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पानी की प्रार्थना – केदारनाथ सिंह

Paani Ki Prarthana By Kedarnath Singh The Best Explanation

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केदारनाथ सिंह – कवि परिचय

केदारनाथ सिंह (1934-2018) हिंदी के एक प्रमुख समकालीन कवि, लेखक और आलोचक थे, जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ था; उन्होंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर और पीएच. डी. की, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे, और ‘अकाल में सारस’ के लिए ज्ञानपीठ व साहित्य अकादमी पुरस्कारों सहित कई सम्मान प्राप्त किए; उनकी कविताएँ ग्रामीण जीवन, प्रकृति और मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी हैं, जिनमें ‘बाघ’, ‘यहाँ से देखो’, ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’ प्रमुख हैं, और वे अपनी सरल, बिंब-प्रधान भाषा के लिए जाने जाते हैं। 

जन्म और शिक्षा

जन्म: 7 जुलाई, 1934, चकिया गाँव, बलिया, उत्तर प्रदेश.

शिक्षा: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) से हिंदी में एम.ए. (1956) और पीएच.डी. (1964) की उपाधि प्राप्त की।

साहित्यिक जीवन

प्रारंभ: कविता लेखन से शुरुआत की और समकालीन हिंदी कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर बने.

विषय-वस्तु: उनकी कविताओं में गाँव-देहात की सादगी, प्रकृति, सामाजिक यथार्थ, और मानवीय संवेदनाएँ गहराई से झलकती हैं।  

भाषा-शैली: सरल, सहज, बोलचाल की हिंदी और बिंब-विधान (visual imagery) उनकी काव्य-शैली की विशेषता है, जिससे पाठक कविताओं से जुड़ पाते हैं।  

शिक्षण: कई कॉलेजों में पढ़ाने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे।  

प्रमुख काव्य-कृतियाँ

‘अभी बिल्कुल अभी’

‘जमीन पक रही है’

‘यहाँ से देखो’

‘बाघ’ (एक लंबी और महत्त्वपूर्ण कविता)

‘अकाल में सारस’

‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’

प्रमुख सम्मान

ज्ञानपीठ पुरस्कार (2013): ‘अकाल में सारस’ के लिए।

साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989)।

अन्य सम्मानों में व्यास सम्मान, भारत भारती सम्मान आदि शामिल हैं।

निधन

19 मार्च, 2018 को नई दिल्ली में निधन हो गया।

योगदान

उन्होंने हिंदी कविता को आधुनिक भावबोध, ग्रामीण चेतना और बिंब-विधान से समृद्ध किया।

कविता परिचय

यह कविता केवल जल प्रदूषण पर लिखी गई रचना नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण की दुर्दशा, मानव के नैतिक विचलन और पूंजीवादी शोषण की त्रिवेणी के प्रति कवि की गहरी संवेदनशीलता का प्रमाण है। यह पाठकों को अपनी जड़ अर्थात् पानी से कटते जाने के खतरे और वर्तमान समय की विसंगतियों पर सोचने के लिए विवश करती है।

पानी की प्रार्थना

प्रभु,

मैं- पानी – पृथ्वी का

प्राचीनतम नागरिक

आपसे कुछ कहने की अनुमति चाहता हूँ

यदि समय हो तो पिछले एक

दिन का हिसाब दूँ आपको

अब देखिए न

इतने दिनों बाद कल मेरे तट पर

एक चील आई

प्रभु, कितनी कम चीलें

दिखती हैं आजकल

आपको पता तो होगा

कहाँ गईं वे!

