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नदी के द्वीप, अज्ञेय

Nadi Ke Dweep Ageya The Best Explanation

नदी के द्वीप

अज्ञेय की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से ‘नदी के द्वीप’ एक है। इस कविता में कवि अज्ञेय नदी को समष्टि का और द्वीप को व्यष्टि का प्रतीक मानकर रेखांकित करता है कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति का अस्तित्व एवं महत्त्व है, लघु का, क्षण का महत्त्व है। व्यक्ति समाज की मात्र इकाई नहीं है, अपितु विशिष्ट इकाई है। कवि नदी के बीच में उभरे छोटे-छोटे द्वीपों के माध्यम से अस्तित्ववादी व्यक्ति व्यक्तिनिष्ठ अहं एवं उनकी निजी अस्मिता के गर्व को व्याख्यायित करता हुआ कहता है कि यह द्वीपों का व्यक्तिनिष्ठ अहं ही है जो उन्हें रेत नहीं होने देता, मिट्टी कंकड़ बनकर जल में बहने नहीं देता क्योंकि बहना अपने अस्तित्व को भुलाना है। जबकि अस्तित्ववादी व्यक्ति टूट सकता है, पर अपने अस्तित्व को दूसरे में विलीन नहीं होने देता। वह अपनी रक्षा के लिए जल रूपी जीवन के थपेड़े खाकर भी स्थिर और अचल रहता है। यह स्थिर रहना ही उसकी घोर जिजीविषा का परिणाम है। प्रस्तुत कविता में कवि ने नदी द्वीपों और वृहद् भूखंड में माँ, पुत्र और पिता का संबंध स्थिर किया है।

नदी के द्वीप

हम नदी के द्वीप हैं।

हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय।

वह हमें आकार देती है।

हमारे कोण, गलियाँ, अन्तरीप, उभार, सैकत-कूल,

सब गोलाइयाँ उस की गढ़ी हैं!

माँ है वह है, इसी से हम बने हैं।

शब्दार्थः

द्वीप – टापू।

स्रोतस्विनी – नदी।

अन्तरीप – द्वीप के रूप में उभरा हुआ आकार जिसके तीन ओर जल होता है।

सैकत कूल – रेतीला किनारा।

गढ़ी है – निर्मित हुई है, बनी हुई है।

प्रसंग:

प्रस्तुत काव्यांश कविवर अज्ञेय विरचित काव्य संकलन ‘हरी घास पर क्षण भर’ में संकलित ‘नदी के द्वीप’ प्रतीकात्मक कविता से उद्धृत है। कवि प्रसिद्ध कामशास्त्री फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद से प्रभावित होकर इस कविता में व्यक्ति की इयत्ता (हद, सीमा, कोरम) को स्थापित करते हैं। इसमें नदी समष्टि (समूह) एवं द्वीप व्यष्टि (सदस्य) के प्रतीक रूप में उभरा है।

व्याख्याः

हम नदी के जल में स्थित छोटे-छोटे द्वीप हैं। हमारा निवास स्थान नदी ही है। हम नहीं कहते, हम नहीं चाहते कि नदी की धारा हमें रीता छोड़कर बह जाए अर्थात् परंपरा हमें छोड़कर आगे निकल जाए। नदी के जल की यह धारा ही हमें आकार देती है, स्वरूप प्रदान करती है। यह परंपरा ही तो हमारे चरित्र का निर्माण करती है अर्थात् यह नदी (परंपरा) समष्टि रूपी माँ ही हमारा निर्माण करती है। हमारे किनारे, गलियाँ, भीतरी आकार-प्रकार की अवस्थिति, उभरा रूप, रेतीले किनारे और हमारे गोल घेरे इसी नदी ने निर्मित किए हैं। इसी ने हमें बनाया, सजाया, सँवारा है। यह हमारी माँ है। इसी से हमारा निर्माण हुआ है। जैसे एक माँ अपने रक्त, हड्डियों, मज्जाओं आदि से गर्भस्थ शिशु का रूप निर्माण करती है वैसे ही यह नदी बहकर आ रहे मिट्टी, कंकड़ और बालू से हमारा निर्माण करती है। इसीलिए यह हमारी माँ है अर्थात् समाज ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करता है, उसी में रहकर व्यक्ति का अस्तित्व है। इसीलिए समाज रूपी नदी हमारी माँ है।

