मैं नीर भरी दुख की बदली
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों से स्वप्न – पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली!
मैं क्षितिज – भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नवजीवन – अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
महादेवी वर्मा का जन्म 1907 में फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी पढ़ाई-लिखाई इंदौर और इलाहाबाद में हुई थी। इलाहाबाद में स्थित प्रयाग महिला विद्यापीठ में वे प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत रहीं। उनकी मृत्यु 1987 में हुई।
महादेवी वर्मा ने कविता के अलावा सशक्त गद्य भी लिखा था। उनकी गद्य रचनाएँ भाषा और विचार की दृष्टि से अत्यंत परिपक्व मानी जाती हैं। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ के लेखों में उन्होंने स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को जिस स्तर पर उठाया था वह आश्चर्यजनक है। मैनेजर पाण्डेय ने इस पुस्तक को रेखांकित करते हुए लिखा है कि सिमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ के प्रकाशन से भी पहले महादेवी की यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी और इसके लेख तो और भी पहले प्रकाशित हो चुके थे। महादेवी वर्मा ने ‘चाँद’ पत्रिका के ‘विदुषी अंक’ का सम्पादन 1935 में किया था। यह अंक हिंदी में हुए स्त्री-विमर्श की परंपरा में विशेष महत्त्व रखता है। यह अंक उस जमाने में आया था जब इस तरह के विषय पर सोच-विचार की प्रवृत्ति आम नहीं थी। महादेवी का वैचारिक गद्य लेखन महत्त्वपूर्ण है।
छायावाद और रहस्यवाद की कवि के रूप में महादेवी वर्मा का स्थान अक्षुण्ण है। उनके पाँच काव्य-संग्रहों की कविताओं में छायावादी-रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ तो हैं ही, उनमें स्त्री की पीड़ा और मुक्ति के प्रसंग भरे पड़े हैं। इनमें पीड़ा का विवरण भी व्यक्तित्व की दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए किया गया है। इनमें प्रेम और प्रेमी का जिक्र भी मुक्ति के प्रतीक के रूप में किया गया है। महादेवी कोरी भावुकता की कविताएँ नहीं लिखती हैं। उनकी कविताओं में वैचारिक दृढ़ता हमेशा बनी रही।
काव्य-कृतियाँ
नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), हिमालय (1963), सप्तपर्णा (अनूदित – 1966), प्रथम आयाम (1982), अग्निरेखा (1990)
गद्य-कृतियाँ
अतीत के चलचित्र (रेखाचित्र – 1941), शृंखला की कड़ियाँ (नारी-विषयक सामाजिक निबंध – 1942), स्मृति की रेखाएँ (रेखाचित्र – 1943), पथ के साथी (संस्मरण – 1956), क्षणदा (ललित निबंध – 1956), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (आलोचनात्मक – 1960), संकल्पिता (आलोचनात्मक – 1969), मेरा परिवार (पशु-पक्षियों के संस्मरण 1971), चिंतन के क्षण (1986)
संकलन
यामा (नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत का संग्रह / 1936), संधिनी (कविता-संग्रह / 1964), स्मृतिचित्र (गद्य-संग्रह – 1966), महादेवी साहित्य (भाग – 1 – 1969), महादेवी साहित्य (भाग – 2 – 1970), महादेवी साहित्य (भाग – 31970), गीतपर्व (कविता-संग्रह – 1970), स्मारिका (1971), परिक्रमा (कविता संग्रह – 1974), सम्भाषण (कविता-संग्रह 1975), मेरे प्रिय निबंध (निबंध – संग्रह – 1981), आत्मिका (कविता-संग्रह – 1983), नीलाम्बरा (कविता-संग्रह – 1983), दीपगीत (कविता-संग्रह – 1983)