पर जैसे भी हों

कल एक वो आई

और बैठ गई मेरे बाजू में

पहले चौंककर उसने इधर उधर देखा

फिर अपनी लम्बी चोंच गड़ा दी मेरे सीने में

और यह मुझे अच्छा लगता रहा प्रभु

लगता रहा जैसे घूँट घूँट

मेरा जन्मांतर हो रहा है एक चील के कंठ में

कंठ से रक्त में

रक्त से फिर एक नई चील में।

फिर काफ़ी समय बाद

दिन के कोई तीसरे पहर

एक जानवर आया हकासा पियासा

और मुझे पीने लगा चभर चभर

इस अशिष्ट आवाज के लिए

क्षमा करें प्रभु

यह एक पशु के आनन्द की आवाज थी

जिससे बेहतर कुछ नहीं था उसके जबड़ों के पास

इस बीच बहुत से चिरई चुरुंग

मानुष अमानुष

सब गुजरते रहे मेरे पास से होकर

बल्कि एक बार तो ऐसा लगा

कि सूरज के सातों घोड़े उतर आए हैं-

मेरे करीब-प्यास से बेहाल

पर असल में जो आया

वह एक चरवाहा था

अब कैसे बताऊँ प्रभु – क्योंकि आपको तो

प्यास कभी लगती नहीं-

कि वह कितना प्यासा था

फिर ऐसा हुआ कि उसने हड़बड़ी में

मुझे चुल्लूभर उठाया

और क्या जाने क्या

उसे दिख गया मेरे भीतर

कि हिल उठा वह

और पूरा का पूरा मैं गिर पड़ा नीचे

शर्मिंदा हूँ प्रभु।

और इस घटना पर हिल रहा हूँ अब तक

पर कोई करे तो भी क्या

समय ऐसा ही कुछ ऐसा है

कि पानी नदी में हो

या किसी चेहरे पर

झाँक कर देखो तो तल में कचरा

कहीं दिख ही जाता है

 

अन्त में प्रभु,

अन्तिम लेकिन सबसे जरूरी बात

वहाँ होंगे मेरे भाई-बन्धु

मंगल ग्रह या चाँद पर

पर यहाँ पृथ्वी पर मैं

यानी आपका मुँहलगा यह पानी

अब दुर्लभ होने के कगार तक

पहुँच चुका है

पर चिन्ता की कोई बात नहीं

यह बाजारों का समय है

और वहाँ किसी रहस्यमय स्रोत से

मै हमेशा मौजूद हूँ

पर अपराध क्षमा हो प्रभु

और यदि मै झूठ बोलूँ

तो जलकर हो जाऊँ राख

कहते हैं इसमें-

आपकी भी सहमति है।

पानी की प्रार्थना – सप्रसंग व्याख्या

01

प्रभु,

मैं- पानी – पृथ्वी का

प्राचीनतम नागरिक

आपसे कुछ कहने की अनुमति चाहता हूँ

यदि समय हो तो पिछले एक

दिन का हिसाब दूँ आपको

 

संदर्भ:

यह कविता कवि केदारनाथ सिंह द्वारा लिखी गई है। यह उनकी प्रसिद्ध कृति ‘पानी की प्रार्थना’ कविता संग्रह में संकलित है। कवि ने इस कविता में ‘पानी’ को एक मानवीकृत पात्र (Persona) बनाकर उसे ‘प्रभु’ अर्थात् ईश्वर से संवाद करते हुए दिखाया है।

 

प्रसंग

कविता में पानी स्वयं को ‘पृथ्वी का प्राचीनतम नागरिक’ बताता है और एक दिन पहले घटी घटनाओं का ब्यौरा ‘प्रभु’ को दे रहा है। यह संवाद प्रतीकात्मक रूप से प्रकृति की दुर्दशा, पर्यावरण संकट, और मानव की स्वार्थपरता को उजागर करता है। पानी यहाँ जीवन का स्रोत होते हुए भी, अपने वर्तमान अस्तित्व के संकट, प्रदूषण, और व्यवसायीकरण पर अपनी व्यथा व्यक्त कर रहा है।

व्याख्या

यहाँ पानी स्वयं को धरती का सबसे पुराना निवासी कहकर ईश्वर से संवाद करता है। वह विनम्रतापूर्वक कहता है कि यदि प्रभु के पास समय हो, तो वह अपने एक दिन का अनुभव सुनाना चाहता है। कविता की ऐसी शुरुआत इस बात का प्रतीक है कि पानी सब कुछ देखता-झेलता है, फिर भी मौन रहता है, पर आज उसके सब्र का बाँध टूट गया है।

02

अब देखिए न

इतने दिनों बाद कल मेरे तट पर

एक चील आई

प्रभु, कितनी कम चीलें

दिखती हैं आजकल

आपको पता तो होगा

कहाँ गईं वे!

 

व्याख्या –

पानी ईश्वर से कहता है कि बहुत समय बाद कल मेरे किनारे पर एक चील आई थी। अब चीलें कम ही मेरे तट पर आती हैं। चीलों का कम दिखना पर्यावरणीय असन्तुलन और जैव-विविधता के ह्रास की ओर संकेत है। पानी ईश्वर से पूछता है कि ये चीलें कहाँ गायब हो गईं — मानो मनुष्य की की गई क्षति पर प्रश्न हो।

