पाठ के स्मरणीय बिन्दु
1. भारत विभाजन के बारे में जानेंगे।
2. रक्षक के राक्षस बनने की कहानी को समझेंगे।
3. दंगे-फ़साद का भयानक रौद्र रूप देखेंगे।
4. मिट्टी के प्रति लगाव के भाव को समझेंगे।
5. अपनों के अलग होने की पीड़ा को जान सकेंगे।
6. हृदय परिवर्तन अतीत को ठीक नहीं कर सकता।
7. अन्य जानकारियों से परिचित होंगे।
लेखक परिचय
मदन मोहन गुगलनी उर्फ मोहन राकेश का जन्म 8 फरवरी 1925 ई. को जालंधर में हुआ। पंजाब में ही उनकी संपूर्ण शिक्षा हुई। इनके पिता वकील होते हुए भी बहुत साहित्यानुरागी थे। इसलिए राकेश जी को बचपन से ही घर में पर्याप्त साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में एम. ए. तक की शिक्षा प्राप्त की और अध्यापक के रूप में अपना जीवन प्रारंभ किया। वे प्रारंभ में डी. ए. वी. कॉलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य करते रहें। उन्होंने क्रमश: जालंधर, शिमला और दिल्ली में थोड़े-थोड़े दिन तक कार्य किया। उन्होंने साहित्य सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना दिया। ऐसे महान साहित्यकार का 2 अगस्त, 1972 को स्वर्गवास हुआ।
कृतित्व –
1. उपन्यास ‘अँधेरे बंद कमरे’, ‘अंतराल’, ‘न आनेवाला कल।
2. कहानी संग्रह ‘क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ’, ‘पहचान तथा अन्य कहानियाँ’, ‘नए बादल’, ‘मोहन राकेश की संपूर्ण कहानियाँ।
3. नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’, ‘अंडे के छिलके’ (एकांकी- संकलन)।
4. डायरी ‘मोहन राकेश की डायरी’।
5. यात्रा वृत्तांत ‘आखरी चट्टान तक’।
6. निबंध संग्रह ‘परिवेश’।
7. अनुवाद ‘मृच्छकटिक’, ‘शाकुंतलम्’।
8. संपादन- ‘सारिका’, ‘नई कहानी’।
9. अन्य – ‘डॉ. काला कपोला से बातचीत’, ‘फाँसी का औचित्य।
10. बाल साहित्य – ‘गिरगिट का सपना’।
पृष्ठभूमि
‘मलबे का मालिक’ कहानी का उद्देश्य भारत-पाक विभाजन के समय हुई सांप्रदायिक हिंसा का मार्मिक चित्रण करना है। लेखक ने आलोच्य कहानी के माध्यम से स्पष्ट किया है कि किस प्रकार 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय घृणा और हिंसा की ऐसी आग भड़की जिसने मानव-मानव के संबंधों को जलाकर राख कर दिया। भारत-पाक विभाजन के समय मानवीय संबंधों में जो दरार आई, उसकी भरपाई संभवत: सदियों तक नहीं हो पाएगी।
प्रस्तुत कहानी के माध्यम से कमजोर होती हमारी सामाजिकता और नागरिकता को कहानीकार ने उद्घाटित किया है। बच्चन सिंह जी के अनुसार “ ‘मलबे का मालिक’ कहानी भारत-विभाजन से उत्पन्न परिस्थितियों पर आधारित है। मलबा उन्माद और वहशीपन का प्रभावी प्रतीक है। अनेक स्मृति बिम्बों में उसका तनाव त्रासद हो उठता है।” सांप्रदायिक सोच और उन्माद कैसे हमें, हमारे ही सामाजिक परिवेश और माहौल में निरंतर कमजोर बाशिंदा बनाने का काम कर रहा है, इसका एक सटीक रेखांकन इस कहानी में किया गया है। वस्तुतः खंडित सामाजिकता और कमजोर नागरिकता बोध इस कहानी का मूल भाव और संवेदना है। कहानी का तात्कालिक संदर्भ विभाजन के दौर का भारत है, लेकिन साहित्य का प्रभाव क्योंकि किसी काल- विशेष तक ही सीमित नहीं होता है, यह कहानी हमें हमारे आज के विभाजनकारी परिवेश और सामाजिक चिंता के साथ भी जोड़ने का काम करती है। गनी मियाँ और रक्खे पहलवान के माध्यम से उस समय की भीषण स्थिति, सांप्रदायिक विद्वेष और घटना से जुड़ी इंसानी मनोदशा को बेहद असर के साथ पाठकों तक पहुँचाने में कहानी काफी हद तक सफल बन पड़ी है।