महादेवी वर्मा की यह एक प्रसिद्ध कविता है। यह ‘सांध्य-गीत’ (1936) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। महादेवी वर्मा ने इस कविता में स्त्री के जीवन की तुलना बदली (बादल) से की है। यह कविता बदली के रूपक में स्त्री-जीवन की परेशानियों और विशिष्टताओं को व्यक्त करती है। इस कविता में केवल दुख ही नहीं है बल्कि स्त्री-जीवन की कुछ विशिष्टताओं को भी व्यक्त किया गया है। ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने इस कविता में दो प्रकार का संदेश दिया है। एक यह कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ है। दूसरा संदेश यह है कि उसका होना ही जीवन की सुंदरता को रचता है। अंत में यह भी कहा गया है कि परंपरा से स्त्री की बहुत उपेक्षा हुई है।
यह कविता महादेवी वर्मा के साथ-साथ समस्त नारी समुदाय की भावनात्मक गहराई और आत्मा की शुद्धता को दर्शाती है। इसमें वे अपने साथ नारियों को नि:स्वार्थ प्रेम, त्याग और करुणा का प्रतीक मानती हैं। यह कविता केवल उनके आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि एक दार्शनिक संदेश भी है कि जीवन क्षणिक है और हमें अपने दुख को भी किसी के लिए प्रेरणा और सुख का कारण बना देना चाहिए। महादेवी वर्मा ने अपने दुख को बादल की तरह प्रस्तुत किया है, जो दूसरों के लिए सुखदायी बनता है। उनका व्यक्तित्व किसी चिह्न को छोड़कर नहीं जाता, लेकिन उनकी स्मृति सुकून देने वाली होती है। वह जीवन की नश्वरता को भी स्वीकार करती हैं और अपने अस्तित्व को प्रकृति से जोड़ती हैं।
01
मैं नीर भरी दुख की बदली!
शब्दार्थ –
नीर भरी – पानी या आँसू से भरी हुई
दुख की बदली – दुख से निर्मित बादलों की तरह
प्रसंग –
मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ तो है, मगर उसमें जीवन की सुंदरता और संभावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया है, उसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गई है।
व्याख्या –
इस पंक्ति में महादेवी जी कहती हैं कि मैं आँसुओं से भरी हुई दुख की बदली के समान हूँ। यहाँ ‘मैं’ का अर्थ केवल कवयित्री महादेवी वर्मा तक सीमित नहीं है, बल्कि स्त्री-समाज और उसके जीवन से है। महादेवी बदली के रूपक के माध्यम से बताना चाहती हैं कि स्त्री के जीवन में कितना दुख है और स्त्री का जीवन किस तरह कुछ विशेषताओं से बना हुआ है। इस कविता में समानांतर रूप से बदली का अर्थ और स्त्री का अर्थ मौजूद है।
02
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली!
शब्दार्थ –
स्पंदन – सूक्ष्म गतिमयता, सिहरन के स्तर की गति,
चिर निस्पंद – स्थायी रूप से गतिहीनता
आहत विश्व – दुखी संसार
नयनों में दीपक से जलते – आकाश में बिजली का कौंधना
निर्झरिणी – नदी
मचली – उमड़ी
प्रसंग –
मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ तो है, मगर उसमें जीवन की सुंदरता और संभावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया है, उसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गई है।
व्याख्या –
इन पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि बदली स्पंदित होती है। उसके स्पंदन में न जाने कितने समय का निस्पंदन मौजूद होता है अर्थात् जब वह रोती है तो उसमें उस समय की पीड़ा भर नहीं रहती बल्कि कितने समय की पीड़ा समाहित रहती है। बदली जब क्रंदन अर्थात् गड़गड़ाहट और बारिश करती है तो पानी की प्रतीक्षा में दुखी संसार खुशी से हँस पड़ता है। बदली की आँखों में बिजली चमकती है, मानो दीपक जल उठते हैं। उसकी पलकों में निर्झरिणी मचल उठती है और बारिश होने लगती है। इस रूपक को स्त्री-जीवन के सन्दर्भ में समझें तो कह सकते हैं कि स्त्री की सिहरन तक में न जाने कितनी खामोशियों की अभिव्यक्ति होती है। उसके दुख का उपहास इस स्तर तक किया गया है कि जब वह रोती है तब शाश्वत रूप से दुखी इस संसार को भी खुशी मिलती है। स्त्री की आँखों में उम्मीद की चमक हमेशा बनी रही और उन्हीं आँखों से वह रोती भी रही।
03
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली!
