माँझी न बजाओ बंशी
माँझी ! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता
जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता
माँझी! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता
मेरा प्रन टूटता है जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे बन-बन टूटता
माँझी! न बजाओ बंशी मेरा तन झूमता
मेरा तन झूमता है तेरा तन झूमता
मेरा तन तेरा तन एक बन झूमता
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1911 में बाँदा जिले के कमासिन नामक गाँव में हुआ था इनकी पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद और कानपुर में हुई थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद इन्होंने एल.एल.बी. की पढ़ाई डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर से की। वकालत को उन्होंने अपना पेशा और जीविका का साधन बनाया। उनकी मृत्यु 22 जून, 2000 को हुई।
केदारनाथ अग्रवाल की पहचान प्रगतिवादी कवि के रूप में रही है। ग्रामीण जीवन को व्यक्त करने में उन्हें अद्भुत सफलता मिली है। खेती-बाड़ी, गाँव की प्रकृति, बाँदा के आस-पास का जन-जीवन, केन नदी को आधार बनाकर उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं।
काव्य-संग्रह
युग की गंगा (1947), नींद के बादल (1947), लोक और आलोक (1957), फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965), आग का आईना (1970), गुलमेंहदी (1978), पंख और पतवार (1980), हे मेरी तुम (1981), मार प्यार की थापें (1981), बम्बई का रक्त – स्नान (1981), अपूर्वा (1984), बोल बोल अबोल (1985), आत्म-गंध (1988), अनहारी हरियाली (1990), खुलीं आँखें खुले डैने (1993), पुष्प दीप (1994) अनुवाद – देश-देश की कविताएँ (1970)
काव्य-संकलन
आधुनिक कवि – 16 (1978), कहें केदार खरी-खरी (1983, सं. – अशोक त्रिपाठी), जमुन जल तुम (1984, सं. – अशोक त्रिपाठी), जो शिलाएँ तोड़ते हैं (1986, सं. – अशोक त्रिपाठी), वसन्त में प्रसन्न हुई पृथ्वी (1996, सं.- अशोक त्रिपाठी), कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह (1997, सं.- अशोक त्रिपाठी),
निबन्ध-संग्रह
समय-समय पर (1970), विचार – बोध (1980), विवेक – विवेचन (1981)
उपन्यास – पतिया (1985)
यात्रा-वृत्तान्त – बस्ती खिले गुलाबों की (1975)
पत्र – साहित्य – मित्र-संवाद (1991, सं- रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी)
‘माँझी न बजाओ बंशी…’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य-संग्रह में संगृहीत है।
‘माँझी न बजाओ बंशी’ कविता में कवि का मूल भाव यह है कि लोक कलाओं में गहरी आत्मीयता होती है। उसमें आकर्षित करने की अद्भुत ताकत होती है। उससे जुड़ने की कोशिश मात्र से हम उसमें डूबने लगते हैं। इसी बात को कहने के लिए कवि ने माँझी का यह रूपक गढ़ा है। कवि कहते हैं कि मैं माँझी की वंशी की आवाज से अनासक्त-अप्रभावित रहना चाहता हूँ। मगर ऐसा हो नहीं पाता। वंशी ज्यों-ज्यों बजती है, मैं उसमें डूबता जाता हूँ।
इस लघु कविता के माध्यम से कवि ने यह अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया है कि बेहतरीन कलाएँ कहीं भी हो सकती हैं। भारत के कई राज्यों में वहाँ की सभ्यता और संस्कृति के परिचायक के रूप में गीत-संगीत का जो भंडार है उसमें भी लावण्यता और सुंदरता का प्राचुर्य विद्यमान है। इसे सुन लेने भर मात्र से ही हम इससे आसक्त हो जाते हैं। ये हमारी नज़रें और मन दोनों को चुरा लेने की योग्यता रखता है।
ध्यान दें तो पाएँगे कि राजस्थान के लोकगीत “केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश” और “घूमर” जो राजस्थानी नृत्य गीत हैं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। गुजरात राज्य का ‘गरबा’ गीत – जो नवरात्रि के दौरान नृत्य के साथ गाया जाता है और महाराष्ट्र राज्य का ‘पवाड़ा’ – वीरता और इतिहास से जुड़ा लोक संगीत है, विशेष प्रभाव जमा चुके हैं। अतः, हमें क्षेत्र विशेष या प्रांतीयता से परे अपनी सोच को विस्तृत रखना है।
01
माँझी! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता
जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता
शब्दार्थ –
माँझी – नाविक
बंशी – बाँसुरी
मन डोलना – मन का विचलित होना, प्रभावित होना
जल डोलना – पानी का हिलना-डुलना
जहाज डोलना – नाव या जलयान का हिलना
संदर्भ और प्रसंग