विशेष

1. यहाँ ‘नदी’ समष्टि का और ‘द्वीप’ व्यष्टि का प्रतीक है।

2. फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद के अस्तित्ववाद का संदर्भ निरूपित है।

3. प्रयोगवादी जीवन-दर्शन अस्तित्ववाद को आधार भूमि मानता है, यह भी परिलक्षित है।

4. लघु के महत्त्व पर बल है।

5. समष्टि की नदी में व्यक्ति की स्थिति एक द्वीप-सी है; न कि धारा-सी, यह भी कवि बताता है।

6. आत्म-कथात्मक शैली है।

7. द्वीप एवं नदी के बीच पुत्र एवं माता का संदर्भ जुड़ने से मानवीकरण अलंकार विद्यमान है।

किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।

स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के

किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।

हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।

पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जायेंगे।

और फिर हम चूर्ण हो कर भी कभी क्या धार बन सकते?

रेत बन कर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे-

अनुपयोगी ही बनायेंगे।

शब्दार्थ

स्रोतस्विनी – नदी

रेत – बालू

प्लवन – बाढ़

चूर्ण होकर – रेत बनकर

सलिल- पानी

गंदला – गंदा, मैला

अनुपयोगी – Useless

प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश कविवर अज्ञेय विरचित काव्य संकलन ‘हरी घास पर क्षण भर’ में संकलित ‘नदी के द्वीप’ प्रतीकात्मक कविता से उद्धृत है। कवि प्रसिद्ध कामशास्त्री फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद से प्रभावित होकर इस कविता में व्यक्ति की इयत्ता को स्थापित करते हैं। इसमें नदी समष्टि एवं द्वीप व्यष्टि के प्रतीक रूप में उभरा है।

व्याख्या

कवि कहते हैं कि लेकिन हम द्वीप हैं, हम धारा नहीं हैं। अर्थात् हम बहने या बहती चली जाने वाली धारा नहीं है। हम तो स्थिर, सुदृढ़ द्वीप हैं। हम स्वयं में समाज या परंपरा नहीं हैं। हम तो समाज की इकाई हैं किंतु हम विशिष्ट इकाई हैं क्योंकि समाज के प्रति, नदी के प्रति हमारा स्थिर समर्पण है और हमारे अस्तित्व का भी स्थिर समर्पण है। इसीलिए हम बहती जल धारा के, नदी के, परंपरा के द्वीप बने हुए हैं। किंतु, हम नदी की जलधारा के साथ बहते नहीं है, क्योंकि बहना रेत होना है अर्थात् अपने अस्तित्व को विलीन करना है। अगर हम बह गए तो हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। हमारा अस्तित्व खत्म होते ही हमारे पैर उखड़ने लगेंगे, हम बह जाएँगे, ढह जाएँगे। अगर हम बह भी गए, हमारा अस्तित्व छिन्न-भिन्न भी हो गया तो क्या हम पानी की धार बन सकते हैं? नहीं, क्योंकि हम चूर्ण होकर रेत का रूप लेकर अपना वजूद सदा-सदा के लिए खो देंगे। रेत बनकर हम पानी को गंदा ही करेंगे क्योंकि हम पानी नहीं बनेंगे, धार नहीं बनेंगे इसी कारण हम उस पानी को भी अनुपयोगी ही बनाएँगे उसे कोई भी प्रयोग नहीं करेगा।

विशेष

1. कवि का अस्तित्ववादी दर्शन कहता है कि हम द्वीप बेशक बाढ़ के प्रकोप से बह जाए, ढह जाए किंतु अपने अस्तित्व को नदी के जल में विलीन नहीं होने देंगे बल्कि नदी के पानी को गन्दला कर अनुपयोगी ही बनायेंगे अर्थात् रेत के रूप में हम अपने अस्तित्व को विद्यमान रखेंगे।

2. नदी समष्टि का द्वीप व्यष्टि का तथा सलिल शब्द व्यक्ति की आन्तरिक चेतना का प्रतीक उभरा है। चेतना का गंदला होना, कलुषित होना उसे अनुपयोगी ही बनाता है।

