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नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ का संपूर्ण अध्ययन

Akaal Ke Baad By Nagarjun The Best Exolanation

अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठीं घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए ने खुजलाईं पाँखें कई दिनों के बाद

‘अकाल और उसके बाद’ शीर्षक कविता ‘सतरंगे पंखोंवाली’ 1959 काव्य-संग्रह में संगृहीत है। इस कविता का प्रसंग अकाल की घटना से जुड़ा है। अकाल से बेबस ग्रामीण जीवन के सांकेतिक दृश्य इस कविता में व्यक्त हुए हैं। यहाँ मनुष्य को सामने रखे बगैर अकाल की भयानकता को प्रस्तुत किया गया है। सन् 1943 में बंगाल में एक भयानक दुर्भिक्ष आया था। हो सकता है कि कविता लेखन के दौरान नागार्जुन जी के अवचेतन मन में यह घटना हो जिसकी झलक हमें कविता में मिलती है।    

पंक्तियाँ – 01

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त

कठिन शब्द

चूल्हा – Stove

चक्की – जाँता, हाथ से अनाज पीसनेवाली चक्की

उदास – मायूस

कानी – एक आँख वाली

कुतिया – मादा श्वान

भीत – दीवार

छिपकलियों – Lizards

गश्त – इधर से उधर कदमताल करना

हालत – हालत

शिकस्त – पराजय

व्याख्या

पहली चार पंक्तियों में नागार्जुन बताते हैं कि अकाल का हाल यह है कि कई दिनों तक उस घर में चूल्हा जलने की नौबत नहीं आयी। घर में पकाकर खाने लायक कुछ था ही नहीं! चक्की भी कई दिनों तक उदास रही क्योंकि घर में पीसने के लिए अनाज था ही नहीं! चूल्हा और चक्की को लक्ष्मी मानते हैं। उन्हें पवित्र मानते हैं। मगर अकाल ने ऐसी बेबसी दे दी है कि चूल्हे—चक्की के पास कानी कुतिया रोज सोती रही, मगर उसे हटाने का ख्याल किसी के मन में नहीं आया। ऐसा पहले तो नहीं होता था! जब घर में अनाज ही नहीं था, तब रात में दीया—बत्ती जलाने की नौबत भला कहाँ से आती! इसके लिए तेल की जरूरत थी। तेल की बारी तो अनाज के बाद आती है! दीया—बत्ती नहीं जली तो रात में कीड़े—फतिंगे भी नहीं आए। छिपकलियाँ दीवारों पर कई दिनों तक घूमती रहीं कि खाने के लिए कोई कीड़ा—फतिंगा मिल जाए! लेकिन उन्हें भी निराश होना पड़ा। ऐसी ही स्थिति घर के चूहों की भी रही। वे बार—बार तलाशते रहे कि कहीं कुछ खाने को मिल जाए, मगर उन्हें हार के सिवा कुछ न मिला।

पंक्तियाँ – 02

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठीं घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए ने खुजलाईं पाँखें कई दिनों के बाद

शब्दार्थ

दाने – अनाज

कौए – कौआ

खुजलाईं – Itching

पाँखें – पंख, डैना

व्याख्या

अगली चार पंक्तियों में घर के अंदर अनाज आने के बाद के दृश्य हैं। कई दिनों के बाद घर में कुछ अनाज आया। चूल्हा जल उठा और आँगन से धुआँ उठा। नागार्जुन लिखते हैं कि ‘घर-भर की आँखें’ चमक उठीं। ये आँखें किनकी हैं? ये आँखें कुतिया, छिपकलियों और चूहों की तो हैं ही इन आँखों में वे आँखें भी शामिल हैं जो घर के मनुष्यों की हैं। पूरी कविता में मनुष्यों का जिक्र इन आँखों के माध्यम से ही आया है। सांकेतिकता की ऐसी क्षमता इस कविता को महत्त्वपूर्ण बनाती है। और अंत में नागार्जुन लिखते हैं कि कौए ने कई दिनों के बाद, कुछ जूठन खाकर अपनी चोंच को पोंछने के लिए, अपने पंखों को खुजलाया है!

अकाल पर इतनी सटीक कविता हिंदी साहित्य में कम ही लिखी गई है।

अकाल की भयावहता को भाषा की भयावहता के बिना प्रस्तुत कर देना इस कविता की सफलता है।

शोक का सहारा लिए बगैर यह कविता करुणा का आख्यान रचती है।

यह कविता कुछ घरेलू विवरणों के माध्यम से मनुष्य की त्रासदी को व्यक्त कर रही है।

27 मात्राओं की पंक्तियों से इस कविता का निर्माण हुआ है। 16 और 11 मात्र पर यति है।

अंत में लघु है। यह सरसी छंद है। चौपाई का एक चरण (16 मात्रा) और दोहा का सम चरण (11 मात्रा) मिलाने से सरसी छंद बनता है।

अकाल मनुष्य के जीवन को खतरे में डाल देता है। मनुष्य के आस—पास रहनेवाले जीव—जंतु भी इस भयावह समस्या से ग्रस्त होते हैं।

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