शब्दार्थ –
पग पग – हर पद
श्वासों से – साँसों से
स्वप्न-पराग – सपनों की तरह सुंदर परागकण,
झरा – निकलना, गिरना
नभ के नव रंग – आकाश के नए रंग
दुकूल – दुपट्टा
छाया में – छत्रच्छाया में, प्रभाव में
मलय – बयार सुगंधित वायु
प्रसंग –
मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ तो है, मगर उसमें जीवन की सुंदरता और संभावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया है, उसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गई है।
व्याख्या –
महादेवी जी कहती हैं कि बदली का पग-पग संगीत से भरा है। जब वह चलती है तब अपने राग में संगीतमय ध्वनि करती हुई चलती है। बदली के छा जाने पर साँसों की तरह जो हवा चलती है उसके प्रभाव से न जाने कितने सुगंधित सपनों का जन्म होता है। बदली कहती है कि आकाश अपने नए-नए रंगों से मेरे लिए दुपट्टे का निर्माण करता है। मेरी छाया में चलनेवाली हवा मलय-बयार की तरह सुहानी होती है। इस रूपक का अर्थ इस तरह खुलता है कि स्त्री को प्रकृति ने अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता बनाया है। उसके चलने तक में प्रकृति ने एक तरह की लयात्मकता दी है। चाहे जितना भी दुख रहा हो, स्त्री की साँसों में सपने जरूर पलते रहे। रंगों की शोभा उस पर ही खिल पाई और उसकी छाया में न जाने कितने सपनों को पलने का मौका मिला। स्त्री की इस भूमिका को ठीक से समझने के लिए पुरुष से उसके रिश्ते को ध्यान में रखना प्रासंगिक होगा। पुरुषों ने कला के विभिन्न माध्यमों में स्त्री का जो व्यक्तित्व गढ़ा है, उनसे भी इन बातों की पुष्टि होती है। कलात्मक रचनाओं में बताया गया कि स्त्री सपनों को जन्म देती है, उसका साहचर्य सुगंध से भरा होता है, उसकी सुंदरता पर पुरुष न्योछावर हो जाता है।
04
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नवजीवन-अंकुर बन निकली!
शब्दार्थ –
क्षितिज-भृकुटि – क्षितिज मानो उस बदली की भृकुटी के समान है
धूमिल – धुएँ के रंग का
अविरल – निरंतर
रज-कण – धूल के कण
जल-कण – वर्षा की बूँदें
नवजीवन-अंकुर – नए जीवन के प्रतीक अंकुर के रूप में
प्रसंग –
मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ तो है, मगर उसमें जीवन की सुंदरता और संभावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया है, उसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गई है।
व्याख्या –
कवयित्री कहती हैं कि वह स्वयं को एक ऐसी बदली के रूप में देखती हैं, जो क्षितिज (आकाश के अंतिम छोर) पर धूमिल रूप से फैली हुई है। धुएँ की तरह बदली जब क्षितिज पर छा जाती है, तब मौसम के बिगड़ने की चिंता प्रकट की जाने लगती है लेकिन वही बदली जब धूलकणों पर जल बनकर बरसती है तो उसके बरस जाने से नए जीवन को अंकुरित होने का अवसर प्राप्त होता है। इस रूपक को स्त्री जीवन से कुछ ऐसे जोड़ कर देखा जा सकता है कि स्त्री के होने की संभावना से ही चिंता प्रकट की जाने लगती है। मगर मनुष्य की सृष्टि को नवजीवन प्रदान करने में उसकी भूमिका सबसे बड़ी है। उनका दुख भी किसी न किसी के लिए प्रेरणा और नवजीवन का कारण बन जाता है।
05
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