पाठ परिचय
‘मलबे का मालिक’ मोहन राकेश की एक प्रसिद्ध एवं अति चर्चित कहानी है। यह कहानी सन् 1956 ई. में प्रकाशित हुई थी, जो ‘नए बादल’ कहानी-संग्रह में संकलित है। जात-पाँत एवं धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर किए गए भारत-विभाजन पर गहरा व्यंग्य इस कहानी में परिलक्षित होता है। यह कहानी भारत-पाक विभाजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न वैमनस्य का चित्रण करती है। देश-विभाजन पर हिंदी ही नहीं, संभवतः अन्य भारतीय भाषाओं में लिखी गई कहानियों में भी यह सर्वश्रेष्ठ कहानी है। कथानक या कथावस्तु ही किसी कहानी का आधार स्तंभ होता है। कहानी का संपूर्ण ढाँचा उसी कथानक पर खड़ा होता है। कथानक में मौलिकता, रोचकता, प्रवाहमयता, जिज्ञासा, विश्वसनीयता आदि गुण संजीदगी से समाहित हैं।
अन्य कहानियाँ
देश विभाजन पर लिखे गए उपन्यासों की संख्या भी कम नहीं है। इस विषय पर पहला उपन्यास यशपाल का ‘झूठा सच’ है। इसके बाद भैरव प्रसाद गुप्त का ‘सती मैया का चौरा’, भगवतीचरण वर्मा का ‘वह फिर नहीं आई’, सातवें दशक में अनेक उपन्यास छपे जिसमें ‘आधा गाँव’ और ‘ओस की बूँद’ ( राही मासूम रज़ा) ‘लौटे हुए मुसाफिर’ (कमलेश्वर), ‘तमस’ (भीष्म साहनी) और ‘इंसान मर गया’ (रामानन्द सागर) आदि हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि देश विभाजन और उससे उपजी यंत्रणा हिंदी कहानीकारों और उपन्यासकारों का प्रिय विषय रहा है।
कथानक
‘मलबे का मालिक’ कहानी का कथानक भारत-विभाजन और सांप्रदायिकता के कारण हुई विनाशलीला पर आधारित है। कहानी में वृद्ध मुसलमान गनी मियाँ की आत्मपीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब अब्दुल गनी का परिवार अमृतसर के बाँसा बाजार में रहता था। वह देश के विभाजन से कुछ माह पूर्व लाहौर चला गया था। परंतु उसका बेटा चिरागदीन, पुत्रवधू जुबैदा तथा उनकी दोनों लड़कियाँ किश्वर और सुल्ताना उसके कहने के बावजूद भी नहीं जाते हैं। उन्हें अपने नए मकान का मोह था, जो उन्होंने बड़े चाव से बनाया था। दूसरा, उन्हें रक्खा पहलवान का भरोसा था, जिसके उनके परिवार के साथ बड़े मधुर संबंध थे। कतु विभाजन के साथ ही एक ऐसी विषैली हवा चली कि मानव-मानव का दुश्मन बन गया।
रक्खे पहलवान ने मकान के लालच में चिराग, उसकी पत्नी और बेटियों की हत्या कर दी। लोगों ने घर के सामान को लूट लिया। फिर किसी ने उसमें आग लगा दी। अब केवल वहाँ मकान का मलबा ही शेष रह गया है। रक्खा पहलवान उस मलबे का मालिक बन बैठा है। साढ़े सात वर्ष बाद हॉकी का मैच देखने के लिए लाहौर से अनेक मुसलमान अमृतसर आए थे। उनमें चिरागदीन का पिता अब्दुल गनी भी आया था। हॉकी मैच के बहाने वह अपने घर को देखने आया था। अब्दुल गनी जब बाजार बाँसा के उस वीरान बाजार में आता है और वहाँ की नई और जली हुई इमारतों को देखकर जैसे भूल-भूलैया में पड़ जाता है। इतने वर्षों बाद भी लोगों के मन से विद्वेष की भावना पूरी तरह कम न हुई थी। गनी मियाँ के सामने एक रोते हुए बच्चे को देखकर एक लड़की ने जो कुछ कहा उससे उसके मन में बैठी भावना का पता चलता है, “चुपकर मेरा वीर! रोएगा तो तुझे वह मुसलमान पकड़कर ले जाएगा।” गनी का पुत्र चिरागदीन इसी मुहल्ले का दर्जी था। मनोरी नाम का एक युवक गनी मियाँ को पहचान लेता है और गनी के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे