ले चल वहाँ भुलावा देकर
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी-
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढीले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो,
ताराओं की पाँति घनी रे।
जिस गंभीर मधुर छाया में-
विश्व चित्रपट चल माया में-
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुख-सुख वाली, सत्य बनी रे।
श्रम विश्राम क्षितिज वेला से-
जहाँ सृजन करते मेला से-
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे।
प्रस्तुत कविता या गीत ‘लहर’ (1935 ई.) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। इस गीत की रचना 19 दिसंबर 1931 ई. को जगन्नाथपुरी में हुई थी। इसका प्रथम प्रकाशन 11 फरवरी, 1932 ई. को साप्ताहिक पत्र ‘जागरण’ (बनारस) में हुआ था। जयशंकर प्रसाद की यह कविता ‘पलायनवादी’ होने के आरोप से जुड़ी रही है। इस कविता में प्रसाद नाविक (नियति, प्रारब्ध आदि के अर्थ में) को संबोधित करके कह रहे हैं कि मुझे एक ऐसी जगह पर ले चलो जहाँ सांसारिक झगड़े न हों। जहाँ मैं प्रकृति के मूल रूप को अपनी आँखों से देख सकूँ, अपने कानों से सुन सकूँ और अपने हृदय की गहराइयों से महसूस कर सकूँ। इस कविता में ‘वहाँ’ से तात्पर्य वैसी दुनिया से है, जहाँ मनुष्य के संघर्षमय माहौल को स्थगित किया जा सके। एक तरह से प्रसाद का यह कल्पित लोक है, जहाँ प्रकृति अपने अनुभूतिमय रूप में उपस्थित है और मनुष्य का हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं है।
‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ कविता में ‘नाविक’ शब्द से अभिप्राय है – नियति से। कवि जयशंकर प्रसाद अपनी नियति से मानो कह रहे हैं कि मुझे तुम ऐसी जगह ले चलो जहाँ सांसारिक संघर्षों और आवरणों को किनारे कर मनुष्य के जीवन को समझने का अवसर मिले। इस संसार में जितने रास्ते दिखाई पड़ते हैं, वे सब के सब अन्य-अन्य प्रसंगों से आक्रांत हैं। मैं प्रकृति के निरावृत्त रूप में जीवन के रूप को देखना चाहता हूँ। इस काम में मेरी मदद शायद मेरी नियति ही कर सकती है। अपनी नियति को ही ‘मेरे नाविक’ का रूपक इस कविता में दिया गया है।
जयशंकर प्रसाद शैव दर्शन के आनंदवाद में विश्वास रखनेवाले कवि हैं। उन्होंने ‘कामायनी’ के अंत में भी आनंदवादी समाधान दिखाया है। इस कविता में वे एक ऐसी जगह पर जाने की आकांक्षा प्रकट करते हैं, जहाँ सांसारिक संघर्षों और आवरणों से मुक्त होकर प्रकृति और जीवन के निरावृत्त रूप को देखा जा सके! वे पहले परिच्छेद में कहते हैं कि मुझे उस निर्जन स्थान पर ले चलो जहाँ सागर की लहरें, अंबर के कानों में, निश्छल भाव से अपनी प्रेम कथा कह रही हों! वहाँ किसी भी प्रकार का सांसारिक कोलाहल न हो ! पूरी कविता में इसी भाव को पल्लवित किया गया है। अपने प्रारंभिक रूप में यह कविता संसार से पलायन करती हुई भले मालूम पड़ती है, मगर अंततः यह जीवन के मूल प्रश्नों पर ही विचार करती है। विकसित होती जाती सभ्यताओं में इतने सारे आवरण बनते जा रहे हैं कि जीवन के मूल को पहचानने में कठिनाई होने लगती है। यह कविता इसी मूल रूप के महत्त्व की याद दिला रही है। यह कविता छायावाद के यूटोपियाई संसार की तरह भी है। अतः इस कविता पर ‘पलायनवाद’ का आरोप लगाना पूरी तरह सही नहीं है।
पंक्तियाँ – 01
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी-
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।
शब्दार्थ
नाविक – नियति, भाग्य, तकदीर
सागर लहरी – समुद्र की लहरें उन्मुक्त और कोमल भावनाएँ।
गहरी – गंभीर
निश्छल – पवित्र
अवनी – धरती, संसार
प्रसंग
कविता के प्रस्तुत अंश ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ से उद्धृत है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद जी हैं। यह जीवन के प्राकृतिक रूप को समझने का आग्रह करती है। सांसारिक संघर्ष, आकर्षण, भ्रम और संबंध के कारण हम जीवन को छद्म दृष्टियों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। कवि ने एक ऐसी जगह की कल्पना की है जहाँ पहुँचकर जीवन को उसकी प्रकृति के साथ निभ्रांत होकर देखा जा सके।