03

पर जैसे भी हों

कल एक वो आई

और बैठ गई मेरे बाजू में

पहले चौंककर उसने इधर उधर देखा

फिर अपनी लम्बी चोंच गड़ा दी मेरे सीने में

और यह मुझे अच्छा लगता रहा प्रभु

लगता रहा जैसे घूँट घूँट

मेरा जन्मांतर हो रहा है एक चील के कंठ में

कंठ से रक्त में

रक्त से फिर एक नई चील में।

व्याख्या –

पानी आगे अपने विचित्र अनुभव को ईश्वर से साझा करते हुए कहता है कि कल एक चील बहुत दिनों के बाद ही सही पर उसके पास आ बैठी। वह पानी पीने से पहले यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि यहाँ कोई खतरा तो नहीं है इसलिए चौंकते हुए पहले उसने इधर-उधर देखा। चील पानी के पास बैठकर उसमें अपनी चोंच डुबोती है। यह क्षण पानी के लिए अत्यंत सुखद है। वह महसूस करता है कि उसके जल के एक-एक घूँट से चील को जीवन मिल रहा है, और वह जल चील के कंठ से रक्त तक और फिर एक नई चील के रूप में बदल रहा है। यह जीवन-चक्र की सुंदरता, प्रकृति की पवित्रता और पानी के जीवनदायी महत्त्व को दर्शाता है।

04

फिर काफ़ी समय बाद

दिन के कोई तीसरे पहर

एक जानवर आया हकासा पियासा

और मुझे पीने लगा चभर चभर

इस अशिष्ट आवाज के लिए

क्षमा करें प्रभु

यह एक पशु के आनन्द की आवाज थी

जिससे बेहतर कुछ नहीं था उसके जबड़ों के पास

इस बीच बहुत से चिरई चुरुंग

मानुष अमानुष

सब गुजरते रहे मेरे पास से होकर

व्याख्या

पानी अपने एक दिन के ब्यौरे को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि इस सुखद घटना के काफी समय बाद दिन के कोई तीसरे पहर एक जानवर प्यास से बेहाल होकर पानी पीने आता है। पानी पीने के दौरान वह जानवर ‘चभर चभर’ की आवाज़ उत्पन्न करता है। हालाँकि, पानी इस ‘चभर चभर’ की आवाज़ के लिए ईश्वर से क्षमा माँगता है, पर तुरंत यह भी कहता है कि यह ‘एक पशु के आनन्द की आवाज’ थी। उस समय पानी से बेहतर उस पशु के जबड़ों के लिए और कुछ भी नहीं था। वह जानवर अपनी संतुष्टि का संवरण नहीं कर पा रहा था और उसकी खुशी से ही ‘चभर चभर’ की आवाज़ उत्पन्न हो रही थी। इसके बाद अनेक पशु-पक्षी, सज्जन, दुर्जन पानी पीने की चाह में मेरे समीप आते रहे पर मेरी दयनीय अवस्था को देखकर मेरे पास से गुजर जाते थे। यह संकेत है कि पानी हर जीव के लिए परमावश्यक है — और जीवों की प्यास बुझाना उसकी नियति है। परंतु यही जलाशय आज प्रदूषित हो कारण उनकी प्यास बुझाने में असमर्थ है।

 

05

बल्कि एक बार तो ऐसा लगा

कि सूरज के सातों घोड़े उतर आए हैं-

मेरे करीब-प्यास से बेहाल

पर असल में जो आया

वह एक चरवाहा था

अब कैसे बताऊँ प्रभु – क्योंकि आपको तो

प्यास कभी लगती नहीं-

कि वह कितना प्यासा था

व्याख्या

पानी अपने अनोखे अनुभव को ईश्वर से साझा करते हुए कहता है कि एक पल तो मुझे ऐसा लगा कि प्यास से बेहाल होने के कारण सूरज के सातों घोड़े पानी पीने के लिए पृथ्वी पर उतर आए हैं। ऐसा कहकर पानी प्रचंड गर्मी के मौसम का वर्णन करता है। पानी आगे कहता है कि यह तो मेरा भ्रम था। वास्तव में प्यास से बेहाल एक चरवाहे को ही मैं सूरज के घोड़े समझ बैठा था। वह चरवाहा बहुत ही प्यासा था। उसके प्यास की तीव्रता अवर्णनीय है। मैं आपको प्यास की तीव्रता का सटीक बोध नहीं करा सकता हूँ क्योंकि प्रभु आपको तो कभी प्यास लगती ही नहीं है आप तो सम्पूर्ण हैं। 

 