मलबे में बदल चुके उसके मकान को दिखाता है। मोहल्ले का कोई आदमी उसे नहीं बताता कि उसके बेटे और उसके परिवार को मकान हड़पने के लिए रक्खे पहलवान ने मार दिया था। रक्खा पहलवान अब्दुल गनी के घर के मलबे को अपनी जागीर समझता आ रहा था। गनी जब अपनी बाँहें फैलाए रक्खे पहलवान से मिलने को आतुर होता है, तो संवेदनशून्य रक्खे पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देख गनी की बाँहें उसी तरह रह जाती हैं। वह अपने पुत्र और परिवार के कातिल को अपना मित्र समझकर दुआएँ देकर वापस चला जाता है।
पात्र एवं चरित्र चित्रण
पात्र एवं चरित्र चित्रण कहानी का दूसरा प्रमुख तत्त्व होता है। मलबे का मालिक कहानी में पात्रों की संख्या कम है। कहानी में अब्दुल गनी, रक्खा पहलवान मुख्य पात्र हैं। मनोरी और लच्छा गौण पात्र हैं। सभी पात्रों विशेषतः गनी मियाँ और रक्खे पहलवान की मनोदशा को अति सूक्ष्मता से अभिव्यंजित किया गया है। कहानीकार ने रक्खे पहलवान के माध्यम से सांप्रदायिकता के जहर को तथा अब्दुल गनी के माध्यम से मानवीय उदारता को प्रकट किया है। अब्दुल गनी का पूरा परिवार समाप्त हो गया है। उसका रोम-रोम अपने परिवार के लिए रो रहा है। अब वह अपने घर के मलबे का भी मालिक नहीं, बल्कि कोई दूसरा ही (रक्खा पहलवान) अपने-आपको उस मलबे का मालिक समझता है। जिस पर विश्वास हो, वही जब विश्वासघात करे, धोखा दे दे तो कोई कैसे अपने-आपको सुरक्षित रख सकता है? ऐसे समाज-विरोधी तत्त्वों को दंगे आदि द्वारा एक सशक्त माध्यम प्राप्त हो जाता है, अपने स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए। ये ही तत्त्व दंगा भी करवाते हैं। दंगे के मूल में व्यक्ति की घोर स्वार्थपरता ही है, जहाँ वह अपने निहित स्वार्थ के कारण दूसरे के जीवन को तुच्छ समझता है और दंगे के बहाने अपने षड्यंत्र में लिप्त होता है। इस कहानी का मूल स्वर भी यही है, जिसे रक्खे पहलवान के चरित्र में देखा जा सकता है।
प्रस्तुत कहानी के अंत में कुत्ते का रक्खे पहलवान की ओर मुँह करके बारम्बार गुर्राकर भौंकना हत्यारे एवं अपराधी की ओर स्पष्ट संकेत है। लेकिन कहानी के अंत में फिर भी गनी मियाँ दूसरों के लिए अल्लाह से दुआ माँगता है- “अल्लाह तुम लोगों को सेहतमंद रखे! जीते रहो और खुशियाँ देखो।” मनोरी और लच्छा भी कहानी को आगे बढ़ाते हैं। कुत्ता, कौआ और केंचुआ प्रतीकात्मक पात्र हैं।
कहानी शैली समीक्षा
कथानक संक्षिप्त है, जिसे क्रमबद्ध घटनाक्रम से उचित विस्तार प्रदान किया गया है। कथानक में मौलिकता, रोचकता, विश्वसनीयता, प्रवाहमयता, उत्सुकता आदि गुण मिलते हैं। कहानी का आरंभ, मध्य और अंत प्रभावशाली है। कहानी का अंत नई कहानी के अनुरूप है, जो पाठक के समक्ष अनेक प्रश्नों को छोड़ जाता है। अतः कथानक की दृष्टि से मलबे का मालिक एक सफल कहानी कही जा सकती है। जहाँ तक शैली का प्रश्न है, ‘मलबे का मालिक’ कहानी वर्णनात्मक एवं मनोविश्लेषणात्मक शैली में लिखी गई है। कुछ स्थानों पर संवादात्मक शैली का प्रयोग भी हुआ है। कहानी में मूलतः घटनाओं की प्रधानता है किंतु उनका मार्मिक उल्लेख एवं सांवेदनिक वर्णन होने से कहीं भी घटनाओं का विवरण जैसा नहीं लगता, यह कहानी की विशेष सफलता है।
रक्खा पहलवान की मानसिक दशा