व्याख्या
जयशंकर प्रसाद इस कविता में एक ऐसे लोक की कल्पना करते हैं, जहाँ धरती का कोलाहल बिल्कुल न हो और प्रकृति अपने मूल रूप में दिखाई पड़ रही हो। प्रकृति का यह रूप हमारी अनुभूतियों को विस्तार देता हो, ताकि हम अपने स्वाभाविक रूप के नजदीक पहुँच सकें। मगर, यह जगह होगी कहाँ? प्रसाद ने वह जगह तो ठीक-ठीक नहीं बताई है, मगर उस जगह के लक्षणों के बारे में बताया है और नाविक से आत्मीयतापूर्वक कहा कि उस जगह पर ले चलो। यह नाविक कौन है? प्रसाद उससे अपनाव प्रकट करते हुए कहते हैं- ‘मेरे नाविक। छायावाद की प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए प्रायः यही निष्कर्ष निकाला गया है कि यह नाविक हम सबकी ‘नियति’ है या ‘प्रारब्ध’ है। इसे हम ‘भाग्य’ या ‘तकदीर’ भी कह सकते हैं। प्रसाद ‘नियतिवादी’ भी कहे गए हैं। सारांश यह कि प्रसाद चाहते हैं कि काश मैं संयोग से (नियति के सहारे) ऐसी जगह पहुँच पाता, जहाँ धरती के संघर्ष नहीं होते और प्रकृति अपने मूल रूप में अनुभूतिमयी बनकर हमारे सामने होती। प्रसाद कहते हैं कि हे मेरे नाविक। मुझे भुलावा देकर धीरे-धीरे ‘वहाँ’ ले चलो। मुझे बताने की जरूरत नहीं है कि उस जगह पर तुम किस रास्ते से ले कर चलोगे। मुझे अनजान ही रहने दो। मैं इस उलझन/बहस में भी पड़ना नहीं चाहता कि कौन-सा रास्ता मुझे ‘वहाँ’ पहुँचा पाएगा। तुम सहज भाव से धीमे-धीमे ले चलते हुए उस जगह तक पहुँचा दो। वह मेरी अभीष्ट जगह है। मैं वहाँ पहुँचकर उन तमाम आवरणों को फेंक देना चाहता हूँ, जो धरती के संघर्षों के कारण हमारे ऊपर चढ़ जाते हैं। वे उस जगह के लक्षणों के बारे में बताते हैं। उस जगह की पहचान बताते हुए वे कहते हैं कि मुझे उस निर्जन जगह पर ले चलो, जहाँ सागर की लहरें, अंबर के कानों में निश्छल प्रेम की गहरी कथा कहती हो और वहाँ पर धरती का कोलाहल बिल्कुल न हो। धरती के संघर्षों से दूर अपने प्राकृतिक स्वभाव में प्रेम को देखने की अभिलाषा कवि ने प्रकट की है।
पंक्तियाँ – 02
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढीले अपनी कोमल काया,
नील नयन से दुलकाती हो,
ताराओं की पाँति घनी रे।
शब्दार्थ
ढीले – सहज और निश्चेष्ट हो जाना
काया – शरीर
नील नयन – नीला आकाश
पाँति – पंक्ति, लड़ी
प्रसंग
कविता के प्रस्तुत अंश ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ से उद्धृत है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद जी हैं। यह जीवन के प्राकृतिक रूप को समझने का आग्रह करती है। सांसारिक संघर्ष, आकर्षण, भ्रम और संबंध के कारण हम जीवन को छद्म दृष्टियों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। कवि ने एक ऐसी जगह की कल्पना की है जहाँ पहुँचकर जीवन को उसकी प्रकृति के साथ निभ्रांत होकर देखा जा सके।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि मैं उस जगह पर ढलती हुई शाम के रूप को देखना चाहता हूँ, और महसूस करना चाहता हूँ कि शाम में, कैसे जीवन अपनी कोमल काया को विश्राम के लिए ढीला छोड़ देता है। जो जीवन दिन भर सक्रिय रहता है, वह शाम में विश्राम के लिए अपने शरीर को निष्क्रिय कर देता है। मैं इस दृश्य को देखना चाहता हूँ। मैं उस गहराती हुई शाम में तारों की पंक्तियों को निकलते हुए देखना चाहता हूँ और महसूस करना चाहता हूँ कि ये तारे ‘जीवन छाया’ के ढुलकते आँसुओं की तरह हैं। प्रकृति के ये दृश्य जीवन की छाया (प्रतिरूप/प्रतीक) के रूप में मेरे सामने घटित होते दिखाई पड़ें, ताकि मैं जान सकूँ कि मनुष्य का जीवन अपने प्राकृतिक रूप में किस तरह का है। यह भी समझ सकूँ की सांसारिक संघर्षों ने जीवन को कितना अस्वाभाविक बना दिया है।
पंक्तियाँ – 03
जिस गंभीर मधुर छाया में-
विश्व चित्रपट चल माया में-