06

फिर ऐसा हुआ कि उसने हड़बड़ी में

मुझे चुल्लूभर उठाया

और क्या जाने क्या

उसे दिख गया मेरे भीतर

कि हिल उठा वह

और पूरा का पूरा मैं गिर पड़ा नीचे

शर्मिंदा हूँ प्रभु।

व्याख्या

पानी आगे अपनी करुण कथा को व्यक्त करते हुए ईश्वर से कहता है कि हे प्रभु! फिर ऐसा हुआ कि उस चरवाहे ने अपनी प्यास बुझाने के लिए हड़बड़ी में मुझे चुल्लूभर उठाया। वह चरवाहा अत्यधिक प्यास में पानी को अपने चुल्लू में भरकर पीने ही वाला था, कि उसे पानी के ‘भीतर’ कुछ दिख गया जिसके कारण वह हिल उठा और पानी को फेंक दिया। वास्तव में, हे प्रभु! उसे मेरे अंदर अपशिष्ट पदार्थ, प्रदूषण और अपवित्रता दिख गई। यह घटना मेरे लिए गहरी शर्मिंदगी का कारण बनती है। जिस उद्देश्य के लिए मेरा अस्तित्व है मैं उसी की पूर्ति कर पाने सक्षम नहीं रहा। यह पानी के अस्तित्व के मलिन होने का संकेत है।

 

07

और इस घटना पर हिल रहा हूँ अब तक

पर कोई करे तो भी क्या

समय ऐसा ही कुछ ऐसा है

कि पानी नदी में हो

या किसी चेहरे पर

झाँक कर देखो तो तल में कचरा

कहीं दिख ही जाता है

व्याख्या –

पानी ईश्वर से आगे कहता है कि चरवाहे द्वारा मेरा त्याग किया जाना मुझे अंदर से झकझोरता है। मुझमें ग्लानि भाव भर देता है। परंतु, हे प्रभु! यह सिर्फ मेरा दोष नहीं है, बल्कि यह वर्तमान समय की कठोर सच्चाई है कि पानी चाहे नदी में हो या इनसान के आँसुओं में — भीतर झाँकने पर हर जगह ‘कचरा’ दिखता ही है। यहाँ कचरा केवल भौतिक प्रदूषण नहीं, बल्कि मानव-मन का प्रदूषण, स्वार्थ, बेईमानी और नैतिक अवनति का भी प्रतीक है।

08

अन्त में प्रभु,

अन्तिम लेकिन सबसे जरूरी बात

वहाँ होंगे मेरे भाई-बन्धु

मंगल ग्रह या चाँद पर

पर यहाँ पृथ्वी पर मैं

यानी आपका मुँहलगा यह पानी

अब दुर्लभ होने के कगार तक

पहुँच चुका है

व्याख्या

अब पानी ईश्वर से अपनी सबसे बड़ी चिंता बताता है और कहता है कि भले ही विज्ञान अन्य ग्रहों पर जैसे मंगल और चाँद पर पानी की खोज कर रहा हो और यह मुमकिन भी है कि मेरे बंधुगण अर्थात् जल के स्रोत वहाँ मौजूद हों लेकिन मैं आपका मुँहलगा अर्थात् प्रिय पत्र पृथ्वी पर ‘दुर्लभ होने के कगार’ पर हूँ। यहाँ जलसंकट की ओर स्पष्ट संकेत देखने को मिलता है।

09

पर चिन्ता की कोई बात नहीं

यह बाजारों का समय है

और वहाँ किसी रहस्यमय स्रोत से

मै हमेशा मौजूद हूँ

पर अपराध क्षमा हो प्रभु

और यदि मै झूठ बोलूँ

तो जलकर हो जाऊँ राख

कहते हैं इसमें-

आपकी भी सहमति है।

व्याख्या

कविता की अंतिम पंक्तियों में पानी तीखा व्यंग्य करते हुए कहता है मैं अस्तित्वहीन कभी भी नहीं होऊँगा क्योंकि यह बाजारों का समय है। भले ही वह प्राकृतिक स्रोतों में सूख रहा हो, पर ‘किसी रहस्यमय स्रोत से’ बोतलबंद पानी के रूप में वह बाजार में हमेशा उपलब्ध है। यह टिप्पणी जल के व्यवसायीकरण और उसे एक वस्तु (Commodity) में बदल दिए जाने पर कवि का तीखा व्यंग्य है। यहाँ पानी कहता है कि अगर वह झूठ बोल रहा हो तो ‘जलकर राख हो जाए’। यह एक बहुत बड़ा विरोधाभास है—पानी स्वयं कभी जलकर राख नहीं हो सकता। आज पानी की जो दुर्दशा हुई है उसके ज़िम्मेदार ईश्वर भी हैं। पानी ने तो यह वाक्य कहकर ईश्वर को भी कठघरे में ला खड़ा किया। ये तो सामान्य-सी बात है कि जब-जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है तो ईश्वर किसी न किसी रूप में अवतार लेकर धर्म की स्थापना करते हैं परंतु आज पानी विलुप्तप्राय हो रहा है और ईश्वर चुप्पी साधे हुए हैं। 