3. ‘रेत’ अस्तित्वहीन या शून्य का प्रतीक है।

4. यहाँ अज्ञेय की ‘व्यक्ति – स्वातन्त्र्य’ की खोज उनकी कला – साधना के मूल में कार्यरत है। उनकी यह खोज ‘अरी ओ करूणा प्रभामय’ में भी देखी जा सकती है।  

‘भीड़ों में जब जब जिससे आँखें मिलती हैं

वह सहसा दिख जाता है मानव

अंगारे-सा भगवान-सा अकेला।’

द्वीप हैं हम यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।

हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड़ में।

वह वृहद् भूखंड से हम को मिलाती है।

और वह भूखंड अपना पितर है।

शब्दार्थ

सहसा – अचानक

शाप – श्राप

नियति – भाग्य द्वारा निर्धारित अंतिम परिणति

क्रोड़ – गोद

वृहद् – बहुत बड़े

भूखंड – धरती

पितर – पूर्वज, पिता

प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश कविवर अज्ञेय विरचित ‘हरी घास पर क्षण भर’ में संकलित ‘नदी के द्वीप’ से उद्धृत किया गया है। नदी के द्वीपों का मानना है कि हम किसी के अभिशाप से द्वीप नहीं बने हैं अपितु यह हमारी नियति की अंतिम परिणति है हम अपनी नदी रूपी माँ की गोद में बैठे है और यह नदी हमें भूखंड से मिलाती है जो हमारा पिता है इसी प्रसंग में द्वीपों की आत्मस्वीकृति को व्यक्त करते हुए कवि कहते हैं-

व्याख्या

हम द्वीप हैं हम किसी के अभिशाप से द्वीप नहीं बने हैं यह तो हमारे भाग्य की अंतिम परिणति है अर्थात् किसी के शाप से हम द्वीप बने हों ऐसी बात नहीं है यह हमारे भाग्य में ही लिखा था कि हम नदी के बीच में जन्म लेंगे और नदी द्वारा रेत, मिट्टी एवं कंकड़ आदि से हमारी संरचना और पालन-पोषण होगा हम तो नदी के पुत्र हैं, नदी की गोद में बैठे हैं जिस प्रकार माँ की गोद में शिशु बैठा किलकता है और माँ उसका भरण-पोषण करती है, उसे जन्म देने के बाद उसके पिता से मिलवाती है पिता-पुत्र का संबंध स्थापित करती है उसी प्रकार यह नदी हमारा भरण-पोषण करती है और हमारे पिता रूपी विशाल भूखंड से हमें मिलवाती है अर्थात् जैसे पिता और पुत्र में रक्त का संबंध होता है वैसे ही हमारे और विशाल भूखंड में संबंध है भूखंड में भी रेत, कंकड़, मिट्टी आदि होते हैं और हमारा निर्माण भी रेत, कंकड़, मिट्टी से ही होता है अतः यह भूखंड हमारा पिता है हम इसके पुत्र हैं अर्थात् यह विशाल भूखंड विशाल मानवता है और हम (द्वीप) एक भू-भाग, राष्ट्रीयता, देश एवं समूह के परिचायक हैं।  

विशेष

1. कवि ने नदी, द्वीप, व हद् भूखंड में जो माँ-पुत्र – पिता का संबंध स्थिर किया है उससे काव्य में भावविह्वलता आ गई है।  