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुख-सुख वाली, सत्य बनी रे।
शब्दार्थ
विश्व चित्रपट – यह सृष्टि चित्रों के संग्रह (अल्बम) की तरह है
विभुता – प्रभुता
विभु – प्रभु
विभु-सी – प्रभु के समान, विराट के समान
प्रसंग
कविता के प्रस्तुत अंश ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ से उद्धृत है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद जी हैं। यह जीवन के प्राकृतिक रूप को समझने का आग्रह करती है। सांसारिक संघर्ष, आकर्षण, भ्रम और संबंध के कारण हम जीवन को छद्म दृष्टियों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। कवि ने एक ऐसी जगह की कल्पना की है जहाँ पहुँचकर जीवन को उसकी प्रकृति के साथ निभ्रांत होकर देखा जा सके।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि यह सृष्टि विराट और गंभीर है। वह अपनी मधुरता और गंभीरता की छाया में अनेक चित्रों को समेटे हुए हैं। ये चित्र स्थिर चित्रों की तरह नहीं हैं, बल्कि गतिशील हैं। ये चित्र वास्तविक होते हुए भी चंचल माया की तरह अनेक रूप धारण करने की क्षमता रखते हैं। मैं सृष्टि के चित्रों के बीच प्रकृति की विराटता के प्रत्यक्ष रूप को देखना चाहता हूँ। ठीक वैसे ही, जैसे विराट को सीधे देखकर उसकी विराटता को महसूस करना। विभु की विभुता को अप्रत्यक्ष रूप से महसूस करने के कई उपाय हैं। हम लघु रूपों में भी विराटता को महसूस कर सकते हैं। मगर यह सब अप्रत्यक्ष ही रहता है। मैं प्रत्यक्ष रूप से विराट को देखकर उसकी विराटता को जानना चाहता हूँ। यह विराट सुख से बना है या दुख से, कवि का ख्याल है कि यह विराट सुख-दुख के सापेक्ष नहीं होता है। वह सत्य की तरह होता है, वह आनंद की तरह होता है, वह रस की तरह होता है। रामचंद्र गुणचंद्र ने रस के बारे में लिखा है, ‘सुखदुखात्मको रसः’। अर्थात् रस सुखात्मक भी होता है और दुखात्मक भी। रस मूलतः आनंद है, सुख-दुख की परिधि को तोड़कर मिलनेवाली तन्मयता और तल्लीनता। कवि उस विराट को
पंक्तियाँ – 04
श्रम विश्राम क्षितिज वेला से-
जहाँ सृजन करते मेला से-
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे।
शब्दार्थ
विश्राम – आराम
क्षितिज – Horizon
सृजन – निर्माण
ज्योति – प्रकाश
प्रसंग
कविता के प्रस्तुत अंश ‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ से उद्धृत है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद जी हैं। यह जीवन के प्राकृतिक रूप को समझने का आग्रह करती है। सांसारिक संघर्ष, आकर्षण, भ्रम और संबंध के कारण हम जीवन को छद्म दृष्टियों से देखने को बाध्य हो जाते हैं। कवि ने एक ऐसी जगह की कल्पना की है जहाँ पहुँचकर जीवन को उसकी प्रकृति के साथ निभ्रांत होकर देखा जा सके।
व्याख्या
कवि कहते हैं – हे नाविक। मुझे उस जगह पर पहुँचकर एक और दृश्य देखना और महसूस करना है। मैं रात के उस रूप को देखना चाहता हूँ जिसमें श्रम से थकी सृष्टि विश्राम कर रही हो। श्रम-विश्राम के मिलन-बिंदु की तरह बनी हुई उस रात को देखना चाहता हूँ। रात मानो ढल रही हो और क्षितिज के तट पर प्रभात अँगड़ाइयाँ ले रहा हो। रात के विश्राम के बाद पुनः सृष्टि के विभिन्न घटक सृजन के कामों में लगते हुए ऐसे दिखाई पड़ें मानो सुबह होते ही सृजन का मेला-सा लग गया हो। मैं सुबह के उस दृश्य को देखना चाहता हूँ कि कैसे उषा की आँखों से बरसती अखंड ज्योति और दिव्य जागरण का संदेश लेकर आती है। हे नाविक। मुझे तुम ऐसी ही जगह पर ले चलो।
यह पलायन का गीत नहीं है।
इसमें जीवन की आसक्ति से मुक्त होकर जीवन को समझने की कामना है।
सांसारिक संघर्षों ने जीवन को वेदनामय बना दिया है।
कवि का विचार है कि यह जीवन अपने मूल रूप में आनंदमूलक है।
इसमें कवि की आकांक्षाओं का संसार व्यक्त हुआ है।
इस कविता की प्रत्येक पंक्ति में 16 – 16 मात्राएँ हैं। पहली पंक्ति को छोड़कर प्रत्येक पंक्ति के अंत में दीर्घ की मात्रा है।