शब्दार्थ –
मलिन – अशुद्ध, अपवित्र
पद-चिह्न – कदमों के निशान
सुधि – याद, स्मृति
आगम – जन्म, आना
सिहरन – कंपन
प्रसंग –
मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ तो है, मगर उसमें जीवन की सुंदरता और संभावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया है, उसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गई है।
व्याख्या –
कवयित्री कहती हैं कि बदली छाती है, आकाश में चलती है और बरस जाती है। मगर वह अपने रास्ते को कभी भी मलिन नहीं करती है। उसके चले जाने के बाद आकाश मार्ग एकदम साफ-सुथरा नजर आता है। अपने पद चिह्नों को छोड़ते जाने का अहंकार भी उसमें नहीं है। लेकिन यह सच है कि मेरे आने की स्मृति संसार को सुख की सिहरन से भर देती है। उसी प्रकार स्त्री संसार में आती है, मगर उसकी भूमिका कहीं दर्ज नहीं की जाती है। पुरुषों के नाम और काम याद रखे जाते हैं। लेकिन महिलाओं के नाम-काम संसार में कहीं गुम हो जाते हैं। लेकिन जब कभी भी स्त्री के आगमन को याद किया गया है, एक सुखद रोमांच की अनुभूति हुई है।
06
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
शब्दार्थ –
विस्तृत नभ – विशाल आकाश
कोना – कोई भी हिस्सा
इतिहास – जीवन-वृत्त
उमड़ी कल थी – जन्म हुआ था
मिट आज चली – मृत्यु हो गई
प्रसंग –
मैं नीर भरी दुख की बदली’ कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुखों से भरा हुआ तो है, मगर उसमें जीवन की सुंदरता और संभावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया है, उसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गई है।
व्याख्या –
कविता की अंतिम पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि इस विस्तृत आकाश का कोई कोना बदली के नाम दर्ज नहीं हो सका। उसका परिचय और इतिहास बस इतना ही रहा कि कल वह उमड़ी थी और आज मिट गई। स्त्री अधिकार-विहीन रही है। इस विस्तृत संसार में वह अनेक अधिकारों से वंचित रही। जिन अधिकारों को प्राप्त कर पुरुष अपने को इतिहास में बनाए रख सका, उन अधिकारों से वंचित रहने के कारण स्त्री के हिस्से अमरता नहीं आई। वह मौजूद तो रही, मगर दर्ज न हो सकी। उसका परिचय इतना ही रहा कि वह किसी पुरुष के नाम से पहचानी गई। उसके बारे में बस इतना ही सच रहा कि उसका जन्म हुआ था और फिर उसकी मृत्यु हो गई। उसके जीवन की भूमिका अलिखित रह गई।
इस तरह महादेवी वर्मा ने इस कविता में बदली के रूपक से स्त्री-जीवन के दुख को व्यक्त किया है। समाज के द्वारा जो उपेक्षा मिली है उसका भाव-प्रवण चित्रण इस कविता की विशेषता है। महादेवी इसमें केवल दुख का बयान करके रुक नहीं जाती हैं, बल्कि वे स्त्री की सकारात्मक भूमिका को भी बताती चलती हैं।
यह कविता बदली के रूपक में स्त्री-जीवन की परेशानियों और विशिष्टताओं को व्यक्त करती है। इस कविता में केवल दुख ही नहीं है बल्कि स्त्री-जीवन की कुछ विशिष्टताओं को भी व्यक्त किया गया है।
महादेवी की इस कविता को बहुत प्रसिद्धि मिली। इसे उनकी प्रतिनिधि कविता के तौर पर पहचाना गया।
पूरी कविता में 16-16 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है।