‘माँझी न बजाओ बंशी…’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। यह उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। कवि का विचार है कि कला माध्यमों में इतनी क्षमता होती है कि वह दूसरों को आत्मसात् कर लेती है। माँझी की वंशी की आवाज के साथ कवि का आत्मसातीकरण इस कविता की विशेषता है।
व्याख्या –
इस कविता की उपरोक्त पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी कहते हैं कि माँझी, तुम जब वंशी बजाते हो तो मेरा मन डोलने लगता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम वंशी न बजाओ! तुम जब वंशी बजाते हो तो उसका प्रभाव सबसे पहले मेरे मन पर पड़ता है। तुम्हारी धुन पर मेरा मन धीरे-धीरे डोलने लगता है। मेरा मन वैसे ही डोलता है जैसे गहरे पानी में हलचल होती है। हिलता हुआ पानी इतने बड़े जहाज को भी डोलने को विवश कर देता है। इस दोलन में जहाज पल-पल झूमता ही जाता है। अर्थात् तुम्हारी वंशी की धुन अत्यंत प्रभावशाली है।
02
माँझी! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता
मेरा प्रन टूटता है जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे बन-बन टूटता
शब्दार्थ –
प्रण टूटना – संकल्प या प्रतिज्ञा का भंग होना
तृण टूटना – घास या तिनके का टूटना
निवास टूटना – घर या बसेरे का उजड़ना
संदर्भ और प्रसंग
‘माँझी न बजाओ बंशी…’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। यह उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। कवि का विचार है कि कला माध्यमों में इतनी क्षमता होती है कि वह दूसरों को आत्मसात् कर लेती है। माँझी की वंशी की आवाज के साथ कवि का आत्मसातीकरण इस कविता की विशेषता है।
व्याख्या –
इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि माँझी, मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी वंशी की आवाज से अप्रभावित रहूँ। तुम लोक के कलाकार हो और गवईं शैली की कला तुम्हारी पहचान है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी कला से एकाकार हो जाऊँ ! मगर क्या करूँ, तुम जब वंशी बजाते हो तो मेरी प्रतिज्ञा टूटने लगती है! मेरी प्रतिज्ञा उतनी ही आसानी से टूटती है जैसे घास टूट जाती है या घास-फूस से बनी हुई झोंपड़ी टूट जाती है। बार-बार झोंपड़ी बनाने की तरह मैं भी बार-बार कसम खाता हूँ, मगर मेरी कसम झोंपड़ी की तरह बार-बार टूट जाती है।
03
माँझी! न बजाओ बंशी मेरा तन झूमता
मेरा तन झूमता है तेरा तन झूमता
मेरा तन तेरा तन एक बन झूमता
शब्दार्थ –
तन झूमना – शरीर का आनंद या भावनात्मक रूप से प्रभावित होकर झूमना
एक बन झूमना – प्रेम या एकता में मग्न होकर झूमना
संदर्भ और प्रसंग
‘माँझी न बजाओ बंशी…’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य-संग्रह में संगृहीत है। यह उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। कवि का विचार है कि कला माध्यमों में इतनी क्षमता होती है कि वह दूसरों को आत्मसात् कर लेती है। माँझी की वंशी की आवाज के साथ कवि का आत्मसातीकरण इस कविता की विशेषता है।
व्याख्या
कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी कहते हैं कि माँझी, तुम वंशी मत बजाओ! मेरा मन तो डोल ही रहा था, अब तन भी डोल रहा है। मन का डोलना शायद कोई देख न पाए मगर तन का डोलना तो सबके द्वारा देख लिया जाता है। मैं चाहता नहीं कि तुम्हारी वंशी की धुन के साथ मेरी एकात्मकता को लोग चिह्नित करें! लेकिन क्या किया जाए! अब तो मेरा शरीर वैसे ही झूम रहा है, जैसे तुम्हारा तन झूम रहा है। थोड़ी ही देर में मेरा और तेरा तन मानो एकाकार होकर झूमने लगा है।
यह कविता लोक कला की शक्ति को प्रकट करती है।
सभ्य समाज लोक कला से दूरी रखना चाहता है, मगर उसकी शक्ति से अप्रभावित नहीं रह सकता है।
आज भी लोक धुन पर आधारित गीतों को व्यापक लोकप्रियता मिलती है। कई बार तो शहरी समाज जानता भी नहीं है कि वह जिस धुन को पसंद कर रहा है उसके मूल में कोई लोक धुन है।
25, 24 और 21 मात्राओं की तीन-तीन पंक्तियों के क्रम से इस कविता का निर्माण हुआ है। पूरी कविता में तीन-तीन पंक्तियों के कुल तीन चरण हैं।
केदारनाथ अग्रवाल ने लोक जीवन के संगीत की शक्ति को मनोहर रूप में व्यक्त किया है। उनका ख्याल है कि प्रकृति के करीब रहने वाला जन-जीवन अपने स्वभाव से इतना आत्मीय होता है कि वह दूसरों के मन तक पहुँचने की अपार क्षमता रखता है।
लोकगीत का महत्त्व
भारत में कई लोकगीत अत्यंत प्रसिद्ध हुए हैं, जो विभिन्न राज्यों और संस्कृतियों में अपनी अलग पहचान रखते हैं। ये गीत जीवन, प्रेम, प्रकृति, पर्व, संघर्ष, भक्ति और विरह के भावों को व्यक्त करते हैं।