2. प्रस्तुत संपूर्ण काव्यांश में रूपक एवं मानवीकरण अलंकार की छवि दर्शनीय है।  

3. भाषा में तत्सम शब्दावली के प्रयोग से लालित्य एवं सौन्दर्य आ गया है।  

4. विशाल मानवता से संस्कार ग्रहण करने की ओर संकेत किया है।  

5. नदी को माँ का रूप मानते हुए संस्कारवाहिनी रूप में उभारा है।  

नदी तुम बहती चलो

भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,

माँजती, संस्कार देती चलो यदि ऐसा कभी हो-

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से, अतिचार से,

तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे –

यह स्त्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय –

तो हमें स्वीकार है वह भी उसी में रेत होकर

फिर छनेंगे हम जमेंगे हम कहीं फिर पैर टेकेंगे कहीं

फिर भी खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार

मातः, उसे फिर संस्कार तुम देना

शब्दार्थ

भूखंड – भू-भाग

दाय – दान, दायित्व देना

आह्लाद – प्रसन्न, आनंद  

मांजती – चमकाती, सुंदर बनाती, सँवारती

संस्कार – सुंदर रूप, शुद्ध करना

स्वैराचार – अनाचार, अभद्र आचरण, स्वेच्छाचार

अतिचार – अत्याचार, अत्यधिक उत्पीड़न

प्लावन – बाढ़

स्रोतस्विनी – नदी

कर्मनाशा – उथल-पुथल करने वाली, जन-धन की हानि करने वाली

कीर्तिनाशा – भयानक बाढ़ के कारण अपयश पाने वाली

काल-प्रवाहिनी – भयानक बाढ़वाली, मृत्यु की भयानक धारा

प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश कविवर अज्ञेय विरचित ‘हरी घास पर क्षण भर’ में संकलित ‘नदी के द्वीप’ से उद्धृत किया गया है। कवि कहते हैं की कभी-कभी नवनिर्माण के लिए विनाश का होना भी आवश्यक है यही बात वे अपने आगे की पंक्तियों में कहते हैं-

व्याख्या

द्वीप नदी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे नदी रूपी माँ, हे जीवन की गतिशीलता, परंपरा की प्रतीक नदी की धारा, तुम निरंतर बहती रहो भूखंड से, पिता से, समाज से जो दान, दायित्व, कर्तव्य हमें मिला है, मिलता रहा है उसे तुम सुंदर रूप प्रदान करती रहो, सँवारती रहो, शुद्ध संस्कारित करती रहो; क्योंकि तुम हमारी माँ हो और माँ संस्कारवाहिनी होती है अर्थात् हमें अपने समाज से, पिता से जो संस्कार मिले हैं उनका तुम शुद्धीकरण करो, उन्हें परिष्कृत, परिमार्जित करो यदि कभी तुम्हारी अपनी ही प्रसन्नता, मादकता से या किसी के अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न से तुम अपने आकार को विस्तृत करो, तुममें भयानक बाढ़ आ जाए और बाढ़ के घरघराते वेग से तुम इस विस्तृत क्षेत्र में भयानक तबाही मचाने लगो और तुम्हारा जल-प्रवाह कीर्तिनाशा, कर्मनाशा का भयंकर प्रवाह बन जाए तो भी हम तुम्हारे इस प्रलयंकारी, भयंकर रूप को भी स्वीकार कर लेंगे अर्थात् तुम्हारा विनाशकारी, ध्वंसकारी बाढ़ रूप भी हमें स्वीकार है इस बाढ़ में हम भी बह जाएँगे हम रेत हो जाएँगे किंतु मौका मिलते ही हम पानी से छनकर अलग हो जाएँगे और तुम्हारी सतह पर जम जाएँगे, हम कहीं-न-कहीं फिर पैर टेकेंगे और उस अज्ञात स्थान पर हमारे व्यक्तित्व का आकार फिर से अस्तित्व में आने लगेगा, अर्थात् पुनः आकार लेगा अतः हमारी मातृ स्वरूपा तुम हमें फिर संस्कार देना, हमारा भरण-पोषण करना, हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करना।

विशेष

1. कवि का घोर अस्तित्ववादी दर्शन कार्यरत है।  

2. द्वीपों का स्थिर रहना अस्तित्ववादी घोर जिजीविषा का ही परिणाम है।  

3. कर्मनाशा, कीर्तिनाशा, काल-प्रवाहिनी जैसे शब्दों ने कथ्य को जीवंत बना दिया है।  

4. तत्सम, तद्भव एवं देशज शब्दों के एक साथ प्रयोग से भाषा प्रवाहमयी, प्रभावशाली और जीवंत हो उठी है।  

5. संपूर्ण पद्य में मानवीकरण अलंकार की छवि विद्यमान है।  

6. द्वीपों के कथन में अहंकारभाव विद्यमान है जो कवि की अस्तित्ववादी चेतना का ही परिणाम है।  

7. ‘शेखर एक जीवनी’ की भाँति कवि की यहाँ भी व्यक्ति स्वातन्त्र्य की खोज है।

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