गनी मियाँ के बेहिसाब भरोसे और आत्मीयता की अभिव्यक्ति से रक्खा पहलवान के भीतर कुछ ऐसा होता है कि उसके पसीने छूट जाते हैं, मुँह सूख जाता है और रीढ़ की हड्डी को सहारे की जरूरत महसूस होने लगती है। कुल घटनाक्रम इतना ही था कि गनी मियाँ आया था, रोया था और वापस चला गया था लेकिन इतने भर के बीच ऐसा कुछ हुआ है कि गली में पास पड़ोस के रिश्तों के समीकरण बदल गए है। गनी मियाँ के कातर रुदन में गली ने रक्खा पहलवान की ऐसी तस्वीर देखी है जिसने थोड़ी देर के लिए ही सही, उसका रोब और दबदबा खत्म-सा कर दिया है, उसके भय और आतंक को उसके प्रति रोष और असहिष्णुता में बदल दिया है, उनको निडर कर दिया है। रक्खा पहलवान के भीतर भी कुछ बदल-सा आ गया है। मुहल्ले के साथ-साथ खुद रक्खे ने भी अपनी तस्वीर के ऐसे रुख से परिचय पाया है जिसके लिए वह शायद शार्मिन्दा है। लोगों को सट्टे के गुर और सेहत के नुस्खे बताने वाले रोज के सान्ध्य कार्यक्रम की बजाय आज वह अपने शागिर्द लच्छे को अपनी पन्द्रह साल पहले की वैष्णो देवी यात्रा के किस्से सुना रहा है। लेकिन फिर भी यह हृदय परिवर्तन की आदर्शवादी कहानी नहीं, यथार्थ के स्वाभाविक निरूपण की कहानी ही है।
आमना-सामना
कथा का मर्मबिन्दु इस जगह है – गनी मियाँ और रक्खे पहवान का आमना-सामना। गली भर की चेहमेगोइयों को यह उम्मीद और तमन्ना है कि साढ़े सात साल पहले की सपरिवार हत्या और बलात्कार की वह घटना किसी न किसी तरह जरूर गनी तक पहुँच जाएगी, जैसे मलबे को देखकर ही गनी को अपने आप सारी घटना का पता चल जाएगा, हालाँकि पता चल जाने से भी गनी क्या कर लेगा, इस बात की तरफ़ कोई ध्यान या टीका-टिप्पणी इन चेहमेगोइयों में नहीं। उनके भय, आक्रोश और वितृष्णा का पात्र् रक्खा पहलवान है जो ‘बड़ा मलबे का मालिक बनता था! असल में मलबा न इसका है, न गनी का। मलबा तो सरकार कि मिल्कियत है। मरदूर किसी को वहाँ गाय का खूँटा तक नहीं लगाने देता!’’
कहानी में इस उम्मीद का पहला क्षण आशंका का है – रक्खे पहलवान के शागिर्द लच्छे के शब्दों में, ‘अगर मनोरी ने उसे कुछ बता दिया तो?’’ दूसरा क्षण उत्तेजना का – गली वालों को चेहमेगाइयों में, ‘अब दोनों आमने सामने आ गए हैं तो बात जरूर खुलेगी… फिर हो सकता है दोनों में गाली गलौज भी हो….अब रक्खा गनी को हाथ भी नहीं लगा सकता। अब वे दिन नहीं रहे…।’’ तीसरा क्षण थोड़ी निराशा का, ‘…मनोरी भी डरपोक है। इसने गनी को बता क्यों नहीं दिया कि रक्खे ने ही चिराग और उसकी बीबी बच्चों को मारा है।’’
और गनी के चले जाने के बाद भी इन चेहमेगोइयों में यह उम्मीद बाकी है कि मनोरी ने गली से निकल कर गनी को जरूर सब कुछ बता दिया होगा…रक्खा अब किस मुँह से लोगों को मलबे पर गाय बाँधाने से रोकेगा?
इन्हीं गलीवालों में साढ़े सात साल पहले की उस रात के साक्षी भी हैं जिन्होंने अपने दरवाजे बंद करके अपने को उस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था। अपने भय और आतंक से अशक्त लोग आज गनी के आने और चले जाने के बीच जिस किसी तरह उसको असलियत जता देने की कामना में वस्तुतः क्या अभिव्यक्त करना चाहते हैं?
लेकिन गनी को असलियत आखिर तक पता न चलने के बावजूद, या शायद इसी वजह से, रक्खा पहलवान के भीतर कुछ होता है। गनी उसके सामने बैठा है, एक बेदखल बूढ़ा, असहाय, बिना किसी अधिकार या अधिकार के दावे या तेवर के, महज आत्मीयता और भरोसे में, निहत्था और निरीह – ‘खुदा नेक की नेकी बनाए रखे, बद की बदी माफ़ करे। मैंने आकर तुम लोगों को देख लिया, सो समझूँगा कि चिराग को देख लिया। अल्लाह तुम्हें सेहतमन्द बनाए रखे।’’