काव्य सौष्ठव – भाव सौंदर्य

पर्यावरण चेतना की मार्मिक अभिव्यक्ति – कविता का मूल भाव जल संकट और पर्यावरण प्रदूषण की पीड़ा को व्यक्त करता है। पानी स्वयं अपनी व्यथा सुनाता है कि वह अब दुर्लभ हो चुका है और उसके भीतर कचरा दिखाई देने लगा है। यह दर्द पाठकों को गहराई तक छूता है।

प्रकृति और जीवन का उदात्त चित्रण – चील और प्यासे पशु के पानी पीने के दृश्यों में जीवन-चक्र की पवित्रता और प्रकृति के प्रति पानी के प्रेम का चित्रण बहुत ही उदात्त है। पानी का यह महसूस करना कि उसका ‘जन्मांतर’ हो रहा है, जीवन देने की उसकी महत्ता को स्थापित करता है।

नैतिक पतन पर कटाक्ष – पानी के भीतर ‘कचरा’ दिखने की बात को मानवीय चरित्र के कचरे से जोड़कर कवि ने समकालीन समाज के नैतिक और चारित्रिक पतन पर गहरा और प्रभावी व्यंग्य किया है।

बाज़ारवाद पर तीखा व्यंग्य – पानी का यह कहना कि वह अब प्राकृतिक स्रोतों में दुर्लभ है, पर बाज़ारों में ‘रहस्यमय स्रोत’ से हमेशा मौजूद है, जल के व्यवसायीकरण पर सीधा और कड़वा व्यंग्य है।

शिल्प सौंदर्य –  

भाषा और शैली

संवादात्मक शैली – कविता की पूरी संरचना एक संवाद अर्थात् पानी और प्रभु के बीच के रूप में है, जो इसे अत्यंत जीवंत और नाटकीय बना देती है। संबोधन शैली (प्रभु) का प्रयोग श्रद्धा और विश्वास का भाव जगाता है।

लोक भाषा का सहज प्रयोग

कवि ने अपनी भाषा में लोक-जीवन से जुड़े शब्दों का सहज प्रयोग किया है, जिससे कविता में एक मिट्टी की सुगंध और आत्मीयता आ जाती है:

‘हकासा पियासा’ (बहुत भूखा और प्यासा)

‘चभर चभर’ (पानी पीने की अशिष्ट लेकिन प्राकृतिक ध्वनि)

‘चिरई चुरुंग’ (पशु-पक्षी)

‘मुँहलगा’ (प्रिय/पास का सेवक)

अलंकार

मानवीकरण (Personification) – यह कविता का मुख्य अलंकार है, जहाँ पानी को ‘प्राचीनतम नागरिक’ बनाकर उसे सजीव पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो बोलता है, महसूस करता है और शर्मिंदा होता है।

उपमा और अतिशयोक्ति – चरवाहे की प्यास की तुलना ‘सूरज के सातों घोड़े’ से करना उपमा और अतिशयोक्ति का सुंदर मिश्रण है, जो प्यास की तीव्रता को दर्शाती है।

पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार – ‘घूँट घूँट’, ‘चभर चभर’ में ध्वन्यात्मकता और प्रभाव पैदा करने के लिए पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।

बिम्ब और प्रतीकात्मकता

दृश्य बिम्ब – ‘चील का चोंच गड़ाना’, ‘जानवर का चभर चभर पीना’, ‘चुल्लूभर पानी उठाना’ और ‘तल में कचरा दिखना’ जैसे स्पष्ट दृश्य बिम्ब कविता को पठनीय और हृदयग्राही बनाते हैं।

प्रतीक विधान –

चील: पवित्रता, दुर्लभता।

कचरा: प्रदूषण, नैतिक अपकर्ष।

बाज़ार: व्यवसायीकरण, शोषण।

विरोधाभास और व्यंग्य

“मैं हमेशा मौजूद हूँ” – यहाँ ‘मौजूद’ होना प्राकृतिक उपलब्धता नहीं, बल्कि बाज़ार की कृत्रिम उपलब्धता को दर्शाता है।

“यदि मै झूठ बोलूँ तो जलकर हो जाऊँ राख” – यह कथन (जल का राख होना) अपनी चरम विडम्बना (Irony) के माध्यम से सत्य को और अधिक प्रभावशाली बना देता है, क्योंकि पानी कभी जल नहीं सकता।

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