता। उसके लिए अन्याय का प्रतिकार ही उचित है।

विशेष

1) प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर ने स्वतंत्रता और न्यायपूर्ण अधिकार की रक्षा के लिए युद्ध को उचित ठहराया है।

2) इससे दिनकर पर तिलक की विचारधारा का प्रभाव सिद्ध होता है। तिलक ने कहा था ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं लेकर रहूँगा’।

3) ये पंक्तियाँ दिनकर की प्रगतिशील जीवन दृष्टि की परिचायक हैं। वस्तुतः कुरुक्षेत्र का मूल प्रतिपाद्य यही जीवन दृष्टि है।

4) तत्सम शब्दावली के प्रयोग के बावज़ूद भाषा सहज और बोधगम्य है।

5) गीता के कर्म दर्शन की परंपरा का इन पंक्तियों का काव्यानुवाद है।

6) कवि ने अहिंसावादी विचारधारा की पारिभाषिक शब्दावली अपनाई है जैसे ‘त्याग’ ‘तप’ आदि, लेकिन अहिंसावादी विचारधारा पर प्रहार किया है।

7) दिनकर के सामने उभरती हुई मार्क्सवादी विचारधारा की भी यहाँ अनुगूँज है।

उद्धरण 3

युद्ध को बुलाता है अनीति ध्वजधारी या कि ?

वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता ?

वह जो दबा है शोषणों के भीम शैल से या

वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता ?

वह जो बना के शांति व्यूह सुख लूटता या

वह जो अशांत हो क्षुधानल से जलता ?

कौन बुलाता है युद्ध जाल को बनाता

या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल सा निकलता ?

संदर्भ – पूर्ववत

प्रसंग – पूर्ववत

व्याख्या –

भीष्म कहते हैं कि युद्ध के लिए वास्तव में उत्तरदायी वह व्यक्ति नहीं जो अनीति को समाप्त करने का प्रयास करता है बल्कि इसके लिए उत्तरदायी वह है जो अनीति या अन्याय का ध्वज धारण करता है यानी  उनकी स्थापना करता है। जो व्यक्ति शोषणों के भारी पहाड़ के नीचे दबा है यानी शोषणों का शिकार है उसको युद्ध का जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता। युद्ध का जिम्मेदार वह है जो दूसरों का शोषण करता है और स्वयं अपने इस नीच कर्म में मग्न और प्रसन्न है। युद्ध को बुलावा कौन देता है अन्याय पर टिकी व्यवस्था और शांति की स्थापना करके शांति का झूठा जाल रचकर सुख लूटने वाला या इस व्यवस्था के भीतर पिसता हुआ भूख की आग में जलता हुआ अशांति और क्रांति करने वाला। वास्तव में हम किस पर युद्ध का दायित्व डाल सकते हैं अनीति का जाल बुनने वाले पर या क्रोधित काल की भाँति विद्रोह करके इस जाल से निकलने वाले पर ?

विशेष

1) प्रस्तुत अवतरण में दिनकर ने अन्याय के विरुद्ध क्रांति को उचित और न्याय संगत ठहराया है। इस चिंतन पर मार्क्सवादी दृष्टि का प्रभाव है। जिसके अनुसार समाज में शोषण का अंत करने के लिए क्रांति आवश्यक है और इस क्रांति और युद्ध की जिम्मेदारी शोषक पर है शोषित पर नहीं।

2) संपूर्ण तर्क को प्रश्न शैली में प्रस्तुत किया गया है इससे यह काफी संगत और प्रभावपूर्ण बन गया है।

3) अनीति ध्वजधारी, अनीति जाल पर पाँव दे चलना, भीम शैल से दबा होना, क्षुधानल में जलना, क्रुद्ध काल सा निकलना आदि बड़े ही संश्लिष्ट बिब हैं।

4) कवित्त छंद का प्रयोग है। कवि ने वैचारिक स्तर पर युद्ध की नवीन मनोभूमिका के आधारों का तार्किक चित्र प्रस्तुत किया है।

5) शब्दावली प्राचीन युद्ध बोध की सांस्कृतिक शब्दावली है जिसके उपयोग से अनुभव और अनुभूति में संपन्नता के साथ प्रामाणिकता पैदा हुई। परंपरा और आधुनिकता का संतुलन स्थापित हुआ है।

उद्धरण 4.

यह न बाह्य उपकरण, भार बन

जो आवे ऊपर से,

आत्मा की यह ज्योति, फूटती

सदा विमल अंतर से।

शांति नाम उस रूचिर सरणि का,

जिसे प्रेम पहचाने

खड्ग भीति तड़ ही न

मनुज का मन भी जिसकी मानें

संदर्भ – पूर्ववत

प्रसंग –

भीष्म पितामह युधिष्ठिर को बताते हैं कि युद्ध क्यों होता है शांति की स्थापना – क्यों नहीं हो पाती। वह कहते हैं कि शांति की स्थापना तब हो सकती है जब उसके लिए अनुकूल वातावरण हो। किंतु यह वातावरण स्थापित होना इसलिए कठिन है कि संसार में युधिष्ठिर की भाँति सोचने वाले व्यक्ति एकाध हैं जबकि दुर्योधन की मनोवृत्ति वाले लोग असंख्य हैं। शांति की वीणा तभी बजेगी जब प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में उसकी सही प्रतिध्वनि उठे यानी सब लोग शांति के लिए स्वच्छ मन से उत्सुक हैं। आगे वह बताते हैं कि शांति क्या है-

व्याख्या –

शांति कोई बाहरी उपकरण नहीं है जिसका भार समाज के ऊपर रखा जा सके। यह तो आत्मा की ज्योति है जो निर्मल हृदय से स्वतः प्रज्वलित होती है अर्थात् न्याय, सदाचार और नीति को अपनाने वालों के अंतर्मन से ही शांति स्थापना का भाव जागता है इससे ऊपर से आरोपित नहीं किया जा सकता। शांति वह मनोहर मार्ग है जिसका आधार परस्पर प्रेम की भावना होता है। सच्ची शांति वही होती है जिसे मनुष्य तलवार से डर कर स्वीकार नहीं करता, वरन् मनुष्य का हृदय उसे स्वतः वरण करना चाहता है।

विशेष

1) प्रस्तुत अवतरण में कवि ने शांति के वास्तविक रूप का उल्लेख किया है।

2) भाषा सरल और सुबोध है।

3) गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव इस भाव चित्र पर है। उपनिषद दर्शन के आत्मा आदि दार्शनिक शब्दों का नए संदर्भों में प्रयोग किया गया है मूलतः यह चिंतन भारतीय मानव की आंतरिक लय का सहज विकास है।

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